आरक्षण समर्थक अनेक सामाजिक कार्यकर्ता, कई राजनीतिक समूह और कुछ सार्वजनिक बुद्धिजीवियों का कहना है कि आरक्षण का पूरा आइडिया खतरे में है और ऐसा केंद्र की मौजूदा सरकार की वजह से है। चूंकि सरकार हर सेवा का निजीकरण करती जा रही है इसलिए आरक्षण की व्यवस्था अपने आप खत्म हो जाएगी। सवाल है कि सरकार क्या आरक्षण खत्म करने के लिए ही निजीकरण कर रही है या वह अपने एक सिद्धांत के तौर पर निजीकरण की ओर बढ़ रही है और उस क्रम में आरक्षण की व्यवस्था कमजोर हो रही है? इस सवाल को इस तरह से भी रखा जा सकता है कि सरकार आरक्षण खत्म करने के लिए एफर्मेटिव एक्शन ले रही है या आरक्षण उसकी नीतियों का कोलेटरल विक्टिम है?
ऐसा लग रहा है कि भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार जान बूझकर आरक्षण खत्म नहीं कर रही है। वह सैद्धांतिक रूप से आरक्षण विरोधी नहीं है पर वह इसका स्वाभाविक रूप से समर्थन भी नहीं करती है। इस बात के संकेत राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के बड़े पदाधिकारियों के समय समय पर दिए बयानों में देखे जा सकते हैं। जैसे बिहार के पिछले विधानसभा चुनाव के समय आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा का बयान दिया था। असल में संघ और भाजपा का भी एक बड़ा हिस्सा ऐसा है, जो जाति आधारित आरक्षण के सिद्धांत की समीक्षा चाहता है और इसे तर्कसंगत बनाना चाहता है।
जो लोग आरक्षण को एक क्रांतिकारी विचार मानते रहे हैं वे इसका विरोध करते हैं। उनको लग रहा है कि तर्कसंगत बनाने के नाम पर एक बार बहस शुरू हुई तो इस विचार को ही चुनौती मिलने लगेगी और तब इसे बचाना मुश्किल हो जाएगा।
सो, इस ‘क्रांतिकारी विचार’ के समर्थक न तो इसकी समीक्षा चाहते हैं और न इसे तर्कसंगत बनाने का समर्थन करते हैं। पर मुश्किल यह है कि राजनीतिक रूप से उनकी ताकत इतनी कमजोर हो गई है कि वे इस पर होने वाले हमले का प्रभावी विरोध नहीं कर पा रहे हैं। मंडल की राजनीति से निकलीं और आरक्षण के मसले पर फली-फूली पार्टियां समय के साथ कमजोर हो गई हैं। उनकी ताकत घट गई है या वे भाजपा के ऊपर ही निर्भर हो गए हैं। बिहार में 2015 के विधानसभा चुनाव के समय चूंकि मंडल राजनीति से निकली दोनों पार्टियां- राजद और जदयू साथ थे और उनको कांग्रेस का भी साथ मिला हुआ था तो उन्होंने आरक्षण की समीक्षा के बयान को मुद्दा बना दिया और चुनाव जीत लिया पर उसके बाद अचानक जदयू के नेता नीतीश कुमार फिर भाजपा के साथ चले गए। सो, अगर अब फिर जाति आधारित आरक्षण को कमजोर किए जाने का मुद्दा उठता है तो अकेले राजद इसे चुनौती देने की स्थिति में नहीं है। यहीं स्थिति उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की भी है। इसका यह भी मतलब है कि अब सिर्फ आरक्षण अपने आप में एक मुद्दा नहीं रह गया है। राजनीतिक संदर्भ में देखें तो यह कई और चीजों के साथ जुड़ गया है, जिसमें नेता की छवि, उसका कामकाज, उसकी ईमानदारी आदि चीजें शामिल हो गई हैं। अगर आरक्षण अपने आप में मुद्दा होता तो लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव या अखिलेश यादव और मायावती इस मुद्दे को भुना लेते।
सो, आरक्षण आंदोलन से निकली पार्टियों या आरक्षण समर्थक नेताओं के कमजोर होने से एक विचार के तौर पर जाति आधारित आरक्षण को चुनौती देना आसान हो गया है। तभी आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए दस फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया या सुप्रीम कोर्ट ने प्रमोशन में आरक्षण के बारे में कहा कि यह मौलिक अधिकार नहीं है तो इसे लेकर कोई बड़ा आंदोलन नहीं हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने ही जब अनुसूचित जाति, जनजाति उत्पीड़न रोकथाम कानून में बदलाव किया था तब पूरे देश में आंदोलन हो गया और मजबूरी में सरकार को अध्यादेश के जरिए सर्वोच्च अदालत का आदेश पलटना पड़ा। पर आरक्षण के मामले में हो रहे फैसलों में ऐसा नहीं हो रहा है। यह भी इस बात का संकेत है कि आरक्षण के दायरे में आने वाली जातियों का महत्व तो कायम है पर आरक्षण की समर्थक पार्टियां कमजोर हुई हैं।
इसलिए आरक्षण के प्रति सरकार के सरोकारों से पहले निजीकरण के उसके प्रयासों को देखना होगा। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार निजीकरण के लिए प्रतिबद्ध है। उसके कई मंत्रियों ने यह फैंसी लाइन बोली है कि ‘बिजनेस में रहना सरकार का बिजनेस नहीं है’। सरकार हर तरह के बिजनेस से बाहर हो रही है। वह रेलवे का निजीकरण कर रही है। डेढ़ सौ जोड़ी ट्रेनें निजी कंपनियां चलाएंगी और बड़ी संख्या में स्टेशन निजी हाथों में दिए जा रह हैं। जिस दिन एयर इंडिया बिक जाएगा उस दिन विमानन सेक्टर का सौ फीसदी निजीकरण हो जाएगा। तब तक सरकार सारे हवाईअड्डे भी निजी हाथों में दे देगी। कोयला सहित खनन का पूरा सेक्टर निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया है। संचार के क्षेत्र में दोनों सरकारी कंपनियों का बंद होना महज वक्त की बात है। पेट्रोलियम सेक्टर में बीपीसीएल को बेचने का ऐलान कर सरकार ने उससे बाहर निकलने की शुरुआत कर दी है और सरकारी बैंकों का निजीकरण किया जाने वाला है।
सरकार ऐसा इसलिए कर पा रही है क्योंकि हर सेक्टर में मजदूर संगठन लगभग पूरी तरह से खत्म हो चुके हैं और आरक्षण समर्थक ताकतें कमजोर हो गई हैं। इसलिए न निजीकरण को लेकर कोई आंदोलन होना है और न आरक्षण के आइडिया के दम तोड़ने को लेकर कोई प्रतिकार किया जाना है। अब सवाल है कि वोट का क्या होगा? आरक्षण के दायरे में आने वाली जातियों की संख्या बहुत बड़ी है और उनका वोट सबके लिए अहम है। सो, अगर सरकारी कंपनियों का निजीकरण होने से आरक्षण की व्यवस्था दम तोड़ रही है तो क्या इस वोट बैंक के लिए सरकार निजी क्षेत्र में आरक्षण का दांव चल सकती है? लंबे समय से इसकी मांग हो रही है कि अब चूंकि सरकारी नौकरियां खत्म हो रही हैं और निजी सेक्टर तेजी से आगे बढ़ रहा है तो निजी सेक्टर में आरक्षण लागू किया जाए। हालांकि ऐसा करना आसान नहीं होगा क्योंकि निजी कंपनियां इसका विरोध करेंगी। वे आरक्षण की बजाय मेरिट को प्राथमिकता देने पर अड़ी रहेंगी। हालांकि मेरिट एक सब्जेक्टिव सी चीज है और इस मेरिट के नाम पर आरक्षण का विरोध करने वालों ने भी कोई बड़े झंडे नहीं गाड़े हैं। सब नौकरी ही कर रहे हैं।

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