शंकर शरण
वीर सावरकर की जयन्ती। मतलब दो दिन पहले गुजरा दिन। विचार किया जाए कि जिन हिन्दू राष्ट्रवादियों को नेताओं की जयंती, बरसी आदि मनाने में बड़ा उत्साह रहा है - उन्होंने सावरकर का स्मरण करने और देश को कराने के लिए क्या कुछ खास किया? सोचे तो लगेगा कि या तो उन्हें भय है, अथवा ईर्ष्या, या फिर समकालीन हिन्दू राजनीतिक चिंतन और कर्मधारा पर दलीय एकाधिकार रखने के लिए अपने संगठन से भिन्न महापुरुषों को जान-बूझ कर भुलाए जाने की प्रवृति है। संभवतः इसीलिए, एक औपचारिक विज्ञापन तक अखबार में नहीं आया! जबकि इस काम में, लगभग दैनिक रूप से, अनर्गल तक बातों के लिए, राजकोष का धन बेरहमी से उड़ाया जाता है। केवल इसलिए ताकि किसी न किसी पार्टी-नेता की फोटो देश भर को दिखती रहे।
कारण जो हो, मगर यह हिन्दू या राष्ट्र चिन्ता को पार्टी में सीमित करने का उदाहरण है। वरना, सावरकर का स्मरण करने से दिवंगत सावरकर को क्या मिलना है!
सच पूछें तो कभी-कभी वामपंथियों द्वारा सावरकर का अपमान करने से इस चिंतक, योद्धा और कवि की ओर हमारा ध्यान अनजाने ही जाता रहता है। विद्वेषपूर्वक ही, लेकिन वही सावरकर को प्रायः याद करते हैं। बहरहाल, जैसे भी हो, सावरकर का नाम अमर रहना तय है। भारत ही नहीं, विदेशों में भी सावरकर को जाना जाता है।
सावरकर के नाम के साथ ‘वीर’ उसी तरह लगा हुआ है जैसे गाँधी के साथ ‘महात्मा’, सुभाष के साथ ‘नेताजी’, पटेल के साथ ‘सरदार’, टैगोर के साथ ‘कविगुरू’ या भगत सिंह के साथ ‘शहीद’।
सावरकर के जीवन और कार्य के आधार पर उन्हें पिछली सदी में भारत की दस सर्वश्रेष्ठ विभूतियों में गिना जा सकता है। उन पर लिखी जीवनी स्वातंत्र्य-वीर सावरकर से इस की झलक मिलती है। जिस के लेखक श्री धनंजय धीर को इंदिरा गाँधी ने 1971 में पद्म-विभूषण से अलंकृत किया था।
सावरकर के साथ इतिहास के जितने ‘प्रथम’ जुड़े हैं उस का कोई सानी नहीं है। वे प्रथम भारतीय थे जिस ने ब्रिटिश साम्राज्य के केंद्र लंदन में उस के विरुद्ध एक क्रांतिकारी आंदोलन संगठित किया। वे पहले भारतीय थे जिस ने 1906 में ‘स्वदेशी’ का नारा देकर विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी, जो गाँधी जी ने बरसों बाद दुहराया। सावरकर पहले भारतीय थे जिन्हें अपने विचारों के कारण बैरिस्टर की डिग्री खोनी पड़ी। वे पहले भारतीय थे जिन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता की माँग की थी। वे पहले भारतीय थे जिन्होंने 1857 की लड़ाई को भारत का ‘स्वाधीनता संग्राम’ कहा था। वे पहले लेखक थे जिन की इस विषय पर लिखी किताब को प्रकाशित होने से पहले ही ब्रिटिश और भारत सरकारों ने प्रतिबंधित कर दिया था!
सावरकार दुनिया के पहले राजनीतिक कैदी थे जिन का मामला हेग के अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में चला था। सावरकर ने ही वह पहला भारतीय झंडा बनाया था जिसे जर्मनी में 1907 की अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस में मैडम भीका जी कामा ने फहराया था। वे पहले भारतीय राजनीतिक कैदी थे जिस ने एक अछूत को मंदिर का पुजारी बनाया था। सावरकर ही वे पहले कवि थे जिस ने कलम, कागज के बिना जेल की दीवारों पर पत्थर के टुकड़ों से कविताएं लिखी। यही नहीं, अपनी रची दस दजार से भी अधिक पंक्तियों को प्राचीन वैदिक साधना के अनुरूप बरसों स्मृति में सुरक्षित रखा, जब तक वह अंततः लिपिबद्ध होकर देशवासियों तक नहीं पहुँच गई!
स्वाधीनता संघर्ष में भी सावरकर का योगदान अद्वितीय रहा है। केवल एक ही उल्लेख उन के अनोखे योगदान को समझने के लिए काफी होगा। जब कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के ‘डायरेक्ट एक्शन’ के तहत चली हिंसा से घबड़ाकर 1946 ई. में देश का विभाजन अंततः स्वीकार कर लिया, तो मूल योजना के अनुसार पूरा पंजाब और पूरा बंगाल पाकिस्तान में जाने वाला था।
तब वीर सावरकर ने ही यह अभियान चलाया कि इन प्रांतों के भारत से लगने वाले हिन्दू बहुल इलाकों को भारत में रहना चाहिए। ब्रिटिश शासकों और लॉर्ड माउंटबेटन को इस का औचित्य मानना पड़ा। तब जाकर पंजाब और बंगाल को विभाजित करके कुछ हिस्से भारत को दिए गए।
अतः आज यदि कलकत्ता और अमृतसर भारत में हैं, तो इस का बहुत बड़ा श्रेय केवल वीर सावरकर को है! इन्हीं कारणों से सुप्रसिद्ध लेखक विष्णु सखाराम खांडेकर ने सावरकर को इंद्रधनुषी प्रतिभा का महान, साहसिक कवि कहा था जिन के सामने ‘हम सब बौने हैं’। स्वतंत्र भारत में भी अंदरूनी और बाह्य परिदृश्य पर सावरकर की कितनी ही चेतावनियाँ अक्षरशः सही साबित हुईं। कश्मीर, सेक्यूलरिज्म, इस्लाम, तिब्बत, पंचशील और चीन कुछ ऐसे विषय हैं।
यह तमाम बातें ब्रिटिश या पाकिस्तानी इतिहासकारों की किताबों में बेशक मिल जाए, हमारे देश के प्रचलित, यानी वामपंथी इतिहासकारों की किताब में नहीं मिलेगी। क्योंकि जैसे राजनीति, वैसे ही हमारी एलीट अकादमियों और अंग्रेजी मीडिया में सब से बड़ा कर्तव्य हिन्दू-विरोध है। तब आश्चर्य ही क्या कि क्रांतिकारी, चिंतक, कवि और स्वातंत्र्य-वीर सावरकर को वे एक फासिस्ट, कायर, हिंदू-सांप्रदायिक, षड्यंत्रकारी आदि घृणित रूपों में पेश करने की कोशिश करते हैं! दुःख की बात है कि हिन्दुओं से समर्थन पाने वाले नेता भी सावरकर के प्रति उपेक्षा दिखाते हैं। वही स्थिति बौद्धिक जगत के गुट-परस्तों की भी है जिन की कुल बौद्धिक खुराक किसी न किसी प्रकार का पार्टी-साहित्य भर रही है।
हालाँकि सावरकर के प्रति वामपंथियों के विरोध का कारण हिन्दू-विरोध की प्रवृत्ति है। क्योंकि सावरकर ने आधुनिक संदर्भ में राजनीतिक हिन्दुत्व को परिभाषित करने की कोशिश की थी। साथ ही उन्होंने इस्लामी तबलीगियों और ईसाई मिशनरियों द्वारा हिन्दुओं के धर्मांतरण के विरुद्ध भी अभियान चलाया था। इस प्रकार, उन्होंने सदियों से विदेशी आक्रांताओं के समक्ष पराजय से हिन्दुओं में जमी ऐतिहासिक भीरुता को तोड़ने का प्रयास किया था। कम्युनिस्ट नेताओं, प्रोफेसरों, पत्रकारों की सावरकर से घृणा का असली कारण यही है।
जबकि गंभीरता से विचार करें तो मानवता, हिन्दुत्व और तत्संबंधी भारतवासियों के कर्तव्य के बारे में सावरकर का दर्शन काल की कसौटी पर लगभग खरा उतरा है। सामान्य हिन्दू स्वभाव के अनुरूप, सावरकर का हिन्दुत्व भी दूसरे मजहबों के खिलाफ नहीं था। बल्कि वे तो पूरी मानवता को एक मानते थे!
कृपया सावरकर के इन शब्दों पर विचार करें: “पूरी मानव जाति में एक ही रक्त है, एक मानव संबंध है। बाकी सब बातें तात्कालिक और आंशिक सत्य हैं। विभिन्न नस्लों के कृत्रिम विभाजनों को स्वयं प्रकृति निरंतर तोड़ती है। मनुष्यों में यौन-आकर्षण आज तक के सारे पैगम्बरों के समवेत आवाहनों से भी ज्यादा शक्तिशाली साबित हुआ है”। इस से अधिक सेक्यूलर और मानवीय विचार और क्या हो सकता है! तब हमारे सेक्यूलरवादी बुद्धिजीवी सावरकर से क्यों बचते हैं? शायद इसलिए क्योंकि इस के बाद सावरकर उस कटु यथार्थ पर भी दो-टूक कहते हैं, जिस से हमारा भीरू, आराम-पसंद बुद्धिजीवी सदैव कन्नी काटता है।
सावरकर के अनुसार, मानव जाति की समानता बिलकुल सत्य है, ‘‘लेकिन जब तक पूरी दुनिया में नस्ल और राष्ट्र के आधार पर खूँरेजी चल रही है, जिससे मनुष्य क्रूरता पर आमादा हो जाता है, तब तक भारत को अपनी राष्ट्रीय, नस्ली सुरक्षा के लिए शक्तिशाली बने रहना होगा।’’
इस प्रकार, सावरकर हिन्दुओं में आत्म-रक्षा और आत्म-सम्मान का समावेश करने की बात भी कहते थे। क्योंकि हिन्दू दर्शन की गहनता, अन्य धर्मावलंबियों के प्रति उदारता, मानवीयता, प्राणिमात्र के प्रति संवेदना आदि उस की रक्षा के लिए पर्याप्त नहीं है। सदियों की छोड़िए, पिछले सौ साल में कश्मीरी हिन्दुओं का क्या हश्र हुआ? सावरकर ने जरूरी सच कहा था, संपूर्ण सच कहा था। इसीलिए उन्हें हमारे सेक्यूलरवादी नेता-बुद्धिजीवी पसंद नहीं करते। प्रश्न है, क्या इसीलिए पार्टी-बंदी में सीमित हिन्दूवादी भी वीर सावरकर को पसंद नहीं करते?
वीर सावरकर की जयन्ती। मतलब दो दिन पहले गुजरा दिन। विचार किया जाए कि जिन हिन्दू राष्ट्रवादियों को नेताओं की जयंती, बरसी आदि मनाने में बड़ा उत्साह रहा है - उन्होंने सावरकर का स्मरण करने और देश को कराने के लिए क्या कुछ खास किया? सोचे तो लगेगा कि या तो उन्हें भय है, अथवा ईर्ष्या, या फिर समकालीन हिन्दू राजनीतिक चिंतन और कर्मधारा पर दलीय एकाधिकार रखने के लिए अपने संगठन से भिन्न महापुरुषों को जान-बूझ कर भुलाए जाने की प्रवृति है। संभवतः इसीलिए, एक औपचारिक विज्ञापन तक अखबार में नहीं आया! जबकि इस काम में, लगभग दैनिक रूप से, अनर्गल तक बातों के लिए, राजकोष का धन बेरहमी से उड़ाया जाता है। केवल इसलिए ताकि किसी न किसी पार्टी-नेता की फोटो देश भर को दिखती रहे।
कारण जो हो, मगर यह हिन्दू या राष्ट्र चिन्ता को पार्टी में सीमित करने का उदाहरण है। वरना, सावरकर का स्मरण करने से दिवंगत सावरकर को क्या मिलना है!
सच पूछें तो कभी-कभी वामपंथियों द्वारा सावरकर का अपमान करने से इस चिंतक, योद्धा और कवि की ओर हमारा ध्यान अनजाने ही जाता रहता है। विद्वेषपूर्वक ही, लेकिन वही सावरकर को प्रायः याद करते हैं। बहरहाल, जैसे भी हो, सावरकर का नाम अमर रहना तय है। भारत ही नहीं, विदेशों में भी सावरकर को जाना जाता है।
सावरकर के नाम के साथ ‘वीर’ उसी तरह लगा हुआ है जैसे गाँधी के साथ ‘महात्मा’, सुभाष के साथ ‘नेताजी’, पटेल के साथ ‘सरदार’, टैगोर के साथ ‘कविगुरू’ या भगत सिंह के साथ ‘शहीद’।
सावरकर के जीवन और कार्य के आधार पर उन्हें पिछली सदी में भारत की दस सर्वश्रेष्ठ विभूतियों में गिना जा सकता है। उन पर लिखी जीवनी स्वातंत्र्य-वीर सावरकर से इस की झलक मिलती है। जिस के लेखक श्री धनंजय धीर को इंदिरा गाँधी ने 1971 में पद्म-विभूषण से अलंकृत किया था।
सावरकर के साथ इतिहास के जितने ‘प्रथम’ जुड़े हैं उस का कोई सानी नहीं है। वे प्रथम भारतीय थे जिस ने ब्रिटिश साम्राज्य के केंद्र लंदन में उस के विरुद्ध एक क्रांतिकारी आंदोलन संगठित किया। वे पहले भारतीय थे जिस ने 1906 में ‘स्वदेशी’ का नारा देकर विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी, जो गाँधी जी ने बरसों बाद दुहराया। सावरकर पहले भारतीय थे जिन्हें अपने विचारों के कारण बैरिस्टर की डिग्री खोनी पड़ी। वे पहले भारतीय थे जिन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता की माँग की थी। वे पहले भारतीय थे जिन्होंने 1857 की लड़ाई को भारत का ‘स्वाधीनता संग्राम’ कहा था। वे पहले लेखक थे जिन की इस विषय पर लिखी किताब को प्रकाशित होने से पहले ही ब्रिटिश और भारत सरकारों ने प्रतिबंधित कर दिया था!
सावरकार दुनिया के पहले राजनीतिक कैदी थे जिन का मामला हेग के अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में चला था। सावरकर ने ही वह पहला भारतीय झंडा बनाया था जिसे जर्मनी में 1907 की अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस में मैडम भीका जी कामा ने फहराया था। वे पहले भारतीय राजनीतिक कैदी थे जिस ने एक अछूत को मंदिर का पुजारी बनाया था। सावरकर ही वे पहले कवि थे जिस ने कलम, कागज के बिना जेल की दीवारों पर पत्थर के टुकड़ों से कविताएं लिखी। यही नहीं, अपनी रची दस दजार से भी अधिक पंक्तियों को प्राचीन वैदिक साधना के अनुरूप बरसों स्मृति में सुरक्षित रखा, जब तक वह अंततः लिपिबद्ध होकर देशवासियों तक नहीं पहुँच गई!
स्वाधीनता संघर्ष में भी सावरकर का योगदान अद्वितीय रहा है। केवल एक ही उल्लेख उन के अनोखे योगदान को समझने के लिए काफी होगा। जब कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के ‘डायरेक्ट एक्शन’ के तहत चली हिंसा से घबड़ाकर 1946 ई. में देश का विभाजन अंततः स्वीकार कर लिया, तो मूल योजना के अनुसार पूरा पंजाब और पूरा बंगाल पाकिस्तान में जाने वाला था।
तब वीर सावरकर ने ही यह अभियान चलाया कि इन प्रांतों के भारत से लगने वाले हिन्दू बहुल इलाकों को भारत में रहना चाहिए। ब्रिटिश शासकों और लॉर्ड माउंटबेटन को इस का औचित्य मानना पड़ा। तब जाकर पंजाब और बंगाल को विभाजित करके कुछ हिस्से भारत को दिए गए।
अतः आज यदि कलकत्ता और अमृतसर भारत में हैं, तो इस का बहुत बड़ा श्रेय केवल वीर सावरकर को है! इन्हीं कारणों से सुप्रसिद्ध लेखक विष्णु सखाराम खांडेकर ने सावरकर को इंद्रधनुषी प्रतिभा का महान, साहसिक कवि कहा था जिन के सामने ‘हम सब बौने हैं’। स्वतंत्र भारत में भी अंदरूनी और बाह्य परिदृश्य पर सावरकर की कितनी ही चेतावनियाँ अक्षरशः सही साबित हुईं। कश्मीर, सेक्यूलरिज्म, इस्लाम, तिब्बत, पंचशील और चीन कुछ ऐसे विषय हैं।
यह तमाम बातें ब्रिटिश या पाकिस्तानी इतिहासकारों की किताबों में बेशक मिल जाए, हमारे देश के प्रचलित, यानी वामपंथी इतिहासकारों की किताब में नहीं मिलेगी। क्योंकि जैसे राजनीति, वैसे ही हमारी एलीट अकादमियों और अंग्रेजी मीडिया में सब से बड़ा कर्तव्य हिन्दू-विरोध है। तब आश्चर्य ही क्या कि क्रांतिकारी, चिंतक, कवि और स्वातंत्र्य-वीर सावरकर को वे एक फासिस्ट, कायर, हिंदू-सांप्रदायिक, षड्यंत्रकारी आदि घृणित रूपों में पेश करने की कोशिश करते हैं! दुःख की बात है कि हिन्दुओं से समर्थन पाने वाले नेता भी सावरकर के प्रति उपेक्षा दिखाते हैं। वही स्थिति बौद्धिक जगत के गुट-परस्तों की भी है जिन की कुल बौद्धिक खुराक किसी न किसी प्रकार का पार्टी-साहित्य भर रही है।
हालाँकि सावरकर के प्रति वामपंथियों के विरोध का कारण हिन्दू-विरोध की प्रवृत्ति है। क्योंकि सावरकर ने आधुनिक संदर्भ में राजनीतिक हिन्दुत्व को परिभाषित करने की कोशिश की थी। साथ ही उन्होंने इस्लामी तबलीगियों और ईसाई मिशनरियों द्वारा हिन्दुओं के धर्मांतरण के विरुद्ध भी अभियान चलाया था। इस प्रकार, उन्होंने सदियों से विदेशी आक्रांताओं के समक्ष पराजय से हिन्दुओं में जमी ऐतिहासिक भीरुता को तोड़ने का प्रयास किया था। कम्युनिस्ट नेताओं, प्रोफेसरों, पत्रकारों की सावरकर से घृणा का असली कारण यही है।
जबकि गंभीरता से विचार करें तो मानवता, हिन्दुत्व और तत्संबंधी भारतवासियों के कर्तव्य के बारे में सावरकर का दर्शन काल की कसौटी पर लगभग खरा उतरा है। सामान्य हिन्दू स्वभाव के अनुरूप, सावरकर का हिन्दुत्व भी दूसरे मजहबों के खिलाफ नहीं था। बल्कि वे तो पूरी मानवता को एक मानते थे!
कृपया सावरकर के इन शब्दों पर विचार करें: “पूरी मानव जाति में एक ही रक्त है, एक मानव संबंध है। बाकी सब बातें तात्कालिक और आंशिक सत्य हैं। विभिन्न नस्लों के कृत्रिम विभाजनों को स्वयं प्रकृति निरंतर तोड़ती है। मनुष्यों में यौन-आकर्षण आज तक के सारे पैगम्बरों के समवेत आवाहनों से भी ज्यादा शक्तिशाली साबित हुआ है”। इस से अधिक सेक्यूलर और मानवीय विचार और क्या हो सकता है! तब हमारे सेक्यूलरवादी बुद्धिजीवी सावरकर से क्यों बचते हैं? शायद इसलिए क्योंकि इस के बाद सावरकर उस कटु यथार्थ पर भी दो-टूक कहते हैं, जिस से हमारा भीरू, आराम-पसंद बुद्धिजीवी सदैव कन्नी काटता है।
सावरकर के अनुसार, मानव जाति की समानता बिलकुल सत्य है, ‘‘लेकिन जब तक पूरी दुनिया में नस्ल और राष्ट्र के आधार पर खूँरेजी चल रही है, जिससे मनुष्य क्रूरता पर आमादा हो जाता है, तब तक भारत को अपनी राष्ट्रीय, नस्ली सुरक्षा के लिए शक्तिशाली बने रहना होगा।’’
इस प्रकार, सावरकर हिन्दुओं में आत्म-रक्षा और आत्म-सम्मान का समावेश करने की बात भी कहते थे। क्योंकि हिन्दू दर्शन की गहनता, अन्य धर्मावलंबियों के प्रति उदारता, मानवीयता, प्राणिमात्र के प्रति संवेदना आदि उस की रक्षा के लिए पर्याप्त नहीं है। सदियों की छोड़िए, पिछले सौ साल में कश्मीरी हिन्दुओं का क्या हश्र हुआ? सावरकर ने जरूरी सच कहा था, संपूर्ण सच कहा था। इसीलिए उन्हें हमारे सेक्यूलरवादी नेता-बुद्धिजीवी पसंद नहीं करते। प्रश्न है, क्या इसीलिए पार्टी-बंदी में सीमित हिन्दूवादी भी वीर सावरकर को पसंद नहीं करते?

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