भारत में सरकारें मास्क की कालाबाजारी नहीं रोक सकीं और न नकली सैनिटाइजर का उत्पादन और उसकी भी कालाबाजारी रोकी जा सकी। ऐसे ही अब कोरोना वायरस के संक्रमितों का जीवन बचाने वाली दवाओं की कालाबाजारी भी नहीं रोकी जा रही है। हैरानी की बात है कि सब कुछ सरकार की नाक के नीचे हो रहा है, मीडिया में खबरें भी आ रही हैं और इसके बावजूद सरकार इसे नहीं रोक पा रही है। सवाल है कि ऐसा क्यों हो रहा है? इसके कई कारण हैं। पर पहला कारण तो खुद सरकार है, जिसने गिलियड साइंस की दवा रेमडिसिविर को पेटेंटेड दवा के तौर पर भारत में बेचने की मंजूरी दी। ध्यान रहे यह मंजूरी इस साल जनवरी में दी गई है।
क्या यह सुन कर आपके कान खड़े हो रहे हैं कि जिस समय पूरी दुनिया में कोरोना वायरस का संक्रमण फैलना शुरू ही हुआ और उस वक्त तक इस बीमारी के इलाज में रेमडिसिविर के कारगर होने का कोई परीक्षण नहीं हुआ था उस समय क्यों कंपनी ने अपनी इस दवा को भारत में पेटेंटेड दवा के तौर पर बेचने की मंजूरी ली? खटका इसलिए भी है क्योंकि यह दवा दस साल से ज्यादा पुरानी है और अभी तक भारत में नहीं बिक रही थी।
जाहिर है कंपनी को पता था कि जनवरी के बाद के महीनों में आगे क्या परीक्षण होगा और उसमें क्या नतीजे आएंगे, जिसके बाद भारत क्या सारी दुनिया में इस दवा की ऐसी मांग बढ़ेगी कि कंपनी इसे मनमाने दाम पर बेचेगी। पेटेंटेड दवा का मतलब यह है कि दवा की कीमत कंपनी खुद तय करेगी, उसमें सरकार दखल नहीं दे सकती है। हैरानी की बात है कि सरकार ने अभी तक इस दवा को जीवन रक्षक दवा की मान्यता नहीं दी है और इस वजह से भी वह कीमत नियंत्रित नहीं कर सकी। इस दवा के बारे में यह बात भी कही जाती है कि ये ऐसी दवा है, जो अभी तक अपने लिए बीमारी तलाश रही है।
बहरहाल, यह तो कंपनी का खेल था, जिसमें जाने-अनजाने में सरकार फंस गई। पर अब सरकार क्यों नहीं कंपनियों से इसका उत्पादन बढ़वा रही है या सीधे खुद लेकर जरूरतमंदों तक पहुंचा रही है? सरकार यह काम आसानी से कर सकती है। भारत में तीन कंपनियों को सरकार ने यह दवा बनाने की मंजूरी दी है। सिपला और हेटेरो को सरकार ने पहले मंजूरी दी थी और बाद में माइलेन एनवी को भी इसकी इजाजत दी गई। माइलेन एनवी ने कहा कि वह इस दवा की सौ मिलीग्राम की एक डोज 48 सौ रुपए में बेचेगी।
सिपला ने अपनी दवा की कीमत पांच हजार और हेटेरो ने 54 सौ रुपए तय की है। पर हकीकत यह है कि ये दवा अस्पतालों में उपलब्ध नहीं हो रही है, जरूरतमंदों को नहीं मिल रही है। बाजार में इसकी कालाबाजारी हो रही है। दस गुना-बीस गुना कीमत पर लोग इसे खरीद रहे हैं। गंभीर रूप से बीमार लोगों के इलाज में इसकी छह डोज की जरूरत है, जिसकी कीमत असल में 30 से 35 हजार होनी चाहिए पर इतनी कीमत में या इससे भी ज्यादा कीमत में लोग एक-एक डोज खरीद रहे हैं।
बांग्लादेश की तर्ज पर सरकार चाहे तो भारत में भी इसकी व्यवस्था बनवा सकती है। गौरतलब है कि भारत से भी पहले बांग्लादेश में रेमडिसिविर की जेनेरिक दवा को मंजूरी दी गई थी। वहां की कंपनी बेक्सिमको फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड ने इसका निर्माण शुरू किया और उसने दवा की कीमत रखी 54 सौ रुपए। उत्पादन शुरू करने के साथ ही कंपनी ने स्पष्ट कर दिया कि वह निजी अस्पतालों को 54 सौ रुपए प्रति डोज के हिसाब से यह दवा देगी और सरकारी अस्पतालों में मुफ्त में सप्लाई करेगी। सोचें, बांग्लादेश जैसे देश में दवा कंपनी सरकारी अस्पतालों को यह जीवनरक्षक दवा मुफ्त में सप्लाई कर रही है और भारत में दवा कंपनियों से लेकर, इसके विक्रेता और अस्पताल सब इस बहाने मरीजों को लूटने में लगे हैं।
ऐसा नहीं है कि ऐसी मनमानी सिर्फ भारत में हो रही है। अमेरिका में गिलियड साइंस ने अपनी इस दवा की दो कीमत तय की है। वहां आम लोगों के लिए इसके एक डोज की कीमत 390 डॉलर यानी 30 हजार रुपए की है। इसका मतलब है कि छह डोज में इलाज के लिए लोगों को एक लाख 80 हजार रुपए के करीब देने पड़ रहे हैं। पर जिन लोगों ने स्वास्थ्य बीमा करा रखा है उनको इसकी एक डोज 520 डॉलर यानी 40 हजार के करीब पढ़ रही है। ऐसे लोगों का खर्च दो लाख 40 हजार आ रहा है।
भारतीय कंपनियां इसमें अपने लिए बचाव ढूंढ रही हैं। उनका कहना है कि अमेरिका और दूसरे देशों के मुकाबले भारत में यह दवा पांच-छह गुना कम कीमत पर बेची जा रही है। पर यह सिर्फ कहने और दिखाने की बात है। चूंकि कंपनियों पर किसी किस्म की पाबंदी या निर्देश आयद नहीं की गई है इसलिए वे मनमाने तरीके से इसका डिस्ट्रीब्यूशन कर रहे हैं। इसका नतीजा है कि बाजार में आते ही दवा गायब हो जा रही है और जरूरतमंदों में कई गुना ज्यादा कीमत पर इसे खरीदना पड़ रहा है। जिन अस्पतालों में यह इंजेक्शन उपलब्ध है वे मनमानी कीमत ले रहे हैं।
यहीं स्थिति फैबिपिराविर की जो दवा फैबिफ्लू के नाम से बाजार में आई है उसके साथ भी है। कंपनी ने इसकी एक गोली की कीमत 75 रुपए रखी है। कंपनी का कहना है कि रूस में इसकी कीमत छह सौ रुपए है और एशिया के भी कई देशों में इसे तीन सौ रुपए में बेचा जा रहा है। असल में यह सामान्य फ्लू की दवा है, जिसके टैबलेट भारत में एक-दो रुपए में मिलते हैं पर इसकी कीमत 75 रुपए रखी गई है। चाहे हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन हो डेक्सामिथासोन हो या एजिथ्रोमासिन हो सबके साथ यहीं कहानी है। या तो दवा बाजार में उपलब्ध नहीं है या बहुत महंगी कीमत पर मिल रही है।
अब सवाल है कि इसमें सरकार क्या कर सकती है? अगर कोरोना वायरस सचमुच महामारी है और सरकार इसे लेकर चिंतित है तो वह सबसे पहले इन दवाओं की ओवर द काउंटर बिक्री रुकवाए। यानी ये दवाएं डिस्ट्रीब्यूटर या दवा दुकानों के जरिए बेचने पर रोक लगाई जाए और कंपनियों से सीधे सरकार इसकी खरीद करे या नियंत्रण करते हुए सरकारी और निजी अस्पतालों तक पहुंचवाए।
यह कोई बड़ी बात नहीं है कि कंपनी सीधे पंजीकृत अस्पतालों को यह दवा दे और उसका रिकार्ड सरकार के कंप्यूटर में भी रहे कि किस अस्पताल को इसकी कितनी डोज मिली है। इससे दवा की कालाबाजारी रूकेगी, अस्पतालों की लूट बंद होगी और जरूरतमंदों को सही कीमत पर, सही समय पर जीवनरक्षक दवा मिल पाएगी। पर यह तो तब होगा, जब सरकार आपदा में अवसर देखना बंद करेगी।

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