गुरुवार, 21 जून 2018

लोकतांत्रिक भारत के इतिहास का काला अध्याय

इंदिरा गांधी की तानाशाही औरआपातकालीन त्रासदी"

भारत में अंग्रेजी हुकूमत का एक ऐसा दौर गुज़रा है, जब सारे भारतवासियों को भंयकर  तकलीफों का सामना करना पड़ा था, और  अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचारों व प्रताड़नाओं से  तंग आकर देशवासियों ने अनेकों क्रातियाँ की, सत्याग्रह किये और कई बलिदानों के बाद भारत देश को आज़ादी मिली थी।

डाक्टर आलोक भारद्वाज
 अंग्रेजों  के चले जाने के बाद देश वासियों को इस बात की पूरी ख़ुशी थी कि अब भारत में लोकतंत्र आ चुका है और यहाँ पर किसी भी नेता का तानाशाही रवैया नहीं सहा जाएगा, किन्तु बहुत जल्द ही 25 जून सन 1975 की मध्यरात्रि को भारत में इंदिरा गाँधी ने भारतीय लोकतंत्र की मान्यताओं का हनन करते हुए आपातकाल की घोषणा की थी। और 26 जून 1975 की सुबह  भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक  कलंकित काले अध्याय की शुरूआत के रुप में हुई थी।  इस  आपातकाल के दौरान  भारतीय लोकतांत्रिक मूल्यों की धज्जियाँ उडती रहीं।

सरकार के विरोध में जनहित हेतु आवाज उठाने  वाले लोगों को ईन्दिरा सरकार पुलिस के द्वारा गिरफ्तार कराती रही. कई जन आंदोलनकारियों को बुरी तरह मारापीटा गया. इस तरह से देश के हर तबके के लोगों को दबाने की कोशिश की गयी।


आपातकाल क्या है ?

आपातकाल भारतीय संविधान में एक ऐसा प्रावधान है, जिसका प्रयोग तब किया जाता है, जब देश को किसी आतंरिक, बाह्य अथवा आर्थिक रूप से किसी तरह के खतरे की आशंका होती है।


आपातकाल की आवश्यकता कब ?

हमारे संविधान के निर्माताओं ने इस तरह की आपातकालीन स्थिति की कल्पना की कि यदि कभी देश पर ऐसा संकट आये, जिससे राष्ट्र की एकता, अखंडता और सुरक्षा खतरे में हो तो इस समय के लिए कुछ ऐसे प्रावधान बनाने पड़ेंगे, जिसके अनुसार केंद्र सरकार के हाथ बंधे न हों और वह बिना किसी रोक टोक गंभीर निर्णय ले सके. उदाहरण के तौर पर यदि कोई पड़ोसी देश हम पर हमला करता है, तो हमारी सरकार को संसद में जवाबी हमले के लिए किसी तरह का बिल पास करवाने का ईन्तजार ना करना  पड़े, क्योंकि हमारे देश में संसदीय लोकतंत्र है, इसलिये हमारे देश को किसी अन्य देश से लड़ने के लिए पहले संसद में बिल पास कराना होता है. किन्तु कभी कभी ऐसा भी हो सकता है कि हमला अचानक हो और हमें किसी तरह की औपचारिक क्रियाकलापों को निपटाने का मौक़ा नहीं मिले, ऐसी स्थिति में केंद्र सरकार के पास इस प्रावधान के तहत अधिक शक्तियां आ जाती हैं और केंद्र सरकार अपनी मर्ज़ी के अनुसार निर्णय लेने में समर्थ हो जाती है, केंद्र सरकार को यह शक्तियाँ इस आपातकालीन स्थिति से देश को निकालने के लिये प्राप्त होती हैं।

भारतीय संविधान में आपातकाल


भारत विश्व का सबसे बड़ा गणतंत्र है. हमारे भारतीय  संविधान के निर्माण में विश्व भर के कई देशों के संविधानों का अध्ययन करके उपयुक्त बातों और तथ्यों को शामिल किया गया  है। भारतीय संविधान में आपातकाल की चर्चा संविधान के 18 वें हिस्से में आर्टिकल 352 से 360 के बीच की गई है।  संविधान में यह प्रावधान वेइमार संविधान (1919 से 1933) से लिया गया है. वेइमार रिपब्लिक जर्मनी को कहा जाता था।

भारतीय संविधान  में आपातकाल के प्रकार 

भारतीय संविधान में तीन तरह के आपातकाल का वर्णन है।

1 नेशनल इमरजेंसी : इसका वर्णन संविधान के आर्टिकल 352 में किया गया है. यह इमरजेंसी पूरे देश में लागू होती है. यह मुख्यतः तीन परिस्थितियों में लागू की जा सकती है. ये तीन स्थितियां है . यदि किसी अन्य देश के साथ युद्ध हो रहा हो.
बाहर से कोई  ‘नॉन स्टेट एक्टर’ यदि हम पर हमला कर दे. भारतीय संविधान में इस घटना के लिए ‘एक्सटर्नल अग्रेशन’ शब्द का प्रयोग किया गया है.
यदि देश के अन्दर ही कोई हथियारबंद संस्था  भारत सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल देती है. भारतीय संविधान में पहले इस स्थिति को ‘इंटरनल डिस्टर्बेंस’ के नाम से परिभाषित किया गया था, किन्तु बाद में इसे बदल कर ‘आर्म्ड रिबेलियन’ कर दिया गया. यह परिवर्तन सन 1978 में कर दिया गया था।
उपरोक्त तीनों स्थितियों के अतिरिक्त भी यदि सरकार को कभी ऐसा लगता है कि ऐसी स्थितियों के आने की संभावना है, तो सरकार इस स्थिति में नेशनल इमरजेंसी लागू कर सकती है.

2 राष्ट्रपति शासन (स्टेट इमरजेंसी) : इसका वर्णन संविधान के आर्टिकल 356 में किया गया है. यह किसी राज्य में तब लागू की जाती है, जब वहाँ पर संविधानिक तंत्र प्रशासन चलाने में असमर्थ हो जाता है. आरम्भ में इसका वर्णन बस इतना ही था किन्तु बाद में जब कोर्ट केस आदि हुए तो, भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने उन विशेष कारणों का वर्णन किया जब किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है. इसके अतिरिक्त भारतीय संविधान के आर्टिकल 365 के आधार पर भी किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है. इस आर्टिकल के अंतर्गत यदि कोई राज्य केंद्र सरकार के आवश्यक निर्देशों का पालन नहीं करता है, तो भी वहाँ पर राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है।
3 आर्थिक आपातकाल : इसका वर्णन भारतीय संविधान के आर्टिकल 360 में किया गया है. यह भारत में तभी लागू किया जा सकता है, जब भारत की आर्थिक स्थिरता किसी रूप से खतरे में आ जाती है. अतः यदि किसी स्थिति में भारत की आर्थिक नीतियाँ पूरी तरह से असफल हो जाती हैं, तो यह इमरजेंसी भारत सरकार द्वारा लागू की जा सकेगी।
भारत में राष्ट्रीय आपातकाल (नेशनल इमरजेंसी) 

भारत में अब तक तीन बार राष्ट्रीय आपातकाल लागू किया गया है. इन तीनों आपातकाल का समय निम्नलिखित है.

वर्ष 1962 से वर्ष 1968 तक, जिस दौरान भारत- पकिस्तान और भारत- चीन युद्ध हुए. इस समय भारत की आर्थिक स्थितियां बहुत ख़राब हुईं।
वर्ष 1971 में भारत पाकिस्तान लड़ाई के समय भी पुनः इस इमरजेंसी को लागू किया गया।
वर्ष 1975 में इंदिरा गाँधी ने ‘इंटरनल डिस्टर्बेंस’ का कारण बता कर पूरे भारत में इमरजेंसी लागू कराई. यह इमरजेंसी बहुत अधिक घातक थी, जिसके अंतर्गत सरकार ने आम लोगों की आवाजों को दबाने का खूब प्रयास किया।
आपातकाल की प्रक्रिया 

भारत में आपातकाल  सिर्फ भारत के राष्ट्रपति लागू कर सकते हैं, किन्तु इसके लिए उन्हें यूनियन कैबिनेट द्वारा लिखित में सिफारिश की आवश्यकता होती है, हालाँकि सन 1975 में ऐसा नहीं हुआ था और उस समय प्रधानमत्री इंदिरा गाँधी ने मौखिक तौर पर घोषणा करके देश में आपातकाल लागू किया था, इस इमरजेंसी की घोषणा संसद के दोनों सदनों में इसके लागू होने के एक महीने के अन्दर पारित कराने की आवश्यकता होती है. यदि दोनों सदनों द्वारा यह पारित  हो जाती है, तो यह आपातकाल लगातार छः महीने तक जारी रहता है और इसे अगले छः महीने के लिए लागू कराने के लिए पुनः दोनों सदनों में बिल पास कराना होता है. इस आपातकाल की समय सीमा बढ़ाने के लिए संसद के किसी एक सदन में ‘स्पेशल मेजोरिटी’ के तहत बिल पास कराना होगा. ‘स्पेशल मेजोरिटी’ के अंतर्गत संसद में मौजूद वोट कर रहे सदस्यों का 2/3 हिस्सा पक्ष  में होना चाहिए।

आपातकाल की समाप्ति 

आपातकाल की समाप्ति भारत के राष्ट्रपति किसी भी समय कर सकते हैं. विशेष बात यह है कि इसकी समाप्ति की घोषणा के लिए राष्ट्रपति को किसी भी तरह की संसदीय अनुमोदन की आवश्यकता नहीं होती है. हालाँकि राष्ट्रपति को अपनी यह घोषणा वापस लेनी पड़ सकती है, जब लोकसभा में एक आम बहुमत के साथ इस बात की पुष्टि हो जाए कि देश में आपातकाल की आवश्यकता है।

भारत में वर्ष 1975 के त्रासदी पूर्ण आपातकाल की  दिल दहलाने वाली यादें।
वर्ष 1975 का आपातकाल भारतीय लोकतान्त्रिक इतिहास का काला दिवस माना जाता है।  इस आपातकाल के पीछे भारत की तात्कालिक प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने ‘इंटरनल डिस्टर्बेंस’ का हवाला दिया था और इसी हवाले पर यह इमरजेंसी 21 मार्च 1977 तक चली। इस इमरजेंसी के दौरान सभी तरह के लोकतान्त्रिक चुनावों को निलंबित कर दिया गया तथा आम नागरिकों की स्वतंत्रता को भी कई तरह से  बाधित किया गया।  इंदिरा गाँधी की तानाशाहीपूर्ण नीतियों के अधिकतर विरोधियों को जेल में डाल दिया गया और भारतीय मीडिया तथा प्रेस को सेंसर कर दिया गया ।

राजनैतिक और नागरिक अशांति :
वर्ष 1973 -75 के दौरान इंदिरा गाँधी की कुनीतियों के विरूद्ध पूरे भारत में अशांति बढ़ने लगी थी, इंदिरा गाँधी की सरकार का कई तरह से विरोध किया जा रहा था. इस समय के सबसे बड़े आंदोलन में एक था गुजरात का नव निर्माण आंदोलन,  यह आंदोलन वर्ष 1973 से 1974 के बीच रहा। गुजरात राज्य की शिक्षा व्यवस्था इस दौरान पूरी तरह से चरमरा गयी थी और विद्यार्थियों के आन्दोलनों की वजह से राज्य सरकार को केंद्र सरकार में मिला दिया गया।

 वर्ष 1974 के मार्च अप्रैल महीने में  बिहार छात्र संघर्ष समिति को जयप्रकाश नारायण का समर्थन प्राप्त हुआ और उनके नेतृत्व में बिहार सरकार के ख़िलाफ़ एक बड़ा आंदोलन हुआ।

इस समय जय प्रकाश नारायण ने ‘संपूर्ण क्रांति’ का ऐलान किया, जिसके अंतर्गत विद्यार्थियों, किसानों और आम मजदूरों को एक मंच पर  लाया गया।

इस आंदोलन का उद्देश्य  था कि ये सभी लोग केवल अहिंसात्मक तरीके से अपनी मांगे सरकार के सामने रखें। इसी समय रेलवे कर्मचारी यूनियन ने पूरे देश भर में रेलवे की हड़ताल कर दी। इस हड़ताल को भी इंदिरा गाँधी द्वारा बहुत ही निर्मम तरीक़े से दबाया गया। इस दौरान कई रेलवे कर्मचारियों को नाकेवल गिरफ्तार कर लिया गया बल्कि प्रताड़ना और तानाशाही का चरमरूप दिखाकर उनके परिवारवालों को रेलवे क्वार्टर से बाहर निकाल दिया गया। सरकार को अपने इस कुकृत्य की वजह से काफ़ी आलोचना झेलनी पड़ी,  सरकार को इसके लिए संसद में भी काफ़ी आलोचना झेलनी पड़ी थी।

आपातकाल की घोषणा :
सरकार ने सभी नेशनल सिक्यूरिटी एजेंसी को इस बात के लिए सावधान कर दिया कि पकिस्तान से युद्द होने वाला है। इस युद्ध के अतिरिक्त सरकार के सामने जो तात्कालिक समस्याएं थीं वह था सूखा और सन 1973 का तेल संकट, इन संकटों से जूझते हुए भारत की अर्थ व्यवस्था काफ़ी खराब हो गयी थी। सरकार का कहना था कि देश के अन्दर हो रहे हड़ताल और प्रतिवाद ने सरकार को कार्य करने में पूरी तरह से असक्षम बना दिया है, जिस वजह से भारत की व्यवस्था खराब होती जा रही थी।

इस समय इंदिरा गाँधी ने उनके कुछ तथाकथित ईमानदार नेताओं की सलाह को मानना सही समझा।

इस समय पश्चिम बंगाल के तात्कालिक मुख्य मंत्री सिद्धार्थ शंकर राय ने भी इंदिरा गाँधी को देश भर में ‘आतंरिक आपातकाल’ लागू करने की सलाह दी, उन्होने अपने पत्र में इस बात की चर्चा की कि भारत में आतंरिक रूप से बहुत अधिक अराजकता फ़ैल गयी है और सरकार को काम करने में कठिनाई हो रही है. इस तरह से ओछी  राजनीतिक दुर्भावना  के साथ सिद्धार्थ शंकर राय ने यह दिखाया कि किस तरह संविधान के दायरे में रह कर भी लोकतान्त्रिक मूल्यों का हनन किया जा सकता है।

आपातकाल के दौरान गिरफ्तारियां :
भारतीय संविधान के 352 अनुच्छेद के  अंतर्गत इंदिरा गांधी ने स्वयं को सरकार में रखते हुए कई असाधारण संवैधानिक शक्तियां प्राप्त की. इन् संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग इंदिरा गाँधी ने अपने विपक्ष तथा आम लोगों के विरोध को दबाने के लिए किया. सरकार ने पूरे देश भर में पुलिस और आर्मी लगा दी और सरकार के निर्णयों का विरोध करने वाले लोगों को गिरफ्तार करना शुरू किया. इस समय   विजयराजे सिंधिया, जयप्रकाश नारायण, राज नारायण, मोरारजी देसाईं, चौधरी चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, अरुण जेटली, सत्येन्द्र नारायण सिन्हा, गायत्री देवी के साथ कई अन्य तात्कालिक जननेताओं को गिरफ्तार किया गया।

इसी समय   राष्ट्र निर्माण हेतु निस्वार्थ समर्पित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जमात ए इस्लामी जैसी संस्थाओं पर सरकार द्वारा बैन लगा दिया गया। कांग्रेस में सभी लोग बुरे नहीं थे कुछ लोग राष्ट्र के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को समझते थे और इंदिरा गांधी की स्वार्थी नीतियों का विरोध करते थे और अपनी ही पार्टी के ऐसे  ईमानदार नेताओं  को भी इंदिरा गांधी ने प्रताड़ित किया , मोहन धरिया और चन्द्र शेखर जैसे कांग्रेसी नेताओं ने भी सरकार के इस फैसले के विरोध में सरकार को अपना इस्तीफ़ा दिया और कांग्रेस पार्टी से भी नाता तोड़ लिया ।  इन ईमानदार नेताओं को भी  गिरफ्तार कर लिया गया। इंदिरा गांधी  द्वारा अपने षड्यंत्र के तहत तमिलनाडु की  चुनी हुई करूणानिधि सरकार गिरा दी गयी और उनकी पार्टी के कई नेताओ को जेल में डाल दिया गया। इन लोगों को ‘मेंटेनेंस ऑफ़ इंटरनल सिक्यूरिटी एक्ट’ के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया था ।

क़ानून मानवाधिकार और चुनाव :
इस समय विपक्ष की स्थिति बहुत खराब हो चली थी. कई राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया और चुनावों को रद्द कर दिया गया था। तात्कालिक इंदिरा सरकार के पास दो तिहाई बहुमत था, अतः तात्कालिक कांग्रेस सरकार देश के लिए नया क़ानून लिख सकती थी। इस समय जब इंदिरा गाँधी को यह लगा कि तात्कालिक कानून व्यवस्था बहुत धीमी है, तब उन्होंने राष्ट्रपति के लिए ऐसे शख्स को चुना जिसके  होने से वे अपने मन मुताबिक कार्य कर सकती थी. इस तरह इंदिरा गाँधी ‘रूल बाई डिक्री’ के अनुसार अपना शासन चलाना चाहती थीं। जस्टिस खन्ना ने अपनी किताब ‘मेकिंग ऑफ़ इंडिया’ कंस्टीट्यूशन’ में लिखा कि ‘कोई भी एक संविधान केवल पन्ने पर लिखा गया नियम नहीं है, बल्कि यह आम लोगों के जीवन यापन का तरीक़ा है’।

जबरन नसबंदी थोपी  :
सितम्बर 1976 में  देश भर में अनिवार्य नसबंदी का आदेश दिया । इसके अंतर्गत लोगों की इच्छा के विरुद्ध नसबंदी कराई गयी. वर्ष 1976- 77 के समय करीब 8.3 मिलियन नसबन्दिया कराई गयीं. इस समय सरकार के इस फैसले से कई आम लोगों की दैनिक जीवनचर्या तक भी प्रभावित हुई।

 कई लोगों को इस नसबंदी से इन्फेक्शन हुआ और वे एक समय तक कार्य करने तथा जीविकोपार्जन करने में असमर्थ रहे. हवा सिंह नाम के एक जवान विधुर को भी ज़बरदस्ती इस प्रक्रिया के अंतर्गत लाया गया और इन्फेक्शन की वजह से उसकी मौत हो गयी थी।

इमरजेंसी  लोकतांत्रिक भारत के विकास को बाधित करने के लिए  और अपनी तानाशाही प्रवृत्ति को अमलीजामा पहनाने के लिए इंदिरा गांधी द्वारा उठाया गया निंदनीय कृत्य था जिसकी युगो युगो तक सिर्फ आलोचना ही होती रहेगी क्योंकि   आपातकाल के समय  लोकतंत्र को प्रताड़ित करने वाले यह कुकृत्य किए गए थे।

1.बिना किसी चार्ज के आम लोगों की पुलिस द्वारा जांच पड़ताल

2. कई आम तथा निजी मीडिया का सरकारी प्रचार प्रसार के लिए प्रयोग

3.इमरजेंसी के दौरान संजय गाँधी ने किशोर कुमार को कांग्रेस पार्टी की बॉम्बे रैली के लिए गाने को कहा था, किन्तु किशोर कुमार ने इससे इनकार कर दिया था. इस पर तात्कालिक ब्रॉडकास्टिंग मंत्री विद्या चरण शुक्ल ने किशोर कुमार के गाने का दूरदर्शन तथा टीवी पर आने पर अनौपचारिक बैन लगा दिया था. यह बैन 4 मई 1976 से लेकर इमरजेंसी के अंतिम दिनों तक चला।

4.सरकार द्वारा जबरन नसबंदी की प्रक्रिया  ने कई निसंतानों को भी नामर्द और बांझ बना दिया। और  परिवारों को खत्म कर दिया।

6.इस समय कई किताबों और फ़िल्मों पर भी बैन लगाया गया  ताकि इंदिरा गांधी की कुनीतियों का विरोध आम जनता तक नहीं पहुंच पाए ,और भारत की जनता इंदिरा गांधी की तानाशाही नीतियों के बाहुपाश में बंधी रहे।

आपातकाल के बाद भारत में सन 1977 का चुनाव

जनवरी 1977 में इंदिरा गाँधी ने फिर से चुनाव की घोषणा की और सभी आंदोलनकारियों को जेल से रिहा कर दिया गया।  इस समय कांग्रेस की कुनीतियों के सबसे बडे़ विरोधी  विपक्ष जनता आंदोलन ने लोगों से यह अपील की, कि भारतवासियों के लिए लोकतंत्र और तानाशाह के बीच किसी एक को चुनने का यह आख़िरी मौक़ा होगा।

इस लोकसभा चुनाव के दौरान इंदिरा गाँधी और संजय गाँधी दोनों ने अपने लोकसभा सीट गंवा दी। इसी तरह बिहार और उत्तरप्रदेश में भी सभी कांग्रेसी नेताओं को हार मिली। कांग्रेस को इस चुनाव में सिर्फ 153 सीटें ही प्राप्त हुईं, जिसमे 92 सीटें दक्षिण भारत के चार राज्यों से प्राप्त हुई थीं।  इस चुनाव में जनता पार्टी को कुल 298 सीटें प्राप्त हुईं।  और  भारत को उसका पहला ग़ैरकांग्रेसी प्रधानमन्त्री  आदरणीय मोरारजी देसाई के रूप में मिला । इस समय उत्तरप्रदेश में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिल पायी थी, जब कि उत्तरप्रदेश को कांग्रेस का गढ़ माना जाता था। पश्चिम बंगाल में भी कांग्रेस की स्थिति बहुत खराब हो गयी थी।

इस तरह से आपातकाल का वह समय  भारतीय राजनैतिक इतिहास में भारतवासियों  के लिए एक बहुत दुखद अवधि रही है, जिसे आज भी सबक के तौर पर याद किया जाता है।

 आम नागरिक के मन में सोचने पर यह प्रश्न अवश्य उठता है कि वंशवाद से त्रस्त कांग्रेस पार्टी आखिर क्यों भारतवर्ष के विकास से पहले खुद के निजी हितों को वरीयता देती है?

 इन्हीं की तथाकथित कारगुजारियों को भांपकर शायद वर्षों पूर्व हमारे राष्ट्रपिता आदरणीय महात्मा गांधी जी ने यह कहा था की, "as a political party Congress shall             wither away."

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