शुक्रवार, 6 अक्टूबर 2017

क्या मनमोहन सही और मोदी ग़लत साबित हुए ?

साल 2013 में चुनाव प्रचार अभियान के दौरान नरेंद्र मोदी ने कहा था कि उनकी पार्टी अगर सत्ता में आती है तो एक करोड़ नौकरियों के अवसर पैदा करेगी.इसके एक साल बाद ही उनकी पार्टी दिल्ली की सत्ता पर भारी बहुमत से काबिज़ हो गई. इसी साल जनवरी में भारत के आर्थिक सर्वे ने संकेत दिया था कि चीजें कुछ ठीक नहीं चल रही हैं और रोज़गार वृद्धि में सुस्ती है.नई सरकार के आंकड़े दिखाते हैं कि बेरोज़गारी की दर 2013-14 में 4.9 प्रतिशत से बढ़कर 5 प्रतिशत हो गई है. लेकिन ये तस्वीर वास्तव में और भी चिंताजनक हो सकती है.हाल ही में अर्थशास्त्री विनोज अब्राहम की एक स्टडी जारी की गई है, जिसमें लेबर ब्यूरो द्वारा इकट्ठा किए गए नौकरी के आंकड़ों को इस्तेमाल किया गया है.
मोदी सरकार के तीन साल:
रोज़गार सृजन की गति सुस्त अध्ययन में कहा गया है कि 2012 और 2016 के बीच भारत में रोज़गार वृद्धि में बेतहाशा कमी आई है.इस अध्ययन के अनुसार, सबसे चिंताजनक बात है कि 2013-14 और 2015-16 के बीच देश में मौजूदा रोज़गार में भी भारी कमी आई है. आज़ाद भारत में शायद पहली बार ऐसा हो रहा है.
कृषि क्षेत्र में, जहां भारत की आधी आबादी रोजी रोज़गार के लिए इसी पर निर्भर है और बहुत सारे लोग ज़मीन के छोटे छोटे हिस्सों पर फसल उगा रहे हैं, नौकरियां ख़त्म हो रही हैं.
इस पर भी सूखे और फसल की सही क़ीमत न मिल पाने से लोग खेती किसानी से दूर जा रहे हैं और निर्माण और ग्रामीण मैन्युफ़ैक्चरिंग में रोज़गार तलाश रहे हैं.
नया रिकॉर्ड
मैककिंसे ग्लोबल इंस्टीट्यूट के एक अध्ययन के मुताबिक, 2011 से 2015 के बीच 2.6 करोड़ नौकरियां ख़त्म हो गई हैं. उधर, लगातार छह तिमाही से गिरती हुई जीडीपी वृद्धि ने बीते अप्रैल-जून की तिमाही में एक नया रिकॉर्ड बनाया है.पिछले तीन सालों में जीडीपी में सबसे कम 5.7 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है.
पिछले साल हुई नोटबंदी और इस साल जुलाई में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) ने आंशिक रूप से रोज़गार सृजन में गिरावट में घी का काम किया है.इसके कारण सर्वाधिक रोज़गार सृजन वाले कृषि, निर्माण और निज़ी व्यापार वाले क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हुए हैं और रोज़गार को भारी झटका लगा है.
2.6 करोड़ लोग रोज़गार की तलाश में
इंडियन एक्सप्रेस के एक विश्लेषण के अनुसार, "धातु, पूंजीगत माल, खुदरा बाज़ार, ऊर्जा, निर्माण और उपभोक्ता सामान बनाने वाली 120 से अधिक कंपनियों में नियुक्तियों की संख्या गिरी है."
अख़बार को एक शीर्ष एचआर एक्ज़ीक्युटिव ने बताया, "ये कंपनियों की विस्तार योजनाएं और अल्पकालिक विकास की नाउम्मीदी को दिखाता है."
भारत का आर्थिक सर्वे कहता है कि रोज़गार सृजन भारत की 'एक मुख्य चुनौती' है. साल 2030 तक हर साल 1.2 करोड़ भारतीय नौकरी पाने की क़तार में खड़े होने लगेंगे.फ़िलहाल 2.6 करोड़ भारतीय नियमित रोज़गार की तलाश में बैठे हैं. ये संख्या मोटा मोटी ऑस्ट्रेलिया की आबादी के बराबर है. भारत में नौकरी की अनोखी समस्या है.पश्चिम में बेरोज़गारों की एक निश्चित समय में एक निश्चित संख्या दर्ज होती है, जोकि बेरोज़गारी का एक पैमाना होता है. इसके उलट भारत में ऐसी प्रणाली नहीं है.
क़तार में शामिल लोग
अर्थशास्त्री विजय जोशी के अनुसार, "ग़रीबी और सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था न होने के चलते अधिकांश लोगों ज़िंदा रहने के लिए खुद कोशिश करनी पड़ती है."
यहां ऐसे बेरोज़गार लोगों की भी भारी संख्या है जो अपने परिवारों पर निर्भर होते हैं. इसके अलावा छिपी हुई बेरोज़गारी भी मौजूद है, क्योंकि बहुत सारे लोग एक ही काम में साझा करते हैं, जिसे करने के लिए कम लोगों की ज़रूरत होती है.अधिकांश लोग कम आमदनी वाले कामों के लिए काम करते हैं.
एक अनुमान के अनुसार, कुल श्रम शक्ति का 80 प्रतिशत हिस्सा बिखरे और असंगठित उद्योगों में काम करते हैं जहां काम करने की स्थितियां बहुत विकट होती हैं और बहुत कम मज़दूरी मिलती है.
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रोज़गार की समस्या
इनमें से बहुत कम नौकरियां ऐसी हैं, जिनमें आमदनी, स्थान या रोज़गार की गारंटी होती है. वास्तव में संगठित क्षेत्र में केवल 7 प्रतिशत भारतीय ही पूरी सुविधाओं के साथ काम करते हैं.
'इंडियाज़ लॉन्ग रोड- दि सर्च फ़ॉर प्रॉसपैरिटी' किताब के लेखक जोशी कहते हैं, "रोज़गार की समस्या भविष्य में और बुरी होने वाली है क्योंकि श्रम शक्ति में तेज़ी से वृद्धि का अनुमान है. अगले तीन दशक तक हर महीने रोज़गार खोजने वाले 10 लाख लोग क़तार में खड़े हो रहे हैं. जैसी स्थितियां हैं, भारत भी टू टियर इकोनॉमी के रास्ते पर जाता हुआ दिख रहा है."
टू टियर इकोनॉमी का मतलब है, दो तरह की श्रमिक आबादी, जिनके वेतन में भारी अंतर होता है.
असंगठित क्षेत्र
जोशी के मुताबिक, "भारत में रोज़गार की समस्या को केवल बिखरी हुई श्रम शक्ति के रूप में देखा जाता है. उच्च श्रम उत्पादकता वाले संगठित क्षेत्र में रोज़गार सृजन की गति बहुत धीमी है, दूसरी तरफ़ कम उत्पादकता और कम वेतन वाले असंगठित क्षेत्र में मज़दूरों की लगातार भरमार रहती है."
अधिक नौकरियां सृजन करने का एक तरीक़ा ये है कि अधिक श्रम शक्ति वाले टेक्सटाइल और लेदर उद्योगों पर अधिक ध्यान दिया जाए, जहां अधिक मज़दूरों को काम दिया जाता है.
लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार ने असगंठित क्षेत्र के बिना लाइसेंस वाले बूचड़खानों और लेदर फ़ैक्ट्रियों को बंद कर अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली है.
चीन से पिछड़ता जा रहा है...
गोहत्या पर प्रतिबंध की वजह से भारत के चमड़ा निर्यात में भी गिरावट दर्ज की गई है.
मॉर्गन स्टैनले इनवेस्टमेंट मैनेजमेंट में चीफ़ ग्लोबल स्ट्रैटेजिस्ट रुचिर शर्मा कहते हैं, "खिलौने से लेकर टेक्सटाइल उत्पाद बनाने वाले उद्योगों में भारत का लगातार असफल होना ही शायद वो अकेला सबसे बड़ा कारण है जिससे वो चीन से पिछड़ता जा रहा है और श्रम बाज़ार इतना कमज़ोर है."

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