शुक्रवार, 8 जून 2018

राष्ट्रवाद मेरी नज़र में


राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रभक्ति जैसा ही एक और शब्द उभरा, राष्ट्रवाद। जिसे 19वीं सदी से पहले कोई जानता नहीं था। लेकिन पिछले 200-300 सालों में राष्ट्रवाद का स्वरूप उभरता चला गया। इसकी खूबी है कि कोई भी बिना जाने इसे जानने का दावा कर सकता है। परन्तु मेरी नज़र में राष्ट्रवाद कुछ और है।   

लेखिका नेहा कँवर 
जिस तरह एक खिलाड़ी, जिला स्तर से चयनित होकर राश्ट्रीय स्तर तक पहुंचता है। ठीक उसी तरह, राष्ट्रवाद भी आया। सबसे पहले मानवता की सीमा कबीलों तक थी, फिर राज्यों में बंटी, उसके बाद इसे धर्मों में बांटा गया। जब धर्मों में भी मानवता नहीं दिखी, तो इसे करीब 200-300 सालों पहले राष्ट्र तक कर दी गयी। जिससे राष्ट्रवाद का जन्म हुआ।

 इन 200 सालों में राष्ट्रवाद के नाम पर फासीवाद, एकाधिकारवाद और अपने ही देष में आपातकाल भी आया। जिनका परिणाम था, इंसान और इंसानियत की मृत्यु।

हर राष्ट्र स्वयं को जान से भी ज्यादा चाहता है, फिर यह चाहना प्रतिस्पर्धा का रूप लेती है और यह प्रतिस्पर्धा ही दूसरों को नीचा दिखाने का भरपूर प्रयास करती है। हर राष्ट्र परमाणु बम बनाने, मिसाईलें तैयार करने, तोपे-जहाज-रॉकेट उतारने को ही अपनी ताकत और शान समझ रहा हैं। जबकि अपनी गरीबी, अषिक्षा और भुखमरी जैसे संकटों की कोई चिंता नहीं है। राष्ट्रवाद का सीधा सम्बन्ध विस्तारवाद से है।

हम देखते है कि राष्ट्र के राजनीतिक दलों के पास राष्ट्रवाद की अंतिम परिभाषा नहीं होती है। क्योंकि इनके कार्यकर्ता कभी भी किसी नीति या घटना के वक्त अपने ही दल के खिलाफ नारे नहीं लगाते। जैसे इनके लिए देश नही दल महत्वपूर्ण हो।

मेरा मानना है कि राष्ट्रवाद कोई बुरा भी नहीं है, अगर उसमें जीओ और जीने दो की भावना है तो। मानवता और इंसानियत रखने वाला ही एक सच्चा राष्ट्रवादी ही नहीं अपितु अन्तर्राष्ट्रवादी भी होता है। क्योंकि सच्ची राष्ट्रवादिता किसी चीज की मोहताज नहीं होती।

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