राजस्थान में फिलहाल सत्ता के लिए संघर्ष का नज़ारा दिख रहा है।देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के अनुभवी और युवा नेताओं के बीच रस्साकशी चल रही है।
जयपुर। राजस्थान में फिलहाल सत्ता के लिए संघर्ष का नज़ारा दिख रहा है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के अनुभवी और युवा नेताओं के बीच रस्साकशी चल रही है। सचिन पायलट समेत कांग्रेस के 19 विधायकों ने प्रदेश नेतृत्व में अविश्वास जताया है। बहुमत को लेकर एक-दूसरे कैम्प के अलग-अलग दावे हो रहे हैं, लेकिन शह और मात के इस खेल में बाजी किसके हाथ लगेगी? यह तो भविष्य के गर्भ में है। ऐसा भी नहीं है कि राजस्थान में सत्ता के लिए ऐसा संघर्ष पहली बार दिखा हो। इससे पहले भी राजस्थान में सत्ता के लिए तीन बार बड़े संघर्ष हुए हैं।
राजस्थान वीरों की धरती है। इस धरती को त्याग और बलिदान की धरती कहा जाता है, लेकिन यहां त्याग के साथ ही सत्ता की लालसा भी कई बार दिखी है। मौजूदा घटनाक्रम से पहले भी तीन बार प्रदेश के लोकतांत्रिक इतिहास में सत्ता के लिए बड़े संघर्ष दिख चुके हैं। इससे पहले की लड़ाई अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों के बीच दिखी है।
सबसे पहले बात करते हैं साल 1967 में हुए संघर्ष की जब इस लड़ाई में गोली तक चल गई। बात 1967 की है। प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे आए तो 184 सदस्यों वाली विधानसभा में किसी भी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस पार्टी 89 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी ज़रूर बनी, लेकिन वह भी बहुमत से तीन सीट कम पर ही अटक गई। उस वक्त स्वतंत्र पार्टी को 48, जनसंघ को 22 और सोशलिस्ट पार्टी को 8 सीटें मिली थी।
सरकार बनाने के लिए कांग्रेस पार्टी ने दावा पेश किया तो स्वतंत्र पार्टी, जनसंघ और सोशलिस्टपार्टी ने भी निर्दलीय विधायकों के सहयोग से सरकार बनाने का दावा ठोक दिया। फैसला राज्यपाल संपूर्णानंद को करना था। सत्ताधारी पार्टी की तरफ़ से मोहनलाल सुखाड़िया मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे, तो विपक्ष की तरफ से लक्ष्मण दिग्विजय सिंह। राजभवन सत्ता-संघर्ष का केन्द्र बना हुआ था। कांग्रेस का नेतृत्व सुखाड़िया, जबकि विपक्षी खेमे का नेतृत्व भैरोंसिंह शेखावत, लक्ष्मण सिंह और गायत्री देवी कर रहे थे।
दो-तीन दिन तक राजनीतिक गहमा-गहमी चलती रही। विपक्ष का दावा था कि बहुमत के बावजूद राज्यपाल उनको सरकार बनाने के लिए आमंत्रित नहीं कर रहे। विपक्ष ने इसके विरोध में रैली की। जयपुर के जौहरी बाजार में विपक्ष के कार्यकर्ता उग्र हुए तो पुलिस को गोली चलानी पड़ी। इस फायरिंग में एक व्यक्ति की जान भी चली गई। दो-तीन दिन तक चली गहमा-गहमी के बाद राज्यपालने कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर लिया और मोहनलाल सुखाड़िया ने चौथी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
सत्ता की लड़ाई का दूसरा बड़ा दौर साल 1990 में दिखा। तब बीजेपी और जनता दल की सरकार के मुखिया भैरोंसिंह शेखावत थे। मार्च में सरकार बनी थी। अक्टूबर में बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा को रोक कर बिहार के मुख्यमंत्री लालू यादव ने उन्हें गिरफ्तार करवा दिया तो बीजेपी ने देशभर में विरोध प्रदर्शन किए। जयपुर में बीजेपी के विरोध प्रदर्शन के दौरान साम्प्रदायिक हिंसा भड़क गई। टकराव और आगजनी की वारदातें हुई। पुलिस फायरिंग हुई और कर्फ्यू लगाना पड़ा। इस हिंसा के विरोध में जनता दल ने शेखावत सरकार से समर्थन वापस ले लिया।
बीजेपी के पास तब 85 विधायक थे और जनता दल के पास 55 विधायक। जनता दल की तरफ़ से समर्थन वापस लेते ही शेखावत सरकार अल्पमत में आ गई। कांग्रेस और जनता दल दोनों ही भैरोंसिंह शेखावत से इस्तीफा मांगने लगे। तब जनता दल नेता दिग्विजय सिंह ने पार्टी से बगावत कर दी और 25 विधायकों के साथ जनता दल(दिग्विजय) नाम से अलग पार्टी बनाकर शेखावत को समर्थन दे दिया। तब एक सप्ताह तक प्रदेश में विधायकों की जोड़-तोड़ का खेल खेला गया। बाड़ेबंदी भी हुई और प्रदर्शन भी। आखिर शेखावत अपनी सरकार को बचाने में कामयाब रहे।
दूसरे और तीसरे सत्ता-संघर्ष में महज दो साल का अन्तर ही रहा
साल 1990 में भैरोंसिह शेखावत ने अपनी सरकार बचा ली, लेकिन इसके दो साल बाद ही राजस्थान में सत्ता के लिए तीसरा संघर्ष दिखा और इसका कारण बना बाबरी मस्जिद का विध्वंस। सन् 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा गिराये जाने के बाद राजस्थान में सरकार भी ध्वस्त होती दिखी। दरअसल, ढांचा गिराये जाने के बाद केन्द्र ने भैरोंसिंह शेखावत की सरकार को बर्खास्त कर दिया। दस महीने के राष्ट्रपति शासन के बाद नवम्बर 1993 में विधानसभा चुनाव हुए। नतीजे आए तो किसी दल को बहुमत नहीं मिला।
बीजेपी 95 सीटें लेकर सबसे बड़े दल के रूप में उभरी लेकिन बहुमत से 6 सीटें दूर थी। कांग्रेस को 76 सीटें मिली थी। निर्दलीयों को 21 जगह जीत मिली थी। शेखावत ने तब निर्दलीयों की मदद से सरकार बनाने का दावा पेश किया। 76 सीटों के बावजूद भी कांग्रेस सरकार बनाने की जोड़-तोड़ में जुट गई। हरियाणा के मुख्यमंत्री ने जयपुरम में डेरा डाल दिया। विधायकों की खरीद-फरोख्त का खेल शुरू हो गया। बीजेपी ने राजभवन के सामने विधायकों की परेड कराई, धरना भी दिया। बीजेपी नेता लालकृशष्ण आडवाणी भई जयपुर आए। सात दिन तक जयपुर में सरकार बनाने की जोड़-तोड़ चलती रही। आखिर दबाव बढ़ा तो राज्यपाल बलिराम भगत ने सरकार बनाने के लिए शेखावत को आमंत्रित किया।
इस तरह राजस्थान में सत्ता के लिए हुए तीन संघर्ष में से दो में बीजेपी जबकि एक में कांग्रेस के हाथ बाजी लगी, लेकिन इन संघर्षों की खास बात यह थी कि यह अलग-अलग पार्टियों के बीच थे। जबकि इस बार कांग्रेस में ही असंतुष्ट धड़े ने सरकार में अविश्वास जताते हुए अपनी ही सरकार के खिलाफ़ बगावत का झण्डा उठाकर सरकार को संकट में डाल दिया। अभी तक दोनों खेमे अपने-अपने दावे कर रहे हैं, लेकिन इस दावे को साबित करने की हिम्मत भी कोई नहीं जुटाता दिख रहा।

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