शनिवार, 30 जून 2018

दोबारा भाजपा की सरकार बनाने के लिए कार्यकर्ताओं को एकजुट होना होगा - मदनलाल सैनी

जयपुर । राजस्थान भाजपा के नए प्रदेशाध्यक्ष मदनलाल सैनी ने जयपुर में भाजपा प्रदेश मुख्यालय पर पदभार ग्रहण कर लिया। इस मौके पर भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष मदनलाल सैनी ने कहा है कि वह किसी व्यक्ति के लिए कार्य नहीं करेंगे ना ही पार्टी के लिए, बल्कि वह विचारों के लिए कार्य करेंगे। सैनी ने कहा कि जनसंघ के लोगों के विचार उनके लिए आदर्श है, जिनके बलबूते आज भाजपा खड़ी हुई है।

उन्होंने कहा कि भाजपा के कार्यालय को हमेशा उन्होंने एक मंदिर समझा है और उन्हें अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठने में मजा नहीं आएगा, बल्कि एक आम कार्यकर्ता की तरह पहले की जैसे वह टूटी प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठना पसंद करेंगे। उन्होंने कहा कि आने वाला विधानसभा चुनाव कोई सरल नहीं है, बल्कि हर कार्यकर्ता के सामने 180 से ज्यादा सीटें जिताने की चुनौती है। सैनी ने कहा कि राजस्थान में यह क्रम तोड़ना होगा एक बार कांग्रेस की सरकार और एक बार भाजपा की। इस बार दोबारा भाजपा की सरकार बनाने के लिए कार्यकर्ताओं को एकजुट होना होगा। उन्होंने कहा कि वह रूठे हुए और पुराने कार्यकर्ताओं को ढूंढेंगे और उन्हें उचित सम्मान देकर संगठन में नियोजित करेंगे। उन्होंने कार्यकर्ताओं से अपील की कि वह अपने मन से विधायकों और मंत्रियों के प्रति नकारात्मक माहौल खत्म कर दें, सभी विधायक और मंत्री भाजपा परिवार का हिस्सा है।
इससे पहले समारोह में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने कहा कि भाजपा ही एक ऐसी पार्टी है, जहां छोटे से छोटा कार्यकर्ता राज्यसभा भी जा सकता है ऊंचे से ऊंचे संगठन के पद पर भी जा सकता है। उन्होंने कहा कि आगामी 5 महीने के बाद राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने जा रहे है और सीएम होने के नाते उन्हें पूरा विश्वास है कि हर कार्यकर्ता विधानसभा चुनाव में मिशन 180 और लोकसभा चुनाव में मिशन 25 को पूरा करेगा।

आंगनबाड़ी आशा सहयोगिनी एवं लाल सेना के नेतृत्व में जुलाई माह में एक बड़ा आंदोलन किया जाएगा

राजस्थान की 50000 आंगनबाड़ी आशा सहयोगिनी एवं 20000 ग्राम साथी द्वारा लाल सेना को अपना समर्थन देते हुए आगामी जुलाई माह में लाल सेना के अध्यक्ष हेमलता शर्मा के नेतृत्व में एक बड़ा आंदोलन किया जाएगा साथियों और सहयोगिनियों का कहना है कि सरकार ने आंगनबाड़ी की कुल 70000 महिला कर्मचारी के साथ वादाखिलाफी की है ऐसे में अब सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला जाएगा मीडिया से बात करते हुए लाल सेना के अध्यक्ष हेमलता शर्मा ने कहा कि यह आंगनबाड़ी महिलाएं लंबे समय से अपने हक की लड़ाई लड़ रही है कई बार उन्होंने सरकार के समक्ष ज्ञापन प्रस्तुत किए लेकिन हर बार निराशा हाथ लगी ऐसे में आने वाले वक्त में सरकार से कर ली जाएगी और जुलाई माह में एक बड़ा आंदोलन किया जाएगा

 लालसेना की अध्यक्ष हेमलता शर्मा ने बताया कि आशा सहयोगिनी बहनों की लाल सेना पर जो विश्वास जताया है उस विश्वास पर खरा उतरूंगी और कदम से कदम ​मिलाकर चलूंगी। वर्तमान सरकार अगर इन बहनों की शर्त मान गई तो आने वाले समय में सरकार का सहयोग करूंगी  और अगर बातें नहीं ​मानी गई तो सरकार के खिलाफ आंदोलन तक ही सीमित नहीं रहेगा। सरकार को उखाड के फैंकने की लडाई लडी जावेगी।  

हर जगह विपक्ष पर बरसने वाले प्रधानमंत्री अपने गिरेबान में क्यों नहीं झांकते

संत कबीर की निर्वाण स्थली मगहर में प्रधानमंत्री ने अपने राजनीतिक विरोधियों को इंगित करते हुए कहा कि आजकल लोग कबीर को पढ़ते नहीं हैं, लेकिन यह बात उनके विरोधियों से ज़्यादा उनके साथ मंचासीन योगी पर ही चस्पां होती दिखी.


साधो, देखो जग बौराना
सांची कही तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना
हिंदू कहत,राम हमारा, मुसलमान रहमाना
आपस में दौऊ लड़ै मरत हैं, मरम कोई नहिं जाना
बहुत मिले मोहि नेमी, धर्मी, प्रात करे असनाना
आतम-छांड़ि पषानै पूजै, तिनका थोथा ज्ञाना
आसन मारि डिंभ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना
पीपर-पाथर पूजन लागे, तीरथ-बरत भुलाना
माला पहिरे, टोपी पहिरे छाप-तिलक अनुमाना
साखी सब्दै गावत भूले, आतम खबर न जाना

कोई पांच सौ साल पहले संत कबीर ने ये पंक्तियां रचीं तो उन्हें कतई इल्म नहीं रहा होगा कि एक दिन ऐसा भी आएगा, जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री और उसके सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री अप्रत्याशित रूप से उनकी निर्वाणस्थली पर पहुंचकर इन्हें सही सिद्ध करने लगेंगे!

लेकिन गत गुरुवार को ऐसा ही हुआ. हालांकि जो हुआ, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उसकी शुरुआत एक दिन पहले बुधवार को ही कर दी थी.

बहुत से पाठकों ने इस सिलसिले में वायरल हो रहे वीडियो में देखा भी होगा, संत कबीर की निर्वाण स्थली मगहर में परंपरा से होते चले आ रहे महोत्सव के स्थगन की कीमत पर आयोजित किए जा रहे राजनीतिक लाभ के लोभ से लबालब कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शिरकत से पहले उसकी तैयारियों का जायजा लेने पहुंचे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को संत के अनुयायियों की ओर से एक टोपी पेश की गई, जो खासतौर पर उन्हीं के लिए बनाई गई थी.

उसका रंग भी उनकी पसंद के मद्देनजर भगवा ही था लेकिन योगी ने उसे और तो और संत की निर्वाणस्थली के संरक्षक के हाथों भी पहनने से इनकार कर दिया. संरक्षक ने यह सोचकर कि शायद वे उसे खुद पहनना चाहते है, टोपी उनके हाथ में देने की कोशिश की तो भी उन्होंने टोपी को हाथ नहीं लगाया.

उनके इस कृत्य ने उन्हें नरेंद्र मोदी से बड़ा ‘नायक’ मानने वाले उनके कट्टरपंथी समर्थकों को दो चीजें याद दिलाईं. पहली यह कि उन्होंने नरेंद्र मोदी द्वारा सात साल पहले 2011 में गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में अहमदाबाद के एक गांव में इमाम की टोपी ठुकराने का रिकॉर्ड तोड़ दिया है.

इस अर्थ में कि मोदी ने टोपी के बदले इमाम का हरा शाॅल स्वीकार कर लिया था, लेकिन योगी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया. दूसरी यह कि योगी ने जता दिया है कि उनकी आस्था के केंद्र अयोध्या और राम ही हैं और वे मगहर और कबीर को उनकी जगह नहीं ही देने वाले.

इन समर्थकों के अनुसार इससे प्रधानमंत्री द्वारा अयोध्या आने से बरते जा रहे परहेज की कसर पूरी हो गई है. साथ ही भाजपा व उसकी सरकारों के ढकोसलों से आजिज दलितों व पिछड़ों को कबीरपंथियों की मार्फत साधने की उनकी कोशिश से असहज महसूस करते भाजपा के पारंपरिक मतदाताओं को ढाढ़स बंधा है और अब वे दूर छिटककर उसे छब्बे बनने के फेर में पड़कर दूबे बन जाने की दुर्गति को प्राप्त नहीं होने देंगे.

बेचारे कबीरपंथी तरसते रह गए कि इन समर्थकों में कोई कहता कि योगी ने टोपी नकारकर संत कबीर द्वारा ‘माला पहिरे, टोपी पहिरे छाप-तिलक अनुमाना’ कहकर की गई उसकी आलोचना को बल प्रदान किया है. लेकिन कैसे कहता, जब उसे योगी के नकार में उनके छाप-तिलक द्वारा की गई टोपी की हेठी के अलावा कुछ दिख ही नहीं रहा था.

आप ही बताइये कि संत कबीर के ‘हिंदू कहत मोहि राम पियारा, तुरुक कहे रहमाना’ और ‘आतम खबर न जाना’ की कोई इससे बेहतर मिसाल हो सकती है?

हो सकती तो अगले दिन प्रधानमंत्री की उपस्थिति में, संभवतः उन्हें प्रसन्न करने के लिए मुख्यमंत्री के यह कहते ही कि उनके ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे में कबीर के विचारों की प्रतिध्वनि गुजायमान हो रही है, लोग यह कैसे समझ जाते कि योगी के मुख्यमंत्रित्व की अल्पावधि में ही देश के सबसें बड़े राज्य में यह नारा बेहद शातिर ढंग से ‘जो साथ, उसका विकास’ और ‘जो विरुद्ध, उसका अवरुद्ध’ में क्यों बदल गया है?

खैर, योगी के ऐसे शानदार आगाज के बाद प्रधानमंत्री ने अपने राजनीतिक विरोधियों को इंगित करते हुए कहा कि आजकल लोग कबीर को पढ़ते नहीं हैं, तो उनकी बात उनके साथ मंचासीन योगी पर ही चस्पां होती दिखी.

लेकिन चूंकि प्रधानमंत्री को अभी देश की सरकार चलानी है, अपना घर फूंककर कबीर के साथ नहीं चल पड़ना, इसलिए उन्होंने आगे भी पूरा सच बोलकर ‘जग मारन धावा’ का जोखिम नहीं उठाया और खयाल रखा कि वही कहें, जिस पर पतियाने में उसको कोई असुविधा न हो.


मानवता को सबसे बड़ा धर्म बता गए संत की धरती से राजनीतिक निशाने साधने का लोभ भी वे नहीं ही संवरण कर पाये. ऐसे में उनके भाषण में खालिस झूठ की न सही, अर्धसत्यों की भरमार तो होनी ही थी.

उनका यह कहना तो एक हद तक ठीक था कि जब वे गरीबों की फिक्र में मुब्तिला थे, कई महानुभावों का ध्यान अपने बंगले बचाने पर लगा हुआ था.

लेकिन जब उन्होंने कहा कि वे समाजवाद व बहुजनवाद के अलमबरदारों को सत्ता के लिए उलझते देखकर हैरान हैं तो यह छिपाने की कोशिश करते लगे कि इन दोनों के उलझना छोड़ देने से गोरखपुर व फूलपुर से शुरू हुई उनकी परेशानी कैराना व नूरपुर तक जा पहुंची है और अंदेशा है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में आंधी बनकर उनके सामने आ खड़ी हो, क्योंकि ‘सत्ता के लालच में इमर्जेंसी लगाने और उसका विरोध करने वाले एक साथ आ खड़े हुए हैं.’

गौर कीजिए कि ऐसा वह शख्स कह रहा था, जिसने निष्कंटक राज की लिप्सा के तहत अपने राजनीतिक गुरू तक के लिए अपनी पार्टी में ऐसा मार्गदर्शकमंडल बना डाला है, जिसकी हैसियत किसी पिंजरे से ज्यादा नहीं है.

अभी हाल में कर्नाटक की जनता द्वारा मुश्कें कस दिए जाने के पहले जिसका सत्ता का लालच देश के कई ऐसे राज्यों में सिर चढ़कर बोल चुका है, जहां चुनाव हारकर दूसरे-तीसरे नंबर पर आई उसकी पार्टी को तभी चैन आया, जब उसने सत्ता अपने या अपनों के नाम कर ली.

वह भी उसका सत्ता का लालच ही तो था, जिसके तहत उसने पीडीपी से सर्वथा बेमेल गठबंधन कर सरकार बनाई और तीन साल तक जम्मू-कश्मीर व वहां के निवासियों को प्रताड़ित करने के बाद अचानक जुआ पटक दिया.

यहां प्रधानमंत्री के कहे को ‘नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली’ जैसी कहावत के नहीं तो और किस आईने में देखें? खासकर जब 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें पूर्ण बहुमत मिलने तक उनकी पार्टी बड़े गर्व से कहा करती थी कि देश में गठबंधन चलाना कोई उससे सीखे. तब उसने कई बेमेल गठबंधन सफलतापूर्वक चलाकर दिखाये भी.

हां, प्रधानमंत्री का यह छिपाना उनकी राजनीति के लिहाज से बहुत स्वाभाविक था कि समाजवादियों और बहुजनवादियों में उत्तर प्रदेश में जिस महागठबंधन की कवायद अभी ठीक से मंजिल तक भी नहीं पहुंची है, उसी से डरकर वे मगहर यानी संत कबीर की शरण में आये हैं.

क्या करें, भगवान राम की शरण में जाने में अब किसी बड़े राजनीतिक लाभ की उम्मीद नहीं कर पा रहे. लेकिन जब उन्होंने कहा कि उनके विपक्षी देश में कलह, असंतोष और अशांति फैला रहे हैं तो लोगों को समझ में नहीं आया कि हसें या रोयें.

अगर कलह, असंतोष और अशांति उनके विपक्षी फैला रहे हैं तो गोहत्या या बच्चा चोरी के नाम पर निर्दोषों को पीट-पीटकर मार डालने वाली भीड़ अनिवार्य रूप से नरेंद्र मोदी के जयकारे ही क्यों लगाती हैं?

यकीनन, यह स्थिति इस सवाल को और बड़ा कर देती है कि प्रधानमंत्री अपनी जिम्मेदारियों को ठीक से निभाने के बजाय उनकी याद दिलाये जाने पर अलानाहक विपक्ष पर क्यों बरसने लगते हैं? अपने गिरेबान में क्यों नहीं झांकते?

क्यों नहीं समझते कि आलोचना में असर तभी पैदा होता है, जब जो गुड़ खाने के लिए सामने वाले को कोसा जाये, उसे खुद भी न खाया जाये. लेकिन, कबीर के ही शब्दों में, अभी तो हमारे प्रधानमंत्री घर-घर मंतर देते फिरते हैं. अपनी महिमा का अभिमान नहीं छोड़ते.

सांसद मदनलाल सैनी भाजपा के नए प्रदेशाध्यक्ष

जयपुर। राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष पद पर नियुक्ति को लेकर 74 दिन से चल रहे विवाद को  को विराम लग गया है। दिल्ली में इस मामले  को निर्णय हो गया। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव अरुण सिंह ने राज्यसभा सांसद मदनलाल सैनी को राजस्थान भाजपा का प्रदेशाध्यक्ष नियुक्त कर दिया। इसकी जानकारी मिलने के बाद प्रदेश भाजपा में खुशी का माहौल बन गया।   दिल्ली में राजस्थान प्रदेशाध्यक्ष के लिए राज्यसभा सांसद मदनलाल सैनी के नाम पर सुबह से ही चर्चा का दौर जारी रहा था।


जीवन परिचय

राज्यसभा सांसद मदनलाल सैनी का जन्म सीकर जिले में 13 जुलाई 1943 को हुआ था। बीए, एलएलबी शिक्षित सैनी सीकर में कॉलेज के छात्रसंघ अध्यक्ष रह चुके हैं। छात्र जीवन में सैनी एबीवीपी के प्रदेश मंत्री रहे। 1970 से 1975 तक सीकर में वकालत भी की थी। वे 1952 से आरएसएस से जुड़े और 1972 से 1984 तक भारतीय मजदूर संघ के प्रदेश महामंत्री रह चुके हैं। सैनी किसान मोर्चा के राष्ट्रीय महामंत्री भी रहे। सैनी उदयपुरवाटी से भाजपा के विधायक भी रहे हैं। सैनी को भाजपा ने 1998 में सांसद के लिए खड़ा किया था जो चुनाव हार गए थे।


शुक्रवार, 29 जून 2018

दो लाख 84 हजार किसानों को मिले ऋणमाफी प्रमाण पत्र

चार हजार 167 करोड़ रुपये का हुआ फसली ऋण वितरित
 जयपुर । सहकारिता मंत्री  अजय सिंह किलक ने  बताया कि प्रदेश में 4 जून से 28 जून तक 1 हजार 409 ऋणमाफी शिविरों का आयोजन किया जा चुका है। इन शिविरों के माध्यम से सहकारी बैंकों से जुड़े 2 लाख 84 हजार 286 किसानों को 865.17 करोड़ रुपये के ऋणमाफी प्रमाण पत्र वितरित हो चुके हैं।

      उन्होंने बताया कि खरीफ सीजन में लगातार फसली ऋण का वितरण किसानों को किया जा रहा है और 28 जून तक 4 हजार 167 करोड़ रुपये का फसली ऋण किसानों को बांटा जा चुका है। किसानों को नया फसली ऋण वितरण तेजी से किया जा रहा है।

     किलक ने बताया कि 29 एवं 30 जून को 178 शिविरों का आयोजन हो रहा है जिसमें लगभग 50 हजार किसान लाभान्वित हो रहे हैं। उन्होंने बताया कि 28 जून तक 2 लाख 22 हजार 265 सीमान्त एवं लघु किसानों को 691.03 करोड़ रुपये तथा 62 हजार 21 अन्य किसानों को 174.15 करोड़ रुपये के फसली ऋण माफी के प्रमाण पत्र प्रदान किये गये।

      सहकारिता मंत्री ने बताया कि किसान द्वारा मूल ऋणमाफी के बाद शेष बकाया राशि जमा कराने पर एवं ऋण के लिये आवेदन करने पर पूर्व में जितना ऋण स्वीकृत था उतना ऋण किसानों को उपलब्ध कराया जा रहा है। उन्होंने बताया कि आयोजित किये गये 1 हजार 409 शिविरों में 1524 ग्राम सेवा सहकारी समितियों के किसानों को लाभान्वित किया गया है।

    किलक ने बताया कि शिविरों में 2 लाख 22 हजार 265 सीमान्त एवं लघु किसानों का 658 करोड़ 74 लाख रुपये मूल ऋण, 25 करोड़ 44 लाख रुपये ब्याज राशि एवं 6 करोड़ 85 लाख रुपये की शास्ति राशि सहित कुल 691 करोड़ 3 लाख रुपये का कर्जमाफ किया गया है।

पाठ्यपुस्तक में इमरजेंसी अध्याय


II योगेंद्र यादव II
 इमरजेंसी पर केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर के बयान ने मुझे एक भूले-बिसरे किस्से की याद दिला दी. जब भी इस किस्से को याद करता हूं तो विस्मय होता है, गर्व भी होता है.

जयपुर में भाजपा द्वारा आपातकाल को काले दिवस की तरह मनानेवाले कार्यक्रम में केंद्रीय शिक्षा मंत्री ने कहा, 'हमने तय किया है कि हम पाठ्यक्रम में बदलाव कर आपातकाल की सत्यता के बारे में विद्यार्थियों को भी बतायेंगे, ताकि इतिहास की सही व्याख्या हो सके.' शायद जावड़ेकर सोचते होंगे कि चूंकि ये पाठ्यपुस्तकें कांग्रेस सरकार के जमाने में लिखी गयी थीं, इसलिए ऐसी सूचनाओं को दबा दिया गया होगा.
लगता है शिक्षा मंत्री का ध्यान किसी ने उनके ही मंत्रालय के तहत स्वायत्त संस्था एनसीईआरटी द्वारा प्रकाशित कक्षा 12 की राजनीतिशास्त्र की पाठ्यपुस्तक 'स्वतंत्रोत्तर भारत में राजनीति' पर नहीं दिलाया. इसमें न सिर्फ इमरजेंसी का जिक्र है, बल्कि इसका छटा अध्याय इमरजेंसी पर ही केंद्रित है.

सवाल है कि कांग्रेस के जमाने में लिखी गयी इस पाठ्यपुस्तक में इमरजेंसी का पूरा सच कैसे बताया गया? यही वह किस्सा है, जो अब सार्वजनिक होना चाहिए.

सन् 2005 में प्रख्यात शिक्षाविद् और तात्कालिक एनसीईआरटी के निदेशक प्रो कृष्ण कुमार ने एनसीईआरटी की ओर से प्रो सुहास पलशिकर और मेरे सामने प्रस्ताव रखा कि हम कक्षा 9 से 12 तक की सभी राजनीति शास्त्र की पाठ्यपुस्तकों को नये सिरे से लिखने के काम में मुख्य जिम्मेदारी संभालें.

हमारा आग्रह था कि हमें पाठ्यपुस्तक ही नहीं, सिलेबस भी सुझाने की आजादी हो. और हम जो कुछ लिखें, उससे छेड़छाड़ न की जाये. प्रो मृणाल मिरी की अध्यक्षता में देश के अग्रणी विद्वानों की समिति ने हमें मुख्य सलाहकार नियुक्त किया और प्रो हारी वासुदेवन की समिति ने नये सिलेबस को मान्यता दे दी.

इस समझ के साथ उन एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों का लेखन शुरू हुआ, जो आज भी स्कूलों में पढ़ायी जा रही हैं. देश के प्राय: सभी अग्रणी राजनीतिशास्त्री इस प्रयास से जुड़े. मैं उस जमाने में सीएसडीएस में था और भारतीय राजनीति के जाने-माने विद्वान प्रो पलशिकर तब पुणे विवि में थे.

इस पुस्तक में हमारे साथ दिल्ली विवि के प्रो उज्ज्वल कुमार भी थे. इन पुस्तकों से क्या हासिल हुआ, इसका फैसला तो इतिहास करेगा. लेकिन ये पुस्तकें अब भी (कुछ काटछांट और छेड़छाड़ के बावजूद) स्कूलों में पढ़ायी जा रही हैं. पाठक इन्हें पढ़कर इन पर अपनी राय बना सकते हैं.
हमारी पहल पर बारहवीं में राजनीतिशास्त्र विषय लेनेवाले विद्यार्थियों को स्वतंत्रता के बाद राजनीति का इतिहास पढ़ाने का फैसला हुआ. अब भला 1947 के बाद का इतिहास इमरजेंसी के बिना कैसे लिखा जा सकता है?

इसलिए हमने फैसला किया कि उस पाठ्यपुस्तक में इमरजेंसी पर पूरा एक अध्याय होगा: इमरजेंसी का उद्गम, उसके दौरान हुई तमाम घटनाएं, उससे जुड़े सभी विवाद और इतिहास के उस दौर के सबक. हमारे सभी साथी हैरान थे कि यह हम क्या करने जा रहे हैं! कुछ समझदार लोगों ने इशारा भी किया कि इस अध्याय के चलते सारी पाठ्यपुस्तकें रुक सकती हैं. लेकिन प्रो कृष्ण कुमार ने कभी हमें नहीं रोका. वे अपने वादे पर कायम थे.

पुस्तकें लिखी गयीं. इमरजेंसी वाले अध्याय में पाठ्यपुस्तक के अनुरूप एक संतुलित और तथ्यपरक भाषा में वह सब बातें लिखी गयीं, जो इमरजेंसी के बारे में बतायी जानी चाहिए: इंदिरा गांधी द्वारा अपने व्यक्तिगत संकट को राष्ट्रीय संकट का रूप देने की कोशिश, मंत्रिमंडल से चर्चा किये बिना इमरजेंसी की घोषणा, प्रेस सेंसरशिप, राजनीतिक विरोधियों का दमन, मानवाधिकारों का हनन, न्यायपालिका का समर्पण, तुर्कमान गेट और राजन कांड जैसी बर्बर घटनाएं. जो लिखा नहीं गया उसे कार्टून, तस्वीरों, अखबार की कतरनों के सहारे बता दिया गया. किताब की समीक्षा के लिए प्रो गोविंद देशपांडे की अध्यक्षता में बनी विद्वत गणों की समिति ने जांच की, इमरजेंसी वाले अध्याय का सस्वर पाठ हुआ और बिना काटछांट के स्वीकार कर लिया गया.

मामला संवेदनशील था, इसलिए प्रो मृणाल मिरी की अध्यक्षता वाली समिति ने दोबारा इसकी समीक्षा की और पास कर दिया. सब जानते थे कि इस अध्याय के चलते कुछ भी अनर्थ हो सकता था. लेकिन, प्रो कृष्ण कुमार या किसी वरिष्ठ समिति ने हमें रोकने की कोशिश भी नहीं की.
उसके बाद प्रो कृष्ण कुमार ने एक अनुरोध किया कि इस पाठ्यपुस्तक को प्रेस में भेजने से पहले शिक्षा मंत्री को दिखा लिया जाये. अगर संसद में बात चलती है, तो जवाब तो मंत्री को देना होगा. हम तो वहां होंगे नहीं. प्रो सुहास पलशिकर और मैंने यह मान लिया.

उस जमाने में अर्जुन सिंह शिक्षा मंत्री थे. सच कहूं तो मेरी उनके बारे में बहुत अच्छी राय नहीं थी. इसलिए जब 15 दिन बाद उनके दफ्तर से फोन आया कि मंत्री जी आपसे मिलना चाहते हैं, तो मेरा मन सशंकित हुआ.

प्रो कृष्ण कुमार को भी बुलाया गया था और उन्होंने प्रो यशपाल को अनुरोध कर साथ ले लिया था. देश के मूर्धन्य वैज्ञानिक प्रो यशपाल एनसीईआरटी द्वारा पुस्तक लेखन कि इस पूरी प्रक्रिया का निर्देशन कर रहे थे.

बात वही पहुंची जिसका संदेह था. मंत्रीजी ने एक-एक शब्द पढ़ा हुआ था, लेकिन प्रश्न उनके बाबू पूछ रहे थे. 'आप लिखते हैं कि इमरजेंसी भारतीय लोकतंत्र का सबसे विवादास्पद दौर था?' मैंने पलटकर पूछा 'नहीं था क्या?'.

बात तुर्कमान गेट और राजन कांड की हुई, मैंने बताया कि सारी सूचनाएं शाह आयोग की रिपोर्ट से ली गयी हैं. उन्होंने कहा, 'लेकिन कांग्रेस ने उसका बहिष्कार किया था!' मैंने कहा उससे क्या फर्क पड़ता है, संसद पटल पर आज भी इमरजेंसी के बारे में रखा गया वह एकमात्र प्रामाणिक दस्तावेज है.

अर्जुन सिंह सारी बातचीत को बहुत ध्यान से सुन रहे थे, मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे. मेरी ओर मुड़े और पूछा 'प्रोफेसर साहब, आपको लगता है हमारे बच्चे इस कड़वे सच के लिए तैयार हैं? हमारा लोकतंत्र इतना मेच्योर हो गया है?' मैंने जवाब देना शुरू किया था कि यशपाल जी ने मुझे रोका और कहा 'सर, अब बच्चों को पंख लगाकर उड़ने दीजिये'. अर्जुन सिंह ने कुछ क्षण के लिए आंखें बंद की और फिर कहा 'ठीक है, जैसी आपकी इच्छा'. वह अध्याय बिना कॉमा, फुल स्टॉप बदले ज्यों का त्यों छपा. इस किस्से और इस अध्याय को पढ़कर प्रकाश जावड़ेकर और वर्तमान सरकार क्या सीख सकते हैं, यह मैं उन पर छोड़ता हूं. 

प्रधानमंत्री भारत को विश्व गुरु बना रहे हैं या बेवक़ूफ़

रवीश कुमार 
नोटबंदी के एक साल बाद स्विस बैंक में जमा भारतीयों का पैसा 50 प्रतिशत बढ़ गया है. ज़रूरी नहीं कि स्विस बैंक में रखा हर पैसा काला ही हो लेकिन सरकार को बताना चाहिए कि यह किसका और कैसा पैसा है?


स्विस नेशनल बैंक ने अपनी सालाना रिपोर्ट में बताया है कि 2017 में उसके यहां जमा भारतीयों का पैसा 50 प्रतिशत बढ़ गया है. नोटबंदी के एक साल बाद यह कमाल हुआ है. ज़रूरी नहीं कि स्विस बैंक में रखा हर पैसा काला ही हो लेकिन काला धन नहीं होगा, यह क्लीन चिट तो मोदी सरकार ही दे सकती है.

मोदी सरकार को यह समझदारी की बात तब नहीं सूझी जब ख़ुद नरेंद्र मोदी अपने ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया करते थे कि स्विस बैंक में जमा काला धन को वापस लाने के लिए वोट करें. ऑनलाइन वोटिंग की बात करते थे.

सरकार को बताना चाहिए कि यह किसका और कैसा पैसा है? काला धन नहीं तो क्या लीगल तरीके से भी भारतीय अमीर अपना पैसा अब भारतीय बैंकों में नहीं रख रहे हैं? क्या उनका भरोसा कमज़ोर हो रहा है?

2015 में सरकार ने लोकसभा में एक सख्त कानून पास किया था. जिसके तहत बिना जानकारी के बाहर पैसा रखना मुश्किल बताया गया था. जुर्माना के साथ-साथ छह महीने से लेकर सात साल के जेल की सज़ा का प्रावधान था. वित्त मंत्री को रिपोर्ट देना चाहिए कि इस कानून के बनने के बाद क्या प्रगति आई या फिर इस कानून को कागज़ पर बोझ बढ़ाने के लिए बनाया गया था.

इस वक्त दो-दो वित्त मंत्री हैं. दोनों में से किसी को भारतीय रुपये के लुढ़कने पर लिखना चाहिए और बताना चाहिए कि 2013 में संसद में जो उन्होंने भाषण दिया था, उससे अलग क्यों बात कर रहे हैं और उनका जवाब मनमोहन सिंह के जवाब से क्यों अलग है.

एक डॉलर की कीमत 69 रुपये पार कर गई और इसके 71 रुपये तक जाने की बात हो रही है. जबकि मोदी के आने से 40 रुपये तक ले आने का ख़्वाब दिखाया जा रहा था.

ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध को लेकर छप रही ख़बरों पर नज़र रखिए. क्या भारत अपनी ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए स्वतंत्र राह पर चलेगा या अमेेरिका जिधर हांकेगा उधर जाएगा. टाइम्स आफ इंडिया की हेडिंग है कि निक्की हेले सख़्त ज़बान में बोल रही हैं कि ईरान से आयात बंद करना पड़ेगा. निक्की हेले संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी राजदूत हैं और भारत की यात्रा पर हैं.

अमेरिका चाहता है कि भारत ईरान से तेल का आयात शून्य पर लाए. ओबामा के कार्यकाल में जब ईरान पर प्रतिबंध लगा था तब भारत छह महीने के भीतर 20 प्रतिशत आयात कम कर रहा था मगर अब ट्रंप चाहते हैं कि एक ही बार में पूरा बंद कर दिया जाए.

इंडियन एक्सप्रेस में तेल मंत्री धर्मेंद्र प्रधान का बयान छपा है. आप इस बयान पर ग़ौर कीजिए जिसका मैंने एक्सप्रेस से लेकर अनुवाद किया है. ऐसा लगता है कि तेल मंत्री ही विदेश मंत्री हैं और इन्होंने ट्रंप को दो टूक जवाब दे दिया है. अगर ऐसा है तो प्रधानमंत्री या विदेश मंत्री को औपचारिक रूप दे देना चाहिए ताकि जनता को पता चले कि ईरान प्रतिबंध को लेकर भारत की क्या नीति है.

‘पिछले दो साल में भारत की स्थिति इतनी मज़बूत हो चुकी है कि कोई भी तेल उत्पादक देश हमारी ज़रूरतों और उम्मीदों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता है. मेरे लिए मेरा हित ही सर्वोपरि है और मैं जहां से चाहूंगा वहीं से भू-राजनीतिक स्थिति और अपनी ज़रूरतों के हिसाब से कच्चा तेल ख़रीदूंगा. हम जहां से चाहेंगे वहां से कच्चा तेल ख़रीदेंगे.’

ये बयान है धर्मेंद्र बयान का. आपको हंसी आनी चाहिए. अगर दो साल में भारत की स्थिति मज़बूत हो गई है तो भारत साफ-साफ क्यों नहीं कह देता है.

जबकि इसी एक्सप्रेस में इसी बयान के बगल में एक कालम की खबर लगी है कि तेल रिफाइनरियों को कहा गया है कि वे विकल्प की तलाश शुरू कर दें. उन्हें ये बात तेल मंत्रालय ने ही कही है जिसके मंत्री धर्मेंद्र प्रधान हैं. सूत्रों के हवाले से इस ख़बर में लिखा है कि तैयारी शुरू कर दें क्योंकि हो सकता है कि तेल का आयात बहुत कम किया जाए या फिर एकदम बंद कर दिया जाए.

इसके बरक्स आप मंत्री का बयान देखिए. साफ-साफ कहना चाहिए कि जो अमेरिका कहेगा हम वही करेंगे और हम वही करते रहे हैं. इसमें 56 ईंच की कोई बात ही नहीं है.

आप रुपये की कीमत पर पॉलिटिक्स कर लोगों को मूर्ख बना सकते हैं, बना लिया और बना भी लेंगे लेकिन उसका गिरना थोड़े न रोक सकते हैं. वैसे ही ट्रंप को सीधे-सीधे मना नहीं कर सकते.

ज़रूर भारत ने अमेरिका से आयात की जा रही चीज़ों पर शुल्क बढ़ाया है मगर इस सूची में वो मोटरसाइकिल नहीं है जिस पर आयात शुल्क घटाने की सूचना खुद प्रधानमंत्री ने ट्रंप को दी थी. अब आप पॉलिटिक्स समझ पा रहे हैं, प्रोपेगैंडा देख पा रहे हैं?

बिजनेस स्टैंडर्ड के पेज छह पर निधि वर्मा की ख़बर छपी है कि भारत ईरान से तेल आयात को शून्य करने के लिए तैयार हो गया है. आप ही बताइये क्या इतनी बड़ी ख़बर भीतर के पेज पर होनी चाहिए थी? इस खबर में लिखा है कि तेल मंत्रालय ने रिफाइनरियों को कहा है कि वैकल्पिक इंतज़ाम शुरू कर दें. यह पहला संकेत है कि भारत सरकार अमेरिका की घुड़की पर हरकत करने लगी है.

भारत कह चुका है कि वह किसी देश की तरफ से इकतरफा प्रतिबंध को मान्यता नहीं देता है. वह संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंध का ही अनुसरण करता है. लेकिन जब यह कहा है कि तो फिर इस बात को तब क्यों नहीं दोहराया जा रहा है जब निक्की हेली दिल्ली आकर साफ-साफ कह रही हैं कि ईरान से आयात को शून्य करना पड़ेगा.

हिंदी अखबारों में ये सब जानकारी नहीं मिलेगी. मेहनत से आप तक लाता हूं ताकि आप इन्हें पढ़ते हुए देश दुनिया को समझ सकें. ज़रूरी नहीं कि आप भक्त से नो भक्त बन जाएं मगर जान कर भक्त बने रहना अच्छा है, कम से कम अफसोस तो नहीं होगा कि धोखा खा गए.

अब देखिए, मूल सवालों पर चर्चा न हो इसलिए सरकार या भाजपा का कोई न कोई नेता इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ लाता है. वो भी ग़लत सलत. तू-तू, मैं-मैं की पॉलिटिक्स चलाने के लिए. हर दिन आप चैनल खोल कर खुद से देख लें, पता चलेगा कि देश कहां जा रहा है.

जिन नेताओं के पास जनता की समस्या पढ़ने और निराकरण का वक्त नहीं है, वो अचानक ऐसे बयान दे रहे हैं जैसे सुबह-सुबह उठते ही इतिहास की एक किताब ख़त्म कर लेते हैं. उसमें भी गलत बोल देते हैं.

अब देखिए प्रधानमंत्री मगहर गए. कबीर की जयंती मनाने. वहां भाषण क्या दिया. कितना कबीर पर दिया और कितना मायावती अखिलेश पर दिया, इससे आपको पता चलेगा कि उनके लिए कबीर का क्या मतलब है.

जब खुद उनकी पार्टी मज़ार-मंदिर जाने की राहुल गांधी की राजनीति की आलोचना कर चुकी है तो इतनी जल्दी तो नहीं जाना चाहिए था. जब गए तो ग़लत-सलत तो नहीं बोलना था.

मगहर में प्रधानमंत्री ने कहा, ‘ऐसा कहते हैं कि यहीं पर संत कबीर, गुरु नानक देव जी और गुरु गोरखनाथ एक साथ बैठकर आध्यात्मिक चर्चा करते थे.’

जबकि तीनों अलग-अलग सदी में पैदा हुए. कर्नाटक में इसी तरह भगत सिंह को लेकर झूठ बोल आए कि कोई उनसे मिलने नहीं गया.

आप सोचिए, जब प्रधानमंत्री इतना काम करते हैं, तो उनके पास हर दूसरे दिन भाषण देने का वक्त कहां से आता है. आप उनके काम, यात्राओं और भाषण और भाषणों में ग़लत-सलत तथ्यों को ट्रैक कीजिए, आपको दुख होगा कि जिस नेता को जनता इतना प्यार करती है, वो नेता इतना झूठ क्यों बोलता है. क्या मजबूरी है, क्या काम वाकई कुछ नहीं हुआ है.

आज नहीं, कल नहीं, साठ साल बाद ही सही, पूछेंगे तो सही. कबीर, नानक और गोरखनाथ को लेकर ग़लत बोलने की क्या ज़रूरत है. क्या ग़लत और झूठ बोलने से ही जनता बेवकूफ बनती है? क्या भारत को विश्व गुरु बनाने की बात करने वाले मोदी भारत को बेवकूफ बनाना चाहते हैं?

गुरुवार, 28 जून 2018

कांग्रेस के वंदे मातरम के टुकड़े करने के चलते हुआ देश का विभाजन: अमित शाह

कोलकाता में हुए एक कार्यक्रम में बोलते हुए भाजपा अध्यक्ष ने कहा कि कांग्रेस ने तुष्टिकरण के लिए वंदे मातरम को धार्मिक रंग दिया. उसने अगर ऐसा नहीं किया होता, तो देश नहीं बंटता.

कोलकाता: भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि अगर कांग्रेस ने तुष्टिकरण के लिए वंदे मातरम के टुकड़े नहीं किए होते, तो देश का विभाजन नहीं होता.

पश्चिम बंगाल के दौरे पर अमित शाह कोलकाता में श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन की ओर से आयोजित पहले बंकिम चंद्र चटोपाध्याय मेमोरियल लेक्चर में बोल रहे थे. उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने कभी भी राष्ट्रीय गीत का सम्मान नहीं किया और उसने जानबूझकर बंकिम चंद्र के विचार को नजरअंदाज किया.

उन्होंने कहा, ‘भारत किसी भू-भाग विशेष से नहीं जुड़ा है, बल्कि यह अलग-अलग संस्कृति से जुड़ा है. भारत के राष्ट्रवाद की परिभाषा इतनी छोटी नहीं हो सकती है. वंदे मातरम को किसी भी रूप में धर्म विशेष से नहीं जोड़ा जा सकता है. लेकिन कांग्रेस ने ऐसा किया है, उसने गीत के हिस्से को प्रतिबंधित करके इसे धर्म विशेष से जोड़ा.’


शाह ने कहा कि इतिहासकार कभी खिलाफत आंदोलन को, तो कभी अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति को और कभी-कभी मुस्लिम लीग के द्विराष्ट्र का सिद्धांत को जिम्मेदार ठहराते हैं. लेकिन मैं कहना चाहता हूं कि कांग्रेस के तुष्टीकरण की नीति के आगे झुकते हुए वंदे मातरम के केवल दो स्टैंजा लेने का निर्णय भारत के विभाजन का कारण बना.

भाजपा अध्यक्ष ने कहा, ‘कांग्रेस ने इसे धार्मिक रंग देने की गलती दोहराई है. स्वतंत्रता से पहले जब कांग्रेस ने प्रांतीय सरकारें बनाई थी, तब उसने वंदेमातरम को राष्ट्रगीत बनाया था लेकिन एक समुदाय के तुष्टिकरण के लिए केवल पहले दो अंतरे ही गाए जाते थे.

उन्होंने कहा कि अगर कांग्रेस ने यह गलती नहीं की होती, तो देश का विभाजन नहीं हुआ होता.

वंदेमातरम् राष्ट्रगीत है, राष्ट्रीयता की कसौटी नहीं

हेडगेवार सन् 1925 से 1940 तक सरसंघचालक रहे और उनके बाद आज़ादी मिलने तक गोलवलकर रहे. इन बाईस वर्षों में आज़ादी के आंदोलन में संघ ने कोई योगदान या सहयोग नहीं किया.
अगर भारत माता की स्वतंत्रता के लिए क़ुरबान हो जाना ही देशभक्ति की कसौटी है तो संघ परिवारी तो उस पर चढ़े भी नहीं, खरे उतरने की तो बात ही नहीं है.



कल आपने देखा कि जिसे गाना था उसने वंदेमातरम् गाया जिसे नहीं गाना था उसने नहीं गाया. जिन राज्यो में भारतीय जनता पार्टी का राज है और जहां वह दूसरी पार्टी के साथ राज कर रही है, वहां की सरकारों ने वंदेमातरम् गाने का अनिवार्य कर दिया था. लेकिन जहां कांग्रेस और दूसरी पार्टियों का राज है वहां इसके गाने न गाने की छूट थी.

जिन भाजपाई सरकारों ने इसे अनिवार्य किया वे भी दावा नहीं कर सकतीं कि जो मुसलमान, ईसाई और सिख इसे गाना नहीं चाहते थे उनसे भी वंदेमातरम् गवा लिया गया है. आदमी अगर ऐसा ही मशीनी होता और गाना रिकॉर्ड बजवाने जैसा मैकेनिकल काम होता तो न तो महान गीत होते न महान संगीत.

अपनी मां, मातृभूमि और देश से आप सहज और स्वैच्छिक प्रेम करते हैं, कोई करवा नहीं सकता. सहजता और स्वैच्छिकता संस्कृति की महान उपलब्धियों की कुंजी है. जो राष्ट्र अपने नागरिकों की सहजता और स्वैच्छिकता का आदर करता है और उन पर कोई चीज़ थोपकर उन्हें मजबूर नहीं करता सभ्यता और संस्कृति में वह उतना ही विकसित होता है.

कोई प्रेरित व्यक्ति जितने बड़े काम कर सकता है मजबूर आदमी नहीं कर सकता है. अगर इस सत्य को आप समझते हैं तो लोगों को प्रेरित करेंगे, जो वे मन से और सहजता से कर सकते हैं उसे करने की छूट देंगे और इस स्वतंत्र और स्वैच्छिक वातावरण में जो प्राप्त होगा उसका गौरव गान करेंगे.

वंदेमातरम् के राष्ट्रगीत होने की जैसे भी और जैसी भी मनाई गई शताब्दी पर अगर देशप्रेम, शहीदों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के प्रति कृतज्ञता और समर्पण को ऊंचा उठा देने वाली भावना सर्वव्यापी नहीं हुई तो दोष उन्हीं का है जो इसका गाना अनिवार्य करना चाहते थे.

यह पहली बार नहीं हुआ है कि मुसलमानों के एक तबके ने वंदेमातरम् के गाने को इस्लाम विरोधी कहा हो. वैसे ही यह भी पहली बार नहीं हुआ है कि संघ परिवारियों ने इसके गाने को मुसलमानों के लिए अनिवार्य करने का हल्ला मचाया हो.

मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच यह झगड़ा आज़ादी के बहुत पहले से चला आ रहा है. आज़ादी के आंदोलन की मुख्यधारा तो कांग्रेस की ही थी और उसी ने वंदेमातरम् को बाक़ायदा अपनाया भी. लेकिन उसी ने इसे गाते हुए भी इसका गाना स्वैच्छिक रखा. कांग्रेस का सन 1937 के अधिवेशन का प्रस्ताव इसका प्रमाण है. उसी ने इसे स्वतंत्र लोकतांत्रिक गणराज्य भारत का राष्ट्रगीत भी बनाया.

अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों के लिए वंदेमातरम् का गाना अनिवार्य करने की मांग संघ परिवारियों की ही रही है. ये वही लोग हैं जिनने उस स्वतंत्रता संग्राम को ही स्वैच्छिक माना है जिसमें से वंदेमातरम् निकला है.

अगर भारत माता की स्वतंत्रता के लिए क़ुरबान हो जाना ही देशभक्ति की कसौटी है तो संघ परिवारी तो उस पर चढ़े भी नहीं, खरे उतरने की तो बात ही नहीं है.

लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता कि राष्ट्रभक्ति का कोई प्रतीक स्वैच्छिक हो. तो फिर आज़ादी की लड़ाई के निर्णायक ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान वे खुद क्या कर रहे थे?

उनने खुद ही कहा है,’मैं संघ में लगभग उन्हीं दिनों गया जब भारत छोड़ो आंदोलन छिड़ा था क्योंकि मैं मानता था कि कांग्रेस के तौर-तरीक़ों से तो भारत आज़ाद नहीं होगा. और भी बहुत कुछ करने की ज़रूरत थी.’

संघ का रवैया यह था कि जब तक हम पहले देश के लिए अपनी जान क़ुरबान कर देने वाले लोगों का मज़बूत संगठन नहीं बना लेते, भारत स्वतंत्र नहीं हो सकता.

लालकृष्ण आडवाणी भारत छोड़ो आंदोलन को छोड़कर कराची में आरम-दक्ष करते देश पर क़ुरबान हो सकने वाले लोगों का संगठन बनाते रहे. पांच साल बाद देश आज़ाद हो गया. इस आज़ादी में उनके संगठन संघ के कितने स्वयंसेवकों ने जान की क़ुरबानी दी? ज़रा बताएं.



एक और बड़े देशभक्त स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी हैं. वे भी भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बच्चे नहीं संघ कार्य करते स्वयंसेवक ही थे. एक बार बटेश्वर में आज़ादी के लिए लड़ते लोगों की संगत में पड़ गए. उधम हुआ. पुलिस ने पकड़ा तो उत्पात करने वाले सेनानियों के नाम बताकर छूट गए.

आज़ादी आने तक उनने भी देश पर क़ुरबान होने वाले लोगों का संगठन बनाया जिन्हें क़ुरबान होने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि वे भी आज़ादी के आंदोलन को राष्ट्रभक्ति के लिए स्वैच्छिक समझते थे.

अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने को देशभक्तों का महान संगठन कहे और देश पर जान न्योछावर करने वालों की सूची बनाए तो यह बड़े मज़ाक का विषय है. सन् 1925 में संघ की स्थापना करने वाले डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार को बड़ा क्रांतिकारी और देशभक्त बताया जाता है.

वे डॉक्टरी की पढ़ाई करने 1910 में नागपुर से कोलकाता गए जो कि क्रांतिकारियों का गढ़ था. हेडगेवार वहां छह साल रहे. संघवालों का दावा है कि कोलकाता पहुंचते ही उन्हें अनुशीलन समिति की सबसे विश्वसनीय मंडली में ले लिया गया और मध्यप्रांत के क्रांतिकारियों को हथियार और गोला-बारूद पहुंचाने की ज़िम्मेदारी उन्हीं की थी.

लेकिन न तो कोलकाता के क्रांतिकारियों की गतिविधियों के साहित्य में उनका नाम आता है न तब के पुलिस रिकॉर्ड में. (इतिहासकारों का छोड़े क्योंकि यहां इतिहासकारों का उल्लेख करने पर कुछ को उनकी निष्पक्षता पर सवाल खड़ा करने का अवसर मिल सकता है)

खैर, हेडगेवार ने वहां कोई महत्व का काम नहीं किया न ही उन्हें वहां कोई अहमियत मिली. वे न तो कोई क्रांतिकारी काम करते देखे गए और न ही पुलिस ने उन्हें पकड़ा. 1916 में वे वापस नागपुर आ गए.

लोकमान्य तिलक की मृत्यु के बाद वे कांग्रेस और हिंदू महासभा दोनों में काम करते रहे. गांधीजी के अहिंसक असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलनों में भाग लेकर ख़िलाफ़त आंदोलन के वे आलोचक हो गए. वे पकड़े भी गए और सन् 1922 में जेल से छूटे.

नागपुर में सन् 1923 के दंगों में उनने डॉक्टर मुंजे के साथ सक्रिय सहयोग किया. अगले साल सावरकर का ‘हिंदुत्व’ निकला जिसकी एक पांडुलिपि उनके पास भी थी.

सावरकर के हिंदू राष्ट्र के सपने को साकार करने के लिए ही हेडगेवार ने सन् 1925 में दशहरे के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की. तब से वे निजी हैसियत में तो आज़ादी के आंदोलन और राजनीति में रहे लेकिन संघ को इन सबसे अलग रखा.

सारा देश जब नमक सत्याग्रह और सिविल नाफ़रमानी आंदोलन में कूद पड़ा तो हेडगेवार भी उसमें आए लेकिन राष्टीय स्वयंसेवक संघ की कमान परांजपे को सौंप गए. वे स्वयंसेवकों को उनकी निजी हैसियत में तो आज़ादी के आंदोलन में भाग लेने देते थे लेकिन संघ को उनने न सशस्त्र क्रांतिकारी गतिविधियों में लगाया न अहिंसक असहयोग आंदोलनों में लगने दिया.

संघ ऐसे समर्पित लोगों के चरित्र निर्माण का कार्य कर रहा था जो देश के लिए क़ुरबान हो जाएंगे. सावरकर ने तब चिढ़कर बयान दिया था, ‘संघ के स्वयंसेवक के समाधि लेख में लिखा होगा- वह जन्मा, संघ में गया और बिना कुछ किए धरे मर गया.’

हेडगेवार तो फिर भी क्रांतिकारियों और अहिंसक असहयोग आंदोलनकारियों में रहे दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर तो ऐसे हिंदू राष्ट्रनिष्ठ थे कि राष्ट्रीय आंदोलन, क्रांतिकारी गतिविधियों और ब्रिटिश विरोध से उनने संघ और स्वयंसेवकों को बिल्कुल अलग कर लिया.

वाल्टर एंडरसन और श्रीधर दामले ने संघ पर जो पुस्तक द ब्रदरहुड इन सैफरन- लिखी है उसमें कहा है, ‘गोलवलकर मानते थे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर पाबंदी लगाने का कोई बहाना अंग्रेज़ों को न दिया जाए.’

अंग्रेज़ों ने जब ग़ैरसरकारी संगठनों में वर्दी पहनने और सैनिक कवायद पर पाबंदी तो संघ ने इसे तत्काल स्वीकार किया. 29 अप्रैल 1943 को गोलवलकर ने संघ के वरिष्ठ लोगों के एक दस्तीपत्र भेजा. इसमें संघ की सैनिक शाखा बंद करने का आदेश था.



दस्तीपत्र की भाषा से पता चलता है कि संघ पर पाबंदी की उन्हें कितनी चिंता थी- ‘हमने सैनिक कवायद और वर्दी पहनने पर पाबंदी जैसे सरकारी आदेश मानकर ऐसी सब गतिविधियां छोड़ दी हैं ताकि हमारा काम क़ानून के दायरे में रहे जैसा कि क़ानून को मानने वाले हर संगठन को करना चाहिए. ऐसा हमने इस उम्मीद में किया कि हालात सुधर जाएंगे और हम फिर ये प्रशिक्षण देने लगेंगे. लेकिन अब हम तय कर रहे हैं कि वक़्त के बदलने का इंतज़ार किए बिना ये गतिविधियां और ये विभाग समाप्त ही कर दें.’

(ये वो दौर था जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसे क्रांतिकारी अपने तरीक़े से संघर्ष कर रहे थे) पारंपरिक अर्थों में गोलवलकर क्रांतिकारी नहीं थे. अंग्रेज़ों ने इसे ठीक से समझ लिया था.

सन् 1943 में संघ की गतिविधियों पर तैयार की गई एक सरकारी रपट में गृह विभाग ने निष्कर्ष निकाला था कि संघ से विधि और व्यवस्था को कोई आसन्न संकट नहीं है. 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में हुई हिंसा पर टिप्पणी करते हुए मुंबई के गृह विभाग ने कहा था, ‘संघ ने बड़ी सावधानी से अपने को क़ानूनी दायरे में रखा है. खासकर अगस्त 1942 में जो हिंसक उपद्रव हुए हैं, उनमें संघ ने बिल्कुल भाग नहीं लिया है.’

हेडगेवार सन् 1925 से 1940 तक सरसंघचालक रहे और उनके बाद आज़ादी मिलने तक गोलवलकर रहे. इन बाईस वर्षों में आज़ादी के आंदोलन में संघ ने कोई योगदान या सहयोग नहीं किया.

संघ परिवारियों के लिए संघ कार्य ही राष्ट्र सेवा और राष्ट्रभक्ति का सबसे बड़ा काम था. संघ का कार्य क्या है? हिंदू राष्ट्र के लिए मर मिटने वाले स्वयंसेवकों का संगठन बनाना. इन स्वयंसेवकों का चरित्र निर्माण करना. उनमें ऱाष्ट्रभक्ति को ही जीवन की सबसे बड़ी प्रेरणा और शक्ति मानने की परम आस्था बैठाना.

1947 में जब देश आज़ाद हुआ तो देश में कोई सात हज़ार शाखाओं में छह से सात लाख स्वयंसेवक भाग ले रहे थे. आप पूछ सकते हैं कि इन एकनिष्ठ देशभक्त स्वयंसेवकों ने आज़ादी के आंदोलन में क्या किया?

अगर ये सशस्त्र क्रांति में विश्वास करते थे तो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ इनने कितने सशस्त्र उपद्रव किए, कितने अंग्रेज़ों को मारा और उनके कितने संस्थानों को नष्ट किया. कितने स्वयंसेवक अंग्रेज़ों की गोलियों से मरे और कितने वंदेमातरम् कहकर फांसी पर झूल गए? हिंदुत्ववादियों के हाथ से एक निहत्था अहिंसक गांधी ही मारा गया.

संघ और इन स्वयंसेवकों के लिए आज़ादी के आंदोलन से ज़्यादा महत्वपूर्ण स्वतंत्र हिंदू राष्ट्र के लिए संगठन बनाना और स्वयंसेवक तैयार करना था. संगठन को अंग्रेज़ों की पाबंदी से बचाना था. इनके लिए स्वतंत्र भारत राष्ट्र अंग्रेज़ों से आज़ाद कराया गया भारत नहीं था.

इनका हिंदू राष्ट्र तो कोई पांच हज़ार साल से ही बना हुआ है. उसे पहले मुसलमानों और फिर अंग्रेज़ों से मुक्त कराना है. मुसलमान हिंदू राष्ट्र के दुश्मन नंबर एक और अंग्रेज़ नंबर दो थे. सिर्फ़ अंग्रेज़ों को बाहर करने से इनका हिंदू राष्ट्र आज़ाद नहीं होता.

मुसलमानों को भी या तो बाहर करना होगा या उन्हें हिंदू संस्कृति को मानना होगा. इसलिए अब उनका नारा है- वंदे मातरम् गाना होगा, नहीं तो यहां से जाना होगा.

सवाल यह है कि जब आज़ादी का आंदोलन- संघ परिवारियों के लिए स्वैच्छिक था तो स्वतंत्र धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत में वंदेमातरम् गाना स्वैच्छिक क्यों नहीं हो सकता?

भारत ने हिंदू राष्ट्र को स्वीकार नहीं किया है. यह भारत संघियों का हिंदू राष्ट्र नहीं है. वंदेमातरम् राष्ट्रगीत है, राष्ट्रीयता की कसौटी नहीं.(प्रभाष जी का यह लेख 10 मार्च 2008 को जनसत्ता में छपा था.)

मोदी सा..... पधारो म्हारे प्रदेश माय

जयपुर। अगले महीने की 7 तारीख को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राजस्थान दौरा प्रस्तावित है। इस दौरे को लेकर राज्य सरकार कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहती है। मोदी की प्रस्तावित यात्रा को देखते हुए पुलिस—प्रशासन को जहां सुरक्षा—व्यवस्था चाक—चौबंद करने का जिम्मा सौंप दिया गया है, वहीं प्रदेश से आने वाले केंद्र व सरकार के मंत्रियों के अलावा सभी विधायकों को भीड़ जुटाने की जिम्मेदारी सौंपी गई है।

बताया जा रहा है कि पीएम मोदी के सामने राज्य सरकार की जनता में अच्छी पेठ होना दिखाने के लिए इस रैली में करीब 2.29 लाख लोगों की भीड़ का इंतजाम किया जाएगा। सूत्रों के अनुसार बीजेपी आलाकमान व सीएम राजे के बीच कथित तौर पर जारी खींचतान को नगण्य करने के लिए पीएम के सामने राज्य सरकार अपनी कोई कमजोरी उजागर नहीं होने देना चाहती है। जानकारी के अनुसार यह 2.29 लाख लोग वही हैं, जो प्रदेश में केंद्र व राज्य सरकार की 12 योजनाओं का लाभ ले रहे हैं।


बीजेपी के पदाधिकारियों और मंत्रियों की मंगलवार को ही सीएमआर में बैठक हो चुकी है। इसके साथ ही आज सचिवालय में मुख्य सचिव डीबी गुप्ता की अध्यक्षता में विशेष बैठक का आयोजन किया गया है। सभी एससीएस और विभागों के प्रमुख सचिव व संयुक्त सचिवों को इस बैठक में मौजूद होने के निर्देश दिए गए हैं। बताया जा रहा है कि पीएम मोदी की यात्रा को लेकर राज्य सरकार कोई कोताही बरतने के मूड में नहीं है।

इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में राज्य सरकार भरपूर प्रयास कर रही है कि किसी भी सूरत में पीएम मोदी की इस रैली से ही विधानसभा चुनाव प्रचार के लिए शंखनाद का आगाज कर दिया जाए, ताकि विपक्ष को मौका ही नहीं मिले। इधर, सरकारी योजनाओं को लेकर मंत्रियों और विधायकों को टारगेट देकर भीड़ एकत्रित करने को कहा गया है। भाजपा सूत्रों के अनुसार पीएम मोदी की रैली के लिए राज्य सरकार का जो मंत्री और विधायक अधिक भीड़ एकत्रित करने में कामयाब होगा, उसका अगले चुनाव में टिकट तय हो जाएगा।

जयपुर में जल्द शुरू होगी 'काउ सफारी', सरकार कर रही तैयारी

अनोखा गौ संरक्षण



जयपुर। राजस्थान में सरिस्का अभयारण्य में टाइगर सफारी के बाद अब गो प्रेमी जयपुर में काउ सफारी का आनंद उठा पाएंगे। राज्य सरकार अपने इस प्रोजेक्ट पर कार्य कर रही है। माना जा रहा है कि काउ सफारी के बाद बुल (बैल) सफारी प्रोजेक्ट भी शुरू करेगी। राज्य के स्वामित्व वाली हिंगोनिया गोशाला में लोगों को गायों के साथ वक्त बिताने का मौका मिलेगा।


30 देसी नस्लों की 15 हजार से अधिक गायें
काउ सफारी के दौरान लोग यहां 15 हजार से अधिक गायों के बीच समय व्यतीत कर पाएंगे। सफारी के दौरान लोग गायों को चारा खिलाना, गायों की सफाई, मसाज और दूध भी निकाल सकेंगे। हिंगोनिया गोशाला में देसी गायों की 30 से अधिक नस्लें हैं।


यहां लापरवाही के चलते मरी थी हजारों गायें
वर्ष 2016 में गोशाला प्रबंधन की लापरवाही के चलते यहां हजारों गाएं मर गए थी जिसके बाद ये मामला काफी उछला था। हालांकि राजस्थान में गो संरक्षण का राज्य सरकार की ये योजना नई नहीं है। इससे पहले राजस्थान राज्य में पहला राज्य बना था जहां गाय मंत्रालय भी शुरू किया गया था। इससे पहले ही हाल ही राजस्थान सरकार ने गो संरक्षण के लिए शराब पर 20 फीसदी सेस भी लगाया था।

बुधवार, 27 जून 2018

वसुंधरा राजे मेरे पड़ोस में रहती हैं, मुझे उनकी चिंता बनी रहती है

 बजरी खनन माफिया से राज्य सरकार मिली हुई है,

जयपुर स्थित आवास पर मीडिया से बातचीत करते हुए गहलोत ने वसुंधरा के साढ़े चार साल के कार्यकाल पर निशाना साधते हुए कहा कि राज्य की जनता ने झोली भरकर सीटें दी। इसके बाद वसुंधरा के नेतृत्व में भाजपा ने प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाई। इस दौरान बड़े-बड़े दावे भी किए, लेकिन अब जवाबदेही की बात आती है तो वसुंधरा पीछे हट जाती हैं। जबकि अपने विश्वसनीय मंत्रियों और परनामी को आगे कर देती हैं।

गहलोत ने कहा कि अब जनता इस सरकार से जानना चाहती है, उनका क्या कसूर है। राज्य की जनता अपने आप को ठगा हुआ महसूस कर रही है। उन्होंने कहा कि वसुंधरा अब अपनी कुर्सी बचाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे राजस्थान में करवा रहीं हैं। पहले भी ऐसे बुलाया है, अब केंद्र की योजनाओं के बहाने बुलाया जा रहा है। लेकिन, अब जनता ने भाजपा को सत्ता से हटाने का मन बना लिया है।
 गहलोत ने मुख्यमंत्री वसुंधरा पर निशाना साधते हुए कहा है कि आज जो बेकदरी तिवाड़ी की हुई है ऐसा ही बुरा व्यवहार भैरोसिंह (बाबोसा) के साथ भी हुआ था।


उन्होंने कहा कि भैरोसिंह की भी स्थिति वसुंधरा ने काफी खराब कर दी थी। वे इस व्यवहार से काफी दुःखी हो गए थे। उपराष्ट्रपति होते हुए भी उनके साथ जो व्यवहार हुआ था, उसे राजस्थान कभी भूलेगा नहीं। गहलोत ने कहा कि जब भैरोसिंह उपराष्ट्रपति थे, और मैं मुख्यमंत्री था। उस दौरान हम उनके स्वागत के लिए कार्यक्रम का आयोजन करते थे, लेकिन पड़ौस में होते हुए भी वसुंधरा राजे ने कभी उनकी परवाह नहीं की। उस दिन को राजस्थान भूला नहीं है। गहलोत ने कहा कि ये लोग किस मुंह से वोट मांगेंगे।

इस मौके पर गहलोत पीएम मोदी पर भी निशाना साधने से नहीं चूके। उन्होंने कहा कि पीएम मोदी को गर्व करना चाहिए कि वो उस कुर्सी पर बैठे हैं, जिस पर कभी पंडित जवाहर लाल नेहरू बैठा करते थे।

प्रदेश में अवैध खनन पर बोलते हुए गहलोत ने कहा कि अवैध खनन चरम पर पहुंच गया है और यह सब सरकार की मिलीभगत से हो रहा है। अवैध खनन के साथ-साथ लाखों करोड़ों का लेनदेन का भी खेल चल रहा है। प्रदेश में बजरी खनन पर रोक लगने के बाद लाखों मजदूर बेरोजगार हो गए है। लेकिन सरकार को इनकी कोई फिक्र नहीं है।

गहलोत जी ने इन्दिरा जी का गुणगान तो किया,

आपातकाल की हिटलरशाही को भूल गये - किरण माहेश्वरी

भारतीय जनता पार्टी प्रदेश मुख्यालय पर प्रेस वार्ता को सम्बोधित करते हुए राजस्थान सरकार की उच्च शिक्षा मंत्री श्रीमती किरण माहेश्वरी ने कहा कि काँग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने आपातकाल लागू करने वाली प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी का यशोगान, गुणगान करके यह साबित कर दिया कि काँग्रेसी सत्ता  प्राप्ति के लिए वंशवाद को ही बढ़ावा दे रहे है। गहलोत जी ने इन्दिरा गाँधी जी का गुणगान तो कर लिया, लेकिन आपातकाल की हिटलरशाही को भूल गये।
आपातकाल में काँग्रेस ने जनता को धोखा दिया - किरण माहेश्वरी
श्रीमती किरण माहेश्वरी ने पत्रकारों को सम्बोधित करते हुए कहा कि आजादी के पश्चात् काँग्रेस सरकार के द्वारा लगाये गये आपातकाल ने देश को एक जेल के रूप में परिवर्तित कर दिया था। काँग्रेस ने राजनैतिक नेताओं, पत्रकारों एवं सभी पर पाबंदी लगाने का सबसे बड़ा कालखण्ड बना दिया था। आपातकाल में जनता की चुनी हुई काँग्रेस सरकार ने जनता को ही धोखा दिया और तरह-तरह के अत्याचारों की दास्तान सामने आई।
किसानों के हित में काम करने से गहलोत जी 
के पेट में दर्द क्यों? - किरण माहेश्वरी
माहेश्वरी ने कहा कि भाजपा सरकार ने श्रीमती वसुन्धरा राजे के नेतृत्व में किसानों की कर्ज माफी कर ऐतिहासिक निर्णय लिया और गहलोत जी ‘‘खजाना खाली का बहाना’’ लगाकर किसानों का हित नहीं कर पायें। आज जब भाजपा सरकार 28 लाख किसानों का हित कर रही है, तो गहलोत जी के पेट में दर्द क्यों हो रहा है ? मुख्यमंत्री श्रीमती वसुन्धरा राजे के नेतृत्व में विकास कार्यों में कभी भी धन की कमी नहीं आई, वहीं गहलोत जी ने खजाना खाली का रोना ही रोया। काँग्रेस सरकार के समय में तो समर्थन मूल्य पर फसल खरीद के केन्द्र ही खाली रहते थे, जबकि भाजपा सरकार में काँग्रेस से ज्यादा किसानों के लिए केन्द्र खोले गये और समर्थन मूल्य पर खरीद जारी है। राजस्थान सरकार किसानों को ऋण देने अथवा कर्ज माफी मामले में सदैव काँग्रेस से अग्रणी रही है।
किरण माहेश्वरी ने कहा कि पूर्व मुख्यमंत्री गहलोत जी जनता को भ्रमित कर रहे है, जबकि उनके कार्यकाल में राजस्थान की महिलाऐं असुरक्षित हो गई थी, महिलाऐं न घर में और ना हीं बाहर सुरक्षित थी। काँग्रेस के कार्यकाल में दलित अत्याचार, महिला अत्याचारों में राजस्थान अव्वल था। इसलिए राहुल गाँधी को गहलोत सरकार की हकीकत जानने के लिए राजस्थान आना पड़ा। राहुल गाँधी के आने की तैयारियों में मंत्री ही मंत्री से नाराज दिखायी दिये थे।
प्रदेश में पहली बार बना गोपालन मंत्रालय - किरण माहेश्वरी
माहेश्वरी ने कहा कि आज सम्पूर्ण देश में राजस्थान गोपालन मंत्रालय बनाने वाला पहला राज्य बना और सरकार बनते ही गोपालन विभाग का गठन हुआ और अलग से गोपालन मंत्रालय स्थापित हुआ। काँग्रेस ने मात्र अपने कार्यकाल में बातें ही की है। पहली बार गायों के संरक्षण के लिए राजस्थान गौ-संरक्षण एवं संवर्धन निधि नियम बनाये है और मुख्य सचिव की अध्यक्षता में गठित सलाहकार समिति गौशालाओं में गौवंश संरक्षण एवं उनके चारा-पानी, पशुआहार की व्यवस्था करते है। सम्पूर्ण प्रदेश में 1191 गौशालाओं में 13206.24 लाख रूपये व्यय किये जा चुके है। प्रदेश में पंजीकृत गौशालाओं की जियो टैगिंग करायी जायेगी, लगभग 1670 गौशालाओं की जियो टैगिंग की जा चुकी है।

मंगलवार, 26 जून 2018

हाउसिंग सोसायटियों का होगा डिजिटाईजेशन

रिकार्ड उपलब्ध नहीं कराने वाली सोसायटियों पर होगी सख्त कार्यवाही


जयपुर । रजिस्ट्रार, सहकारिता  राजन विशाल ने  बताया जयपुर शहर की 161 गृह निर्माण सहकारी समितियों की अन्तिम ऑडिट रिपोर्ट का डिजिटाईजेशन किया जायेगा। इसके लिये 27 जून से 13 जुलाई तक क्षेत्रीय अंकेक्षण अधिकारी के मिनी सचिवालय स्थित कार्यालय में कैम्प आयोजित किये गये हैं।

उन्होंने बताया कि उच्च न्यायालय के निर्देशों की अनुपालना में तथा हाउसिंग सोसायटियों द्वारा समय पर ऑडिट नहीं कराने व उनके द्वारा सृजित योजनाओं के संबंध में अनियमितता के प्रकरण सामने आने के कारण विभाग द्वारा यह कदम उठाया गया है। उन्होंने बताया कि आयोजित होने वाले कैम्प में प्रतिदिन 10 से 12 सोसायटियों को आमंत्रित किया गया है ताकि उनके समक्ष ही अंतिम आॅडिट रिपोर्ट से संबंधित तथ्यों की पुष्टि कर डिजिटाईजेशन का कार्य पूरा किया जा सके।

 विशाल ने बताया कि सोसायटियों द्वारा सृजित की गई योजनाओं के संबंध में पूर्ण जानकारी निर्धारित प्रारूपों में ली जायेगी जिसमें जमीन की खरीद स्थिति, योजनावार सदस्यों की सूची, आवंटित भूखण्ड संख्या व उनका क्षेत्रफल, भूखण्ड आवंटन की दिनांक, आवंटन से शेष भूखण्डों का विवरण सहित अन्य सूचनाएं प्राप्त की जायेंगी।

उन्होंने बताया कि 27 जून को अपोलो नगर, बाबा आर. एन. गौड, गांधी, हीरा, इन्द्रपुरी, कृष्णापुरी, दि रेल्वे मैंस, आजाद, जय अम्बे एवं मदरामपुरा गृह निर्माण सहकारी समितियों की योजनाओं के संबंध में प्रपत्र प्राप्त कर उनका डिजिटाईजेशन किया जायेगा।

रजिस्ट्रार ने बताया कि सोसायटी से संबंधित पदाधिकारियों के आधार कार्ड नम्बर, टेलिफोन नम्बर एवं सोसायटी का वास्तविक पता भी स्पष्ट रूप से दर्ज कराना होगा। जिन सोसायटियों द्वारा वांछित सूचनायें नहीं दी जायेंगी उनके खिलाफ राजस्थान सहकारी सोसायटी अधिनियम के साथ-साथ भारतीय दण्ड संहिता की धारा 174 एवं 175 के तहत कार्यवाही अमल में लाई जायेगी।

उन्होंने बताया कि विभाग के स्तर पर गृह निर्माण सहकारी समितियों से संबंधित कई शिकायतें प्राप्त हुई हैं, जिनमें किसी सोसायटी द्वारा एक ही पट्टे का विभिन्न व्यक्तियों को बेचान, सोसायटी द्वारा आवंटित भूखण्डधारी के साथ धोखाधड़ी, सोसायटी द्वारा ऑडिट नहीं कराना एवं योजना से संबंधित दस्तावेजों में छेड़छाड़ तथा अनियमितता की स्थिति को देखते हुए यह निर्णय लिया गया है।

 विशाल ने बताया कि विभाग द्वारा यह कार्य पूर्ण होने पर कोई भी व्यक्ति सोसायटी की योजना से संबंधित सम्पूर्ण आवश्यक जानकारी ऑनलाइन ले सकेगा एवं भूखण्ड से संबंधित खरीद फरोख्त करते समय सावधानी बरत सकेगा तथा धोखाधडी से बच सकेगा।

ई-गवर्नेंस के लिए चीफ मिनिस्टर ऑफ द ईयर अवार्ड मुख्यमंत्री को भेंट

जयपुर। ई-गवर्नेंस के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे को मिला ‘चीफ मिनिस्टर ऑफ द ईयर‘ अवार्ड मंगलवार को प्रमुख शासन सचिव सूचना प्रौद्योगिकी अखिल अरोरा ने मुख्यमंत्री निवास पर सीएम राजे को भेंट किया। इस अवसर पर मुख्य सचिव डीबी गुप्ता, पुलिस महानिदेशक ओपी गल्होत्रा भी मौजूद थे।

उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के नेतृत्व में ई-गवर्नेर्ंंस के क्षेत्र में राजस्थान आज देश का अग्रणी राज्य बन गया है। भामाशाह योजना, भामाशाह स्वास्थ्य बीमा योजना, ई-मित्र, सीएम हैल्प लाइन, बिग डाटा एनालिटिक्स, ई-ज्ञान, ई-संचार, ई-मंडी, राजकाज, राज नेट, राज ई-वैलेट, ई-मित्र प्लस, अभय कमांड सेंटर आदि के जरिए लोगों को लोक सेवाओं की त्वरित डिलीवरी संभव हुई है। सीएम राजे की पहल पर हुए इन नवाचारों तथा उपलब्धियों के लिए उनको यह सम्मान शनिवार को नई दिल्ली में आयोजित 52वें स्कॉच समिट ‘वन नेशन वन प्लेटफॉर्म‘ में प्रदान किया गया था।

मुख्यमंत्री की ओर से यह अवार्ड मुख्यमंत्री सलाहकार परिषद के विशेषाधिकारी डॉ. अनुज सक्सेना एवं सूचना प्रौद्योगिकी विभाग के संयुक्त निदेशक आरएल सोलंकी ने स्कॉच ग्रुप के चेयरमैन समीर कोचर से ग्रहण किया था। 

देश में आज जो अघोषित आपातकाल लागू है वह घोषित से अधिक ख़तरनाक है


भाजपा से छह बार विधायक और दो बार मंत्री रहे राजस्थान के घनश्याम तिवाड़ी ने यह पत्र पार्टी से इस्तीफ़ा देते हुए राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को लिखा है.


प्रिय अमित शाह जी,

आशा है आप स्वस्थ व प्रसन्नचित्त होंगे. बिना राग-द्वेष की भावना से प्रभावित हुए, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं और नीति की अपनी समझ के अनुसार, देश तथा राजस्थान प्रदेश के हित को ध्यान में रखते हुए यह पत्र आपको लिख रहा हूं. क्योंकि आप पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं इसलिए यह पत्र आपको संबोधित है.

आपके स्थान पर कोई अन्य होते तो उन्हें संबोधित करता. इसलिए आशा है इस पत्र को आप निजी तौर पर नहीं लेकर देश और राजस्थान की राजनीति के व्यापक परिपेक्ष्य में देखेंगे. यह भी आशा है कि जो सुधार आपके द्वारा किए जाने संभव हैं उन्हें लागू करेंगे. इसमें पार्टी और देश दोनों का हित होगा. आपको उसका सुयश ही प्राप्त होगा. शेष आपकी मर्जी, स्वभाव, और भाग्य के अधीन है.

मुझे याद नहीं बचपन में मैं कब संघ की शाखा में जाने लगा… शायद 6 या 7 वर्ष का था तभी से. संघ में तृतीय वर्ष शिक्षित हुआ, उसके बाद विद्यार्थी परिषद, युवासंघ, जनसंघ, जनता पार्टी, युवा मोर्चा, जनता युवा मोर्चा, और भारतीय जनता पार्टी में काम करते हुए विचार परिवार में ही मेरा सारा जीवन व्यतीत हुआ.

जीवन के 66 वर्ष, यानी लगभग सारे जीवन भर, एक संस्था एक परिवार से जुड़कर काम करने के बाद उससे अलग होते हुए किसी के भी मन में जो पीड़ा और दु:ख की भावना होगी वह मेरे मन में भी है.

हो सकता है अन्य किसी व्यक्ति के लिए उसका कोई मोल न हो लेकिन मेरे लिए यह दुख और पीड़ा भी हृदय में संजो कर रखने की चीज है. ऐसे समय में किस-किस को याद करूं और किस-किस को भूल जाऊं?

खैर, आज 25 जून का दिन है. कांग्रेस द्वारा 1975 में देश पर थोपे गए आपातकाल के खिलाफ पार्टी दिवस मना रही है. यह ठीक भी है. देश की जनता, विशेषकर युवा वर्ग के सामने, आपातकाल के बारे में जानकारी लाना एक अच्छी बात है.

उस प्रकार की दुर्भाग्यपूर्ण घटना की पुनरावृत्ति को रोकने में इस प्रकार के दिवस मनाए जाने से कुछ जागृति ही पैदा होती है.

आपको संभवत: ध्यान होगा कि संघ के स्वयंसेवक और जनसंघ के युवा पदाधिकारी के रूप में मैंने भी आपातकाल के खिलाफ आंदोलन में भाग लिया था. देश में सिर उठाती तानाशाही का स्व. जयप्रकाश नारायण और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में हमने मुकाबला किया था.

इसके कारण जिन अमानवीय यातनाओं से मुझे गुजरना पड़ा उसका मैं यहां विवरण नहीं करना चाहता. संघ और पार्टी के पुराने लोगों को वे सब विदित हैं. मुझे दी गई उन यातनाओं के विरोध में जेपी और अटल जी सहित देश भर की जेलों में बंद नेताओं ने दो दिन का उपवास किया था.

चाहे कितनी भी यातनाएं मुझे सहनी पड़ी हों पीछे देखने पर मन में इस बात का संतोष होता है कि मैं उस आंदोलन का हिस्सा बना. आपातकाल के बाद चुनाव हुए और देश में जनता पार्टी की सरकार बनी.

उस सरकार ने देश के संविधान और कानूनों में भविष्य में आपातकाल लगाए जाने को लेकर संशोधन किए. यह लोकतंत्र की बहुत बड़ी जीत थी. उन संशोधनों के कारण ही आज यह दृढ़ स्थिति है कि तानाशाही की मनोवृत्ति वाले नेता नया आपातकाल लगा कर भारत के नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों का हनन नहीं कर सकते.

इन संशोधनों के कारण आज देश में आपातकाल घोषित किया जाना अत्यंत दुष्कर हो गया है. लेकिन पिछले चार वर्ष में देश के ध्यान में यह बात आयी है कि घोषित आपातकाल चाहे अब नहीं लगाया जा सके एक अघोषित आपातकाल देश में लगाया जा सकता है, बल्कि लगाया जा चुका है.

राजस्थान प्रदेश और देश में आज जो अघोषित आपातकाल लागू है वह घोषित आपातकाल से अधिक खतरनाक है. इस अघोषित आपातकाल के खिलाफ जनता की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए संघर्ष करने को मैं तत्पर हूं और कमर कस कर तैयार हूं.



ईश्वर का मैं शुक्रगुजार हूं कि उसने मुझे 1975 के घोषित आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष का अवसर दिया. वर्तमान में देश-प्रदेश में लगे अघोषित आपातकाल के विरुद्ध ईश्वर मुझे मैदान में उतार रहे हैं यह भी उनकी कृपा ही है.

पिछले आपातकाल के बाद यह सुनिश्चित हुआ कि कोई अपने राजनीतिक स्वार्थ के कारण देश में लोकतंत्र का दमन न कर सके. वर्तमान में अघोषित आपातकाल के खिलाफ लड़ाई लड़ हम यह सुनिश्चित करेंगे कि भविष्य में कोई अहंकारोन्मादी अपनी सत्ता लोलुपता में लोकतांत्रिक संस्थाओं का गला न घोंट सके और देश की आगे आने वाली पीढ़ियों को एक बेहतर समाज और एक बेहतर देश-दुनिया मिले.

करीब चार वर्ष छह माह पहले, कांग्रेस पार्टी के शासन से परेशान होकर, राजस्थान की जनता ने विधानसभा में प्रचंड बहुमत प्रदान कर भाजपा के हाथ में प्रदेश की बागडोर सौंपी थी. इसके बाद मई 2014 में हुए लोकसभा चुनावों में भी राजस्थान की जनता ने राज्य की 25 में से 25 सीटें भाजपा को जिता कर देश में सत्ता परिवर्तन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

केंद्र में और राज्य में दोनों जगह इस प्रकार का ऐतिहासिक बहुमत देने के बाद आज हालात यह है कि राजस्थान ठगा महसूस कर रहा है. वर्तमान भाजपा सरकार ने बीते साढ़े चार साल में, केंद्र के कुछ नेताओं की मिलीभगत से, चरागाह समझ कर राजस्थान को लूटने का काम किया है.

प्रदेश में सरकार की मुखिया के नेतृत्व में कुछ मंत्रियों तथा अफसरों की एक ऐसी मंडली बन गयी है जिसका एक सूत्री लक्ष्य है- जनता की जेब कतरना और राज्य की संपदा पर डाका डालना.

राजस्थान में भाजपा सरकार की मुखिया द्वारा प्रतिदिन भ्रष्टाचार की नई-नई योजनाएं ईजाद की जा रही हैं. कभी अपने चहेतों को मलाईदार प्रशासनिक पदों पर नियुक्ति देकर तो कभी राजनीतिक नियुक्तियां देकर प्रदेश भर से पैसा वसूली का काम किया जा रहा है.

फिर कभी इन भ्रष्टों को संरक्षण देने के लिए प्रदेश में काला कानून लाया जाता है तो कभी तुगलकी फरमान जारी करते हुए राज्य की जनता की सम्पत्ति पर आजन्म कब्जे के मंसूबों को अंजाम दिया जा रहा है जैसेकि 13 सिविल लाइंस के 2000 करोड़ से भी अधिक के सरकारी बंगले पर आजन्म कब्जे का मंत्री वेतन संशोधन विधेयक.

इतना ही नहीं प्रदेश की सभी प्रमुख संवैधानिक संस्थाओं-विधानसभा का सदन, विधानसभा की समितियां, राजभवन, राजस्थान लोक सेवा आयोग, मंत्रिमंडल, इत्यादि की शक्ति और गरिमा को निजी हितों की पूर्ति के लिए दांव पर लगा दिया गया है.

भय और दमन का ऐसा तंत्र बिछाया गया है कि कोई भी अपना स्वतंत्र विचार या मत रखने के लिए तैयार नहीं होता. जो होता है उसे प्रताड़ित किया जाता है, उस पर झूठे केस-मुकदमें चलाए जाते हैं, उसका और उसके परिवार का दमन करने का प्रयास किया जाता है.

स्थिति यहां तक है कि वे समाचार पत्र जो मीडिया की स्वतंत्रता और लोकतंत्र की रक्षा के लिए काम कर रहे हैं, जो जनता के हितों के लिए काम कर रहे हैं, उनपर भी सरेआम आर्थिक और राजनीतिक दमन का तंत्र चलाया जाता है.

पिछले चार वर्ष में कई बार मैं आपके ध्यान में राजस्थान के भ्रष्टाचार और कुशासन की बात लाया हूं. मैं लगातार आपके यह भी ध्यान में लाता रहा हूं कि राजस्थान की भाजपा को किस प्रकार एक व्यक्ति के द्वारा हथिया लिया गया है.

किस प्रकार राजस्थान भाजपा एक व्यक्ति की निजी दुकान में बदल गई है. मैं आपको यह भी बतलाता रहा हूं कि इससे राजस्थान प्रदेश का भी अहित हो रहा है और राजस्थान में पार्टी का भी. लेकिन आपने कभी कुछ नहीं किया.

उलटे सत्ता के गरूर में आपने पार्टी के निष्ठावान लोगों को ही प्रताड़ित और बदनाम करने की कोशिश की. स्पष्ट है कि पहले राजस्थान के भ्रष्टाचार के साथ आपका समझौता हुआ और अब आपने उसके सामने घुटने भी टेक दिए हैं.

कई बार ईश्वर किसी समाज या देश को जब आगे बढ़ाना चाहते हैं तो पहले जो गलत है उसको उभार कर सामने लाते हैं. गलत को अच्छे से देख और अनुभव कर लिए जाने के बाद फिर ईश्वर ही व्यक्ति, समाज, या देश को उससे उबरने और अच्छाई की तरफ आगे बढ़ने की शक्ति भी प्रदान करते हैं.

पिछले कुछ वर्षों में देश-प्रदेश में अनीति पूर्ण, तानाशाही और स्वेच्छाचारिता की राजनीति एक बड़ा आकार लेकर उभरी. इस दैत्याकार राजनीति ने भाजपा को तो पूर्णरूप से ग्रसित कर ही लिया राजस्थान को और देश को भी विभिन्न प्रकार के संकटों में उलझा दिया.

लेकिन ये संकट देश में नई परिस्थितियों को जन्म देंगे जो एक बेहतर राजनीति और समाज की ओर हमें ले जाएंगी. इसी आशा और विश्वास को अपनी पीड़ा और दु:ख के साथ अपने हृदय में संजोते हुए, अपने 55 वर्ष के सार्वजनिक जीवन और 45 वर्ष की राजनीतिक तपस्या को एक नए युगधर्म में प्रवेश करवाते हुए, मैं भारतीय जनता पार्टी से अपना त्यागपत्र देता हूं.

यह करते हुए मैं एक नए संकल्प और नई ऊर्जा के साथ राजस्थान और सम्भव हुआ तो देश की राजनीति को सच्चाई और अच्छाई की ओर आगे बढ़ाने का कार्य अपने हाथ में लेता हूं. ईश्वर इस कार्य में मेरी सहायता करें.

घनश्याम तिवाड़ी,राजस्थान

396 करोड़ रुपये मूल्य का चना खरीद कर 2 लाख से अधिक किसानों को किया लाभान्वित

जयपुर । सहकारिता मंत्री  अजय सिंह किलक ने  बताया कि प्रदेश के 2 लाख 9 हजार 573 किसानों से 25 जून तक 2 हजार 396 करोड़ रुपये से अधिक मूल्य के 5 लाख 44 हजार 665 मीट्रिक टन चना की खरीद की जा चुकी है। उन्होंने बताया कि केन्द्र सरकार द्वारा निर्धारित लक्ष्य के अनुसार ज्यादा से ज्यादा किसानों से चना की खरीद को सुनिश्चित किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि प्रदेश में चना की खरीद 30 जून तक जारी रहेगी।

      सहकारिता मंत्री ने बताया कि चना खरीद के लिये 5 लाख 88 हजार 560 मीट्रिक टन का लक्ष्य रखा गया है और अब तक 92 प्रतिशत से अधिक का लक्ष्य प्राप्त कर लिया गया है। उन्होंने बताया कि यह पहली बार है कि 2 लाख से अधिक किसानों से  5 लाख 44 हजार 665 मीट्रिक टन चना की खरीद की गई है। उन्होंने बताया कि इस वर्ष 194 खरीद केन्द्र बनाकर 4400 रुपये प्रति क्विंटल की दर से चना की समर्थन मूल्य पर खरीद की जा रही है।

 किलक ने बताया कि किसानों को उनकी उपज की राशि को पंजीकृत बैंक खाते में सीधे ट्रांसफर किया जा रहा है और अबतक 1 लाख 358 किसानों को 1104.84 करोड़ रुपये का भुगतान उनके बैंक खातों में किया जा चुका है। उन्होंने बताया कि शेष किसानों के बैंक खातों में शीघ्र ऑनलाइन भुगतान सुनिश्चित करने के लिये संबंधित अधिकारियों को निर्देशित कर दिया गया है।

      रजिस्ट्रार, सहकारिता  राजन विशाल ने बताया कि प्रारम्भ में केन्द्र सरकार द्वारा प्रदेश को 4 लाख मीट्रिक टन चना खरीद का लक्ष्य दिया था, लेकिन प्रदेश के अधिक से अधिक किसानों को लाभान्वित करने के लिये राज्य सरकार द्वारा चना खरीद के लक्ष्य बढ़ाने के लिये केन्द्र सरकार से आग्रह किया गया। उन्होंने बताया कि केन्द्र सरकार द्वारा प्रदेश के चना के लक्ष्य में 1 लाख 88 हजार 560 मीट्रिक टन का इजाफा किया है।

      राजफैड की प्रबंध निदेशक डॉ. वीना प्रधान ने बताया कि पहली बार प्रदेश में पूरी पारदर्शिता एवं तत्परता से समर्थन मूल्य पर खरीद का कार्य किया जा रहा है और इसी कारण से राजफैड किसानों की संख्या एवं चना उपज की मात्रा के लिहाज से रिकार्ड बनाने की ओर अग्रसर है। उन्होंने कहा कि प्रदेश में चना एवं लहसुन की खरीद जारी है और अब तक सरसों एवं गेहूं सहित चारों जिन्सों की 12 लाख 22 हजार 465 मीट्रिक टन उपज की खरीद की जा चुकी है जिसका मूल्य 4 हजार 700 करोड़ रुपये से अधिक है।

अशोक गहलोत ने इस अंदाज में दिया भाजपा के आरोपों का जवाब

जयपुर। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के संगठन महासचिव एवं राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने आश्चर्य और अफसोस व्यक्त करते हुए कहा है कि, जो लोग खुद तानाशाही भरे तरीके से देश, सरकार और अपनी पार्टी को चला रहे हैं, वे भारत ही नहीं दुनिया भर में महिला शक्ति की प्रतीक इंदिरा गांधी पर तानाशाही का आरोप लगा रहे हैं।

गहलोत ने केन्द्रीय वित्त मंत्री अरूण जेटली के हालिया बयान पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि, मोदी सरकार कितने तानाशाही भरे तरीके से काम कर रही है, यह हम नहीं स्वयं भारतीय जनता पार्टी के नेता कह रहे हैं। जो कोई चाहे वह इस सम्बन्ध में, समय- समय पर मीडिया में आए, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, अरूण शौरी, शत्रुघ्न सिन्हा और घनश्याम तिवाड़ी के बयानों को देख सकता है।

उन्होंने कहा कि, भाजपा और आरएसएस के नेताओं को एक झूठ को सौ बार बोलकर ‘‘सच जैसा‘‘ साबित करने में महारत हासिल है। ऐसा ही वे पिछले 43 वर्षों से आपातकाल के मामले में कर रहे हैं। गहलोत ने कहा कि, सच यह है कि इंदिरा जी ने आपातकाल अपनी कुर्सी बचाने के लिए नहीं अपितु इस देश को बचाने के लिए लगाया। उन्होंने कहा कि, हर साल आपातकाल की वर्षगांठ मनाने वाले देश की जनता और खासतौर पर नई पीढ़ी को यह नहीं बताते कि,उस वक्त इन्होंने देश का क्या हाल कर दिया था?

गहलोत ने कहा कि, एक नेता रेल की पटरियों को उखाड़ फेंकने के नारे दे रहे थे तो एक अन्य देश में घूम-घूम कर सेना और पुलिस को सरकार के खिलाफ बगावत करने, उसके आदेशों की अवहेलना करने के लिए उकसा रहे थे। उन्होंने सवाल किया कि, आज तो ऐसे कोई हालात नहीं हैं फिर क्यों सरकार विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया को आजादी से अपना काम नहीं करने दे रही ? क्यों उस गुजरात में लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए आन्दोलन करने वालों पर देशद्रोह के मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं, जिससे स्वयं प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष आते हैं? क्यों किसानों को जगह-जगह लाठी-गोली बरसा कर जेलों में बंद किया जा रहा है?
गहलोत ने कहा कि सच वही है जो मैं बार-बार कहता हूं। ये फास्सिट संगठन और मनोवृत्ति के लोग हैं। लोकतंत्र इनके सपनों में भी नहीं आता।

 गहलोत ने कहा कि, इंदिरा गांधी का अपमान करके भाजपा देश की 60 करोड़ महिलाओं और उनकी हिम्मत-हौंसले का भी अपमान कर रही है। भाजपा और उसके नेता देश की जनता को यह नहीं बताते कि, पाकिस्तान को तोड़कर बंगला देश इंदिरा जी ने बनाया? यह भी नहीं बताते कि अटल बिहारी वाजपेई सरीखे नेता ने तब उन्हें दुर्गा बताया था? वे देश को यह भी नहीं बताते कि, वह श्रीमती गांधी ही थीं जिन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, राजा- महाराजाओं के प्रीविपर्स बंद किए और गरीबी हटाने के लिए बड़े-बड़े कार्यक्रम आरंभ किए।

उन्होंने कहा कि, यह गांधी की ही दूरदर्शिता थी जिन्होंने 43 साल पहले देश में जनसंख्या नियंत्रण करने, कच्ची बस्ती और अतिक्रमण हटाने, पेड़ लगाने के कार्यक्रम शुरू किए। आज ये ही सब समस्याएं हैं जिनकी वजह से देश पिछड़ रहा है। गहलोत ने कहा कि, कहीं कोई ज्यादती हुई भी तो उसका समर्थन नहीं किया जा सकता पर वे इंदिरा जी ने तो नहीं कीं। उन्होंने कहा कि, जेटली सहित भाजपा के तमाम नेताओं में यदि जरा सी भी नैतिकता, ईमानदारी और सच के साथ चलने की हिम्मत है तो उन्हें गांधी की आलोचनाओं के लिए देश से माफी मांग कर उनके दिए कार्यक्रमों पर तेजी से अमल शुरू करना चाहिए।

इमरजेंसी की पूरी कहानी को लेकर स्कूल और कॉलेज के पाठ्यक्रम में शामिल करेगी- प्रकाश जावड़ेकर

जयपुर । केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय जल्द ही इमरजेंसी की पूरी कहानी को लेकर स्कूल और कॉलेज के पाठ्यक्रम में जोड़ने जा रहा है।

केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने   राजस्थान के प्रदेश भाजपा मुख्यालय में कहा है कि अभी तक इमरजेंसी की आधी-अधूरी बात को ही स्कूल और कॉलेज के छात्र-छात्राओं ने पाठ्यक्रम में पढ़ा है, लेकिन भाजपा सरकार अब इमरजेंसी की पूरी कहानी को लेकर स्कूल-कॉलेज के पाठ्यक्रम में शामिल करेगी। जिससे देश की भावी पीढ़ी और मौजूदा नौजवान यह जान सके कि आपातकाल के दौरान प्रेस, न्यायपालिका और सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ देश की आम जनता ने क्या जुल्म सहे थे।

जावड़ेकर ने कहा कि 43 साल पहले जो कुछ देश में हुआ, वह लोकतंत्र के लिए काला धब्बा था, पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने सत्ता की लालसा के चलते इमरजेंसी जैसा कदम उठाया था। इस दौरान पूरा देश एक जेलखाना बना रहा। उन्होंने कहा कि संजय गांधी की सोच तो यह थी कि अदालतों पर ही पाबंदी लगा दी जाए। जावड़ेकर ने कहा कि इमरजेंसी को लेकर अब यह जरूरी हो गया है कि पाठ्यक्रम में बदलाव किया जाए, जिससे इमरजेंसी को लेकर पूरी बात देश के नौजवानों को पता चल सके।

आपातकाल के अभिशाप से मुक्ति मिली आज भी वैसा ही नज़ारा दिख रहा है

 
आपातकाल कोई आकस्मिक घटना नहीं बल्कि सत्ता के अतिकेंद्रीकरण, निरंकुशता, व्यक्ति-पूजा और चाटुकारिता की निरंतर बढ़ती गई प्रवृत्ति का ही परिणाम थी. आज फिर वैसा ही नज़ारा दिख रहा है. सारे अहम फ़ैसले संसदीय दल तो क्या, केंद्रीय मंत्रिपरिषद की भी आम राय से नहीं किए जाते, सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री की चलती है.


हर साल की तरह इस बार भी 25 जून को आपातकाल की बरसी मनाई गई. लोकतंत्र की रक्षा की कसमें खाते हुए इस मौके पर 43 बरस पुराने उस सर्वाधिक स्याह और शर्मनाक अध्याय, एक दु:स्वप्न यानी उस मनहूस कालखंड को याद किया गया, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता की सलामती के लिए आपातकाल लागू कर समूचे देश को कैदखाने में तब्दील कर दिया था.

विपक्षी दलों के तमाम नेता और कार्यकर्ता जेलों में ठूंस दिए गए थे. सेंसरशिप लागू कर अखबारों की आजादी का गला घोंट दिया गया था. संसद, न्यायपालिका, कार्यपालिका आदि सभी संवैधानिक संस्थाएं इंदिरा गांधी के रसोईघर में तब्दील हो चुकी थी, जिसमें वही पकता था जो वे और उनके बेटे संजय गांधी चाहते थे.

सरकार के मंत्रियों समेत सत्तारूढ़ दल के तमाम नेताओं की हैसियत मां-बेटे के अर्दलियों से ज्यादा नहीं रह गई थी. आखिरकार पूरे 21 महीने बाद जब चुनाव हुए तो जनता ने अपने मताधिकार के जरिए तानाशाही के खिलाफ शांतिपूर्ण ढंग से ऐतिहासिक बगावत की और देश को आपातकाल के अभिशाप से मुक्ति मिली.

निस्संदेह आपातकाल की याद हमेशा बनी रहनी चाहिए लेकिन आपातकाल को याद रखना ही काफी नहीं है. इससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि इस बात के प्रति सतर्क रहा जाए कि कोई भी हुकूमत आपातकाल को किसी भी रूप में दोहराने का दुस्साहस न कर पाए.

सवाल है कि क्या आपातकाल को दोहराने का खतरा अभी भी बना हुआ है और भारतीय जनमानस उस खतरे के प्रति सचेत है? तीन साल पहले आपातकाल के चार दशक पूरे होने के मौके पर उस पूरे कालखंड को शिद्दत से याद करते हुए भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने देश में फिर से आपातकाल जैसे हालात पैदा होने का अंदेशा जताया था.

हालांकि आडवाणी इससे पहले भी कई मौकों पर आपातकाल को लेकर अपने विचार व्यक्त करते रहे थे, मगर यह पहला मौका था जब उनके विचारों से आपातकाल की अपराधी कांग्रेस नहीं, बल्कि उनकी अपनी पार्टी भाजपा अपने को हैरान-परेशान महसूस करते हुए बगले झांक रही थी.

वह भाजपा जो कि आपातकाल को याद करने और उसकी याद दिलाने में हमेशा आगे रहती है. यह अलग बात है कि आपातकाल के दौरान माफीनामे लिखकर जेल से छूटने वालों में सर्वाधिक नेता और कार्यकर्ता जनसंघ (अब भाजपा) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ही थे.

आडवाणी ने एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में देश को आगाह किया था कि लोकतंत्र को कुचलने में सक्षम ताकतें आज पहले से अधिक ताकतवर है और पूरे विश्वास के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि आपातकाल जैसी घटना फिर दोहराई नहीं जा सकतीं.

बकौल आडवाणी, ‘भारत का राजनीतिक तंत्र अभी भी आपातकाल की घटना के मायने पूरी तरह से समझ नहीं सका है और मैं इस बात की संभावना से इनकार नहीं करता कि भविष्य में भी इसी तरह से आपातकालीन परिस्थितियां पैदा कर नागरिक अधिकारों का हनन किया जा सकता है. आज मीडिया पहले से अधिक सतर्क है, लेकिन क्या वह लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्ध भी है? कहा नहीं जा सकता. सिविल सोसायटी ने भी जो उम्मीदें जगाई थीं, उन्हें वह पूरी नहीं कर सकी हैं. लोकतंत्र के सुचारू संचालन में जिन संस्थाओं की भूमिका होती है, आज भारत में उनमें से केवल न्यायपालिका को ही अन्य संस्थाओं से अधिक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है.’

आडवाणी का यह बयान हालांकि तीन साल पुराना है लेकिन इसकी प्रासंगिकता कहीं ज्यादा आज महसूस हो रही है. हालांकि आडवाणी ने अपने इस पूरे वक्तव्य में आपातकाल के खतरे के संदर्भ में किसी पार्टी अथवा व्यक्ति विशेष का नाम नहीं लिया था मगर, चूंकि इस समय केंद्र के साथ ही देश के अधिकांश प्रमुख राज्यों में भाजपा या उसके गठबंधन की सरकारें हैं और नरेंद्र मोदी सत्ता के केंद्र में हैं, लिहाजा जाहिर है कि आडवाणी की टिप्पणी का परोक्ष इशारा मोदी की ओर ही था.

आधुनिक भारत के राजनीतिक विकास के सफर में लंबी और सक्रिय भूमिका निभा चुके एक तजुर्बेकार राजनेता के तौर पर आडवाणी की इस आशंका को अगर हम अपनी राजनीतिक और संवैधानिक संस्थाओं के मौजूदा स्वरूप और संचालन संबंधी व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम पाते हैं कि आज देश आपातकाल से भी कहीं ज्यादा बुरे दौर से गुजर रहा है.

इंदिरा गांधी ने तो संवैधानिक प्रावधानों का सहारा लेकर देश पर आपातकाल थोपा था, लेकिन आज तो औपचारिक तौर आपातकाल लागू किए बगैर ही वह सब कुछ बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा हो रहा है जो आपातकाल के दौरान हुआ था. फर्क सिर्फ इतना है कि आपातकाल के दौरान सब कुछ अनुशासन के नाम पर हुआ था और आज जो कुछ हो रहा है वह विकास और राष्ट्रवाद के नाम पर.

जहां तक राजनीतिक दलों का सवाल है, देश में इस समय सही मायनों में दो ही अखिल भारतीय पार्टियां हैं- कांग्रेस और भाजपा. कांग्रेस के खाते में तो आपातकाल लागू करने का पाप पहले से ही दर्ज है, जिसका उसे आज भी कोई मलाल नहीं है. यही नहीं, उसकी अंदरूनी राजनीति में आज भी लोकतंत्र के प्रति कोई आग्रह दिखाई नहीं देता.

पूरी पार्टी आज भी एक ही परिवार की परिक्रमा करती नजर आती है. आजादी के बाद लंबे समय तक देश पर एकछत्र राज करने वाली इस पार्टी की आज हालत यह है कि उसके पास लोकसभा में आधिकारिक विपक्षी दल के दर्जे की शर्त पूरी करने जितने भी सदस्य नहीं हैं. ज्यादातर राज्यों में भी वह न सिर्फ सत्ता से बेदखल हो चुकी है बल्कि मुख्य विपक्षी दल की हैसियत भी खो चुकी है.

दूसरी तरफ केंद्र सहित देश के लगभग आधे राज्यों में सत्तारूढ़ भाजपा के भीतर भी हाल के वर्षों मे ऐसी प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं, जिनका लोकतांत्रिक मूल्यों और कसौटियों से कोई सरोकार नहीं है. सरकार और पार्टी में सारी शक्तियां एक समूह के भी नहीं बल्कि एक ही व्यक्ति के इर्द गिर्द सिमटी हुई हैं.

आपातकाल के दौर में उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने चाटुकारिता और राजनीतिक बेहयाई की सारी सीमाएं लांघते हुए ‘इंदिरा इज इंडिया-इंडिया इज इंदिरा’ का नारा पेश किया था.

आज भाजपा में तो अमित शाह, रविशंकर प्रसाद, शिवराज सिंह चौहान, देवेंद्र फड़नवीस आदि से लेकर नीचे के स्तर तक ऐसे कई नेता हैं जो नरेंद्र मोदी को जब-तब दैवीय शक्ति का अवतार बताने में कोई संकोच नहीं करते. वैसे इस सिलसिले की शुरुआत बतौर केंद्रीय मंत्री वैंकेया नायडू ने की थी, जो अब उपराष्ट्रपति बनाए जा चुके हैं.

मोदी देश-विदेश में जहां भी जाते हैं, उनके प्रायोजित समर्थकों का उत्साही समूह मोदी-मोदी का शोर मचाता है और किसी रॉक स्टार की तरह मोदी इस पर मुदित नजर आते हैं.

लेकिन बात नरेंद्र मोदी या उनकी सरकार की ही नहीं है, बल्कि आजादी के बाद भारतीय राजनीति की ही यह बुनियादी समस्या रही है कि वह हमेशा से व्यक्ति केंद्रित रही है. हमारे यहां संस्थाओं, उनकी निष्ठा और स्वायत्तता को उतना महत्व नहीं दिया जाता, जितना महत्व करिश्माई नेताओं को दिया जाता है. नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक की यही कहानी है.

इससे न सिर्फ राज्यतंत्र के विभिन्न उपकरणों, दलीय प्रणालियों, संसद, प्रशासन, पुलिस, और न्यायिक संस्थाओं की प्रभावशीलता का तेजी से पतन हुआ है, बल्कि राजनीतिक स्वेच्छाचारिता और गैरजरूरी दखलंदाजी में भी बढ़ोतरी हुई है.


यह स्थिति सिर्फ राजनीतिक दलों की ही नहीं है. आज देश में लोकतंत्र का पहरूए कहे जा सकने वाले ऐसे संस्थान भी नजर नहीं आते, जिनकी लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर प्रतिबद्धता संदेह से परे हो.

आपातकाल के दौरान जिस तरह प्रतिबद्ध न्यायपालिका की वकालत की जा रही थी, आज वैसी ही आवाजें सत्तारूढ़ दल से नहीं बल्कि न्यायपालिका की ओर से भी सुनाई दे रही है.

यही नही, कई महत्वपूर्ण मामलों में तो अदालतों के फैसले भी सरकार की मंशा के मुताबिक ही रहे हैं. पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने तो अभूतपूर्व कदम उठाते हुए न्यायपालिका के इस सूरत-ए-हाल को प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से भी बयान किया था. उन्होंने साफ कहा था कि देश की सर्वोच्च अदालत में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है और देश के लोकतंत्र पर खतरा मंडरा रहा है.

भारतीय रिजर्व बैंक जैसे सर्वोच्च और विश्वसनीय वित्तीय संस्थान की नोटबंदी के बाद से जो दुर्गति हो रही है, वह जगजाहिर है. सूचना के अधिकार को निष्प्रभावी बनाने की कोशिशें जोरों पर जारी हैं.

सूचना आयुक्त और मुख्य सतर्कता आयुक्त जैसे पद लंबे समय से खाली पड़े हैं. लोकपाल कानून बने तीन साल से अधिक हो चुके हैं लेकिन सरकार ने आज तक लोकपाल नियुक्त करने में कोई रुचि नहीं दिखाई है.

हाल ही में कुछ विधानसभाओं और स्थानीय निकाय चुनावों के दौरान इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में गड़बड़ियों की गंभीर शिकायतें जिस तरह सामने आई हैं उससे हमारे चुनाव आयोग और हमारी चुनाव प्रणाली की साख पर सवालिया निशान लगे हैं, जो कि हमारे लोकतंत्र के भविष्य के लिए अशुभ संकेत है.

नौकरशाही की जनता और संविधान के प्रति कोई जवाबदेही नहीं रह गई है. कुछ अपवादों को छोड़ दें तो समूची नौकरशाही सत्ताधारी दल की मशीनरी की तरह काम करती दिखाई पड़ती है. चुनाव में मिले जनादेश को दलबदल और राज्यपालों की मदद से कैसे तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है, उसकी मिसाल पिछले दिनों हम गोवा और मणिपुर में देख चुके हैं.

यही नहीं, संसद और विधानमंडलों की सर्वोच्चता और प्रासंगिकता को भी खत्म करने के प्रयास सरकारों की ओर से जारी है. लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति सिर्फ संसद के बाहर ही नहीं, बल्कि संसद की कार्यवाही के संचालन के दौरान भी सत्तारूढ़ दल के नेता की तरह व्यवहार करते दिखाई देते हैं.

राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों का व्यवहार तो और भी ज्यादा अजीबो-गरीब हैं. वे न सिर्फ सांप्रदायिक रूप से भड़काऊ बयानबाजी करते हैं बल्कि कई मौकों पर अनावश्यक रूप से प्रधानमंत्री का प्रशस्ति गान करने में भी संकोच नहीं करते.

जिस मीडिया को हमारे यहां लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की मान्यता दी गई है, उसकी स्थिति भी बेहद चिंताजनक है. आज की पत्रकारिता आपातकाल के बाद जैसी नहीं रह गई है. इसकी अहम वजहें हैं- बडे कॉरपोरेट घरानों का मीडिया क्षेत्र में प्रवेश और मीडिया समूहों में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की होड़.

इस मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति ने ही मीडिया संस्थानों को लगभग जनविरोधी और सरकार का पिछलग्गू बना दिया है. सरकार की ओर से मीडिया को दो तरह से साधा जा रहा है- उसके मुंह में विज्ञापन ठूंसकर या फिर सरकारी एजेंसियों के जरिये उसकी गर्दन मरोड़ने का डर दिखाकर. इस सबके चलते सरकारी और गैर सरकारी मीडिया का भेद लगभग खत्म सा हो गया है.



व्यावसायिक वजहों से तो मीडिया की आक्रामकता और निष्पक्षता बाधित हुई ही है, पेशागत नैतिक और लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता का भी कमोबेश लोप हो चुका है.

पिछले तीन वर्षों के दौरान जो एक नई और खतरनाक प्रवृत्ति विकसित हुई वह है सरकार और सत्तारूढ़ दल और मीडिया द्वारा सेना का अत्यधिक महिमामंडन. यह सही है कि हमारे सैन्यबलों को अक्सर तरह-तरह की मुश्किलभरी चुनौतियों से जूझना पड़ता है, इस नाते उनका सम्मान होना चाहिए लेकिन उनको किसी भी तरह के सवालों से परे मान लेना तो एक तरह से सैन्यवादी राष्ट्रवाद की दिशा में कदम बढ़ाने जैसा है.

आपातकाल कोई आकस्मिक घटना नहीं बल्कि सत्ता के अतिकेंद्रीकरण, निरंकुशता, व्यक्ति-पूजा और चाटुकारिता की निरंतर बढ़ती गई प्रवृत्ति का ही परिणाम थी. आज फिर वैसा ही नजारा दिख रहा है. सारे अहम फैसले संसदीय दल तो क्या, केंद्रीय मंत्रिपरिषद की भी आम राय से नहीं किए जाते, सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री की चलती है.

इस प्रवृत्ति की ओर विपक्षी नेता और तटस्थ राजनीतिक विश्लेषक ही नहीं, बल्कि सत्तारुढ़ दल से जुडे कुछ वरिष्ठ नेता भी यदा-कदा इशारा करते रहते हैं. इस सिलसिले में पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी के कई बयानों को याद किया जा सकता है. ये दोनों नेता साफ तौर पर कह चुके हैं कि मौजूदा सरकार को ढाई लोग चला रहे हैं.

आपातकाल के दौरान संजय गांधी और उनकी चौकड़ी की भूमिका सत्ता-संचालन में गैर-संवैधानिक हस्तक्षेप की मिसाल थी, तो आज वही भूमिका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ निभा रहा है. संसद को अप्रासंगिक बना देने की कोशिशें जारी हैं. न्यायपालिका के आदेशों की सरकारों की ओर से खुलेआम अवहेलना हो रही है.

असहमति की आवाजों को चुप करा देने या शोर में डुबो देने की कोशिशें साफ नजर आ रही हैं. आपातकाल के दौरान और उससे पहले सरकार के विरोध में बोलने वाले को अमेरिका या सीआईए का एजेंट करार दे दिया जाता था तो अब स्थिति यह है कि सरकार से असहमत हर व्यक्ति को पाकिस्तान परस्त या देशविरोधी करार दे दिया जाता है.

आपातकाल में इंदिरा गांधी के बीस सूत्रीय और संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रमों का शोर था तो आज विकास और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आवरण में हिंदुत्ववादी एजेंडा पर अमल किया जा रहा है. इस एजेंडा के तहत दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों का तरह-तरह से उत्पीड़न हो रहा है.

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आपातकाल के बाद से अब तक लोकतांत्रिक व्यवस्था तो चली आ रही है, लेकिन लोकतांत्रिक संस्थाओं, रवायतों और मान्यताओं का क्षरण तेजी से जारी है.

अलबत्ता देश में लोकतांत्रिक चेतना जरूर विकसित हो रही है. जनता ज्यादा मुखर हो रही है और वह नेताओं से ज्यादा जवाबदेही की अपेक्षा भी रखती है. लेकिन यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों का अपहरण हर बार बाकायदा घोषित करके ही किया जाए, यह जरूरी नहीं. वह लोकतांत्रिक आवरण और कायदे-कानूनों की आड़ में भी हो सकता है. मौजूदा शासक वर्ग इसी दिशा में तेजी से आगे बढ़ता दिख रहा है.

सोमवार, 25 जून 2018

समर्थन मूल्य पर 1886 करोड़ रुपये की सरसों उपज खरीदी गई

जयपुर। सहकारिता मंत्री  अजय सिंह किलक ने  बताया कि राजफैड द्वारा 24 जून को सरसों खरीद पूरी कर ली गई है। राज्य के 1 लाख 70 हजार 825 किसानों से 4 लाख 71 हजार 614 मीट्रिक टन सरसों की खरीद 90 दिनों तक की गई। उन्होंने बताया कि 27 मार्च से शुरू हुई खरीद 24 जून तक की गई।

       किलक ने बताया कि 2 लाख 29 हजार 598 किसानों ने ऑनलाइन पंजीयन कराया। राजफैड द्वारा 2 लाख 26 हजार 922 किसानों को तुलाई हेतु दिनांक आवंटित की गई। जिसमें से 1 लाख 70 हजार 825 किसानों ने निर्धारित 225 खरीद केन्द्रों पर आकर सरसों का बेचान किया। उन्होंने बताया कि 1886.46 करोड़ रुपये की उपज खरीदी गई।

      सहकारिता मंत्री ने बताया कि 87 हजार 975 किसानों को 959.84 करोड़ रुपये का भुगतान उनके खातों में ऑनलाइन कर दिया गया है तथा 82 हजार 850 किसानों को 926.61 करोड़ रुपये का भुगतान भी शीघ्र किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि यह एक रिकार्ड है कि एक ही सीजन में इतनी बड़ी मात्रा में किसानों से सरसों खरीदी गई है।

      राजफैड की प्रबंध निदेशक डॉ. वीना प्रधान ने बताया कि सरसों खरीद के लिये केन्द्र सरकार ने 8 लाख मीट्रिक टन सरसों खरीद का लक्ष्य राज्य सरकार को दिया था। जिसमें से राजफैड द्वारा 4 लाख 71 हजार 614 मीट्रिक टन सरसों की खरीद की गई। उन्होंने बताया कि किसानों से 4000 रुपये प्रति क्विंटल की दर से समर्थन मूल्य पर सरसों की खरीद की गई।

      डॉ. प्रधान ने बताया कि प्रदेश में पहली बार किसानों का ऑनलाइन पंजीयन कर सरसों की खरीद की गई है। उन्होंने बताया कि इस व्यवस्था से किसानों को अपनी उपज की तुलाई कराने एवं ऑनलाइन बैंक खाते में भुगतान ट्रांसफर करने से सहूलियत हुई है और इसी कारण से इतने अधिक किसानों से रिकार्ड 4 लाख 71 हजार मीट्रिक टन से अधिक की खरीद कर उन्हें लाभान्वित कर पाये हैं।

18 जुलाई से शुरू होगा संसद के मॉनसून सत्र

संसद के मॉनसून सत्र की तारीखों का ऐलान हो गया है. मॉनसून सत्र 18 जुलाई से शुरू होगा और 10 अगस्त 2018 तक चलेगा. संसदीय मामलों की कैबिनेट समिति ने आज इसकी जानकारी दी. राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में सीसीपीए ने आज बैठक में इन तारीखों पर मुहर लगाई. अब राष्ट्रपति औपचारिक तौर पर सत्र बुलाएंगे.

कुल 18 बैठकें होंगी

संसदीय मामलों के मंत्री अनंत कुमार ने कहा कि मॉनसून सत्र के दौरान कुल 18 दिन तक कामकाज होगा. इस सत्र में तीन तलाक सहित अन्य विधेयक सरकार के एजेंडा में टॉप पर रहेंगे. अनंत कुमार ने कहा कि हम विपक्षी दलों से सहयोग और समर्थन की अपेक्षा करते हैं. विधायी कामकाज के एजेंडे में कई महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जिन्हें सरकार मानसून सत्र में लेना चाहती है.

6 से ज्यादा अध्यादेश लाए जाएंगे

उन्होंने कहा कि छह से अधिक अध्यादेश लिए जाएंगे. उन्होंने ने बताया कि तीन तलाक विधेयक लोकसभा में पारित हो गया है और राज्यसभा में लंबित है. यह विधेयक सरकार की शीर्ष प्राथमिकताओं में रहेगा. उन्होंने कहा कि सरकार राष्ट्रीय अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने पर जोर देगी. मेडिकल शिक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग विधेयक और ट्रांसजेंडर विधेयक को भी लिया जाएगा.



अनंत कुमार ने कहा कि उच्च सदन के उपसभापति के तौर पर पी जे कुरियन का कार्यकाल इसी महीने समाप्त हो रहा है. राज्यसभा का उपाध्यक्ष चुनने के लिए चुनाव भी इसी सत्र में होगा.

पिछले सत्र में हुआ था हंगामा

बता दें कि इससे पहले का सत्र पूरी तरह से हंगामे की भेंट चढ़ गया था. तीन तलाक विधेयक, कावेरी मुद्दा, पीएनबी घोटाला और आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा की मांग पर संसद में खूब हंगामा मचा था. वहीं तीन तलाक पर लोकसभा में तो विधेयक पास हो गया लेकिन राज्यसभा में विपक्षी दलों ने इसका पुरजोर विरोध किया जिसके बाद ये लंबित ही रह गया. अब मॉनसून सत्र में भी इस पर हंगामे के पूरे आसार है. सरकार के सामने इसे पास कराने की बड़ी चुनौती होगी.

पार्टी से नाराज घनश्याम तिवाड़ी ने दिया भाजपा से इस्तीफा

जयपुर। लंबे समय से पार्टी से नाराज़ चल रहे भाजपा नेता व सांगानेर विधायक घनश्याम तिवाड़ी ने सोमवार को भाजपा से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने अपना इस्तीफा बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को भेज दिया। तिवाड़ी कई बार सार्वजनिक मंचों से पार्टी और प्रदेश नेतृत्व को लेकर टिप्पणियां कर चुके हैं।

तिवाड़ी ने इस्तीफा उस समय दिया जब केंद्रीय निर्वाचन आयोग ने उनकी नई बनाई पार्टी भारत वाहिनी पार्टी
को विधिवत रूप से पंजीयन कर दिया। इसके अगले दिन ही उन्होंने भाजपा छोड़ दी और अपना इस्तीफा अमित शाह को भेज दिया।


भारत वाहिनी पार्टी के अध्यक्ष व संस्थापक घनश्याम तिवाड़ी के बेटे अखिलेश तिवाड़ी हैं। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि घनश्याम तिवाड़ी की नई पार्टी भारत वाहिनी पार्टी प्रदेश में तीसरे विकल्प के रूप में कांग्रेस और भाजपा को कितनी बड़ी चुनौती देगी?

श्री अमित शाहजी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, भारतीय जनता पार्टी
प्रिय अमित शाहजी,
आशा है आप स्वस्थ व प्रसन्नचित्त होंगे।
बिना राग-द्वेष की भावना से प्रभावित हुए, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं और नीति की अपनी समझ के अनुसार, देश तथा राजस्थान प्रदेश के हित को ध्यान में रखते हुए यह पत्र आपको लिख रहा हूँ।
क्योंकि आप पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं इसलिए यह पत्र आपको सम्बोधित है। आपके स्थान पर  कोई अन्य होते तो उन्हें सम्बोधित करता। इसलिए आशा है इस पत्र को आप निजी तौर पर नहीं
लेकर देश और राजस्थान की राजनीति के व्यापक परिपेक्ष्य में देखेंगे। यह भी आशा है कि जो सुधार आपके द्वारा किए जाने सम्भव हैं उन्हें लागू करेंगे। इसमें पार्टी और देश दोनों का हित होगा। आपको उसका सुयश ही प्राप्त होगा। शेष आपकी मर्जी, स्वभाव, और भाग्य के अधीन है।
 मुझे याद नहीं बचपन में मैं कब संघ की शाखा में जाने लगा... शायद 6 या 7 वर्ष का था तभी से।
संघ में तृतीय वर्ष शिक्षित हुआ, उसके बाद विद्यार्थी परिषद, युवासंघ, जनसंघ, जनता पार्टी, युवा मोर्चा, जनता युवा मोर्चा, और भारतीय जनता पार्टी में काम करते हुए विचार परिवार में ही मेरा सारा जीवन व्यतीत हुआ। जीवन के 66 वर्ष, यानी लगभग सारे जीवन भर, एक संस्था एक परिवार से जुड़कर काम करने के बाद उससे अलग होते हुए किसी के भी मन में जो पीड़ा और दुःख की भावना होगी वह मेरे मन में भी है। हो सकता है अन्य किसी व्यक्ति के लिए उसका कोई मोल न हो लेकिन मेरे लिए यह दुःख और पीड़ा भी हृदय में संजो कर रखने की चीज़ है। ऐसे समय में किस-किस को याद करूँ और किस-किस को भूल जाऊँ...
आपातकाल के दो रूप और दो आंदोलन
...खैर, आज 25 जून का दिन है। कांग्रेस द्वारा 1975 में देश पर थोपे गए आपातकाल के ख़िलाफ़ पार्टी दिवस मना रही है। यह ठीक भी है। देश की जनता, विशेषकर युवा वर्ग के सामने, आपातकाल के बारे में जानकारी लाना एक अच्छी बात है। उस प्रकार की दुर्भाग्यपूर्ण घटना की पुनरावृत्ति को रोकने में इस प्रकार के दिवस मनाए जाने से कुछ जागृति ही पैदा होती है।
आपको संभवतः ध्यान होगा कि संघ के स्वयंसेवक और जनसंघ के युवा पदाधिकारी के रूप में मैंने भी आपातकाल के ख़िलाफ़ आंदोलन में भाग लिया था। देश में सिर उठाती तानाशाही का स्व. जयप्रकाश नारायण और श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में हमने मुक़ाबला किया था। इसके कारण जिन अमानवीय यातनाओं से मुझे गुज़रना पड़ा उसका मैं यहाँ विवरण नहीं करना चाहता। संघ और पार्टी के पुराने लोगों को वे सब विदित हैं। मुझे दी गयी उन यातनाओं के विरोध में जे०पी० और अटलजी सहित देश भर की जेलों में बंद नेताओं ने दो दिन का उपवास किया था। चाहे कितनी भी यातनाएँ मुझे सहनी पड़ी हों पीछे देखने पर मन में इस बात का संतोष होता है कि मैं उस आंदोलन का हिस्सा बना। आपातकाल के बाद चुनाव हुए और देश में जनता पार्टी की सरकार बनी। उस सरकार ने देश के संविधान और क़ानूनों में भविष्य में आपातकाल लगाए जाने को लेकर संशोधन किए। यह लोकतंत्र की बहुत बड़ी जीत थी। उन संशोधनों के कारण ही आज यह दृढ़ स्थिति है कि तानाशाही की मनोवृत्ति वाले नेता नया आपातकाल लगा कर भारत के नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों का हनन नहीं कर सकते। इन संशोधनों के कारण आज देश में आपातकाल घोषित किया जाना अत्यंत दुष्कर हो गया है। लेकिन पिछले चार वर्ष में देश के ध्यान में यह बात आयी है कि घोषित आपातकाल चाहे अब नहीं लगाया जा सके एक अघोषित आपातकाल देश में लगाया जा सकता है, बल्कि लगाया जा चुका है।
घोषित आपातकाल से अधिक ख़तरनाक है देश-प्रदेश में चल रहा अघोषित आपातकाल
राजस्थान प्रदेश और देश में आज जो अघोषित आपातकाल लागू है वह घोषित आपातकाल से अधिक ख़तरनाक है। इस अघोषित आपातकाल के ख़िलाफ़ जनता की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए संघर्ष करने को मैं तत्पर हैं और कमर कस कर तैयार हूं। ईश्वर का मैं शुक्रगुज़ार हूँ कि उसने मुझे 1975 के घोषित आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष का अवसर दिया। वर्तमान में देश-प्रदेश में लगे अघोषित आपातकाल के विरुद्ध ईश्वर मुझे मैदान में उतार रहे हैं यह भी उनकी कृपा ही है। पिछले आपातकाल के बाद यह सुनिश्चित हुआ कि कोई अपने राजनीतिक स्वार्थ के कारण देश में लोकतंत्र
का दमन न कर सके। वर्तमान में अघोषित आपातकाल के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ हम यह सनिशित करेंगे कि भविष्य में कोई अहंकारोन्मादी अपनी सत्ता लोलुपता में लोकतांत्रिक संस्थाओं का गला न घोंट सके और देश की आगे आने वाली पीढ़ियों को एक बेहतर समाज और एक बेहतर देश-दुनिया मिले


पिछले साढ़े चार वर्षों में राजस्थान का कदम-दर-कदम अपमान हुआ
क़रीब चार वर्ष छह माह पहले, कांग्रेस पार्टी के शासन से परेशान होकर, राजस्थान की जनता ने विधानसभा में प्रचंड बहुमत प्रदान कर भाजपा के हाथ में प्रदेश की बागडोर सौंपी थी। इसके बाद मई 2014 में हुए लोकसभा चुनावों में भी राजस्थान की जनता ने राज्य की 25 में से 25 सीटें भाजपा को जिता कर देश में सत्ता परिवर्तन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। केंद्र में और राज्य में दोनों जगह इस प्रकार का ऐतिहासिक बहमत देने के बाद आज हालात यह है कि राजस्थान ठगा महसूस कर रहा है। वर्तमान भाजपा सरकार ने बीते साढ़े चार साल में, केंद्र के कुछ नेताओं की मिलीभगत से, चरागाह समझ कर राजस्थान को लूटने का काम किया है। प्रदेश में सरकार की मुखिया के नेतृत्व में कुछ मंत्रियों तथा अफसरों की एक ऐसी मंडली बन गयी है जिसका एक सूत्री लक्ष्य है - जनता की जेब कतरना और राज्य की सम्पदा पर डाका डालना।
राजस्थान में भाजपा सरकार की मुखिया द्वारा प्रतिदिन भ्रष्टाचार की नयी-नयी योजनाएँ ईजाद की जा रही हैं। कभी अपने चहेतों को मलाईदार प्रशासनिक पदों पर नियुक्ति देकर तो कभी राजनीतिक नियुक्तियाँ देकर प्रदेश भर से पैसा वसूली का काम किया जा रहा है। फिर कभी इन भ्रष्टों को संरक्षण देने के लिए प्रदेश में “काला कानून” लाया जाता है तो कभी तुग़लकी फ़रमान जारी करते हुए राज्य की जनता की सम्पत्ति पर आजन्म क़ब्ज़े के मंसूबों को अंजाम दिया जा रहा है (जैसे कि 13 सिवल लाइंस के 2000 करोड़ से भी अधिक के सरकारी बंगले पर आजन्म क़ब्जे का “मंत्री वेतन संशोधन विधेयक)। इतना ही नहीं प्रदेश की सभी प्रमुख संवैधानिक संस्थाओं - विधानसभा का सदन, विधानसभा की समितियाँ, राजभवन, राजस्थान लोक सेवा आयोग, मंत्रिमंडल, इत्यादि - की शक्ति और गरिमा को निजी हितों की पूर्ति के लिए दाँव पर लगा दिया गया है। भय और दमन का ऐसा तंत्र बिछाया गया है कि कोई भी अपना स्वतंत्र विचार या मत रखने के लिए तैयार नहीं होता। जो होता है उसे प्रताड़ित किया जाता है, उस पर झूठे केस-मुक़द्दमें चलाए जाते हैं, उसका और उसके परिवार का दमन करने का प्रयास किया जाता है। स्थिति यहाँ तक है कि वे समाचार पत्र जो मीडिया की स्वतंत्रता और लोकतंत्र की रक्षा के लिए काम कर रहे हैं, जो जनता के हितों के लिए काम कर रहे हैं, उनपर भी सरे आम आर्थिक और राजनीतिक दमन का तंत्र चलाया जाता है।
पिछले चार वर्ष में कई बार मैं आपके ध्यान में राजस्थान के भ्रष्टाचार और कुशासन की बात लाया हूँ। मैं लगातार आपके यह भी ध्यान में लाता रहा हूँ कि राजस्थान की भाजपा को किस प्रकार एक व्यक्ति के द्वारा हथिया लिया गया है। किस प्रकार राजस्थान भाजपा एक व्यक्ति की निजी दुकान में बदल गयी है। मैं आपको यह भी बतलाता रहा हूं कि इससे राजस्थान प्रदेश का भी अहित हो रहा है और राजस्थान में पार्टी का भी। लेकिन आपने कभी कुछ नहीं किया। उलटे सत्ता के ग़ख्र में आपने पार्टी के निष्ठावान लोगों को ही प्रताडित और बदनाम करने की कोशिश की। स्पष्ट है कि पहले राजस्थान के भ्रष्टाचार के साथ आपका समझौता हुआ और अब आपने उसके सामने घुटने भी टेक दिए हैं।

नव गति, नव लय, ताल, छंद नव...
कई बार ईश्वर किसी समाज या देश को जब आगे बढ़ाना चाहते हैं तो पहले जो गलत है उसको उभार कर सामने लाते हैं। गलत को अच्छे से देख और अनुभव कर लिए जाने के बाद फिर ईश्वर ही व्यक्ति, समाज, या देश को उससे उबरने और अच्छाई की तरफ़ आगे बढ़ने की शक्ति भी प्रदान करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में देश-प्रदेश में अनीति पूर्ण, तानाशाही और स्वेच्छाचारिता की राजनीति एक बड़ा आकार लेकर उभरी। इस दैत्याकार राजनीति ने भाजपा को तो पूर्णरूप से ग्रसित कर ही लिया राजस्थान को और देश को भी विभिन्न प्रकार के संकटों में उलझा दिया। लेकिन ये संकट देश में नयी परिस्थितियों को जन्म देंगे जो एक बेहतर राजनीति और समाज की ओर हमें ले जाएँगी। इसी आशा और विश्वास को अपनी पीड़ा और दुःख के साथ अपने हृदय में संजोते हुए, अपने 55 वर्ष के सार्वजनिक जीवन और 45 वर्ष की राजनीतिक तपस्या को एक नए युगधर्म में प्रवेश करवाते हुए, मैं भारतीय जनता पार्टी से अपना त्यागपत्र देता हूँ। यह करते हुए मैं एक नए संकल्प और नयी ऊर्जा के साथ राजस्थान और सम्भव हुआ तो देश की राजनीति को सच्चाई और अच्छाई की ओर आगे बढ़ाने का कार्य अपने हाथ में लेता हूँ। ईश्वर इस कार्य में मेरी सहायता करें।
आप भाजपा के वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। इस पत्र के माध्यम से मेरा भारतीय जनता पार्टी से त्यागपत्र आपको प्रस्तुत है। स्वीकार कर अनुग्रहित करें।
सादर,
घनश्याम तिवाड़ी
 मातृमंदिर, जयपुर