भारत दुनिया का संभवतः अकेला देश होगा, जहां केंद्र सरकार और केंद्रीय एजेंसियां कोरोना वायरस से नहीं लड़ रही है। यहां केंद्रीय एजेंसियां विपक्षी पार्टियों के समर्थकों के यहां छापे तो मार रही हैं पर कोई केंद्रीय एजेंसी कोरोना से लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती नहीं दिख रही है। ऐसा नहीं है कि केंद्र ने कोरोना से लड़ने का प्रयास नहीं किया था। जब कोविड-19 का संक्रमण देश में शुरू हुआ तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार ने कमान अपने ही हाथ में रखी थी। तब अपने स्वास्थ्य व नीति सलाहकारों के भरोसे सरकार सचमुच यह मान रही थी कि कोरोना को 21 दिन में हरा दिया जाएगा। इसी सोच में देश के 138 करोड़ लोगों को हैरान करते हुए एक दिन अचानक लॉकडाउन लागू किया गया था।
उस समय तो यह सोच थी कि सारी दुनिया में सरकारें जिस काम में फेल हो रही हैं वह काम अगर भारत कर दे तो दुनिया में क्या वाहवाही होगी! वह विश्व नेता बनने की सोच का क्षण था! इसी सोच में 21 दिन का लॉकडाउन हुआ और उसे अलग अलग रूपों में 68 दिन तक बढ़ाया गया। जब 21 दिन की बजाय 68 दिन बीत गए और कोरोना का वायरस रूकने की बजाय और तेजी से फैलने लगा तो ‘यह लै अपनी लकुटि कमरिया, बहुतहिं नाच नचायो’ के अंदाज में केंद्र सरकार ने सब कुछ छोड़-छाड़ कर अपने को अलग कर लिया।
याद करें, जब पांच सौ या हजार-दो हजार केसेज रोज आ रहे थे तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कितनी बार राज्यों के मुख्यमंत्रियों से वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए संवाद किया था? तब उन्होंने इस तरह के आधा दर्जन संवाद किए थे। चार-पांच बार उन्होंने राष्ट्र को संबोधित किया। और अब जबकि हर दिन 50 हजार केसेज आ रहे हैं और देश के ज्यादातर राज्य कोरोना संकट के बढ़ते मामलों से परेशान हैं तो सरकार मुंह पर गमछा लपेट कर बैठे हैं। राज्यों की कोई खोज-खबर नहीं ली जा रही है। उनसे कोई संवाद नहीं किया जा रहा है। न प्रधानमंत्री ने उनसे संवाद करने की जरूरत समझी है और न गृह मंत्री ने। स्वास्थ्य मंत्री तो खैर पहले भी संवाद नहीं करते थे।
अब हालात यह है कि केंद्र ने राज्यों को उनके हाल पर छोड़ा हुआ है और सारे राज्य कोरोना संक्रमण से पैदा हुए स्वास्थ्य संकट के साथ-साथ भारी आर्थिक संकट में फंसे हैं। उन्हें केंद्र से कोई मदद नहीं मिल रही है। जब तक प्रधानमंत्री संवाद करते रहे तब तक राज्यों के मुख्यमंत्री भी उनसे आर्थिक पैकेज की मांग करते रहे पर बाद में थक हार कर मांग करना छोड़ दिया। केंद्र सरकार ने 21 लाख करोड़ रुपए का एक पैकेज घोषित किया, जिसमें राज्यों के लिए सिर्फ इतना किया गया कि उनकी कर्ज लेने की सीमा बढ़ा दी गई।
अब राज्यों को दो मोर्चे पर लड़ना पड़ रहा है। एक मोर्चे पर कोरोना की लड़ाई है और दूसरे मोर्चे पर अर्थव्यवस्था की लड़ाई है। चूंकि राज्यों को केंद्र से कोई आर्थिक पैकेज नहीं मिला है तो उन्हें अपने ही राजस्व से काम चलाना है। यहीं वजह है कि ज्यादातर राज्य अपने यहां कोरोना के बढ़ते मामलों के बावजूद लॉकडाउन नहीं कर पा रहे हैं। उनको पता है कि दो महीने से ज्यादा समय के राष्ट्रीय लॉकडाउन ने उनकी क्या हालत कर दी है। तभी उन्होंने अपने नागरिकों का जीवन खतरे में डाल कर सब कुछ खोला हुआ है। लोग भी अपनी जान जोखिम में डाल कर बचे-खुचे कामकाज में लगे हुए हैं क्योंकि उन्हें पता है कि कोरोना से तो जैसे तैसे बच जाएंगे पर आर्थिक मार से बचना मुश्किल है।
दुनिया के देशों में, जहां भी कोरोना का संक्रमण फैलने से रोकने के लिए लॉकडाउन किया गया, वहां सरकारों ने उस अवधि का इस्तेमाल मेडिकल सुविधाएं जुटाने के लिए किया। लेकिन भारत में वह भी नहीं किया गया। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और कारोबारी राजधानी मुंबई को छोड़ दें तो देश के ज्यादातर हिस्सों में लोग कोरोना के लक्षण लेकर जांच के लिए दर-दर भटक रहे हैं। किसी के बुलाने पर अगर एंबुलेंस आ गई तो लोग आठ-आठ घंटे एंबुलेंस में इस अस्पताल से उस अस्पताल के चक्कर काट रहे हैं। राज्यों की राजधानियों में लोग आपस में चंदा करके ऑक्सीजन सिलिंडर लोगों के यहां पहुंचा रहे हैं। राजधानियों में बने कोविड सेंटर में भरती मरीजों के बीच एक समय के खाने के लिए मारपीट हो रही है और पुलिस पहुंच कर मामला शांत करा रही है। 138 करोड़ की आबादी में चार लाख जांच पर सरकार पीठ थपथपा रही है।
हकीकत यह है कि देश के ज्यादातर हिस्से में लोग जांच तक नहीं करा पा रहे हैं, जिनकी जांच किसी तरह हो गई और रिपोर्ट कोरोना पॉजिटिव आई तो वे अस्पताल में भरती नहीं हो पा रहे हैं, किसी तरह भरती हो गए तो कहीं आईसीयू नहीं है, कहीं ऑक्सीजन नहीं है, कहीं वेंटिलेटर नहीं है, कोविड सेंटर में एक समय के खाने के लिए मारपीट हो रही है, सरकारी अस्पतालों में मरीजों की जानवरों से बुरी दशा है और निजी अस्पतालों में लूट का नंगा नाच हो रहा है। सोचें, दुनिया के किस देश में इस तरह से कोरोना के खिलाफ लड़ाई हो रही है? और इन सबके बीच में दावा यह कि हमने कोरोना संकट में डेढ़ सौ देशों की मदद की।
सारी दुनिया इस समय कोरोना से लड़ रही है। लेकिन भारत में कोरोना कम से कम केंद्र सरकार की प्राथमिकता में नहीं है। उसकी रोजाना की प्रेस ब्रीफिंग काफी पहले बंद हो गई है। राज्यों से संवाद भी बंद हो गया। राष्ट्र के नाम संबोधन और ताली-थाली बजाने, दीया-मोमबत्ती जलाने आदि का काम भी काफी समय से बंद ही है। अब प्राथमिकता में सबसे ऊपर मंदिर निर्माण कराना है, राज्यों में विपक्षी सरकारों को अस्थिर करना है, विपक्षी नेताओं के यहां केंद्रीय एजेंसियों के छापे डलवाने हैं, आपदा को अवसर बनाते हुए सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में बंद करना है और इस साल के अंत में या अगले साल होने वाले चुनावों की तैयारी करनी है।
इस बीच सबक यह है कि अगर राज्य अपने को कोरोना से बचा सकते हैं तो बचा लें, अपनी आर्थिकी को बचा सकते हैं तो बचा लें, विपक्षी पार्टियां अपनी सरकार बचा सकती हैं तो बचा लें, नागरिक अपने रोजगार व नौकरियां बचा सकते हैं तो बचा लें, कंपनियां कारोबार बचा सकती हैं तो बचा लें, छात्र पढ़ाई कर सकते हैं तो कर लें, दलित-आदिवासी अपने अधिकार बचा सकते हैं तो बचा लें, मजदूर अपने हक में बने कानून बचा सकते हैं तो बचा लें, सरकार कुछ नहीं कर सकती है क्योंकि सरकार यहीं सब खत्म करने में तो बिजी है।

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें