रविवार, 1 अक्टूबर 2017

साहित्य जगत में कितनी असहिष्णुता है

इन दिनों सहिष्णुता और असहिष्णुता की बातें बहुधा सुनाई देती हैं। लेखक पर हमला हो जाए तो, पत्रकार पर हमला हो जाए तो, किसी का लेख किसी भी वजह से न छप पाए तो, ट्विटर के कमेंट पर कोई ट्रोल हो जाए तो, फेसबुक पर किसी बात पर विवाद हो जाए तो ये शब्द हवा में गूंजने लगता है, लेकिन हमारे
साहित्यकार अपने व्यवहार में कितने असहिष्णु हो गए हैं उस पर किसी का ध्यान नहीं जाता, उसको कोई रेखांकित नहीं करता। आप फेसबुक पर आधे घंटे का वक्त बिताएं तो आपको पता चल जाएगा कि साहित्य जगत में कितनी असहिष्णुता है। पुराने लेखकों में नए लेखकों को लेकर सम्मान भाव के दर्शन ही दुर्लभ हो गए हैं, वरिष्ठ लेखकों में भी अपने से अपेक्षाकृत कनिष्ठ पीढ़ी के लेखकों को लेकर सदाशयता की कमी देखने को मिलती है। जनवरी में विश्व पुस्तक मेले के दौरान मैत्रेयी पुष्पा और अपेक्षाकृत युवा लेखिकाओं के बीच जिस तरह का अप्रिय विवाद हुआ था उसकी गूंज अब भी गाहे बगाहे फेसबुक पर दिख जाती है।
ये तो सिर्फ एक उदाहरण मात्र है, ऐसे कई मसले साहित्य में दिखते रहते हैं, जहां सहिष्णुता के कम होते जाने का संकेत मिलता रहता है। पहले भी दो पीढ़ियों के लेखकों के बीच साहित्यिक विवाद होते रहे हैं, रचनात्मकता के स्तर पर उसका जवाब दिया जाता रहा है, लेकिन व्यक्तिगत टिप्पणियां नहीं होती थीं। अब तो हालात बहुत अलग हो गए हैं। नई और पुरानी पीढ़ी का द्वंद्व भी हर दौर में देखने को मिलता रहा है। नई पीढ़ी खुद को परंपरा या विरासत के डंडे से हांके जाने को लेकर विरोध भी प्रकट करती रही है कभी उग्र होकर तो कभी शांति से विरोध करके तो कभी अपनी रचनाओं से पुरानी पीढ़ी से लंबी लकीर खींचकर। इस परिपाटी का निर्वाह कमोबेश हर युग में हुआ है, लेकिन समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में एक अलग ही किस्म की रस्साकशी देखने को मिल रही है।
हिंदी साहित्य में आमतौर पर यह माना जाता है कि दस साल में लेखकों की एक नई पीढ़ी सामने आ जाती है। लेखकों की जो नई पीढ़ी सामने आती है वह अपने से पुरानी पीढ़ी के लेखन का अपनी रचनात्मकता से विस्तार करती है। अब तक तो यही होता आया है कि अपेक्षाकृत नई पीढ़ी अपने से पहले वाली पीढ़ी को रचनात्मक स्तर पर चुनौती देती रही है। चाहे वो नई कहानी का दौर रहा हो या या फिर बीटनिक पीढ़ी का। किसी भी अन्य पीढ़ी को देखें तो यह साफ तौर पर नजर आती है। युवावस्था की दहलीज को पार चुकी पीढ़ी खुद को परंपरा और विरासत के नाम पर हांके जाने के खिलाफ तो नजर आती है, लेकिन उसको अपने से पुरानी पीढ़ी को रचनात्मकता के नाम पर नकारने की बेचैनी नहीं दिखाई देती है।
ऐसी स्थिति में अंतोनियो ग्राम्शी का एक कथन याद आता है कि-‘युद्ध क्षेत्र में दुश्मन के सबसे कमजोर मोर्चे पर हमला करके जीत हासिल कर लेना भले ही सफल रणनीति हो, पर बौद्धिक क्षेत्र में सबसे मजबूत और मुश्किल मोर्चे पर विजय ही असली विजय है।’ बीच की पीढ़ी को सबसे मजबूत मोर्चे पर फतह के बारे में सोचना होगा। अगर हम भारतेन्दु युग से लेकर अब तक के परिदृश्य पर नजर डालें तो लगभग इसी तरह की प्रवृत्ति को रेखांकित किया जा सकता है। तो अब क्यों कर ऐसा हो रहा है कि रचनात्मक स्तर पर अपेक्षित यह पीढ़ियों का संघर्ष एक अलग ही रूप लेता जा रहा है। रचनाओं के माध्यम से होने वाले संघर्ष की बजाय यह व्यक्तिगत संघर्ष में तब्दील हो गया है जो साहित्यिक माहौल में एक अलग ही किस्म की कटुता के वातावरण का निर्माण कर रहा हो जो चिंता का विषय है। साहित्य की इस प्रवृत्ति पर विचार करने की अवश्यकता है।
दस साल में अगर पीढ़ियों के बदल जाने या नई पीढ़ी के साहित्यिक परिदृश्य पर आगमन के सिद्धांत को माने तो इस वक्त हिंदी साहित्य में करीब आठ पीढ़ियां सक्रिय हैं। नामवर सिंह और रामदरश मिश्र जैसे नब्बे पार लेखकों से लेकर श्रद्धा थवाइत तक। इसको हम हिंदी की रचनात्मकता की ताकत मान सकते हैं। फिर इसकी क्या वजह है कि बीच की दो तीन पीढ़ी अपनी मौजूदगी को लेकर या साहित्यिक परिदृश्य में अपनी उपस्थिति को लेकर इतनी संवेदनशील हो रही है। उसको अपने से वरिष्ठ पीढ़ी से अपने लेखन की वैधता पर मुहर क्यों चाहिए। क्या यही वजह है कि एक पत्रिका वरिष्ठ लेखिका नासिरा शर्मा से साहित्यिक विरासत को संभालने वाले लेखकों की एक सूची जारी करवाती है।
मैत्रेयी पुष्पा से उनकी दो पीढ़ी बाद की लेखिकाओं को प्रमाण-पत्र क्यों चाहिए। बीच की पीढ़ी की कुछ लेखिकाओं के अंदर मिड एज क्राइसिस जैसी रचनात्मक क्राइसिस जैसा कुछ दिखाई देता है। उस पीढ़ी के लेखकों/लेखिकाओं को अपने लेखन पर भरोसा करते हुए साहित्यिक विरासत या वसीयत की फिक्र नहीं करनी चाहिए। अगर हम संजीदगी से इस पर विचार करते हैं तो यह लगता है कि यह मामला इतना सरल नहीं है और इसको इस तरह से देखने पर यह समस्या के विश्लेषण का सरलीकरण हो सकता है। बीच की पीढ़ी के लेखकों के बीच अपनी रचनाओं की मान्यता को लेकर जो बेचैनी दिखाई देती है दरअसल वह इस वजह से है कि उस पीढ़ी के पास अपना कोई आलोचक नहीं है। आज के दौर के ज्यादातर लेखक आलोचकों को नकारने में लगे रहते हैं। बहुधा मुक्तिबोध की पंक्ति ‘तोड़ने ही होंगे सारे गढ़ और मठ’ को नारे की तरह इस्तेमाल करते हुए। आलोचकों को नकराने की यह प्रवृत्ति इन दिनों ज्यादा बढ़ गई है।
आलोचना की अपनी दिक्कतें हैं, वो सतही हो गई है, उसमें पूर्वाग्रह ज्यादा दिखाई देता है आदि आदि। बावजूद इसके साहित्य में इस विधा की अपनी एक अहमियत है जिसको नकारने की न तो आवश्यकता है और न ही गढ़ और मठ तोड़ने की नारेबाजी की। आलोचना की गलत प्रवृत्तियों पर रचनात्मक तरीके बात होनी चाहिए। वैसे भी हिंदी आलोचना के इतने बुरे दिन नहीं आए हैं कि उसको रचनाकारों से किसी भी तरह के प्रमाण-पत्र लेने की आवश्यकता हो। बावजूद इसके आलोचना के खिलाफ जिस तरह का माहौल बनाया जा रहा है वह साहित्य की हर विधा के लिए नुकसानदेह हो सकती है। जो पीढ़ी इन दिनों अपने से पुरानी पीढ़ी से विरासत और वसीयत की मांग कर रही है अगर उस पीढ़ी के लेखकों की रचनाओं पर गंभीरता से विचार होता तो यह दिक्कत नहीं आती। सालों से लिख रहे लेखकों/लेखिकाओं के रचनाकर्म पर गंभीरता से विचार करने वाला कोई आलोचक सामने नहीं आ रहा है। जो खुद के आलोचक होने का दावा करते हैं, वे उतनी तैयारी के साथ इस कर्म में नहीं उतरते हैं।
जिन लोगों के सर पर युवा आलोचक की कलगी लगाई जा रही है उनके लेखन को देखकर भी निराशा होती है। या तो वे मार्क्‍सवाद के भोथरे औजारों से आलोचना करने में लगे हैं या फिर अलग अलग लेखकों से समीक्षानुमा टिप्पणी लिखवाकर किताब का संपादन कर आलोचक बने बैठे हैं। मामला यहीं तक नहीं रुकता है। कई बार आलोचनात्मक लेखों को पढ़ने के बाद मन में यह सवाल उठता है कि आलोचक की राय क्या है। होता यह है कि वे लिखना शुरू करते ही उद्धरण देना शुरू कर देते हैं। नेम ड्रापिंग कर कर के अपने लेख को वजनदार बनाने के चक्कर में उनका खुद का कोई मत सामने आ नहीं पाता है। इसका सबसे ज्यादा नुकसान उस लेखक का होता है जिसकी रचनाओं पर उस लेख में विचार किया जाता है। ना तो रचना पर बात हो पाती है ना ही रचना के क्रॉफ्ट आदि पर।
अगर कोई आलोचक सामने आकर उक्त पीढ़ी की लेखिकाओं/ लेखकों पर गंभीरता से विचार करेगा तो पीढ़ीगत संघर्ष दिखाई नहीं देगी। इसके अलावा उस पीढ़ी को यह भी करना होगा कि वे अपनी पीढ़ी के साथी लेखकों की रचनाओं पर लिखना शुरू करें। इसका एक फायदा ये होगा कि उनकी रचनाओं पर बात शुरू हो जाएगी। राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर और मोहन राकेश की त्रयी ने भी ये किया था जिसका उनके लेखन को कितना फायदा हुआ ये तो इतिहास में दर्ज है। अपने साथी लेखकों की रचनाओं को खारिज करने की बजाय वे उस पर विमर्श की शुरुआत करें, कटुता घटेगी और स्वीकार्यता भी बढ़ेगी। आवश्यकता तो इस बात की भी है कि साहित्यिक साजिशों, गॉसिपों से आगे जाकर रचनात्मक विमर्श को तवज्जो दी जाए ताकि कुछ सकारात्मक निकले और बाद की पीढ़ी के सामने एक मिसाल पेश हो।



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