कई बार लगता है सरदार वल्लभ भाई पटेल तो मानो राजनीति के कबीर थे। कबीर के बारे में कहा जाता है कि उनके शिष्यों में हिंदू व मुसलमान दोनों ही शामिल थे। उनके मरने के बाद उनके अनुयायियों में इस बात को लेकर विवाद खड़ा हो गया कि उनका अंतिम संस्कार हिंदू रीति रिवाज से किया जाए या इस्लाम को मानने वाले उन्हें दफनाए। जब वे लोग उनके शव के पास पहुंचे और उस से चादर हटायीं तो वहां पार्थिव शरीर की जगह फूल पड़े मिले। बताते हैं कि हिंदु अनुयायी ने अपने हिस्से के फूलों को जला दिया व मुसलमानों ने अपने हिस्से में आए फूलों को दफना दिया।सरदार पटेल के न रहने के बाद आज कांग्रेस व भाजपा में भी ऐसा ही कुछ हो रहा है। जहां एक ओर भाजपा नेता व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनको लपकने में देर नहीं कि वहीं कांग्रेसी यह दावा कर रहे हैं कि वे तो हमारे नेता थे जिनको अब भाजपाई अपना बता रहे हैं। जिस देश में आजादी के 60 दशकों से ज्यादा साल बाद भी ताजमहल, टीपू सुल्तान को लेकर सांप्रदायिक आधार पर विवाद खड़े किए जा रहे हैं उस देश में आजादी के बाद 565 रियासतों और शासकों के बीच बंटे भारत को एकजुट करना कितना मुश्किल रहा होगा, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है।
आखिर यह वह समय था जब न केवल देश में सांप्रदायिकता अपने चरम सीमा पर रही थी बल्कि राजे-रजवाड़े तक अपने निहित स्वार्थों को सर्वोपरि रखते आए थे और हिंदू व मुसलमान दोनों ने ही अपने धर्म को मानने वाले प्रतिद्वंदियों से अंग्रेजों के साथ मिलकर दगा किया था। क्या अनोखा संयोग है कि जहां एक ओर 31 अक्तूबर को इंदिरा गांधी की शहादत का दिवस मनाया जाता है वहीं उस दिन सरदार पटेल का जन्म दिन पड़ता है और सत्ता में आने के बाद नरेंद्र मोदी ने उसे राष्ट्रीय एकता दिवस घोषित किया।
जिस सरदार पटेल को कांग्रेस ने भी ज्यादा अहमियत नहीं दी, उसी नेता की गुजरात में दुनिया की सबसे उंची 182 फुट की मूर्ति मोदी सरकार स्थापित करवा रही है। जिस नेता का कद जवाहर लाल नेहरु के बराबर था व जिसने महज महात्मा गांधी की इच्छा को ध्यान में रखते हुए बहुमत होने के बावजूद 1946 में खुद को कांग्रेस अध्यक्ष पद की दौड़ से बाहर कर लिया था उसे कांग्रेसी सरकारों ने भारत रत्न से समय रहते सम्मानित करने का प्रयत्न नहीं किया। उन्हें 1991 में वी पी सिंह सरकार ने भारत रत्न से सम्मानित किया। जवाहर लाल नेहरु व इंदिरा गांधी के बाद।
इंदिरा गांधी ने तो खुद सत्ता में रहते हुए अपने आप को भारत रत्न दे दिया था। सरदार पटेल देश के पहले उप प्रधानमंत्री व गृह मंत्री थे। जब देश आजाद होने वाला था तो तत्कालीन वायसराय ने अविभाजित भारत की तमाम रियासतों व शासकों को दो विकल्प दिए थे कि वे या तो भारत में शामिल हो जाएं अथवा पाकिस्तान को अपना देश मान ले। उस समय छह रियासतों ने ऐसा करने में ना नुकुर की थी। यह थी जूनागढ़, हैदराबाद, जम्मू-कश्मीर, त्रवाणकोर, भोपाल व जोधपुर।
पहले बड़ी रियासतों का मामला ले। सरदार पटेल जूनागढ़ को लेकर बहुत चिंतित थे क्योंकि यह सौराष्ट्र में आता था व सोमनाथ का मंदिर भी यही था जिस को लूटने के लिए महमूद गजनी ने 17 बार आक्रमण किया था। इस राज्य की अधिसंख्य जनता हिंदू थी मगर शासक मुसलमान था जो कि पाकिस्तान के दबाव में आकर उसके साथ जाना चाहता था। बताते हैं कि जिन्ना ने तो एक खाली कागज उसके सामने रख कर कहा था कि इस पर जो शर्ते चाहे लिख लो मैं उन्हें मान लूंगा। पर तुम पाकिस्तान में आ जाओ।
जब सरदार पटेल को इसका पता चला तो उन्होंने वहां की नाकेबंदी करवा कर तुरंत सेना भेज दी। मुंबई में महात्मा गांधी के एक दूर के रिश्तेदार को वहां का शासक बनाने का ऐलान करते हुए अंग्रेजी हुकूमत (अस्थायी सरकार) बना दी। फिर वहां जनमत संग्रह करवाया जिसमें 95 फीसदी लोगों ने भारत के साथ विलय के पक्ष में मतदान किया। नवाब पाकिस्तान भाग गया व पाकिस्तान इस मामले को संयुक्तराष्ट्र संघ में ले गया। जहां आज तक इस पर कोई फैसला नहीं हुआ।
यही हालात हैदराबाद रियासत का भी था। हैदराबाद तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र सभी हैदराबाद का ही हिस्सा थे। उसका निजाम दुनिया का सबसे अमीर आदमी था। उसका निजाम उस्मान अली था। उसने कासिम रिजवी के नेतृत्व में रजाकारों की सेना बनायी। पहले निजाम ने भारत में शामिल होने का ऐलान किया मगर वह बाद में पलट गया। जवाहर लाल नेहरु वहां किसी भी तरह की सैनिक कार्रवाई किए जाने के खिलाफ थे। संयोग से वे जब योरोप के दौरे पर गए थे व सरदार पटेल उस समय उनकी जगह सरकार के प्रभारी थे तो उन्होंने वहां सैनिक कार्रवाई करने का आदेश दिया क्योंकि रजाकार हिंदू लोगों पर जुल्म ढा रहे थे। उनकी गैर मौजूदगी में सरदार पटेल ने वहां सेना भेजी और अंततः निजाम की सेना को समर्पण करना पड़ा।
यह निजाम टर्की के असफ खानदान से था। मुगलों ने उसे अपना सूबेदार निजाम उल मुल्क नियुक्त किया था और वह दक्षिण में उनके गवर्नर की तरह काम करता था। मगर जब मुगल कमजोर होने लगे तो उसने खुद को निजाम घोषित कर दिया और अंग्रेजों के साथ दोस्ती कर ली। उस्मान अली खान पर टाइम पत्रिका ने उस समय कवर स्टोरी छापी थी जिसमें उसे दुनिया का सबसे अमीर आदमी बताया गया।
त्रवाणकोर के दीवान सीपी रामास्वामी तो अपने राज्य को आजाद देश घोषित करते हुए यहां तक कह गए थे कि कांग्रेस कैसे अंग्रेजों की जगह ले सकती है? मगर बाद में वे सरदार पटेल के कहने पर मान गए। ऐसे ही भोपाल के नवाब हमीदुल्ला खान, लार्ड माउंटबैटन के बचपन के दोस्त थे। उन्होंने इस संबंध में उन्हें पत्र लिखा व उनके समझाने पर वे भारत में शामिल होने को तैयार हुए। जोधपुर का शासक पाकिस्तान के साथ विलय चाहता था क्योंकि उसका मानना था कि उसका राज्य पाक के ज्यादा करीब था अंततः पटेल के धमकाने पर वह भारत में विलय के लिए राजी हुआ।
सरदार पटेल की कई मुद्दों पर अपनी ही पार्टी के नेताओं से नहीं बनती थी। वे महात्मा गांधी द्वारा पाकिस्तान को 55 करोड़ दिलवाने के लिए हड़ताल पर बैठने के खिलाफ थे। वे कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने के खिलाफ थे। वे गोवा में सैनिक कार्रवाई करना चाहते थे जिसकी नेहरु ने अनुमति नहीं दी। वे संघ को कट्टरपंथी संगठन मानते थे व महात्मा गांधी की हत्या के बाद उन्होंने संघ पर प्रतिबंध लगाया था हालांकि उन्होंने नेहरु से कहा था कि जो लोग यह सोचते है कि वे सत्ता में रहते हुए किसी संगठन को कुचल देंगे वे गलत है। उनका कहना था कि डंडा चोर, डकैतों के लिए होता है।
सरदार पटेल संघ को कट्टरपंथी व विभाजनकारी संगठन मानते थे। हालांकि महात्मा गांधी की हत्या में उसका कोई हाथ न होने की बात कहते थे। जब कश्मीर में पाकिस्तान ने हमला किया तो उन्होंने 6 मार्च 1948 को लखनऊ में रैली में मुसलमानों से कहा था कि आप लोगों ने अभी तक पाकिस्तान के हमले की भर्त्सना क्यों नहीं की? आप दो घोड़ों पर सवार नहीं हो सकते। एक घोड़ा चुन लीजिए। चाहे तो पाकिस्तान चले जाइए और वहां शांति से रहिए। क्या विरोधाभास है कि आज वही संघी नरेंद्र मोदी उनके गुणगान कर रहे है। उन्हें अपना बता रहे हैं। वैसे दूर क्यों जाना? भाजपा ने तो आपातकाल के तमाम खलनायकों को अपना नायक माना। यह सब वक्त और राजनीति का तकाजा जो है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें