जयपुर। राजस्थान भाजपा के अध्यक्ष को लेकर तीन दिन से दिल्ली में अहम बैठकों का दौर चल रहा है। सीएम वसुंधरा राजे से लेकर राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह तक इस मामले को लेकर कई बार मंथन कर चुके हैं, लेकिन 16 अप्रैल 2018 से खाली यह पद अब तक भरा नहीं जा सका है। आखिर क्या हैं कारण, जिनके कारण यह प्रकरण इतना पैचीदा होता जा रहा है।
1. मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का उंचा कद और उनकी जिद
यही वह सबसे बड़ा कारण है, जो अध्यक्ष पद के आड़े आ रहा है। सीएम राजे की पसंद से पहले विधायक अशोक परनामी को अध्यक्ष बनाया गया। दोनों की जोड़ी ने प्रदेश की सत्ता व संगठन को करीब—करीब एक कर दिया था। बेहतर तालमेल के कारण दोनों के बीच चार साल में कभी कोई विवाद का दूर तक नाता नहीं रहा। सीएम राजे की जिद से कोई अनभिज्ञ नहीं हैं।
सीएम राजे को जब परनामी को हटाने का पता चला तो सबसे पहले वीटो का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने अध्यक्ष अमित शाह को अपनी सियासी ताकत का अहसास करवाया। केंद्रीय आलाकमान की ओर से जोधपुर सांसद और केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत का नाम आगे किया, लेकिन सीएम राजे की ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दो माह बाद भी उनके नाम का ऐलान नहीं हो सका। बताया जा रहा है कि अब भी आलाकमान और राजे के बीच इसी को लेकर सियासी ताकत को दिखाने की जंग जारी है। देश के प्रत्येक राज्य में अपने हिसाब से टीम तय करने और सरकारों को अंगुलियों पर नचाने वाली मोदी—शाह की जोड़ राजस्थान में सीएम राजे के आगे मात खाती नजर आ रही है।
शेखावत के अलावा ओम माथुर, भुपेंद्र सिंह यादव, अर्जुनराम मेघवाल, किरोड़ीलाल मीणा, सतीश पूनिया, अरूण चतुर्वेदी, श्रीचंद कृपलानी, मदन सैनी, सीपी जोशी सहित कई नामों को लेकर अटकलों का दौर जारी है। लेकिन हकिकत में किसी को अंदाजा नहीं है कि सीएम राजे किस नाम पर अड़ी हैं। बताया जा रहा है कि विधायक कैलाश चौधरी, सतीश पूनिया, अरूण चतुर्वेदी, श्रीचंद कृपलानी, सीपी जोशी, किरोड़ीलाल मीणा सहित कई ऐसे नाम हैं जो राजे की पसंद सूची में हैं। लेकिन चार माह बाद होने वाले विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए मोदी—शाह की जोड़ी राजस्थान को सीएम राजे के भरोसे छोड़ने के मूड में नजर नहीं आ रही है।
2. टकराव की संभावना और टालने की कोशिश
सूत्रों के दावों पर विश्वास किया जाए तो कहा यह भी जा रहा है कि राजस्थान में यदि गजेंद्र सिंह शेखावत को अध्यक्ष बनाया गया तो राजे अपने सियासी कौशल का इस्तेमाल कर सकतीं हैं। ऐसे में टकराव की संभावना बढ़ सकती है। इसी टकराव को सहमति में बदलने के लिए दिल्ली में सारी कवायद चल रही है। राजस्थान के मंत्रियों द्वारा सीएम राजे के पक्ष में लॉबिंग जारी है। यहां तक कहा जा रहा है कि कई सांसद अपनी शक्ति लगाकर राजे के लिए अमित शाह के समक्ष उपस्थित हो चुके हैं। राजे की सियासी ताकत का इस बात से पता चल जाता है कि मीडिया की खबरों में करीब—करीब अध्यक्ष बनाए जा चुके शेखावत के नाम की घोषणा नहीं हो पा रही है। इसको आलाकमान और सीएम राजे के बीच होने वाले संभावित टकराव को टालने के रूप में देखा जा रहा है।
3. शेखावत पर कोर्ट में केस
इसी कवायद के बीच जोधपुर में कस्टोडियन भूमि पर कब्जा व अवैध पट्टा जारी करवाने के मामले ने तूल पकड़ लिया। शेखावत के खिलाफ इस मामले में एसीबी और सीबीआई में जांच के लिए वादी कोर्ट में पहुंच गए हैं। साथ ही शेखावत पर जोधपुर में राजपूत—जाट तनाव बढ़ाने के आरोप भी जिंदा हो गए हैं। इन्हीं सबको देखते हुए आलाकमान पीछे हटता नजर आ रहा है। यह भी माना जा रहा है कि जाटों को कमजोर करने की शर्त पर सीएम राजे केंद्रीय मंत्री शेखावत की अध्यक्ष पद पर ताजपोशी नहीं होने देंगी। जबकि बीते दिनों दलित भारत बंद के दौरा पर्दे के पीछे से सर्पोट करने के कारण बीकानेर सांसद अर्जुनराम मेघवाल भी सीएम राजे की नजरों में खटक चुके हैं। इससे पहले मेघवाल को राजे गुट का माना जाता रहा है।
जाट—राजपूत टकराव और आनंदपाल एनकाउंटर विवाद
जातीय टकराव को लेकर राजस्थान पहले ही काफी विवादित हो चुका है, खासकर जाट—राजपूतों में सदियों से यह कहानी चलती रही है। ऐसे में इस वक्त, जबकि चुनाव सिर पर हैं तो बीजेपी के लिए सबसे बड़ा संकट जाट—राजपूत विवाद को टालना है। दरअसल, राजपूत समाज बीजेपी का कोर वोटबैंक माना जाता रहा है, लेकिन बीते साल कुख्यात गैंगस्टर आनंदपाल सिंह के एनकाउंटर के बाद हुए विवाद ने राजपूतों को नाराज कर दिया। इसी दौरान सीएम राजे के अलावा इस कांड़ के लिए कई असामाजिक कंटकों द्वारा जाट समाज को भी दोषी ठहराने का प्रयास किया गया। बाद में जोधपुर में भी दो शराब तस्करों के बीच टकराव को जातीय टकराव बनाने का प्रयास किया गया। इनके बाद राज्य में एक बार फिर से जाट—राजपूत जातियों के आमने—सामने होने की बातें सामने आती रहीं हैं। शेखावत को रोकने के पीछे राजे का यह भी बड़ा मकसद बताया जा रहा है, ताकि पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की गलत नीतियों के कारण कांग्रेस से छिटककर बीजेपी के साथ आया राजस्थान का सबसे बड़ा तबका, जाट फिर से भाजपा से न दूर हो जाए।
4. टिकट बंटावारे की लड़ाई
इसी साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी को 200 टिकट बांटने हैं। टिकट बंटवारे में यदि सीएम राजे की नहीं चलती है, तो सरकार के गठन में भी उनको पीछे होना पड़ सकता है। ऐसी स्थिति से निपटने के लिए राजे अभी से संगठन में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए प्रयासरत हैं। ठीक इसके विपरीत बीजेपी आलाकमान राजे को कमजोर करने के लिए अपने पक्ष का अध्यक्ष बनाना चाहता है। इससे राजे अपने गुट के उम्मीदवारों को टिकट नहीं दे पाएंगी। उस स्थिति में, जब 200 सीटों वाली राजस्थान विधानसभा में बीजेपी 100 सीटों के आसपास होगी तो पार्टी के विधायकों पर मुख्यमंत्री राजे के बजाए राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की पकड़ अधिक मजबूत होगी।
यह संभावित स्थिति दोनों ही गुट अच्छे से जानते हैं। इससे पहले 2008 में भी राजे के द्वारा टिकट दिए गए उम्मीदवार अधिक जीते थे, तब सत्ता में रिपीट होने के लिए बीजेपी के पास 22 सीटें कम पड़ी थीं। जिसके लिए आज भी केंद्रीय आलाकमान को जिम्मेदार माना जाता है। तब राज्य में ओम माथुर बीजपी के अध्यक्ष थे और सबको पता है कि माथुर व राजे के बीच तभी से सियासी दूरियां हैं। यदि यही दूरियां राजे की नए अध्यक्ष के साथ होती हैं तो सरकार बनाने के निकट बहुमत मिलने पर, या कुछ कम रहने पर सरकार के गठन में दिक्कतें पैदा कर सकती हैं। ऐसे में राजे चाहतीं हैं कि टिकट उनकी मर्जी से बांटे जाएं, ताकि अच्छे और मजबूत लोगों को टिकट बांट जिताकर लाया जा सके। अध्यक्ष पद पार्टी पर इसी पकड़ की लड़ाई में उलझा हुआ है।
1. मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का उंचा कद और उनकी जिद
यही वह सबसे बड़ा कारण है, जो अध्यक्ष पद के आड़े आ रहा है। सीएम राजे की पसंद से पहले विधायक अशोक परनामी को अध्यक्ष बनाया गया। दोनों की जोड़ी ने प्रदेश की सत्ता व संगठन को करीब—करीब एक कर दिया था। बेहतर तालमेल के कारण दोनों के बीच चार साल में कभी कोई विवाद का दूर तक नाता नहीं रहा। सीएम राजे की जिद से कोई अनभिज्ञ नहीं हैं।
सीएम राजे को जब परनामी को हटाने का पता चला तो सबसे पहले वीटो का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने अध्यक्ष अमित शाह को अपनी सियासी ताकत का अहसास करवाया। केंद्रीय आलाकमान की ओर से जोधपुर सांसद और केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत का नाम आगे किया, लेकिन सीएम राजे की ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दो माह बाद भी उनके नाम का ऐलान नहीं हो सका। बताया जा रहा है कि अब भी आलाकमान और राजे के बीच इसी को लेकर सियासी ताकत को दिखाने की जंग जारी है। देश के प्रत्येक राज्य में अपने हिसाब से टीम तय करने और सरकारों को अंगुलियों पर नचाने वाली मोदी—शाह की जोड़ राजस्थान में सीएम राजे के आगे मात खाती नजर आ रही है।
शेखावत के अलावा ओम माथुर, भुपेंद्र सिंह यादव, अर्जुनराम मेघवाल, किरोड़ीलाल मीणा, सतीश पूनिया, अरूण चतुर्वेदी, श्रीचंद कृपलानी, मदन सैनी, सीपी जोशी सहित कई नामों को लेकर अटकलों का दौर जारी है। लेकिन हकिकत में किसी को अंदाजा नहीं है कि सीएम राजे किस नाम पर अड़ी हैं। बताया जा रहा है कि विधायक कैलाश चौधरी, सतीश पूनिया, अरूण चतुर्वेदी, श्रीचंद कृपलानी, सीपी जोशी, किरोड़ीलाल मीणा सहित कई ऐसे नाम हैं जो राजे की पसंद सूची में हैं। लेकिन चार माह बाद होने वाले विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए मोदी—शाह की जोड़ी राजस्थान को सीएम राजे के भरोसे छोड़ने के मूड में नजर नहीं आ रही है।
2. टकराव की संभावना और टालने की कोशिश
सूत्रों के दावों पर विश्वास किया जाए तो कहा यह भी जा रहा है कि राजस्थान में यदि गजेंद्र सिंह शेखावत को अध्यक्ष बनाया गया तो राजे अपने सियासी कौशल का इस्तेमाल कर सकतीं हैं। ऐसे में टकराव की संभावना बढ़ सकती है। इसी टकराव को सहमति में बदलने के लिए दिल्ली में सारी कवायद चल रही है। राजस्थान के मंत्रियों द्वारा सीएम राजे के पक्ष में लॉबिंग जारी है। यहां तक कहा जा रहा है कि कई सांसद अपनी शक्ति लगाकर राजे के लिए अमित शाह के समक्ष उपस्थित हो चुके हैं। राजे की सियासी ताकत का इस बात से पता चल जाता है कि मीडिया की खबरों में करीब—करीब अध्यक्ष बनाए जा चुके शेखावत के नाम की घोषणा नहीं हो पा रही है। इसको आलाकमान और सीएम राजे के बीच होने वाले संभावित टकराव को टालने के रूप में देखा जा रहा है।
3. शेखावत पर कोर्ट में केस
इसी कवायद के बीच जोधपुर में कस्टोडियन भूमि पर कब्जा व अवैध पट्टा जारी करवाने के मामले ने तूल पकड़ लिया। शेखावत के खिलाफ इस मामले में एसीबी और सीबीआई में जांच के लिए वादी कोर्ट में पहुंच गए हैं। साथ ही शेखावत पर जोधपुर में राजपूत—जाट तनाव बढ़ाने के आरोप भी जिंदा हो गए हैं। इन्हीं सबको देखते हुए आलाकमान पीछे हटता नजर आ रहा है। यह भी माना जा रहा है कि जाटों को कमजोर करने की शर्त पर सीएम राजे केंद्रीय मंत्री शेखावत की अध्यक्ष पद पर ताजपोशी नहीं होने देंगी। जबकि बीते दिनों दलित भारत बंद के दौरा पर्दे के पीछे से सर्पोट करने के कारण बीकानेर सांसद अर्जुनराम मेघवाल भी सीएम राजे की नजरों में खटक चुके हैं। इससे पहले मेघवाल को राजे गुट का माना जाता रहा है।
जाट—राजपूत टकराव और आनंदपाल एनकाउंटर विवाद
जातीय टकराव को लेकर राजस्थान पहले ही काफी विवादित हो चुका है, खासकर जाट—राजपूतों में सदियों से यह कहानी चलती रही है। ऐसे में इस वक्त, जबकि चुनाव सिर पर हैं तो बीजेपी के लिए सबसे बड़ा संकट जाट—राजपूत विवाद को टालना है। दरअसल, राजपूत समाज बीजेपी का कोर वोटबैंक माना जाता रहा है, लेकिन बीते साल कुख्यात गैंगस्टर आनंदपाल सिंह के एनकाउंटर के बाद हुए विवाद ने राजपूतों को नाराज कर दिया। इसी दौरान सीएम राजे के अलावा इस कांड़ के लिए कई असामाजिक कंटकों द्वारा जाट समाज को भी दोषी ठहराने का प्रयास किया गया। बाद में जोधपुर में भी दो शराब तस्करों के बीच टकराव को जातीय टकराव बनाने का प्रयास किया गया। इनके बाद राज्य में एक बार फिर से जाट—राजपूत जातियों के आमने—सामने होने की बातें सामने आती रहीं हैं। शेखावत को रोकने के पीछे राजे का यह भी बड़ा मकसद बताया जा रहा है, ताकि पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की गलत नीतियों के कारण कांग्रेस से छिटककर बीजेपी के साथ आया राजस्थान का सबसे बड़ा तबका, जाट फिर से भाजपा से न दूर हो जाए।
4. टिकट बंटावारे की लड़ाई
इसी साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी को 200 टिकट बांटने हैं। टिकट बंटवारे में यदि सीएम राजे की नहीं चलती है, तो सरकार के गठन में भी उनको पीछे होना पड़ सकता है। ऐसी स्थिति से निपटने के लिए राजे अभी से संगठन में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए प्रयासरत हैं। ठीक इसके विपरीत बीजेपी आलाकमान राजे को कमजोर करने के लिए अपने पक्ष का अध्यक्ष बनाना चाहता है। इससे राजे अपने गुट के उम्मीदवारों को टिकट नहीं दे पाएंगी। उस स्थिति में, जब 200 सीटों वाली राजस्थान विधानसभा में बीजेपी 100 सीटों के आसपास होगी तो पार्टी के विधायकों पर मुख्यमंत्री राजे के बजाए राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की पकड़ अधिक मजबूत होगी।
यह संभावित स्थिति दोनों ही गुट अच्छे से जानते हैं। इससे पहले 2008 में भी राजे के द्वारा टिकट दिए गए उम्मीदवार अधिक जीते थे, तब सत्ता में रिपीट होने के लिए बीजेपी के पास 22 सीटें कम पड़ी थीं। जिसके लिए आज भी केंद्रीय आलाकमान को जिम्मेदार माना जाता है। तब राज्य में ओम माथुर बीजपी के अध्यक्ष थे और सबको पता है कि माथुर व राजे के बीच तभी से सियासी दूरियां हैं। यदि यही दूरियां राजे की नए अध्यक्ष के साथ होती हैं तो सरकार बनाने के निकट बहुमत मिलने पर, या कुछ कम रहने पर सरकार के गठन में दिक्कतें पैदा कर सकती हैं। ऐसे में राजे चाहतीं हैं कि टिकट उनकी मर्जी से बांटे जाएं, ताकि अच्छे और मजबूत लोगों को टिकट बांट जिताकर लाया जा सके। अध्यक्ष पद पार्टी पर इसी पकड़ की लड़ाई में उलझा हुआ है।

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