शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

अनलॉक3.0: अन्तर्राज्यीय आवागमन के लिए अब पास जरूरी नहीं





जयपुर। वैश्विक महामारी कोरोना वायरस  के संक्रमण से बचाव के मद्देनजर राजस्थान सरकार  ने अनलॉक 2.0 में अन्तर्राज्यीय आवागमन पर लगाई गई रोक हटा ली है। अनलॉक 3.0 के लिए गहलोत सरकार  द्वारा जारी की गई गाइड लाइन में बताया गया है कि अब अन्तर्राज्यीय अवागमन  के लिए पास की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई है।

बता दें कि 11 जुलाई राजस्थान सरकार ने कोरोना वायरस के बढ़ते मामलों के मद्देनजर लगाए गए अन्तर्राज्यीय आवागमन पर नियंत्रण हटा लिया है। अब राज्य की सीमा में बिना पास के एंट्री हो सकेगी व अन्य राज्यों में जाने के लिए भी पास बनवाना अनिवार्य नहीं होगा। कमर्शियल वाहन भी निर्बाध रूप से आवागमन कर सकते हैं। केंद्र सरकार के बाद राज्य सरकार ने अनलॉक 3.0 के तहत गाइडलाइन जारी कर दी है। राज्य में मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर और गुरुद्वारा 1 सितंबर से नियमों के दायरे में रखते हुए खोले जाएंगे। इसके लिए गृह विभाग अलग से आदेश जारी करेगा। नियमों का उल्लंघन करने पर राष्ट्रीय महामारी अध्यादेश 2005 के तहत कठोर जुर्माना वसूला जाएगा।

स्कूल-कॉलेज, कोचिंग संस्थान 31 अगस्त तक रहेंगे बंद

राज्य सरकार की गाइड लाइन के तहत स्कूल-कॉलेज, कोचिंग संस्थान 31 अगस्त तक बंद रहेंगे। प्रदेश में बढ़ रहे कोरोना के मामलों के मद्देनजर सभी स्कूल कॉलेज और कोचिंग संस्थान 31 अगस्त तक बंद रहेंगे। मेट्रो और रेल सेवाएं भी फिलहाल पहले की तरह बंद रहेंगी। कंटेंटमेंट जोन में किसी प्रकार की छूट नहीं दी गई है। केंद्र सरकार के बाद राज्य के गृह विभाग में अनलॉक 3.0 के तहत गाइडलाइन जारी कर दी है। ये गाइडलाइन एक अगस्त से लागू होगी। सिनेमा हॉल, स्विमिंग पूल, मनोरंजन पार्क को खुला रहने की पहले ही स्वीकृति प्रदान कर दी गई। सभी धार्मिक कार्यक्रम, अन्य सामाजिक कार्यक्रम एवं अन्य बड़े कार्यक्रम प्रतिबंधित रहेंगे। ग्रामीण क्षेत्रों में छोटे पूजा स्थल खुले रहेंगे लेकिन 50 से अधिक व्यक्ति एकत्रित नहीं हो सकते।


स्वतंत्रता दिवस समारोह के लिए सशर्त अनुमति मिलेगी

स्वतंत्रता दिवस समारोह की सशर्त अनुमति राज्य सरकार ने 15 अगस्त को मनाए जाने वाले स्वतंत्रता दिवस समारोह को जिला, उपखंड एवं ग्राम स्तर पर आयोजित करने के लिए सशर्त अनुमति प्रदान की है। इसके लिए सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना होगा और सरकार द्वारा नियंत्रित व्यक्ति समारोह में शामिल नहीं हो सकते। सार्वजनिक स्थानों पर मास्क पहनना अनिवार्य होगा, वैवाहिक कार्यक्रमों में 50 से ज्यादा लोगों को जमा होने, अंतिम संस्कार में भी 20 लोगों से ज्यादा के शामिल नहीं होने पर पाबंदी रहेगी। सार्वजनिक जगहों पर पान, गुटखा, तंबाकू खाना प्रतिबंधित जैसे नियमों का सख्ती से पालन करना होगा। इसके साथ ही केंद्र की तर्ज पर 60 साल से अधिक उम्र के बुजुर्गों, 10 साल से कम उम्र के बच्चों को घरों में रहने की सलाह दी गई है।

दुरात्माओं से मुक्ति के हवन का समय



आपके या मेरे मानने-न-मानने से कुछ नहीं होता, कांग्रेस के भीतरी हालात ही ऐसे हैं कि इसके अलावा कुछ हो ही नहीं सकता है कि बतौर अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी का कार्यकाल पूरा होने के बाद अगुआई राहुल को सौंप दी जाए या फिर प्रियंका पार्टी की कमान संभाल लें या सोनिया की ही अंतरिमता अभी कुछ वक़्त और जारी रहे। जिन्हें लगता है या जिनकी इच्छा है कि कांग्रेस का अध्यक्ष अब नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का व्यक्ति बन जाएगा, उन्हें यह समझना चाहिए कि राहुल-प्रियंका कांग्रेस की मजबूरी इसीलिए है कि कोई किसी और को पार्टी का मुखिया मानने को अभी तैयार ही नहीं होगा। हालत यह है कि अगर राहुल ख़ुद भी अपने किसी विश्वस्त को अध्यक्ष बना कर पीछे से डोरियां संचालित करना चाहें तो भी कोई उन्हें ऐसा नहीं करने देगा।

अगर कांग्रेस के अंतरिक्ष में अगर सब को अपना-अपना आसमान मिल जाए तो राहुल की पुनर्वापसी की स्वागत कतार में तो फिर भी सारे अर्वाचीन और नए-नकोर चेहरे खड़े हो जाएंगे, लेकिन राहुल की मुहर माथे पर लगाए घूम रहे किसी भी मुंगेरीलाल को कोई भी कांग्रेसी-कबीले का सरदार मानने को तैयार नहीं होगा। राहुल को भले ही लगता हो कि वे जिस पर मेहरबान हो जाएंगे, वही पहलवान बन जाएगा, मगर कांग्रेसी धरती की मूल-धड़कन अब ऐसी है नहीं। ख़ुद पर मेहरबान हो कर राहुल ख़ुद को तो हिंद-केसरी बनाए रख सकते हैं, मगर अपनी इस मेहरबानी को किसी की भी झोली में हस्तांतरित कर उसे सर्व-स्वीकार्य बना पाने की स्थिति में, माफ़ करिए, वे नहीं हैं।

अगर ऐसा होता तो राहुल ने जिस तरुण-मंडली को पिछले एक दशक में अपने बजरंग-बाण से लैस किया, वह आज कांग्रेस की नाव को अपने भुजा-बल के सहारे आसानी से खे रही होती। मगर हुआ यह कि राहुल के किए मंथन से निकले अमृत का पान इस मंडली के वीरों को, अमरता प्रदान करना तो दूर, दीर्घजीवी भी नहीं बना पाया। उनमें से कई तो नाव से कूद कर भाग गए और कई कूदने की उकड़ू-मुद्रा में आज भी बैठे हुए हैं। वे किसी भी समय बाहर छलांग लगा देंगे।

कांग्रेस में राहुल से किसी को भी गुरेज़ नहीं है। कांग्रेस में प्रियंका से किसी को भी परहेज़ नहीं है। राहुल-प्रियंका के सब साथ हैं। लेकिन सिर्फ़ उनके। जब मसला आता है उनके पसंदीदाओं का, बात तब बिगड़ती है। सात साल से ‘तू डाल-डाल, मैं पात-पात’ का यह खेल झुलसन की हदें छू रहा है। जब राहुल को लगता है कि उनके चुने लोगों को अपेक्षित सहयोग नहीं मिल रहा है तो वे अपने चयन के प्रति ज़िद की हद तक आग्रही हो जाते हैं। बाकियों का मानना है कि राहुल अपनी पसंद के लोगों को ज़रूर ज़िम्मेदारियां दें, मगर उन्हें झटक कर बाहर न करें, जिन्हें उनके पसंदीदा पसंद नहीं करते हैं। बस, यही कांग्रेस की इस दशक की मुसीबत का मूल-मर्ज़ है। 2014 के नहीं, मगर 2019 के चुनावी नतीजे मनःस्थितियों के इन्हीं दो चरम-ध्रुवों का परिणाम थे।

इस बीच लगातार गहन होती गई राहुल की आग्रही-मनोवृत्ति की कमज़ोरी से अपने को मजबूत बनाने में माहिर अंतर्गुट की कई दुरात्माएं आज शिखर-कंठीमाल की शोभा बन बैठी हैं। जिस दिन राहुल अपनी तस्बीह को इन दुष्टमतियों से मुक्त कर लेंगे, कांग्रेस का तो होगा ही, उनका भी उद्धार हो जाएगा। चार-चार, पांच-पांच दशक से अपनी स्थिरता पर आंच न आने देने वाले कांग्रेसी-चेहरे तीन-तीन, पांच-पांच साल में पूरे आकाश पर छा गई अस्थिरता-पगी घटाओं को कैसे बरदाश्त कर लें? अगर इन घटाओं में ऐसा ही जीवन-जल होता तो कांग्रेस का खेत लहलहा न रहा होता! सो, कृत्रिम बारिश कराने की कोशिषों से निज़ात पाने का वक़्त अब तो कम-से-कम आ ही चुका है।

इसमें क्या धरा है कि किस-किस ने कांग्रेस को कब-कब और कितना-कितना चूस लिया? इस पर 18 नहीं तो 9 पुराण तो मैं ही लिख सकता हूं। लेकिन उन पुराणों में यह ज़िक्र भी तो होगा कि कांग्रेस का रस चूस कर अपने गाल गुलाबी करने वालों में से कितनों के हल-बक्खर ने कांग्रेसी खेत को जोता, बोया, सिंचाई की, फ़सल को देखा-भाला और अनाज के दानों से फूस को अलग किया; और, ऐसे कौन-कौन थे, जो डांस-बार मानसिकता लिए लहराते हुए आए, सिर्फ़ रसपान किया और अपनी आंखों के डोरे लाल होते ही झूमते-झामते अपने-अपने घरों को लौट गए। जिन्होंने एक भी दिन खेत की मेड़ पर नहीं गुज़ारा। जिन्होंने एक भी रात मचान पर नहीं बिताई। वैचारिक शास्त्रीय संगीत के पक्के रागों का बरसों से अभ्यास कर रहे रियाज़दारों की तुलना क्या हम कलाई पर गजरा बांध कर घूम रही इस टोली के लुंगाड़ों से करेंगे? 

राहुल-प्रियंका में नेहरू, इंदिरा और राजीव का अनुवंश है। वे इंदिरा गांधी के पोते-पोती हैं। वे राजीव गांधी के पुत्र-पुत्री हैं। उनके लिए यह धरोहर मामूली नहीं है। अपनी दादी और पिता पर उनका हक़ स्वाभाविक है। लेकिन जितना हक़ उनका है, क्या उससे कम हक़ कूछ दूसरों है? कांग्रेस में आज भी वे लोग मौजूद हैं, जो अपने को इंदिरा गांधी का दत्तक पौत्र-पौत्री या पुत्र-पुत्री मानते हैं और ऐसे भी, जिन्हें लगता है कि राजीव उन्हें अपने भाई-बहन का दर्ज़ा दिया करते थे। राजीव गांधी के बाद, पिछले 29 साल से सोनिया कांग्रेस के भीतर सर्वमान्य सम्मान के सिंहासन पर बैठी हैं। दो दशक तक उन्होंने कांग्रेस की सफलतम अगुआई की है। सो, ऐसे भी अनगिनत हैं, जो इस भाव से भीगे हुए हैं कि वे सोनिया के स्नेह-पात्र हैं। वे इसीलिए राहुल के तो तन-मन से साथ हैं, मगर आसपास की मंडली के चंद निकम्मों की ताबेदारी को तैयार नहीं है।

मुझे लगता है कि ऐसा नहीं है कि राहुल कांग्रेस के इस बीजगणित को नहीं समझते हैं। मुझे लगता है कि ऐसा भी नहीं है कि राहुल को यह नहीं मालूम है कि बीजगणित की इस प्रश्नावली को कैसे हल किया जाता है। जानते वे सब हैं, मगर मुझे लगता है कि कुछ ग़ैरज़रूरी हठ उनके आड़े आ रहे हैं। उन्हें यह सुविधा है कि वे कांग्रेस के गुंबद को अपनी मर्ज़ी का आकार देने के लिए 2024 और 2029 तक का इंतज़ार कर लें। तब तक सब थक चुके होंगे–कांग्रेस के भीतर भी और बाहर भी। लेकिन क्या कांग्रेस यह विलासिता भोगने में समर्थ है कि आराम से हाथ-पर-हाथ धरे बैठी रहे?

इसलिए समय रहते राहुल-प्रियंका को मौजूदा यथास्थिति का समाधान खोजना होगा। विलोम-भावों की हिमशिखा से टकरा चुके कांग्रेसी-टाइटैनिक को बचाने के लिए सोनिया ने अपना अंगद-पांव पटकने में अब ज़्यादा देर की तो जहाज का मस्तूल आज की गड्डमड्ड लहरों के हवाले होने से अंततः कैसे बचेगा? यह बाल-हठ और राज-हठ की आंतरिक लहरों पर अठखेलियों का वक़्त नहीं है। यह समय भारत के जनतंत्र को कालनेमि-अवरोध से बचाने का है। यह अपना-तेरी का वक़्त नहीं है। यह हिल-मिल कर उस बवंडर को माक़ूल जवाब देने का समय है, जिसने छह साल से देश की शिराओं को सुन्न करने में काफी कामयाबी हासिल कर ली है। कांग्रेस पंगु होगी तो मुल्क़ अपाहिज हो जाएगा। जो इस सच्चाई से आंखें फेरेंगे, आने वाली नस्लों से अन्याय करेंगे। अन्याय का यह एक पाप सात महापापों से भी बढ़ कर होगा। उसे धोने को हम कौन-सा मानसरोवर ले कर आएंगे और कहां से ले कर आएंगे?

नाम बदलने से क्या काम बदलेगा?



भाजपा ने एक और मंत्रालय का नाम बदल दिया। अब मानव संसाधन विकास मंत्रालय को शिक्षा मंत्रालय कहा जाएगा। पहले वैसे इसे शिक्षा मंत्रालय की कहते थे पर बाद में जब शिक्षा का क्षेत्र संश्लिष्ट होता गया और कई क्षेत्र इसके साथ जुड़ते गए तो इसका नाम मानव संसाधन विकास मंत्रालय कर दिया गया। हालांकि इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता है कि इसे मानव संसाधन विकास मंत्रालय कहें या शिक्षा मंत्रालय। वैसे ही जैसे फॉरेन मिनिस्ट्री को मिनिस्टरी ऑफ एक्सटर्नल अफेयर कहने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। कुल मिला कर नाम बदल कर उसे एक उपलब्धि बताने की बरसों से चल रही राजनीति का ही यह भी एक हिस्सा है। नाम बदलने से भी लोगों को लगता है कि सरकार कुछ काम कर रही है। दूसरी बार नरेंद्र मोदी की सरकार बनी तो उन्होंने जल संसाधन मंत्रालय का नाम बदल कर जल शक्ति मंत्रालय कर दिया। इसका नाम बदल देने से पिछले एक साल में भारत में कोई जल क्रांति हुई हो, इसकी कोई मिसाल नहीं है।  

इसी तरह से अपनी पहली सरकार में केंद्र ने कृषि मंत्रालय का नाम बदल कर उसे कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय कर दिया था। हालांकि उसके बाद भी ऐसी कोई खबर नहीं है कि देश में कृषि सेक्टर का कोई भला हो गया या किसानों की स्थिति में कोई बड़ा गुणात्मक परिवर्तन आ गया। इसी कड़ी में अब सरकार ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम शिक्षा मंत्रालय कर दिया है। ध्यान रहे इस मंत्रालय में पिछले छह साल से सबसे ज्यादा प्रयोग हुए हैं और तीन अलग अलग इलाके के और अलग अलग पृष्ठभूमि के लोगों ने यह मंत्रालय संभाला है। बहरहाल, केंद्र में सरकार बनाते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने योजना आयोग का नाम नीति आयोग कर दिया था। जब से इस संस्था का नाम बदला है और इसमें रिटायर सरकारी बाबुओं का वर्चस्व हुआ है तब से देश में योजना और नीति दोनों का हाल बिगड़ा हुआ दिख रहा है। इसी तरह सरकार ने विकलांग की जगह दिव्यांग शब्द का इस्तेमाल शुरू कराया। यह अलग बात बात है कि इन दिव्यांगो को अब भी बसों या ट्रेनों में चढ़ने जैसे छोटे से काम में उतनी ही दिक्कत आती है, जितनी पहले आती थी। सरकार ने शहरों, सड़कों और ट्रेन स्टेशनों के तो इतने नाम बदले हैं, सब यहां लिखे भी नहीं जा सकते है। उनकी संख्या बहुत बड़ी है।

जीएसटी के मारे, राज्य बेचारे!



अटल बिहारी वाजपेयी ने एक सय कहा था कि जब जनता पार्टी बनी तो सबने अपनी-अपनी नौकाएं जला दीं और जनता पार्टी के जहाज पर सवार हो गए। बाद में जब जहाज पर सवार लोगों में झगड़े होने लगे और जहाज डूबने लगा तो सब बारी बारी से उस पर से कूदने लगे। जनता पार्टी के जहाज से कूदने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी ने भारतीय जनता पार्टी बनाई। उसके बाद की कहानी सबको पता है।  


इसी तरह जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने ‘एक देश, एक कर’ का ढिंढोरा पीटते हुए आधी रात को संसद का सत्र बुला कर वस्तु व सेवा कर, जीएसटी लागू किया तब सभी राज्य अपनी अपनी नौकाएं जला कर जीएसटी के जहाज पर सवार हो गए थे। अब जीएसटी का यह जहाज डूब रहा है। जीएसटी की वसूली कभी भी इसके अनुमानित लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाई थी और जहां तक पहुंची थी, वहां भी टिके रहना इसके लिए मुश्किल हो गया। इसी बीच कोरोना का संकट शुरू हुआ और जीएसटी की वसूली औसत पैमाने से भी नीचे चली गई। अब जो राज्य अपने-अपने कर स्रोतों की नाव जला कर इस जहाज पर सवार हुए थे उनको न तो इस पर सवारी करते बन रहा है और न कूद कर भागते बन रहा है।

जीएसटी की अनगिनत बैठकों के बाद तय हुआ था कि जीएसटी लागू होने के बाद केंद्र सरकार राज्यों को पहले से मिलने वाले कर राजस्व के ऊपर 14 फीसदी ज्यादा कर देगी। यह भी वादा किया गया कि अगर इतनी वसूली नहीं हो पाती है तो पांच साल तक केंद्र सरकार मुआवजा देकर नुकसान की भरपाई करेगी। इस शर्त पर राज्यों ने अपने सारे कर छोड़े थे और कर वसूली का जिम्मा केंद्र सरकार को सौंपा था। जैसे पुराने जमाने में राजे-महाराजे और छोटे सामंतों-ठिकानेदारों ने अपनी प्रजा से कर वसूलने का जिम्मा ईस्ट इंडिया कंपनी को दिया था कुछ-कुछ उसी तरह से राज्यों ने कर वसूली का जिम्मा केंद्र सरकार को दे दिया। अब केंद्र सरकार कह रही है कि राज्य सरकारें मुआवजा भूल जाएं क्योंकि वह तय फार्मूले के हिसाब से राजस्व का बंटवारा करने में सक्षम नहीं है।

केंद्र सरकार ने संसदीय समिति के सामने यह बात कही है। मंगलवार को वित्त सचिव ने वित्त विभाग की स्थायी समिति को बताया कि सरकार जीएसटी कौंसिल में तय किए गए राजस्व बंटवारे के फार्मूले के हिसाब से राज्यों को मुआवजा देने की स्थिति में नहीं है। सवाल है कि केंद्र सरकार संसद से मंजूर कानून से कैसे पीछे हट सकती है? इसका जवाब देते हुए वित्त सचिव ने कहा कि अगर जीएसटी वसूली एक निश्चित लक्ष्य से कम रहती है तो जीएसटी कानून में तय किए गए मुआवजा देने के प्रावधान को बदला जा सकता है।

असल में संकट यह है कि अर्थव्यवस्था की बिगड़ती स्थिति के कारण जीएसटी का संग्रह बहुत कम हो गया है। इसमें 40 फीसदी तक की कमी आने की खबर है। जीएसटी के ऊपर लगाए गए उपकर में भी बड़ी गिरावट आई है। यह स्थिति कोरोना से पहले ही शुरू हो गई थी और अब स्थिति भयावह हो गई है। खुद वित्त सचिव ने संसदीय समिति के सामने स्वीकार किया कि देश में आर्थिक मंदी के चलते जीएसटी का राजस्व और उपकर की वसूली कम हो रही है। हालांकि न उन्होंने यह स्वीकार किया है और न सरकार में कोई मानेगा कि ऐसा नवंबर 2016 में किए गए नोटबंदी की वजह से हुआ है। सरकार के उस एक फैसले ने देश की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी और सब जानते हैं कि टूटी हुई कमर से साथ आप सीधे खड़े नहीं हो सकते हैं, घसीट-घसीट कर चाहे जितना चल लें! सो, भारत की अर्थव्यवस्था उसी समय से खुद को घसीट रही है।

इस घसीटती अर्थव्यवस्था की पीठ पर सवार हुए राज्य अब किंकर्तव्यविमूढ़ हैं। केंद्र सरकार के यहां मुआवजे के रूप में उनके हजारों करोड़ रुपए बकाया हैं। एक आकलन के मुताबिक वित्त वर्ष 2019-20 का बकाया मुआवजा 70 हजार करोड़ रुपए है। अगर राज्यों को यह पैसा नहीं मिला तो वे बरबाद होंगे। कोरोना संकट से उनकी राजस्व वसूली इतनी कम हो गई है कि उनके पास अपने कर्मचारियों का वेतन और पेंशन देने के पैसे नहीं हैं। राज्यों ने कर के अपने सारे स्रोत केंद्र के हवाले किए हुए हैं। उनके पास सिर्फ पेट्रोलियम उत्पाद और शराब पर कर वसूली का अधिकार है। कोरोना संकट में इन उत्पादों की बिक्री करीब तीन महीने तक तो लगभग पूरी तरह से बंद रही और अब भी इतनी बिक्री नहीं हो रही है कि इससे उनका काम चले।

अब सवाल है कि राज्य क्या करेंगे? क्या वे आसानी से केंद्र को राजस्व बंटवारे का फार्मूला बदलने देंगे? केरल के वित्त मंत्री थॉमस इसाक ने कहा है कि सभी राज्य मिल कर केंद्र को एकतरफा फैसला करने से रोकेंगे। मुआवजे के नियम को बदलने की वित्त सचिव की बात पर इसाक का कहना है कि ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। उन्होंने बताया है कि जीएसटी कौंसिल की गोवा बैठक में वित्त आयोग के अध्यक्ष एनके सिंह ने मुआवजा फार्मूले पर फिर से विचार की बात कही थी, जिसे सभी राज्यों ने एक स्वर से खारिज कर दिया था। तभी इसाक को भरोसा है कि जब यह मामला जीएसटी कौंसिल में आएगा तो राज्य इसे पास नहीं होने देंगे। जीएसटी कौंसिल में केंद्र के पास एक-चौथाई वोट की ताकत है और राज्यों के पास बचे हुए तीन-चौथाई वोट हैं। कौंसिल में कोई भी फैसला मंजूर कराने के लिए तीन-चौथाई वोट की जरूरत होती है। पर इसाक शायद यह भूल रहे हैं कि केंद्र सरकार जब तय कर लेगी कि उसे मुआवजे का नियम बदलना है तो भाजपा शासित राज्यों की मजबूरी होगी कि वे उसका समर्थन करें। उन्होंने देखा नहीं कि कैसे लोक लेखा समिति में भाजपा के सदस्यों ने एकजुट होकर पीएम केयर्स फंड की जांच रूकवाई!

केंद्र सरकार भाजपा और सहयोगियों के शासन वाले राज्यों को मजबूर करेगी कि वे फार्मूला बदलने के फैसले का समर्थन करें क्योंकि केंद्र की अब ऐसी स्थिति नहीं है कि वह राज्यों को मुआवजा दे सके। एक अनुमान के मुताबिक चालू वित्त वर्ष में जिस दर से जीएसटी की वसूली घट रही है उसके हिसाब से केंद्र को इस साल 4.1 लाख करोड़ रुपए का मुआवजा देना होगा। केंद्र सरकार कहां से यह पैसा लाएगी? उसके पास तो रेलवे के कर्मचारियों को पेंशन देने के लिए 55 हजार करोड़ रुपए नहीं हैं और उसका जुगाड़ करना भारी पड़ रहा है तो वह राज्यों को देने के लिए चार लाख दस हजार करोड़ रुपए कहां से लाएगी? तभी वह किसी तरह से मुआवजा देने वाले फार्मूले को बदलने का प्रयास करेगी और तब जीएसटी कौंसिल में जंग छिड़ेगी। विपक्षी पार्टियों की सरकारें किसी हाल में यह फार्मूला नहीं बदलने दे सकती हैं क्योंकि उन्होंने तो अपने सारे स्रोत केंद्र को दे दिए हैं। केंद्र ने तय हिसाब से पैसा नहीं दिया तो राज्य कंगाल हो जाएंगे। सो, उनके सामने दो ही रास्ते हैं या तो केंद्र तय फार्मूले के हिसाब से पैसे दे या फिर वे जीएसटी के जहाज से कूद कर भागें!

बुधवार, 29 जुलाई 2020

वर्तमान शैक्षणिक वर्ष में 179 कॉलेज बंद हुए, नौ साल में सर्वाधिक: एआईसीटीई

अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) के आंकड़ों के अनुसार 2020-21 शैक्षणिक वर्ष में इंजीनियरिंग संस्थानों और बिजनेस स्कूलों सहित करीब 180 पेशेवर कॉलेज बंद हुए हैं। पिछले नौ साल में इतने संस्थान कभी बंद नहीं हुए।

आंकड़ों के अनुसार, 179 संस्थानों के बंद होने के अलावा पिछले पांच वर्षों में बड़ी संख्या में खाली पड़ी सीटों के मद्देनजर इस वर्ष कम से कम 134 संस्थानों ने अकादमिक सत्र के लिए मंजूरी ही नहीं मांगी।

साथ ही, कम से कम 44 संस्थानों को मंजूरी नहीं मिल सकी या तकनीकी शिक्षा नियामक द्वारा दंडात्मक कार्रवाई के कारण उनको दी गई मंजूरी वापस ले ली गई।

वर्ष 2019 में करीब 92, 2018-19 में 89, 2017-18 में 134, 2016-17 में 163, 2015-16 में 126 और 2014-15 में 77 तकनीकी संस्थान बंद हुए थे।

वर्ष 2020-21 अकादमिक वर्ष में एआईसीटीई द्वारा अनुमोदित कुल 1.09 लाख सीटें फार्मेसी और आर्किटेक्चर संस्थानों में कम हुई हैं।

एआईसीटीई के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘उच्चतम न्यायालय के आदेशानुसार शैक्षणिक वर्ष 2020-2021 से मौजूदा और नए आर्किटेक्चर और फार्मेसी कॉलेजों के लिए, क्रमशः ‘आर्किटेक्चर काउंसिल ऑफ इंडिया’ और ‘फार्मेसी काउंसिल ऑफ इंडिया’ की मंजूरी अनिवार्य होगी।’

उसने कहा, ‘परिणामस्वरूप एआईसीटीई की मंजूरी को गैर-अनिवार्य बना दिया गया है। इसलिए इनमें से कई कॉलेजों ने एआईसीटीई से अपनी संबद्धता और अनुमोदन वापस ले लिए हैं, जिस वजह से सीटों की भारी कमी हुई है। इसके बाद फार्मेसी और वास्तुकला की सीटें अब उनके संबंधित नियामक निकायों के पास चली गई हैं।’

आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 762 कॉलेजों में से 69,000 सीटें कम हुई हैं। वहीं एआईसीटीई ने 2020-21 अकादमिक सत्र के लिए 164 नए संस्थानों को मंजूरी भी दी है, जिससे 39,000 सीटें बढ़ी भी हैं। 

मानव संसाधन विकास मंत्रालय बना शिक्षा मंत्रालय, नई शिक्षा नीति की घोषणा

देश में शैक्षणिक माहौल, शिक्षा की गुणवत्ता, रोजगार परक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार ने साढे़ तीन दशक बाद शिक्षा नीति के नए मसौदे को मंजूरी दे दी। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के पूर्व अध्यक्ष के कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली समिति ने पिछले वर्ष ही मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक को शिक्षा नीति का मसौदा सौंपा था। इस मसौदे पर दो लाख से ज्यादा सुझाव आए थे। इन सुझावों की समीक्षा के बाद बनी नई नीति को केंद्रीय कैबिनेट ने मंजूरी दे दी।

केंद्रीय कैबिनेट से गुरुवार को मंजूर राष्ट्रीय शिक्षा नीति में पूरे शैक्षणिक ढांचे में व्यापक बदलाव किया गया है। अब कॉलेज में स्नातक पाठ्यक्रम में दाखिला लेने के बाद तीन साल तक पढ़ाई के बाद ही डिग्री मिलने की अनिवार्यता खत्म हो गई। छात्र तीन या चार साल से पहले कभी भी कॉलेज छोड़ सकते हैं।

बीच में पढ़ाई छोड़ने पर ड्रापआउट का धब्बा नहीं लगेगा। इसके तहत तीन वर्षीय डिग्री प्रोग्राम एक साल पूरा करने पर प्रमाण पत्र, दो साल पढ़ाई पर डिप्लोमा और तीन साल पूरे करने पर डिग्री मिलेगी। जबकि चार वर्षीय डिग्री प्रोग्राम बहुविषयक स्नातक कार्यक्रम होगा।

देश में खुलेंगे दुनिया के टॉप सौ संस्थानों के कैंपस

भारत के शिक्षण संस्थानों को दुनिया के सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थानों में शामिल करने के लिए इंटरनेशनल रैकिंग के टॉप सौ संस्थानों के कैंपस भारत में खोलने की अनुमति दी जाएगी। विदेशी शिक्षकों व छात्रों को भारत से जोड़ा जाएगा।

नालंदा, तक्षशिला की तर्ज पर भारतीय प्राचीन विश्वविद्यालयों को आगे बढ़ाया जाएगा। बहुविषयक शिक्षण वाली विवि और कॉलेज खोले जाएं। साहित्य, भाषा, खेल, योग, आयुर्वेद, प्राचीन, मध्यकालीन इतिहास और संगीत पर फोकस होगा।

बंद होंगे पुराने और अनुपयोगी कोर्स

विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों का काम अकादमिक और रिसर्च पर फोकस पर रहेगा। परीक्षा से लेकर दाखिले तक का काम नेशनल टेस्टिंग एजेंसी करेगी। अब एक विषय की जगह बहुविषयक डिग्री प्रोग्राम शुरू होंगे। जिन कोर्स में छात्रों की संख्या कम है या पुराने हो चुके हैं, उनकी जगह पर नए कोर्स शुरू होंगे।

 नालंदा-तक्षशिला की तरह होगी पढ़ाई

नालंदा-तक्षशिला की तर्ज पर भारतीय विश्वविद्यालयों को बहुविषयक बनाया जाएगा। यानी कानून, इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, फार्मेसी आदि विवि या कॉलेजों में विभिन्न विषयों पर आधारित पढ़ाई शुरू की जाएगी। उच्च शिक्षण संस्थान दो प्रकार के होंगे। हायर एजुकेशन इंस्टीट्यूशन में रिसर्च और अकादमिक पढ़ाई पर फोकस होगा। जबकि हायर एजुकेशन इंस्टीट्यूशन कलस्टर में छोटे-छोटे कॉलेज मिलकर बड़ा कॉलेज या विश्वविद्यालय बना सकेंगे।

सिर्फ ज्ञान नहीं कौशल और रोजगार भी

लिबरल एजुकेशन में देश की 64 कलाओं को बढ़ावा मिलेगा। विभिन्न विषयों में दक्षता और क्षमता के आधार पर डिग्री की पढ़ाई होगी। इसका मतलब ज्ञान के साथ कौशल विकसित करना है, जिससे रोजगार के मौके मिलें। स्नातक तक कोर्स 3-4 वर्ष का होगा और कभी भी प्रवेश और पढ़ाई छोड़ने का विकल्प सर्टिफिकेट के साथ मिलेगा।

धार्मिक और समाज से  सुधार

शिक्षा सुधार योजनाओं में हिंदू मठ, आश्रम, गुरुद्वारा, ईसाई मिशनरी संस्थान, इस्लामिक ट्रस्ट, बौद्ध और जैन समुदाय को शामिल का प्रस्ताव है। इसका मकसद विभिन्न वर्गों को जोड़ना और वैचारिक मतभेद दूर करना है। स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्त्रस्म में बिजनेस व इंडस्ट्री के सुझाव पर बदलाव होगा, ताकि रोजगार पर फोकस किया जा सके। इसके अलावा पूर्व छात्र और स्थानीय समुदाय से सुरक्षा, सफाई पर मदद ली जाएगी।

कुछ अहम बदलाव

शिक्षा में तकनीक के इस्तेमाल पर जोर। ऑनलाइन शिक्षा के लिए क्षेत्रीय भाषाओं में कंटेट तैयार होगा, वर्चुअल लैब और डिजिटल लाइब्रेरी बनेंगी। सभी प्रवेश और प्रतियोगी परीक्षाएं नेशनल टेस्टिंग एजेंसी कराएगी। कंप्यूटर आधारित परीक्षा पर जोर रहेगा।

भारतीय समेत शास्त्रीय भाषाओं में कोर्स उपलब्ध करने पर जोर। संस्कृत की पढ़ाई करवाने पर सरकार आर्थिक रूप से मदद करेगी।



भाजपा की बात मानेंगे नीतिश

बिहार में एनडीए की तीनों पार्टियों- जदयू, भाजपा और लोजपा के बीच गतिरोध बना हुआ है। यह गतिरोध कई बातों को लेकर है। तीनों पार्टियों के बीच सीट बंटवारा नहीं हो पा रहा है। मनोनीत कोटे की विधान परिषद की 12 सीटों का बंटवारा करने में भी दिक्कत आ रही है। चुनाव समय पर कराने को लेकर भी असमंजस की स्थिति है। स्नात्तक क्षेत्र के विधान परिषद का चुनाव अटका है और गठबंधन की सहयोगी लोजपा के नेता लगातार सरकार के कामकाज को लेकर सवाल उठा रहे हैं। बिहार में जदयू के नेताओं का कहना है कि यह सब कुछ सीट बंटवारे से जुड़ा है। अगर विधानसभा की सीटों पर सहमति बन जाती है तो तत्काल ही सारे विवाद सुलझ जाएंगे। 

सबसे पहले शुरुआत विधान परिषद की सीटों से हो सकता है। मनोनीत कोटे की विधान परिषद सीटों में से एक सीट के प्रबल दावेदार भाजपा नेता का दावा है कि नीतीश कुमार को भाजपा की बात माननी पड़ेगी। भाजपा की बात यह है कि परिषद की 12 सीटों का बराबर बंटवारा हो और भाजपा अपने कोटे की एक सीट लोजपा को देगी। दूसरी ओर नीतीश की पार्टी चाहती है कि जदयू को सात और भाजपा को पांच सीट मिले। भाजपा अपने कोटे की इन पांच सीटों में से लोजपा को देना चाहे तो एक सीट दे सकती है। इस पर विवाद चल रहा है। भाजपा के एक जानकार नेता का कहना है कि इस समय नीतीश कुमार अब बहुत ज्यादा मोलभाव करने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि कोरोना और बाढ़ को लेकर जैसी स्थिति है, उसमें चुनाव आयोग के लिए चुनाव टालने का फैसला करना बहुत आसान है। एक बार चुनाव टला तो राष्ट्रपति शासन लगेगा और तब पहल नीतीश के हाथ से निकल जाएगी। फिर अधिकारियों की तैनाती से लेकर कामकाज के जरिए माहौल बनाने का केंद्र सरकार करेगी। फिर भाजपा ड्राइविंग सीट पर आ सकती है। इसलिए भाजपा को लग रहा है कि नीतीश परिषद की सीटों का बराबर बंटवारा करेंगे और विधानसभा चुनाव में भी दोनों पार्टियों की सीटों में ज्यादा का फर्क नहीं होगा।

राजस्थान की रणनीति मानक हो सकती है

कोई एक रणनीति कभी भी राजनीति में हर जगह नहीं लागू की जा सकती है। राज्यों के हिसाब से, समय के हिसाब से, प्रतिद्वंद्वी के हिसाब से और अपनी ताकत के हिसाब से रणनीति बदलती रहती है। पर आक्रमण को बचाव की रणनीति मानने का पुराना सिद्धांत लगभग हमेशा कारगर होता है। राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इसी को अपना हथियार बनाया। उन्होंने पहले दिन से आक्रामक तेवर दिखाए। चाहे कांग्रेस से बागी हुए नेता सचिन पायलट और उनके साथ गए विधायकों का मामला हो या भाजपा के परदे के पीछे से खेल को संचालित करने का मसला हो या संवैधानिक संस्थाओं का मामला हो, गहलोत ने हर मामले में आक्रमण की रणनीति अपनाई। इसे प्रीइम्प्ट यानी आगे बढ़ कर पहल अपने हाथ में रखने की राजनीति भी कर सकते हैं।

यह हकीकत है कि राजनीतिक पहल, जिसके हाथ में होती है अंतिम जीत उसकी ही होती है। इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं पर ‘पहले मारे सो मीर’ वाली कहावत लगभग ठीक ही होती है। राजस्थान में भी यहीं होता दिख रहा है। वहां मुख्यमंत्री ने पहल अपने हाथ में रखी। अभी तक दो हफ्ते की राजनीतिक उथलपुथल के बीच एक भी मौका ऐसा नहीं आया, जब ये लगा हो कि पहल उनके हाथ से निकल गई है और वे प्रतिक्रिया दे रहे हैं। अभी तक हर बार उन्होंने पहल की है और दूसरे खेमे को प्रतिक्रिया देनी पड़ी है। प्रतिक्रिया कैसी है, उसका क्या असर हुआ यह अलग बात है पर गहलोत ने पहल अपने हाथ से नहीं छोड़ी है। 

यहीं काम मध्य प्रदेश में कमलनाथ ने नहीं किया था। पहले उनके हाथ से निकल कर भाजपा और ज्योतिरादित्य सिंधिया के हाथ में चली गई थी। मध्य प्रदेश में या उससे पहले कर्नाटक में कांग्रेस के नेता रूठे हुए या बागी हुए विधायकों को मनाने गए थे। राजस्थान में मुख्यमंत्री ने विधायकों को मनाने के लिए किसी को नहीं भेजा, बल्कि उनसे पूछताछ करने के लिए पुलिस की टीम गई। यह अपने आप में एक बड़ा फर्क है। मध्य प्रदेश के विधायकों को मनाने के लिए कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता कर्नाटक गए तो कर्नाटक के कांग्रेस विधायकों को मनाने के लिए पार्टी के बड़े नेता मुंबई गए थे। इसके उलट राजस्थान के विधायकों से पूछताछ करने के लिए स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप, एसओजी की टीम गई थी। अब भी एसओजी की टीम गुड़गांव के होटलों में विधायकों को तलाश ही रही है।

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बात कर ली। उन्होंने पहले मोदी को एक चिट्ठी लिखी और फिर उनसे फोन करके बात की। उन्होंने सीधे प्रधानमंत्री से राज्यपाल की शिकायत की। इस तरह उन्होंने पहल करके राजस्थान सहित सारे देश के लोगों को बता दिया कि राज्य में ऐसा संकट है, जिसके बारे में मुख्यमंत्री ने सीधे प्रधानमंत्री को जानकारी दी है। यानी प्रधानमंत्री इस पूरे प्रकरण में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शामिल हो गए। इससे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बताए रास्ते पर चलते हुए अशोक गहलोत ने आठ करोड़ राजस्थानियों का नैरेटिव बनवा दिया। जैसे मोदी हमेशा छह करोड़ गुजरातियों की बात करते रहे और अब 130  करोड़ भारतीयों की बात करते हैं वैसे ही गहलोत ने और उनकी देखा-देखी कांग्रेस के सारे नेताओं ने राज्य के राजनीतिक संकट को आठ करोड़ राजस्थानियों के सम्मान के साथ जोड़ दिया। यह उप राष्ट्रीयता की राजनीति का ही एक अलग रूप है।

असल में गहलोत ने पहले दिन से यहीं रणनीति अपनाई। उन्होंने फोन टेप कराने के आरोपों की जोखिम लेते हुए दो बिचौलियों को पकड़ा और तीन निर्दलीय विधायकों के पैसे के लेन-देन की बात को उजागर कर दिया। इस बात को दबाने-छिपाने की बजाय उन्होंने यह सच सार्वजनिक किया कि दो लोग विधायकों से खरीद-फरोख्त की बात कर रहे हैं। इसी सिलसिले में गजेंद्र सिंह शेखावत का नाम आ गया। यह अनायास नहीं था। गहलोत को पता है कि राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का खेमा शेखावत को प्रतिद्वंद्वी के तौर पर देखता है। सो, एक तीर से दो शिकार हो गए।

शुरू में ऐसा लगा कि विधायकों को मनाने की बजाय कांग्रेस उनको नोटिस क्यों जारी करा रही है या पायलट और उनके साथ गए मंत्रियों को क्यों पद से हटाया जा रहा है। पर अब ऐसा लग रहा है कि यह रणनीति भी कुछ हद तक काम कर ही गई है। इस पर भी विधायकों को प्रतिक्रिया देनी पडी और सचिन पायलट खेमे की ओर से जो वकील खड़े हुए उससे यह भी साबित हो गया है कि भाजपा परदे के पीछे से उनकी मदद कर रही है। इसके बाद एक एक करके गहलोत ने सचिन पायलट को लेकर कई बातें सार्वजनिक कर दीं। हर बात पर सचिन पायलट खेमा और भाजपा सिर्फ प्रतिक्रिया दे रहे हैं। उन्होंने कोई ऐसी पहल नहीं की है, जिस पर गहलोत को प्रतिक्रिया देनी पड़ी है।

उन्होंने बहुत होशियारी से यह नैरेटिव भी स्थापित कर दिया है कि उनके पास बहुमत है और वे साबित करने के लिए विधानसभा का सत्र बुलाना चाहते हैं, लेकिन केंद्र सरकार के इशारे पर राज्यपाल इसकी मंजूरी नहीं दे रहे हैं। आगे क्या नतीजा होगा, यह अभी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि जिन लोगों के हाथ में सर्वोच्च ताकत है वे अगर बांह मरोड़ कर सत्ता छीनने की कोशिश करेंगे तो उसे कोई टाल नहीं सकता है, कम से कम अभी के समय में। परंतु अगर मामला राजनीतिक और रणनीतिक दांव-पेंच से आगे बढ़ेगा तो उसमें अभी पायलट खेमा या पूरी भाजपा गहलोत का मुकाबला नहीं कर पाएगी। उन्होंने ऐसी स्थिति बना दी है, जिसमें वे अनिवार्य रूप से जीतेंगे और अगर किसी वजह से हारे भी तो उनकी और कांग्रेस की बाजी मात नहीं मानी जाएगी। वे ‘मारते-मारते मरेंगे’, जिससे अंततः धारणा उनके पक्ष में ही बनेगी।


मंगलवार, 28 जुलाई 2020

मायावती की मदद भाजपा को

बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती कांग्रेस का और खास कर प्रियंका गांधी वाड्रा का विरोध करते करते भाजपा के साथ चली गईं। पहले वे कांग्रेस का विरोध करती थीं। वे प्रियंका गांधी के राजनीतिक दांव-पेंच को ड्रामा बताती थीं पर साथ साथ भाजपा का भी विरोध करती थीं। लेकिन अब खुल कर भाजपा का साथ देने लगी हैं। उनकी पार्टी ने राजस्थान की राजनीतिक उठापटक में जिस तरह से अपने लिए अवसर देखा है वह उनके भाजपा के साथ जाने का स्पष्ट संकेत है। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इसके लिए भाजपा और उनके बीच बात हुई है या वे खुद ही अपनी सेवा वालंटियर कर रही हैं। पर यह तय है कि उनकी सेवाओं से भाजपा को बड़ा फायदा हो सकता है। राजस्थान में जीते उनकी पार्टी के छह विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। अब तक बहुजन समाज पार्टी इस पर चुप्पी साधे हुए थी पर जैसे ही राजनीतिक संकट शुरू हुआ बसपा ने कांग्रेस पर हमले शुरू कर दिए। अब तो पार्टी ने उन छह विधायकों के लिए व्हिप जारी कर दिया है और कहा है कि सदन में उन्हें कांग्रेस के खिलाफ वोट करना है। जाहिर है वे विधायक इसका पालन नहीं करेंगे, तब फिर पार्टी उनकी सदस्यता खत्म करने का अनुरोध स्पीकर से करेगी और यह मामला अदालत में भी ले जाएगी।

उससे पहले छह विधायकों के कांग्रेस में विलय का मुद्दा भी पार्टी हाई कोर्ट में ले गई है। पार्टी के महासचिव सतीश चंद्र मिश्र ने विधायकों को व्हीप जारी करने और उनके विलय को अमान्य बताते हुए कह रहे हैं कि बहुजन समाज पार्टी एक मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय पार्टी है और उसकी राज्य ईकाई का विलय दूसरी पार्टी में नहीं हो सकता है, जब तक राष्ट्रीय ईकाई का नियमानुकूल विभाजन या विलय नहीं होता है। अदालत दलबदल कानून की व्याख्या के बाद अगर इस पर सहमत होती है तो कई राज्यों की सरकारों पर संकट आएगा। बहरहाल, कांग्रेस के नेता मान रहे हैं कि इस मामले को इस तरह से कानूनी रूप देकर उलझाने के बीच अकेले बसपा की सोच नहीं है। बसपा को इसके लिए हर तरह की मदद भाजपा से मिल सकती है। वैसे भी मायावती इस बात से खार खाए हुए थीं कि कांग्रेस ने उनकी पार्टी के विधाकों का विलय कराया। दूसरे वे उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी वाड्रा की सक्रियता से भी परेशान हैं। सो, यह मौका देख कर उन्होंने कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। अब वे कांग्रेस को कमजोर करने की भाजपा की मुहिम का हिस्सा हैं।


बसपा के दावे से विवाद बढ़ेगा

बहुजन समाज पार्टी ने दावा किया है कि वह एक मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय पार्टी है इसलिए उसकी प्रदेश ईकाई का किसी दूसरी पार्टी में विलय तब तक नहीं हो सकता है, जब तक राष्ट्रीय ईकाई में विधिवत विभाजन नहीं हो। यह बात पार्टी ने राजस्थान के छह विधायकों के कांग्रेस में विलय को लेकर कही है। इस मुद्दे पर बसपा ने राजस्थान हाई कोर्ट में याचिका डाली है। बहुजन समाज पार्टी जो दावा कर रही है, ऐसा हाल-फिलहाल में सुनने को नहीं मिला है। कांग्रेस की प्रदेश ईकाई में कई जगह इस तरह का विभाजन या विलय हुआ है और कांग्रेस के पास कानून के बड़े जानकार भी हैं पर कांग्रेस ने कभी इसे चुनौती नहीं दी है। सो, अगर अदालत इस मामले को सुनती है और दलबदल कानून की व्याख्या वैसी ही होती है, जैसी बसपा की है तो एक पंडोरा बॉक्स खुलेगा, जिससे कई राज्यों में संकट खड़ा हो सकता है। पर अदालत ने याचिका खारिज की है।

गौरतलब है कि पिछले दिनों गोवा में प्रदेश कांग्रेस में टूट फूट हुई और दलबदल कानून के नियमों के मुताबिक कांग्रेस के दो-तिहाई विधायक टूट कर भाजपा में चले गए। अगर नियम यह है कि राष्ट्रीय पार्टी इस तरह से नहीं टूट सकती है तब गोवा में कांग्रेस विधायकों के अलग होकर भाजपा में जाने को भी चुनौती मिलेगी। फिर कई गड़े मुर्दे भी उखडेंगे, जैसे अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के तब के नेता और मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने पूरी पार्टी का विलय भाजपा में करा दिया था। अगर राष्ट्रीय पार्टी की राज्य ईकाई का विलय दो-तिहाई बहुमत से नहीं हो सकता है तो फिर रेटरोस्पेक्टिव इफेक्ट अरुणाचल प्रदेश के बारे में भी फैसला करना होगा। मणिपुर, मेघालय से लेकर झारखंड तक के अनेक मामले खुल जाएंगे। छोटे-छोटे राज्यों में इस तरह की घटनाएं बहुत बार हुई हैं।

वकील नेताओं की कहानी

 वकील नेताओं की अजब कहानी है, चाहे वे कांग्रेस के साथ हों या भाजपा के या बसपा और राजद जैसी छोटी पार्टियों में हों, उनकी पूछ कम नहीं होती है। हालांकि यह अलग मसला है कि वे कितने उपयोगी हैं। लालू प्रसाद ने कपिल सिब्बल से लेकर राम जेठमलानी तक को राज्यसभा में भेजा पर उनकी कानूनी मुश्किलें कम नहीं हुईं और वे अंततः जेल काट रहे हैं। बहरहाल, अभी राजस्थान को लेकर चल रही राजनीतिक उठापटक में ही वकीलों की कई कहानियां सामने आ रही हैं। कांग्रेस से बागी हुए सचिन पायलट ने जब मुकुल रोहतगी और हरीश साल्वे की सेवा ली तो कांग्रेस के नेताओं ने इस पर हल्ला मचाया कि भाजपा सचिन पायलट की मदद कर रही है। ध्यान रहे ये दोनों वकील भाजपा के करीबी हैं। केंद्र सरकार ने रोहतगी को पहले अटॉर्नी जनरल बनाया था और खबर है कि हरीश साल्वे अगले अटॉर्नी जनरल होने वाले हैं। यानी पायलट की मदद पूर्व और भावी अटॉर्नी जनरल कर रहे हैं। 

जब इस बात पर कयास लगे तो अचानक यह खबर भी चर्चा में आई कि हाल ही में रोहतगी ने कर्नाटक के कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार का मुकदमा लड़ा है। शिवकुमार के खिलाफ टैक्स और धन शोधन के कई मामले चल रहे हैं। उन मामलों में रोहतगी उनके वकील हैं। इसी तरह रोहतगी और साल्वे को लेकर जो अटकलें लगीं उसे स्पष्ट करने के लिए सचिन पायलट खेमे की ओर से यह बताया गया कि पायलट ने सबसे पहले अभिषेक मनु सिंघवी से संपर्क किया था पर सिंघवी ने कहा कि वे दूसरे पक्ष से यह मुकदमा लड़ने जा रहे हैं इसलिए उनका मुकदमा नहीं लड़ सकते हैं। हालांकि सिंघवी ने यह भी कह दिया कि पायलट का कोई दूसरा मामला होगा तो वे लड़ने के लिए तैयार हैं। इस बीच कांग्रेस के वकीलों के बीच इस बात को लेकर घमासान शुरू हो गया है कि किसने नोटिस जारी करने की सलाह दी, किसने हाई कोर्ट में जाने को कहा, किसने एसएलपी फाइल की, आदि-आदि। कांग्रेस का राजनीतिक विवाद सुलझने की बजाय वकीलों का अलग विवाद शुरू हो गया है। ऐसी स्थिति के लिए ही यह कहावत बनी है कि ज्यादा जोगी मठ उजाड़।


अराजकता का दूसरा नाम बन गया है झारखंड: नड्डा

 भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा ने झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार पर जमकर बरसते हुए कहा कि प्रदेश आज अराजकता का दूसरा नाम बन गया है जहां नक्सली दनदना रहे हैं, भ्रष्टाचार और ट्रांसफर उद्योग बन गया है तथा शासकवर्ग मस्त, मूकदर्शक व बेपरवाह है।

झारखंड के आठ जिलों में नवनिर्मित कार्यालयों का वीडियो कांफ्रेंस से उद्घाटन करते हुए नड्डा ने प्रदेश भाजपा के कार्यकर्ताओं से आह्वान किया कि वे प्रदेश में चल रहे कुशासन पर अंकुश लगाने के लिए जनता के बीच जाएं और एक सफल और अच्छी विपक्ष की भूमिका निभाएं। 

उन्होंने आरोप लगाया, कहीं उग्रवाद, कहीं नक्सलियों का हमला, कहीं लोगों का अपहरण होना, कहीं दिनदहाड़े मारे जाना, कहीं लूट, कहीं डकैती, कहीं अपहरण। आज झारखंड में कानून व्यवस्था चरमरा गई है। झारखंड अराजकता का दूसरा नाम बन गया है। नड्डा ने कहा कि भाजपा की पूर्ववर्ती सरकार के समय झारखंड में नक्सलवाद करीब समाप्त हो गया था और लोग आराम से घूम फिर सकते थे लेकिन उसका प्रकोप आज फिर से बहुत बढ़ गया है।

उन्होंने कहा, आज नक्सलवाद, जो दिखाई नहीं देता था, उसका प्रकोप इतना बढ़ गया है कि जो झारखंड छोड़ कर के चले गए थे, वे आकर झारखंड में फिर से दनदना रहे हैं। वो मस्त हैं। यह तभी होता है जब शासन कमजोर होता है, जब शासक बेपवाह होता है। ये तभी होता है जब शासक को जनता की तकलीफ समझने की इच्छा नहीं होती। नड्डा ने कार्यकर्ताओं का आह्वान किया कि वे ऐसी सरकार को प्रजातांत्रिक तरीके से उखाड़ फेंके और इसके लिए जनता के बीच जाएं।


भाजपा अध्यक्ष ने आरोप लगाया कि कि झारखंड में आज भ्रष्टाचार और ट्रांसफर उद्योग बन गया है और वहां की सरकार समाज विरोधी तत्वों को बचाने का प्रयास कर रही है। उन्होंने आरोप लगाया, आज झारखंड में भ्रष्टाचार एक उद्योग बन गया है। प्रदेश में तबादला उद्योग बना है। हर तबादले के रेट तय हैं। इस पोस्ट के तबादले का इतना पैसा, उस पोस्ट पर तबादले का उतना पैसा। खुलेआम ये धंधा चल रहा है।

हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली झारखंड मुक्ति मोर्चो (झामुमो) सरकार पर अपना हमला जारी रखते हुए नड्डा ने आरोप लगाया कि प्रदेश सरकार गुंडे और असामाजिक तत्वों का सहयोग कर रही है।उन्होंने कहा, एक जो हमारा अच्छा शासन था वो समाप्त हुआ है। एक तरीके से जिसको कहे… गुंडे… ऐसे तत्व जो समाज विरोधी हैं… वो आज दनदना रहे हैं। शासन मूकदर्शक बना हुआ है। कहीं-कहीं सहयोग कर रहा है। कहीं-कहीं मामलों को दबाने का प्रयास कर रहा है।


उन्होंने कोरोना महामारी से निपटने के प्रदेश सरकार के तौर-तरीकों पर भी सवाल उठाए और कहा कि केंद्र की ओर से भेजा जा रहा राशन भी ठीक तरीके से जमीन पर नहीं पहुंच पा रहा है।उन्होंने आरोप लगाया, जिस तरीके से कोविड-19 के खिलाफ जंग में प्रदेश सरकार का प्रबंधन होना चाहिए था वह नहीं हुआ। प्रधानमंत्री ने जो राशन भेजा है वह भी जमीन पर नहीं पहुंचा है। प्रधानमंत्री इधर से राशन भेज रहे हैं लेकिन वह राशन भी ठीक से नहीं पहुंच रहा है। उसमें भी घोटाले हो रहे हैं।

भाजपा अध्यक्ष ने कहा कि यही फर्क पड़ता है सुशासन का और कुशासन का। उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं से आह्वान किया कि वे इन सारे मुद्दों को जनता के बीच ले जाएं, उन्हें अवगत कराएं और उनके साथ मिलकर शासन पर अंकुश लगाएं। उन्होंने कहा, एक विपक्ष के नेता और कार्यकर्ता के रूप में शासन को हमें जगाना भी चाहिए और उन्हें उनकी जिम्मेवारी के बारे में बताना भी चाहिए। हमें सफल और एक अच्छे विपक्ष की भूमिका निभानी चाहिए।

सोमवार, 27 जुलाई 2020

किसके भरोसे कोरोना से लड़ाई?

भारत दुनिया का संभवतः अकेला देश होगा, जहां केंद्र सरकार और केंद्रीय एजेंसियां कोरोना वायरस से नहीं लड़ रही है। यहां केंद्रीय एजेंसियां विपक्षी पार्टियों के समर्थकों के यहां छापे तो मार रही हैं पर कोई केंद्रीय एजेंसी कोरोना से लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती नहीं दिख रही है। ऐसा नहीं है कि केंद्र ने कोरोना से लड़ने का प्रयास नहीं किया था। जब कोविड-19 का संक्रमण देश में शुरू हुआ तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार ने कमान अपने ही हाथ में रखी थी। तब अपने स्वास्थ्य व नीति सलाहकारों के भरोसे सरकार सचमुच यह मान रही थी कि कोरोना को 21 दिन में हरा दिया जाएगा। इसी सोच में देश के 138 करोड़ लोगों को हैरान करते हुए एक दिन अचानक लॉकडाउन लागू किया गया था।  

उस समय तो यह सोच थी कि सारी दुनिया में सरकारें जिस काम में फेल हो रही हैं वह काम अगर भारत कर दे तो दुनिया में क्या वाहवाही होगी! वह विश्व नेता बनने की सोच का क्षण था! इसी सोच में 21 दिन का लॉकडाउन हुआ और उसे अलग अलग रूपों में 68 दिन तक बढ़ाया गया। जब 21 दिन की बजाय 68 दिन बीत गए और कोरोना का वायरस रूकने की बजाय और तेजी से फैलने लगा तो ‘यह लै अपनी लकुटि कमरिया, बहुतहिं नाच नचायो’ के अंदाज में केंद्र सरकार ने सब कुछ छोड़-छाड़ कर अपने को अलग कर लिया।

याद करें, जब पांच सौ या हजार-दो हजार केसेज रोज आ रहे थे तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कितनी बार राज्यों के मुख्यमंत्रियों से वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए संवाद किया था? तब उन्होंने इस तरह के आधा दर्जन संवाद किए थे। चार-पांच बार उन्होंने राष्ट्र को संबोधित किया। और अब जबकि हर दिन 50 हजार केसेज आ रहे हैं और देश के ज्यादातर राज्य कोरोना संकट के बढ़ते मामलों से परेशान हैं तो सरकार मुंह पर गमछा लपेट कर बैठे हैं। राज्यों की कोई खोज-खबर नहीं ली जा रही है। उनसे कोई संवाद नहीं किया जा रहा है। न प्रधानमंत्री ने उनसे संवाद करने की जरूरत समझी है और न गृह मंत्री ने। स्वास्थ्य मंत्री तो खैर पहले भी संवाद नहीं करते थे।

अब हालात यह है कि केंद्र ने राज्यों को उनके हाल पर छोड़ा हुआ है और सारे राज्य कोरोना संक्रमण से पैदा हुए स्वास्थ्य संकट के साथ-साथ भारी आर्थिक संकट में फंसे हैं। उन्हें केंद्र से कोई मदद नहीं मिल रही है। जब तक प्रधानमंत्री संवाद करते रहे तब तक राज्यों के मुख्यमंत्री भी उनसे आर्थिक पैकेज की मांग करते रहे पर बाद में थक हार कर मांग करना छोड़ दिया। केंद्र सरकार ने 21 लाख करोड़ रुपए का एक पैकेज घोषित किया, जिसमें राज्यों के लिए सिर्फ इतना किया गया कि उनकी कर्ज लेने की सीमा बढ़ा दी गई।

अब राज्यों को दो मोर्चे पर लड़ना पड़ रहा है। एक मोर्चे पर कोरोना की लड़ाई है और दूसरे मोर्चे पर अर्थव्यवस्था की लड़ाई है। चूंकि राज्यों को केंद्र से कोई आर्थिक पैकेज नहीं मिला है तो उन्हें अपने ही राजस्व से काम चलाना है। यहीं वजह है कि ज्यादातर राज्य अपने यहां कोरोना के बढ़ते मामलों के बावजूद लॉकडाउन नहीं कर पा रहे हैं। उनको पता है कि दो महीने से ज्यादा समय के राष्ट्रीय लॉकडाउन ने उनकी क्या हालत कर दी है। तभी उन्होंने अपने नागरिकों का जीवन खतरे में डाल कर सब कुछ खोला हुआ है। लोग भी अपनी जान जोखिम में डाल कर बचे-खुचे कामकाज में लगे हुए हैं क्योंकि उन्हें पता है कि कोरोना से तो जैसे तैसे बच जाएंगे पर आर्थिक मार से बचना मुश्किल है।

दुनिया के देशों में, जहां भी कोरोना का संक्रमण फैलने से रोकने के लिए लॉकडाउन किया गया, वहां सरकारों ने उस अवधि का इस्तेमाल मेडिकल सुविधाएं जुटाने के लिए किया। लेकिन भारत में वह भी नहीं किया गया। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और कारोबारी राजधानी मुंबई को छोड़ दें तो देश के ज्यादातर हिस्सों में लोग कोरोना के लक्षण लेकर जांच के लिए दर-दर भटक रहे हैं। किसी के बुलाने पर अगर एंबुलेंस आ गई तो लोग आठ-आठ घंटे एंबुलेंस में इस अस्पताल से उस अस्पताल के चक्कर काट रहे हैं। राज्यों की राजधानियों में लोग आपस में चंदा करके ऑक्सीजन सिलिंडर लोगों के यहां पहुंचा रहे हैं। राजधानियों में बने कोविड सेंटर में भरती मरीजों के बीच एक समय के खाने के लिए मारपीट हो रही है और पुलिस पहुंच कर मामला शांत करा रही है। 138 करोड़ की आबादी में चार लाख जांच पर सरकार पीठ थपथपा रही है।

हकीकत यह है कि देश के ज्यादातर हिस्से में लोग जांच तक नहीं करा पा रहे हैं, जिनकी जांच किसी तरह हो गई और रिपोर्ट कोरोना पॉजिटिव आई तो वे अस्पताल में भरती नहीं हो पा रहे हैं, किसी तरह भरती हो गए तो कहीं आईसीयू नहीं है, कहीं ऑक्सीजन नहीं है, कहीं वेंटिलेटर नहीं है, कोविड सेंटर में एक समय के खाने के लिए मारपीट हो रही है, सरकारी अस्पतालों में मरीजों की जानवरों से बुरी दशा है और निजी अस्पतालों में लूट का नंगा नाच हो रहा है। सोचें, दुनिया के किस देश में इस तरह से कोरोना के खिलाफ लड़ाई हो रही है? और इन सबके बीच में दावा यह कि हमने कोरोना संकट में डेढ़ सौ देशों की मदद की।

सारी दुनिया इस समय कोरोना से लड़ रही है। लेकिन भारत में कोरोना कम से कम केंद्र सरकार की प्राथमिकता में नहीं है। उसकी रोजाना की प्रेस ब्रीफिंग काफी पहले बंद हो गई है। राज्यों से संवाद भी बंद हो गया। राष्ट्र के नाम संबोधन और ताली-थाली बजाने, दीया-मोमबत्ती जलाने आदि का काम भी काफी समय से बंद ही है। अब प्राथमिकता में सबसे ऊपर मंदिर निर्माण कराना है, राज्यों में विपक्षी सरकारों को अस्थिर करना है, विपक्षी नेताओं के यहां केंद्रीय एजेंसियों के छापे डलवाने हैं, आपदा को अवसर बनाते हुए सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में बंद करना है और इस साल के अंत में या अगले साल होने वाले चुनावों की तैयारी करनी है।

इस बीच सबक यह है कि अगर राज्य अपने को कोरोना से बचा सकते हैं तो बचा लें, अपनी आर्थिकी को बचा सकते हैं तो बचा लें, विपक्षी पार्टियां अपनी सरकार बचा सकती हैं तो बचा लें, नागरिक अपने रोजगार व नौकरियां बचा सकते हैं तो बचा लें, कंपनियां कारोबार बचा सकती हैं तो बचा लें, छात्र पढ़ाई कर सकते हैं तो कर लें, दलित-आदिवासी अपने अधिकार बचा सकते हैं तो बचा लें, मजदूर अपने हक में बने कानून बचा सकते हैं तो बचा लें, सरकार कुछ नहीं कर सकती है क्योंकि सरकार यहीं सब खत्म करने में तो बिजी है।


हम कैसे रामभक्त हैं ?

अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास होनेवाला है, यह एक बड़ी खुश-खबर है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को सभी पक्षों ने मान लिया है, यह भारत के सहिष्णु स्वभाव का परिचायक है लेकिन राम मंदिर बनानेवाला हमारा यह वर्तमान भारत क्या राम चरित का अनुशीलन करता है ? हमारे नेताओं ने राम मंदिर बनाने पर जितना जबर्दस्त जन-जागरण किया, क्या उतना जोर उन्होंने राम की मर्यादा के पालन पर दिया ? मर्यादा पुरुषोत्तम राम को भगवान बनाकर हमने एक मंदिर में बिठा दिया, वहां जाकर घंटा-घड़ियाल बजा दिया और प्रसाद खा लिया। बस इतना ही काफी है। हम हो गए रामभक्त ! पूज लिया हमने राम को ! यहां मुझे कबीर का वह दोहा याद आ रहा है, जिसमें उन्होंने कहा है कि ‘जो पत्थर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड़।’ राम के चरित्र को अपने आचरण में उतारना ही राम की सच्ची पूजा है। सीता पर एक धोबी ने उंगली उठा दी तो राम ने सीता को अग्नि-परीक्षा के लिए मजबूर कर दिया ? क्यों कर दिया? क्योंकि राजा या रानी या राजकुमारों का चरित्र संदेह के परे होना चाहिए। सारे देश या सारी प्रजा या सारी जनता के लिए वे आदर्श होते हैं। यही सच्चा लोकतंत्र है। 

लेकिन हमारे नेताओं का क्या हाल है ? धोबी की उंगली नहीं, विरोधी पहलवानों के डंडों का भी उन पर कोई असर नहीं होता। देश के बड़े से बड़े नेता तरह—तरह के सौदों में दलाली खाते हैं, उन पर आरोप लगते हैं, मुकदमे चलते हैं। और वे बरी हो जाते हैं। नेताओं की खाल गेंडों से भी मोटी हो गई है। राम ने दशरथ की वचन-पूर्ति के लिए सिंहासन त्याग दिया और वन चले गए लेकिन आज के राम दशरथों को ताक पर बिठाकर सिंहासनों पर कब्जा करने के लिए किसी से भी हाथ मिलाने को तैयार हैं। वनवासी राम ने किस-किसको गले नहीं लगाया ? उन्होंने जाति-बिरादरी, ऊंच-नीच, मनुष्य और पशु के भी भेदभावों को पीछे छोड़ दिया लेकिन राम नाम की माला जपनेवाले हमारे सभी नेता क्या करते हैं ? इन्हीं भेदभावों को भड़काकर वे चुनाव के रथ पर सवार हो जाते हैं। वे कैसे रामभक्त हैं ? राम ने लंका जीती लेकिन खुद उसके सिंहासन पर नहीं बैठे। न ही उन्होंने लक्ष्मण, भरत या शत्रुघ्न को उस पर बिठाया। उन्होंने लंका विभीषण को सौंप दी। लेकिन हमारे यहां तो परिवारवाद का बोलबाला है। सारी पार्टिया—— मां-बेटा पार्टी या भाई-भाई पार्टी या बाप-बेटा पार्टी या पति-पत्नी पार्टी बन गई हैं। राम ने राजतंत्र को लोकतंत्र में बदलने की कोशिश की लेकिन हम रामभक्त हिंदुस्तानी लोकतंत्र को परिवारतंत्र में बदलने पर आमादा हैं ! हम कैसे रामभक्त हैं ?


संघ परिवार: कल और आज

सीताराम गोयल ने पाया था, ‘‘कि आरएसएस और बीजेएस (भारतीय जनसंघ) के बड़े-बड़े नेता अपना लगभग सारा समय और ऊर्जा यह प्रमाणित करने में खर्च करते थे कि वे हिन्दू संप्रदायवादी नहीं, बल्कि सच्चे सेक्यूलर हैं।’’ यही स्थिति आज भी है। संघ के कार्यकर्ताओं ने कॉलेज में पढ़ रहे सीताराम गोयल को ‘‘हिन्दू राष्ट्र पर लिखने को प्रेरित करने के लिए काफी भाषण पिलाया।’’ आज भी उन के नेता नारे, जुमले गढ़ते हैं, और दूसरों को उस पर लिखने के लिए कहते हैं।

तब संघ के लोग कहते थे ‘‘कि महात्मा (गाँधी) केवल मुस्लिम लीग का टट्टू और अफगानिस्तान के अमीर का एजेंट है।’’ आज वे उसी तरह की बातें कांग्रेस के वर्तमान नेताओं के बारे में कहते हैं।उस जमाने में वे ‘‘कांग्रेस और बीजेएस की नीतियों के अंतर पर मेरी बातों को पसंद नहीं करते थे। उन्होंने मुझे बार-बार कहा कि मैं कांग्रेस को बेईमान समाजवादी व सेक्यूलर तथा बीजेएस को ईमानदार समाजवादी व सेक्यूलर कहूँ।’’ आज भी वे भाजपा को ईमानदार और कांग्रेस को भ्रष्ट कहने पर मुख्य जोर देते हैं।

संघ-परिवार के नेता सीताराम गोयल की बातें सुनते थे, मगर ‘‘गंभीरता से नहीं लेते थे। अधिकांश समझते थे कि संगठन ही सब कुछ है, और विचारदृष्टि का मूल्य बहुत कम है।’’ गोयल ने देखा था कि ‘‘आरएसएस की सभाओं में वक्ता दर वक्ता ‘बुद्धिजीवियों’ का खूब मजाक उड़ाता, कि इन्होंने पुस्तकें तो बहुत पढ़ ली मगर जिन्हें ‘व्यवहारिक समस्याओं’ का कुछ पता नहीं।’’ दोनों स्थितियाँ यथावत हैं।

पचास साल पहले भी ‘‘आम तौर पर वे किसी विचार पर प्रतिक्रिया नहीं करते थे, सिवा अपने संगठन (संघ) और उस के नेताओं के बारे में। हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू समाज, हिन्दू इतिहास पर कोई कितनी भी बुरी-बुरी बातें कहे, एक आम आरएसएस व्यक्ति कोई प्रतिक्रिया नहीं करता।’’ आज भी यही हाल है।सीताराम गोयल के लेखन से आम संघ-बीजेएस कार्यकर्ता बहुत प्रेरित हुए थे। जिस ने ‘‘हमारे लोगों के चिंतन में एक क्रांति कर दी है’’, आदि। पर जैसे ही ऊपर किसी नेता की नजर टेढ़ी हुई, वैसे ही पलटी मार कर कहा, ‘‘सीताराम जी, आपको नेहरू के सिवा कोई काम नहीं है? आखिर नेहरू ने ऐसा क्या कर दिया जो आप हाथ धोकर उन के पीछे पड़ गए?’’ संभवतः आज भी किसी ऊपरी नेता की नजर ही विद्वान का मूल्यांकन करती है। कूनराड एल्स्ट जैसे दुर्लभ विद्वान के प्रति व्यवहार यही दर्शाता है।

तब भी संघ परिवार को ‘‘एक मात्र जीवित हिन्दू आंदोलन के रूप में देखा जाता था… पर आरएसएस-बीजेएस में हो रही बातों के जो समाचार मुझे मिल रहे थे, काफी निराश करने वाले थे।’’ यह स्थिति आज भी है। वे एक मात्र हिन्दू आंदोलन दिखते हैं, मगर वैसे ही वैचारिक रूप से दबे-सकुचे, दिशाहीन, साफ बोलने से बचते, अपने किसी हवाबाज नेता के आगे झुके, और अपनी कोरी दलीलों से आत्मतुष्ट। तब एक लोकप्रिय बीजेएस नेता ने पार्टी को ‘‘कमो-बेश पूरी तरह अपने कब्जे में कर लिया था। वह न केवल पंडित नेहरू के विचार-तंत्र से सहमत था, बल्कि अपने पार्टी सहयोगियों से निपटने में उन जैसे मिजाज का भी था।’’ आज भी उन्होंने लगभग किसी भी नेहरूवादी विचार को नहीं ठुकराया है।

तब भी लफ्फाजियाँ थीं: ‘‘अमेरिका का जो बेड़ा बंगाल की खाड़ी की ओर बढ़ रहा है, उस का एक जहाज भी वापस न जाने पाए’’ कहा जाता था। आज भी चीन, अमेरिका, यूरोप, हर कहीं अपनी धाक, तथा भारत के ‘‘विश्व-गुरू बन जाने’’ की लफ्फाजी उसी तरह है। असली स्थिति अमेरिकी, चीनी कार्रवाइयों से, तथा हमारी कोई स्कूली पुस्तक उलट कर देखी जा सकती है।

तब गुरू गोलवलकर सार्वजनिक मंच से कहते थे ‘‘कि वे इस्लाम का आदर हिन्दू धर्म से जरा भी कम नहीं करते। कि कुरान उन के लिए उतना ही पवित्र है जितना वेद, और वे प्रोफेट मुहम्मद को मानव इतिहास में ज्ञात महानतम पुरुषों में एक मानते हैं।’’ आज भी, हाल में एक सर्वोच्च भाजपा नेता ने ‘‘प्रोफेट मुहम्मद के रास्ते पर चलने’’ का सार्वजनिक उपदेश दो बार दिया है।इस प्रकार, जो सीताराम गोयल ने देखा था कि संघ-परिवार की नजर में ‘‘यदि इस्लाम इतना सुंदर है तो फिर कोई समस्या ही नहीं!’’ संभवतः वही आत्म-छलना आज भी है।

गोयल ने पाया था कि ‘‘आरएसएस-बीजेएस पूरी तरह नेहरूवादी विचारों के अनुरूप हो गए और तदनुरूप … कांग्रेसियों, समाजवादियों से भरपूर नीचा व्यवहार पाया।’’ आज भी ताकतवर भाजपा अध्यक्ष हिन्दू-निंदक पत्रकार कुलदीप नैयर से मिलने उन के घर गए, उन्हें अतिविशिष्ट सम्मान दिया! जबकि दूसरे ही दिन नैयर ने लेख प्रकाशित कर संघ-परिवार को नीच बताया। सो, सेक्यूलर-वामपंथी लोग संघ-परिवार को आज भी हीन समझते हैं, पर संघ-भाजपा नेता उन की मनुहार करते रहते हैं।

आज भी भाजपा नेता अपने सेक्यूलर, वामपंथी मित्रों को उसी तरह पद, सम्मान देने पर अड़े रहते हैं, जैसे तब मॉस्को के भारतीय एजेंट या सैयद शहाबुद्दीन को दिया गया था। कुछ ऐसी ही निराधार दलीलें देकर कि वह ‘‘सही प्रकार का मुस्लिम नेता है जिसे हम ढूँढ रहे हैं।’’तब भी ‘‘आरएसएस या बीजेपी में किसी को शायद जानकारी नहीं थी या याद करने की परवाह न थी, कि भारत के इतिहास में इस इस्लामी रंग ने क्या भूमिका दिखाई है, और भारत के भविष्य के लिए इस का क्या संकेत है।’’ आज भी स्थिति बदलने का कोई प्रमाण नहीं है।

भाजपा के गठन के बाद ‘‘नेहरूवादी नारे लगाने का एक और मंच तैयार हो गया।’’ आज चार दशक बाद भी ‘विकास सभी समस्याओं का समाधान’, तथा ‘गरीबों’, ‘दलितों’  व ‘अल्पसंख्यकों’ की विशेष चिंता, आदि मूलतः नेहरूवादी और सारतः हिन्दू-विरोधी एवं हिन्दू-विखंडक नारे ही हैं। इस के बावजूद कि संघ-परिवार के नेताओं ने पाया कि ‘‘ऑर्गेनाइजर (संघ के अखबार) के लिए सीता राम गोयल सब से कमाल की घटना साबित हुए हैं’’, उन के लेखों को पहले सेंसर, फिर बंद किया गया। अहंकार से कहा गया कि ‘‘कभी कभी लिखिए।’’ वही स्थिति आज भी है जब डेविड फ्रॉले, श्रीकान्त तलागेरी, कपिल कपूर जैसे अनूठे विद्वानों का पार्टी-हित में ‘कभी-कभी’ उपयोग किया जाता है। हिन्दू धर्म-समाज के लिए उन के मूल्यवान योगदान एवं संभावनाओं का सदुपयोग करने की बुद्धि नहीं है!

मुसलमानों को किसी भी तरह अपने साथ जोड़ लेने की लालसा यथावत है। यह पूछने पर कि ‘‘क्या आप सचमुच चाहते हैं कि मुसलमान आप के पास आएं?’’, उत्तर शुरू हुआ था: ‘‘एक रणनीति के रूप में …’’। तीन-चार दशक पहले की वह बचकानी हालत आज भी हू-ब-हू बनी हुई है। मानो मुस्लिम अपना मतवाद और इतिहास नहीं जानते। उन्हें बहलाने-फुसलाने के चक्कर में संघ-परिवार हिन्दू धर्म-समाज की हानि और अपनी किरकिरी भी कराता है। पर सीख नहीं लेता। अतः कांग्रेस पर ‘‘वोट के लिए मुसलमानों का तुष्टीकरण’’ आरोप लगाना, और स्वयं उसी में लग जाने में कोई परिवर्तन नहीं आया। यह संघ-भाजपा के बयानों, कार्यों, निर्णयों से दिखता है। इस्लाम के प्रति वे कल्पनाओं में रहने के आदी हैं। इस के इतिहास या भावी संभावनाओं से निर्विकार। किसी नेता के चमत्कार पर निर्भरता पहले से बढ़ गई है। इसलिए उन का संगठन कागजी शेर भी लगता है। जिस में किसी झटके को संभालने की शक्ति पहले से कम और सत्ता पर निर्भरता हो।

इसलिए सभी सचेत हिन्दुओं को स्थिति का वास्तविक आकलन करना चाहिए। हिन्दू धर्म और समाज किसी पार्टी या संगठन से बहुत बड़ा है।

नाराज विधायकों को नुकसान पहुंचाने की साजिश रच रहे हैं गहलोत- भाजपा

जयपुर। राजस्थान विधानसभा सत्र बुलाए जाने को लेकर राज्यपाल और सरकार के बीच जारी गतिरोध के बीच भारतीय जनता पार्टी ने कहा कि कांग्रेस की सियासत केवल सत्र बुलाने के लिए नहीं है बल्कि इसके पीछे भी सियायत है। भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष सतीश पूनिया  ने कहा, ‘गहलोत सरकार  विधानसभा सत्र बुलाने के लिए षड्यंत्र कर रही है, वह अपने ही लोगों पर चोट पहुंचाने के लिए ऐसा कर रहे है।’

पूनिया ने सीएम अशोक गहलोत पर लगाए ये आरोप

भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष सतीश पूनिया ने कहा कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत खुद से नाराज और निराश विधायकों को नुकसान पहुंचाने के लिए ऐसा षड्यंत्र रच रहे हैं, जिसमें यह भी हो सकता है कि उन्हें अयोग्य घोषित करने का भी षडयंत्र रचा जा रहा हो। कहीं न कहीं यह सियासत केवल सत्र बुलाने के लिए नहीं, इसके पीछे भी सियासत है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस के जो 19 विधायकों की नाराजगी की बात सामने आ रही है, उनको अशोक गहलोत कांग्रेस पार्टी से बाहर करने का षड्यंत्र रच रहे हैं।

विधानसभा अध्यक्ष ने रची ये साजिश

विधानसभा अध्यक्ष द्वारा कांग्रेस के नाराज विधायकों के नोटिस को लेकर पूछे गये सवाल का जवाब देते हुए पूनिया ने कहा कि इसमें मुख्यमंत्री गहलोत का षड्यंत्र है कि 19 विधायकों को पार्टी से बाहर कैसे निकाला जाये यह सारी साजिश उन्होंने रची है। उन्होंने कहा कि बसपा छोड़कर कांग्रेस में शामिल हुए छह विधायकों को लेकर विधायक मदन दिलावर की ओर से दायर याचिका को विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी द्वारा याचिका खारिज करने और इसी पर कार्यवाही को लेकर उच्च न्यायालय द्वारा अपील खारिज किये जाने को भाजपा फिर से अदालत में चुनौती देने की तैयारी कर रही है। उन्होंने कहा कि हमारे विधि जानकारों से राय मशवरा किया जा रहा है, उसके बाद एक नई याचिका दायर की जाएगी।

कांग्रेस ने लगाए ये आरोप

राजस्‍थान कांग्रेस के प्रभारीअविनाश पांडे ने कहा कि सरकार राजस्थान में विधानसभा का सत्र बुलाना चाहती है, कोरोना महामारी सहित अहम मुद्दों पर चर्चा करना चाहती हैं। राजस्थान कोरोना और आर्थिक संकट से दोहरा मुकाबला कर रहा है। जबकि आने वाले दिनों में सरकार कोरोना से बेरोजगार हुए लोगों को राहत देने का काम करेगी। सीएम अशोक गहलोत ने विधानसभा सत्र बुलाने का आग्रह राज्यपाल से किया है। कैबिनेट की मंजूरी से सत्र बुलाने का प्रस्ताव भेजा है, लेकिन राज्यपाल बाधाएं डालकर विधानसभा सत्र नहीं बुलाने दे रहे। यही नहीं, विधानसभा सत्र बुलाने की मांग करते हुए आज 102 विधायकों का वीडियो फेसबुक और ट्विटर पर अपलोड किया है। राजस्‍थान कांग्रेस के प्रभारी अविनाश पांडे ने कहा कि विधायकों की खरीद फरोख्त के प्रयत्नों को सफल नहीं होने देंगे। संघर्ष जारी रहेगा, यह लड़ाई लोकतंत्र और षड्यंत्र की है, लोकतंत्र की जीत होगी। राजस्‍थान कांग्रेस के प्रभारी अविनाश पांडे ने कहा है कि 19 बागी विधायक गलती मानते हुए माफी मांगें तो पार्टी में वापसी पर विचार करेंगे।  

रक्षा सौदों में असहमति जताने की सजा नौसेना अध्यक्ष भागवत ने भुगती..!

असहमति जताने के मूल अधिकार को सर्वोच्च न्यायालय आज अत्यंत महत्वपूर्ण निरूपित कर रहा हैं , परंतु क्या यह अधिकार सिर्फ जनता के चुने प्रतिनिधियों को ही हैं ? अथवा यह सभी नागरिकों और अधिकारियों को भी हैं ?

यह सवाल इसलिए आज महत्वपूर्ण हो गया ,चूंकि एड्मिरल भागवत को तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फेर्नांडीस के निर्देश नहीं मानने के आरोप में बर्खास्त किया गया था ! शायद यह विश्व के सैनिक इतिहास की पहली घटना थी जिसमें एक लोकतान्त्रिक देश में सेना के एक सर्वोच्च अधिकारी को अपमानजनक तरीके से हटाया गया था !

आज इस घटना का ज़िक्र इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता हैं की जार्ज फर्नांडीस की सहयोगी तथा एक आईएएस अधिकारी की पत्नी जया जेटली को सीबीआई की न्यू दिल्ली कोर्ट ने नौसेना के लिए थर्मल इमेजर की खरीद में घोटाले के लिए जया जेटली और मेजर जनरल {अवकाश प्राप्त } एस पी मुरगाई और तत्कालीन जनता पार्टी के नेता गोपाल पचेरवाल को रिश्वत खोरी के जुर्म में अपराधी घोषित किया हैं। 20 वर्ष पूर्व हुए इस घोटाले के समय केंद्र में अटल बिहारी वाजपायी की सरकार थी , जिसमें आडवाणी जी आदि समेत कई लोग सदस्य थे। कहते हैं की यदि पाप किया गया हैं ,तो वह कभी भी ना कभी उभर कर आता हैं। यह बात आज हो रहे पापो और अनियमितताओ पर भी लागू होगा। ऐसा नैसर्गिक न्याय कहता हैं !

समझा जाता हैं की की तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारयनन ने भी उस समय सरकार की सिफ़ारिश पर पुंहविचर करने की सलाह दी थी। परंतु जार्ज के उग्र स्वभाव को लेकर प्रधान मंत्री अटल जी सरकार के बहुमत को ख्याल रखते हुए , मजबूर हो गए थे। एवं उन्होने राष्ट्रपति से एड्मिरल विष्णु भागवत को बर्खास्त करने का आदेश सेनाओ के सुप्रीम कमांडर की हैसियता से नौसेना एक्ट के तहत जारी किया ! आपातकाल में रेल की पटरियो को डायनामाइट से उड़ाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। केंद्र में गैर काँग्रेस सरकार के गठन के पश्चात उस मामले को सरकार ने वापस ले लिया ! उनके सभी साथी भी छोड़ दिये गए। इतना ही नहीं जॉर्ज की रेल्वे मेंस फेडरेशन के साथी जो इस मामले में अभियुक्त थे वे भी सममानपूर्वक रिहा कर दिये गए।

भागवत की बर्खास्तगी के मामले में प्रेस द्वरा बार कारण या दोष पूछे जाने पर रक्षा मंत्री का जवाब यही रहा था कि वे सरकार के निर्देशों का पालन नहीं करते थे , उनको मानने में ताल मटोल करते थे ! जब भागवत जी से घटना के काफी समय बाद भी बर्खास्तगी का कारण पूछा गया तो उनका उत्तर था की मैं अपने पद की शपथ और मर्यादा का उलंघन नहीं कर सकता। यानहा तक की जब उन्होने अपनी बर्खास्तगी को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी , थी , तब भी सरकार की ओर से कहा गया था कि निष्कासन के कारणो का सार्वजनिक क्या जाना -देश की सुरक्षा के लिए उचित नहीं। परिणाम सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के बारे में भागवत से कोई पूछताछ भी नहीं की !

आज बीस साल बाद सीबीआई कोर्ट ने जॉर्ज की सहयोगी जया जेटली और उनके दो साथियो को रक्षा सौदो की खरीद में घोटाले का अपराधी माना ! यह मुकदमा राजीव गांधी के समय के बोफोर्स तोप की खरीदी और मोदी सरकार द्वरा फ्रांस से राफेल विमानो की खरीद की गूंज के साये में आया हैं। हो सकता हैं की भविष्य में इनकी जांच में भी कोई नया गुल खिले !

भाजपा को रास नहीं आ रही भागवत कथा…!

भारत में करीब एक सौ साल से तो कांग्रेस व संघ ही विद्यमान रहा है, कांग्रेस का जन्म जहां 1889 में हुआ था तो संघ का जन्म उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में हुआ और पूर्व जनसंघ का जन्म तो काफी बाद में हुआ। किंतु यह सही है कि जनसंघ का जनक संघ ही माना गया, जिसे संघ ने अपना राजनीतिक संगठन घोषित कर रखा था, बीसवीं सदी के मध्य में भारत की आजादी के आसपास ही जनसंघ का जन्म हुआ जो 1980 में भारतीय जनता पार्टी बन गया, अर्थात् आज जो भारतीय जनता पार्टी है उसकी उम्र महज चालीस साल ही है जबकि संघ उसके दादाजी की उम्र अर्थात् करीब सौ वर्षीय है,

अब ऐसे में यदि आज के पोते को आज की हवा लग गई और उसे दादाजी का गलत काम पर गुर्राना अच्छा नहीं लग रहा है, तो उसके लिए समय दोषी है, भाजपा नहीं, हाँ….. यह अवश्य है कि भाजपा अपनी पुरानी सामाजिक संस्कृति भूल गई और मौजूदा हालातों में ढल गई, फिर जब से भाजपा पर सत्ता का रंग चढ़ा है, तब से तो उसकी स्थिति एक बहुप्रचलित कहावत- ‘‘पहले तो मियाँ बावले, ऊपर से पीली भाँग’’ के अनुरूप हो गई, जब सत्ता किसी को भी अपने समकक्ष नहीं समझती तो फिर संघ या संघ प्रमुख क्या चीज है? और यह सब तभी होता है, जब भाजपा सत्ता में रहती है, खासकर वर्तमान में? क्योंकि जब अटल जी – आडवानी जी का राज था, तब संघ की स्थिति ऐसी नहीं थी। 

अब तो आप जबसे डॉ. मोहनराव भागवत संघ प्रमुख बने है, तभी से अब तक का इतिहास उठाकर देख लो उनके हर कथन को विवादास्पद बना दिया गया सत्तारूढ़ भाजपा के महापुरूषों द्वारा फिर वह बिहार चुनावों के पहले के उनके वक्तव्य हो या आज दलबदलुओं के बारे में भागवत जी द्वारा भोपाल में की गई टिप्पणी हो? भागवत जी जहाँ भाजपा की पुरातन संस्कृति और मौजूदा सत्ताप्रधान कार्यप्रणाली के बीच तालमेल नहीं बैठा पा रहे है और दलबदलुओं को भाजपा संगठन के समर्पित सदस्य नहीं मानते वहीं सत्ता का रंगीन चश्मा चढ़ाये भाजपा के दिग्गज दलबदलुओं को अपने वर्षों पुराने समर्पित कार्यकर्ताओं से अधिक तवज्जोह दे रहे है, यहीं भाजपा की सोच भागवत जी को रास नहीं आ पा रही है, वे भाजपा को अपने जमाने के उसी जनसंघ के चश्में से देख रहे है,

जिसमें पार्टी के सिद्धांतों व परम्पराओं को प्राथमिकता दी जाती रही थी। भागवत जी परिवार के बुुजुर्ग की हैसीयत में सब कुछ पूर्वानुसार देखना चाहते है, जो कि मौजूदा हालातों में संभव नहीं है अर्थात भागवत जी अपने संघ का वर्चस्व कायम रखकर अपनी बात ‘आदेश’ के रूप में मनवाना चाहते है और आज की भाजपा को नई पीढ़ी पारिवारिक बुजुर्ग की तरह दादाजी को एक कमरे में कैद करके रखना चाहती है, मुख्यरूप में आज संघ और भाजपा का यही विवादित स्वरूप है। चूंकि संघ प्रमुख व भाजपा दोनों के चश्में और उनसे देखने का नजरिया मेल नही खा रहा है, इसीलिए संघ व उसके प्रमुख अपने आपकों उपेक्षित समझ रहे है, संघा प्रमुख भाजपा को पुराने जनसंघ के सांचे में ढला देखना चाहते है जो अपने सिद्धांतों व मर्यादाओं से बंधी हो और भाजपा चूंकि सत्ता मद्य सेवन कर उसके नश में झूम रही है, इसलिए उसे अपने बुजुर्ग संगठन व उसके प्रमुख के आदर-सम्मान का कोई भान नही है।

वैसे यदि भाजपा को संगठन व उसके समर्पित सिद्धांतों की कसौटी पर कसकर मौजूदा दलबदलुओं के माहौल में देखा जाए तो सत्ता अहम् नजर आती है और संगठन के सिद्धांत गौण, यही आज का परिदृष्य है, अब इसे किसी भी नजरिये से देख लीजिए, यह आप पर है।

राज्‍यपाल ने कहा- बुला सकते हैं विधानसभा सत्र, माननी होंगी ये बातें

जयपुर। राजस्‍थान के सियासी संकट के बीच राज्यपाल कलराज मिश्र   ने राजस्थान सरकार  को सशर्त विधानसभा सत्र बुलाने की अनुमति प्रदान कर दी है। राज्यपाल ने अपने निर्देश में कहा कि सरकार वर्तमान परिस्थितियों में 21 दिन की समयसीमा में सत्र आहूत करे, जिससे कोरोना वायरस संक्रमण के चलते विधायकों को विधानसभा में आने में परेशानी न हो। इसके साथ ही राज्यपाल ने कहा कि सत्र के दौरान सोशल डिस्‍टेंसिंग का पालन करना जरूरी होगा।  राजस्थान सरकार ने 31 जुलाई से सत्र को बुलाने की अनुमति मांगी है।

कांग्रेस को माननी होंगी ये शर्तें

राज्यपाल कलराज मिश्र ने राजस्थान सरकार को विधानसभा सत्र बुलाने की अनुमति दे दी है, लेकिन उसके सामने कई शर्तें भी रख दी हैं। सत्र 21 दिन की समयसीमा में बुलाने के अलावा  को देखते हुए सोशल डिस्‍टेंसिंग का ध्‍यान रखना भी जरूरी है। राज्‍यपाल ने सरकार से पूछा है कि विधानसभा सत्र के दौरान सोशल डिस्‍टेंसिंग का पालन किस प्रकार किया जाएगा। क्‍या कोई ऐसी व्‍यवस्‍था है जिसमें 200 विधायकों के अलावा 1000 से अधिक अधिकारी और कर्मचारियों के जुटने पर कोरोना संक्रमण का  खतरा न हो। अगर किसी को संक्रमण हुआ तो उसे कैसे रोका जाएगा। इसके अलावा बहुमत परीक्षण हो तो उसका लाइव प्रसारण भी करना जरूरी है।


राज्यपाल कलराज मिश्र ने गहलोत सरकार को भेजे अपने पत्र में यह भी कहा है कि राजभवन की ऐसी कोई मंशा नहीं है कि विधानसभा सत्र न बुलाया जाए। राज्यपाल ने कहा है कि संवैधानिक नियमावली और तय प्रावधानों के तहत प्रदेश में सरकार चले, वे इसके लिए प्रतिबद्ध हैं। इसलिए संविधान के अनुच्छेद 174 के तहत सरकार को विधानसभा का सत्र बुलाने का परामर्श दिया गया है।

राज्यपाल के निर्देश

1- विधानसभा सत्र 21 दिनों का नोटिस देकर बुलाया जाए, ताकि संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत मौलिक अधिकारों और सबको समान अवसर प्राप्त हो सके।

2- विश्वासमत प्राप्त करने की सभी प्रक्रिया संसदीय कार्य विभाग के प्रमुख सचिव की मौजूदगी में ही पूरी की जाए।

3- विश्वासमत प्राप्त करने की पूरी प्रक्रिया की वीडियो रिकॉर्डिंग भी कराई जाए।

4- विधानसभा में विश्वासमत प्राप्त करने की प्रक्रिया हां या ना के बटन दबाने के माध्यम से पूरी हो।

5- सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में विभिन्न मुकदमों में अपने फैसले दिए हैं, विधानसभा में विश्वासमत प्रस्ताव के दौरान इन फैसलों का भी ध्यान रखा जाए।

6- कोरोना वायरस संक्रमण का खतरा देखते हुए विधानसभा में सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का पालन हो, यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

7- विधानसभा सत्र के दौरान 1000 से अधिक कर्मचारी और 200 से ज्यादा सदस्यों की उपस्थिति से कोरोना संक्रमण का खतरा न फैले, इसका भी ध्यान रखा जाए।

सीएम ने पीएम मोदी से की शिकायत

इससे पहले राजस्थान में राज्य सरकार और राजभवन के बीच टकराव के कारण विधानसभा सत्र बुलाने को लेकर तीन-चार दिन से बने गतिरोध को देखते हुए मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से राज्यपाल की शिकायत की थी। सीएम ने सोमवार को विधायकों से कहा कि उन्होंने कल गवर्नर (राज्यपाल) के बर्ताव के बारे में पीएम नरेंद्र मोदी से फोन पर बात की है। उन्होंने 7 दिन पहले विधायकों की खरीद फरोख्त मामले में लिखे गए पत्र के बारे में भी बातचीत की है।

रविवार, 26 जुलाई 2020

संकट में सरकारी कंपनियां

भारत में अभूतपूर्व आर्थिक संकट है। हालांकि ऐसा नहीं है कि कोरोना वायरस की वजह से ही यह संकट खड़ा हुआ है। कोराना का संक्रमण शुरू होने से पहले लगातार सात तिमाहियों में विकास दर गिरती जा रही थी। कोरोना के कारण इतना हुआ है कि उसके बाद विकास पूरी तरह से रूक गया है और माना जा रहा है कि यह माइनस में जाएगा। इसका असर सबके ऊपर हुआ है। पर ऐसा लग रहा है कि सबसे ज्यादा असर सरकारी कंपनियों के पर हुआ है। एक एक करके सरकारी कंपनियां दिवालिया होने की ओर बढ़ रही हैं।  खबर है कि भारतीय रेलवे के पास अपने कर्मचारियों का वेतन और रिटायर हो चुके कर्मचारियों को पेंशन देने के पैसे नहीं हैं। सोचें, क्या हाल है? छह साल से एक ऐसी सरकार चल रही है, जिसका दावा है कि उसने पहले हो रही सारी लूट, भ्रष्टचार बंद कर दिए हैं और सारी संस्थाओं के कामकाज को बेहतर कर दिया है और वास्तविक स्थिति यह है कि देश में सबसे ज्यादा रोजगार देने वाली भारतीय रेलवे के पास वेतन देने के पैसे नहीं हैं। खबर है कि रेल मंत्रालय ने वित्त मंत्रालय से मदद करने को कहा है ताकि उसके 15 लाख रिटायर कर्मचारियों को पेंशन दी जा सके।

एयर इंडिया का संकट पहले से चल रहा था और सरकार पैसे देकर उसको बचा रही थी। अब कोरोना में दूसरे किसी भी एयरलाइंस के मुकाबले एयर इंडिया की हालत ज्यादा खराब हुई है। बिकने के लिए बाजार में खड़ी एयर इंडिया ने अपने हजारों कर्मचारियों को वेतनरहित छुट्टी पर भेजा है। उनसे कहा गया है कि उनकी नौकरी नहीं जाएगी पर उन्हें कंपनी वेतन भी नहीं दे सकती है। चूंकि एयर इंडिया का सिस्टम रेलवे से अलग है तो सरकार उसकी मदद करके पेंशन तो दिलवा देगी पर यह तय हो गया है कि हालात नहीं सुधरने वाले हैं। लगातार मुनाफा कमाने वाली भारत की महारत्न कंपनी ओएनजीसी पहली बार घाटे में गई है। सोचें, बनने के बाद पहली बार यह कंपनी घाटे में गई है और वह भी कोरोना की वजह से नहीं। कोरोना का संकट शुरू होने से पहले की तिमाही में यानी जनवरी से मार्च 2020 की तिमाही में ओएनजीसी को 3,098 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। पिछले साल इसी अवधि में यानी 2019 की जनवरी-मार्च की तिमाही में कंपनी को 4,240 करोड़ रुपए का मुनाफा हुआ था। ऐसा भी कहा जा रहा है कि ओएनजीसी के घाटे में जाने का मतलब है कि सरकार इसे भी बेचने की तैयारी में लग जाएगी।

सावधान! जनहित के काम जारी हैं!

प्राचीन हिंदू मान्यता है कि ‘जो होता है, अच्छे के लिए होता है’। अमिताभ बच्चन इसको ऐसे कहते हैं ‘मेरे बाबूजी कहा करते थे कि मन का हो तो अच्छा है और मन का न हो तो और भी अच्छा है, क्योंकि अपने मन का नहीं होगा तो वह भगवान के मन का होगा’। जाहिर है जब भगवान के मन का होगा तो अच्छा ही होगा। उसी तरह क्या हुआ, जो जनता के मन लायक काम नहीं हो पा रहा है? सरकार अपने मन का जो कर रही है वहीं असली जनहित का काम है। वह जनता के लिए अच्छा कर रही है पर जनता इस बात को समझ ही नहीं रही है। तुच्छ इंसान इस बात को समझ नहीं पा रहा है कि जो हो रहा है वह अच्छा हो रहा है। 

सरकार पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ा रही है तो वह अच्छा कर रही है, उससे अंततः जनता का भला होना है। सरकार रेलवे का निजीकरण कर रही है और निजी ट्रेनों में किराया ज्यादा लिया जा रहा है तो वह जनता के भले के लिए हो रहा है। सैनिटाइजर पर 18 फीसदी जीएसटी लगा दिया गया तो इससे भी जनता का नुकसान नहीं होगा, उलटे उसका भला ही होगा। सरकार ने लॉकडाउन किया तो क्या वह अपने लिए किया था, वह भी तो जनता के लिए किया था और उससे कितना फायदा हुआ! नोटबंदी से क्या कम लोग खुश हुए थे! असल में लोग ‘ग्रैंड डिजाइन’ को, ‘मास्टरस्ट्रोक’ को समझ ही नहीं पा रहे हैं। तभी केंद्र सरकार के मंत्रियों ने अपने अपने हिसाब से समझाया है। अब शायद लोगों को समझ में आए।

अनेक नासमझ लोग कह रहे हैं कि रेलवे को निजी हाथों में दिया जा रहा है, यह अनर्थ हो रहा है। आम आदमी कैसे यात्रा करेगा। हर दिन तीन करोड़ लोग भारतीय रेल से यात्रा करते हैं, जिनमें ज्यादातर गरीब या मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग के लोग होते हैं। इन लोगों को लगा कि रेलवे को निजी हाथों में दे दिया जाएगा तो उनको नुकसान होगा। तभी स्वंय रेल मंत्री प्रकट हुए और उन्होंने आकाशवाणी करते हुए कहा- पीपीपी (सीधे निजीकरण तो तुच्छ इंसान कहते हैं) द्वारा रेलवे में आधुनिक तकनीक आएगी, जिससे विश्वस्तरीय सुविधा, सुरक्षा और आरामदेह और सुगम सफर मिलेगा। इससे यात्रियों को सीटों की उपलब्धता भी बढ़ेगी और रोजगार का सृजन भी होगा।

सोचें, सरकार के एक कदम से लोगों को कितना फायदा होने वाला है और लोग समझ ही नहीं पा रहे हैं। वे इस चिंता में पड़े हैं कि जैसे दिल्ली-लखनऊ रूट पर जो निजी ट्रेन चलाई गई है वह ज्यादा किराया लेती है। अगर उसी तरह सारी निजी ट्रेनें ज्यादा किराया लेंगी तो आम लोग ट्रेन से कैसे चलेंगे। आम लोग नहीं चढ़ेंगे तो क्या हो गया, सुविधा तो देखिए कितनी मिल रही है। और वैसे भी आम लोगों को जाना कहां हैं? अगर जाना ही है तो हवाई जहाज से जाएं,  प्रधानमंत्री ने कहा हुआ है कि वे हवाई चप्पल वालों को हवाई जहाज से यात्रा कराएंगे, उनको ट्रेनों से क्या मतलब है, वे हवाई जहाज से जाएं। क्या कहा, पहले कह रहे थे कि रेलवे का निजीकरण नहीं होगा और अब फायदा गिना रहे हैं? हां, तो क्या हो गया, पहले की बात पहले थी, अब जो कह रहे हैं उसे  सुनो!

इन दिनों लगातार पेट्रोल-डीजल के दाम रोज बढ़ रहे हैं, दिल्ली में पेट्रोल की कीमत ऐतिहासिक ऊंचाई पर पहुंच गई है और देश के इतिहास में पहली बार डीजल के दाम पेट्रोल से ज्यादा हो गए है तो तुच्छ इंसानों ने हल्ला मचाना शुरू किया कि यह जुल्म हो रहा है, जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल सस्ता हुआ है तो भारत में क्यों महंगा किया जा रहा है। तब दूसरे अवतार प्रकट हुए। पेट्रोलियम मंत्री ने आकाशवाणी करते हुए कहा- पेट्रोल और डीजल की बढ़ती कीमत से आम लोगों पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। उन्होंने तो फिर भी रेल मंत्री के मुकाबले काफी संकोच किया और यह नहीं बताया कि लोगों को इससे कितना फायदा हो रहा है। सोचें, महंगाई होने से, विकास कार्य ठप्प होने से और लॉकडाउन आदि की वजह से पेट्रोल-डीजल की खपत कितनी कम हो गई है और इसी वजह से पर्यावरण कितना साफ हो गया है! लोग सरकार के मास्टर स्ट्रोक को समझ ही नहीं रहे हैं कि सरकार महंगाई बढ़ा कर पेट्रोल-डीजल की बिक्री कम कराना चाह रही है ताकि तेल आपूर्ति करने वाले अरब देशों की कमर तोड़ी जा सके और देश की हवा शुद्ध की जा सके। वैसे भी सरकार बेचने जा रही है पेट्रोलियम कंपनियों को तो जो निजी कंपनी पेट्रोल-डीजल बेचेगी उसको नफा-नुकसान होगा, उसकी चिंता सरकार क्यों करे!

ऐसे ही सरकार ने कोरोना वायरस के संक्रमण के बीच सैनिटाइजर पर 18 फीसदी जीएसटी लगा दिया तो लोग चीखने-चिल्लाने लगे कि ऐसा नहीं करना चाहिए, यह अत्याचार है। तब इस फैसले से होने वाली भलाई की जानकारी देने के लिए इस बार निराकार ब्रह्म प्रकट हुए। वित्त मंत्रालय की ओर से कहा गया- अगर इसे घटाया गया तो इससे सरकार के आत्मनिर्भर भारत अभियान को चोट पहुंचेगी और उपभोक्ताओं का भी इससे खास फायदा नहीं होगा।

सोचें, लोग अपना ही फायदा नहीं समझते हैं, वह भी सरकार को समझाना होता है। एक तो लोग समझ ही नहीं रहे हैं कि आत्मनिर्भर होना कितना जरूरी है। कब तक लोग सरकार पर निर्भर रहेंगे? सरकार पर निर्भर रहना अच्छी बात नहीं है। जो लोग आत्मनिर्भर हुए और पैदल ही अपने गांव को चले गए, वे गिरते-पड़ते, मरते-खपते घर तो पहुंच गए। बाकी जो सरकार के भरोसे रहे, उन्हें कितना ज्यादा पैसा देना पड़ा, घर पहुंचने के लिए। रेलवे ने उसी में 428 करोड़ रुपए की कमाई भी कर ली। सो, आत्मनिर्भर होना ठीक है या रेलवे की कमाई कराना ठीक है, वह भी तब, जब सरकार रेलवे को निजी हाथों में देने जा रही है?

लोग पूछ रहे हैं कि चीन को ‘लाल आंख’ क्यों नहीं दिखा रहे, जीडीपी क्यों गिरती जा रही है, भारतीय मुद्रा की कीमत क्यों गिर रही है, रोजगार और नौकरियां क्यों खत्म हो रही हैं? अब क्या समझाएं, यह सब मास्टरस्ट्रोक का हिस्सा है, जिसे तुच्छ इंसान नहीं समझ सकते हैं। सब उनके भले के लिए ही हो रहा है। समय आने पर उनको इसका असर दिखेग। तब तक सब्र रखें। सब्र का फल मीठा होता है। इतना सब होने के बाद भी कुछ लोग कंफ्यूज हैं कि पहले की सरकारें जब ऐसा करती थीं, तब तो उनको जनहित का काम नहीं माना जाता था। तब पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ना जन विरोधी काम था। निजीकरण और टैक्स बढ़ाना भी जन विरोधी काम था। अब ऐसा कैसे हो गया कि पेट्रोल-डीजल का दाम बढ़ना भी अच्छा है, निजीकरण भी अच्छा है, जीएसटी बढ़ना भी अच्छा है? अरे, यह क्या बात हुई! यह फर्क भी तो देखो कि आपने किसे चुना है! अब आपने ‘बोलने वाला प्रधानमंत्री’ चुना है तो उन्होंने भाषण में कोई कमी रखी है? आपने प्रधान सेवक चुना है तो क्या उन्होंने सेवा में कोई कसर छोड़ी है? आपने चौकीदार चुना है तो आपकी चौकीदारी में कोई कसर रह गई है? क्या कहा, सीमा की चौकीदारी? वह तो इतना खराब बना कर गए हैं नेहरू की उसकी क्या चौकीदारी हो सकती है! बाकी और कोई कमी हो तो बताइए!