सोमवार, 20 जुलाई 2020

दलबदल की नई व्याख्या जरूरी

भारत में दलबदल को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है क्योंकि 1985 में बहुत सोच विचार के बाद दलबदल का जो कानून बना था और फिर 2003 में उसके जो बदलाव किया गया था उससे बच निकलने का रास्ता पार्टियों और नेताओं ने खोज निकाला है। दसवीं अनुसूची में दलबदल का जो कानून दर्ज है, उसे अब पार्टियों और विधायकों-सांसदों ने लगभग बेकार कर दिया है। तभी अब जरूरत है कि 1985 में बने कानून की नए सिरे से व्याख्या हो और बदली ही परिस्थितियों के मुताबिक उसमें जरूरी बदलाव किए जाएं।

राजीव गांधी की सरकार ने 1985 में पहली बार दलबदल विरोधी कानून बनाया था। संविधान के 52वें संशोधन के जरिए बनाए गए दलबदल कानून को दसवीं अनुसूची में रखा गया।  इस कानून में विधायकों और सांसदों को अयोग्य ठहराने के कई प्रावधान किए गए। विधायकों और सांसदों के दलबदल को एक ही स्थिति में जायज ठहराया गया है, जब एक पार्टी का दूसरी पार्टी में विलय हो जाए और पहली पार्टी के दो-तिहाई सांसद इस विलय का समर्थन करें। इसके अलावा बाकी हर स्थिति में दलबदल कानून लागू होगा। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय 2003 में इसमें एक संशोधन किया गया, जिसमें यह प्रावधान शामिल किया गया कि अगर किसी पार्टी के एक-तिहाई विधायक या सांसद टूट कर अलग गुट बना लेते हैं तो उन्हें मान्यता मिल जाएगी। पर जल्दी ही इसका ऐसा दुरुपयोग होने लगा, जिसकी वजह से इस प्रावधान को वापस ले लिया गया और अब सिर्फ 1985 में दो-तिहाई समर्थन का जो प्रावधान शामिल किया गया था वहीं मौजूद है।

यह कानून उस समय की जरूरतों के मुताबिक बनाया गया था। भारत में छठे-सातवें दशक में विधायकों और सांसदों की दलबदल शुरू हो गई थी पर तब यह विशुद्ध रूप से राजनीतिक और वैचारिक था। राजनीतिक व वैचारिक मतभेद की वजह से पार्टियां टूटती थीं या नेता पार्टी छोड़ते थे। एक अनुमान के मुताबिक 1967 और 1971 के आम चुनाव के समय देश भर में करीब चार  हजार सांसद और विधायक जीते थे, जिनमें से आधे लोगों ने दलबदल किया था। पर तब इसे रोकने के किसी कानून की जरूरत नहीं महसूस हुई। लेकिन सातवें दशक के आखिर में और आठवें दशक की शुरुआत में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं और आयाराम-गयाराम की मिसाल बनी कि दलबदल कानून की जरूरत गंभीरता से महसूस की जाने लगी। 

अब एक बार फिर देश में दलबदल कानून को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है। असल में पिछले दो दशक में पार्टियों और नेताओं ने दलबदल का नया तरीका निकाल लिया है। इस तरीके में पार्टियों के नेता पार्टी छोड़ने के साथ ही विधायकी या सांसदी से भी इस्तीफा दे देते हैं। यह एक तरह की उच्च नैतिकता का परिचायक है। आजादी के तुरंत बाद जब समाजवादी विचारधारा के नेताओं ने कांग्रेस छोड़ी थी तब उन्होंने भी संविधान सभा की अपनी सीट से इस्तीफा देकर नैतिकता का बड़ा मानक तय किया था। बहुत बाद में अस्सी के चुनाव के बाद जब हेमवती नंदन बहुगुणा कांग्रेस से बागी हुए तो दलबदल कानून नहीं होने के बावजूद उन्होंने भी अपनी लोकसभा सीट से इस्तीफा दिया। बताते हैं कि उनकी पौड़ी गढ़वाल सीट पर हुए उपचुनाव में तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपना पूरा जोर लगाया था फिर भी बहुगुणा चुनाव जीत गए थे।

बहरहाल, अब जो पार्टी के नेता पार्टी के साथ साथ विधायकी या सांसदी से इस्तीफा देते हैं तो उसमें उच्च नैतिकता जैसी कोई बात नहीं होती है क्योंकि इस तरह से इस्तीफा देने वाले लोग आमतौर पर सत्तारूढ़ पार्टी में जाते हैं और वह पार्टी उनके सारे हितों का ख्याल रखती है। मिसाल के तौर पर कई राज्यों में दूसरी पार्टियों के राज्यसभा सांसदों ने इस्तीफा दिया और भाजपा में गए फिर भाजपा ने उनको दोबारा राज्यसभा में मनोनीत करा दिया। कानूनी रूप से इसमें कुछ गलत नहीं है पर राजनीतिक और नैतिक रूप से यह बहुत गलत है। मिसाल के तौर पर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी जब सरकार में थी तब अपने विधायकों के दम पर उसने नीरज शेखर को राज्यसभा में भेजा, जब सपा सत्ता से बाहर हो गई और भाजपा बहुमत में आ गई तो नीरज शेखर पाला बदल कर और इस्तीफा देकर भाजपा के साथ चले गए और भाजपा ने उनको राज्यसभा में भेज दिया। कानूनी रूप से सही होते हुई भी राजनीतिक और नैतिक रूप से यह गलत है।

इस तरह के दलबदल को भाजपा ने सांस्थायिक रूप दिया है। उसके नेता और कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने अपने पहले कार्यकाल में 2008 में यह फार्मूला बनाया था। उन्होंने इसे ऑपरेशन लोट्स का नाम दिया था। इसे भाजपा ने अब अपना स्थायी सिद्धांत बना लिया है। वह खुलेआम ऑपरेशन लोट्स के तहत दूसरी पार्टियों के विधायकों के इस्तीफे कराती है, उन्हें अपनी पार्टी में शामिल कराती है और चुनाव लड़ाती है। वे जीत जाते हैं तो उन्हें मंत्री बनाती है और जो नहीं जीत पाते हैं या चुनाव नहीं लड़ पाते हैं उन्हें बोर्ड या निगम में जगह देकर उपकृत करती है। यह एक तरह से जनता के वोट का अपहरण है। इससे लोकतंत्र कमजोर होता है और उसमें लोगों का भरोसा भी टूटता है। इससे यह भी साफ है कि अब पुराना दलबदल कानून पूरी तरह से बेकार हो गया है। वह अपना मकसद पूरा करने में नाकाम है।

सो, अब नए कानून की जरूरत है। मशहूर वकील कपिल सिब्बल ने इस बारे में कुछ सुझाव दिए हैं, जो निःसंदेह अच्छे हैं और राजनीति की गरिमा बचाने, लोकतंत्र में लोगों का भरोसा बनाए रखने और न्यूनतम नैतिकता सुरक्षित रखने के लिए जरूरी हैं। सो, सभी पार्टियों को तत्काल इसके लिए दबाव बनाना चाहिए कि दलबदल कानून में बदलाव हो। पार्टी छोड़ने वाले हर विधायक या सांसद के ऊपर पाबंदी लगे कि वह कम से कम पांच साल तक चुनाव नहीं लड़ पाएगा। उसके सरकार में या दूसरी पार्टी में भी कोई पद लेने पर भी पाबंदी लगे। उसके मंत्री बनने या दर्जा प्राप्त मंत्री बनने पर भी पाबंदी लगाई जाए। यह बहुत बेसिक बात है पर इतने भर से भी शुरुआत की जा सकती है।

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