उत्तर प्रदेश में गैंगस्टर विकास दुबे की तलाश में पुलिस की दर्जनों टीमें लगाई गई हैं, सैकड़ों फोन नंबर्स को सर्विलांस पर लगाया गया है। मगर अब तक उसे पकड़ा नहीं जा सका है। इस बीच उसके कई सहयोगियों को पुलिस ने कथित मुठभेड़ में मार गिराया है। साथ ही विकास दुबे का मकान भी गिरा दिया गया। किन इन मामलों से यूपी पुलिस कठघरे में खड़ी दिखती है। पुलिस की इन कार्रवाइयों की सोशल मीडिया पर भी काफी आलोचना हुई है। यह सवाल पूछा गया है कि विकास दुबे का पैतृक मकान किस वजह से तोड़ा गया? क्या वह अवैध तरीके से बना था? इसके कोई प्रमाण पुलिस के पास नहीं हैं। ना ही किसी तरह का कोर्ट का नोटिस इस संबंध में था। इसे राज्य सरकार की मनमानी कार्रवाई माना गया है, जिसका कोई कानूनी आधार नहीं था। इस बीच कानपुर में हुई इस मुठभेड़ के बाद राजनीति, पुलिस और माफिया के गठजोड़ की बहस एक बार फिर शुरू हो गई है। विकास दुबे के जिस तरह से सभी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं और बड़े अधिकारियों के साथ संबंध उजागर हो रहे हैं, वो इस बहस को और हवा दे रहे हैं।
दरअसल न सिर्फ विकास दुबे, बल्कि इस तरह के न जाने कितने कथित माफिया और अपराधी हैं जो राजनीतिक दलों से संबंध रखते हुए अपराध के माध्यम से आर्थिक समृद्धि हासिल करते रहे हैं। वो राजनीतिक दलों को भी लाभ पहुंचाते रहे हैं। वास्तव में राजनीतिक दलों में ऐसे तत्वों की मौजूदगी और इनकी उपयोगिता किसी से छिपी नहीं है। यूपी में तो ऐसे लोगों की राजनीति में सक्रिय भागीदारी भी रही है। यूपी की मौजूदा विधानसभा में भी ढेरों मुकदमों का सामना करने वाले लोग चुनाव जीतकर पहुंचे हैं। ऐसे लोग सभी पार्टियों में हैं। ये आम जानकारी है कि न सिर्फ राजनीतिक पहुंच, बल्कि पुलिस महकमे में भी अपराधियों की न सिर्फ पहुंच होती है बल्कि गठजोड़ रहता है। विकास दुबे का बिकरू गांव जिस चौबेपुर थाने के तहत आता है, उसके सभी पुलिसकर्मियों पर इस आशंका में कार्रवाई हुई है कि उन्होंने विकास दुबे का साथ दिया। इसके अलावा अंगलियां कानपुर के तत्कालीन एसएसपी पर भी उठी हैं। यानी नेता- पुलिस- अपराधी गठजोड़ के जारी नेटवर्क पर एक बार फिर रोशनी पड़ी है। मगर ये नेटवर्क इतना मजबूत है कि इस पर विराम लगने की आशा किसी को नहीं है।

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