मंगलवार, 1 मई 2018

वामपंथियों की पहला लक्ष्य है कि आरएसएस और भाजपा की सत्ता को हटाना

देश के हालिया राजनीतिक घटनाक्रम के साथ जिस प्रकार अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव को लेकर विपक्षी दलों की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरूद्ध जुगलबंदी देखनों को मिल रही है, जिसमें मार्क्सवादी स्वयं को किसी शीर्ष ध्वजवाहक से कमतर नहीं समझ रहे है- इस पृष्ठभूमि में उनकी वास्तविकता और भविष्य पर ईमानदारी से विवेचना करना आवश्यक है।

गत रविवार तेलंगाना के हैदराबाद में संपन्न हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी के 22वें अधिवेशन में वरिष्ठ नेता सीताराम येचुरी को पुन: महासचिव चुन लिया गया। उनके मनोनयन को 95 सदस्यीय केंद्रीय समिति ने हरी झंडी दिखाई। देश में मार्क्सवादियों की राजनीतिक दिशा सुनिश्चित करने के नाम पर वामपंथी धड़ा सीताराम येचुरी और प्रकाश करात गुट में विभाजित है, जिसमें येचुरी खेमा कांग्रेस के साथ तालमेल को अच्छा मानता है, वहीं करात पक्ष इसका विरोधी है। अब येचुरी के दोबारा महासचिव निर्वाचित होने के पश्चात वामपंथियों की आगामी राजनीति क्या होगी- उसपर अब कोई संदेह नहीं रह गया है। येचुरी के अनुसार, ‘2019 के चुनावों में हमारा पहला लक्ष्य है कि आरएसएस और भाजपा की सत्ता को हटाना है। कांग्रेस के साथ हमारा कोई राजनीतिक गठबंधन नहीं होगा, किंतु सांप्रदायिकता रोकने के लिए (संसद के) बाहर और भीतर उसके साथ हमारा तालमेल होगा।’

देश में वामपंथियों की वस्तुस्थिति क्या है? वर्तमान समय में तीन बड़े "लाल" किलों में से दो- त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादियों का गढ़ ढह चुका है। जहां 1993 से 25 वर्षों तक वामपंथियों के सुरक्षित राज्य त्रिपुरा में सीधे मुकाबले में पहली बार भाजपा ने बहुमत और 43 प्रतिशत मत प्रतिशत के साथ विजय प्राप्त की। वहीं पश्चिम बंगाल में वामपंथियों का जनाधार धीरे-धीरे घटने लगा है। इस प्रदेश के हालिया उप-चुनावों, जिसमें भाजपा को वोट प्रतिशत में सुधार के साथ दूसरा स्थान प्राप्त हुआ है और कांग्रेस व वामपंथी क्रमश: तीसरे और चौथे स्थान पर रहे है- उस स्थिति के अतिरिक्त प्रदेश की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस अध्यक्षा ममता बनर्जी- जिस प्रकार विधानसभा के भीतर और बाहर वक्तव्य दे रही है, वह भी स्पष्ट करता है कि भाजपा प्रदेश में मुख्य प्रतिद्वंदी के रूप में उभर रही है। ऐसे में आगामी वर्षों में वामपंथियों का इस प्रदेश में विपक्ष के रूप में सम्मानजनक स्थान होगा- इस पर संदेह है।

केरल में अभी वामपंथियों के नेतृत्व में एलडीएफ सरकार है, जहां मुख्य विपक्ष कांग्रेस नेतृत्व वाला यूडीएफ गठबंधन है। यह दोनों गठबंधन एक-दूसरे के विरूद्ध चुनाव लड़ते है। इस प्रदेश में वर्ष 2014 से भाजपा का भी जनाधार बढ़ रहा है और 2016 में पहली बार उसका एक विधायक निर्वाचित होकर केरल विधानसभा पहुंचा है- इस परिस्थिति में क्या यह दोनों प्रमुख राजनीतिक दल- मुख्य विपक्ष का स्थान भाजपा के लिए खाली छोड़ने का खतरा उठाएंगे?

आज जिस उत्साह और विचारधारा के साथ भाजपा आगे बढ़ रही है, जिसमें वह केंद्र के साथ-साथ देश के 20 राज्यों में (गठबंधन सहित) सत्तासीन है- उस दर्शन का बीजारोपण डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार ने सन् 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (संघ/आरएसएस) की स्थापना के साथ किया था। राष्ट्रवादी विचार के उसी पौधशाला से 21 अक्टूबर 1951 में नई दिल्ली में भारतीय जनसंघ के रुप में एक राजनीतिक दल का जन्म हुआ, जिसने छह अप्रैल 1980 में भारतीय जनता पार्टी के रुप में एक नया अवतार लिया।

यह किसी संयोग से कम नहीं कि संघ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना लगभग एक ही समय पर हुई। जहां आरएसएस का जन्म सन् 1925 में विजयदशमी के दिन अर्थात् 27 सितंबर 1925 को हुआ, वहीं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना उसी वर्ष क्रिसमस के दिन अर्थात् 25 दिसंबर को हुई। इन दोनों के संस्थापक कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता थे। जहां डॉक्टर हेडगेवार विदर्भ कांग्रेस के पदाधिकारी थे, वहीं प्रमुख वामपंथी ई.एम.एस नंबूदरीपाद मालाबार (केरल) में कांग्रेस के नेता थे। नौ दशकीय कालांतर में जहां वामपंथी विचारधारा विश्व के अन्य भागों के साथ-साथ भारत में भी लगभग अप्रासंगिक हो चुकी है, वहीं संघ का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भारतीय विमर्श के केंद्र में बना हुआ है।

एक समय ऐसा भी था, जब लगता था कि भारत भी पूरी तरह वामपंथ की चपेट में आ जाएगा- जिसका सूत्रपात देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने समाजवादी आर्थिक नीति अपनाकर कर दिया था, जिसे पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने कार्यकाल में ना केवल आगे बढ़ाया, अपितु 1970 के दशक में शिक्षा सहित महत्वपूर्ण विभागों का दायित्व भी वामपंथियों को सौंप दिया। परिणास्वरूप, भारत- जिसका 18वीं शताब्दी की शुरूआत में वैश्विक अर्थव्यवस्था में 24.5% हिस्सेदारी थी, वह अंग्रेजों के भारत छोड़ने के पश्चात दो प्रतिशत से नीचे और स्वतंत्र भारत के प्रारंभिक चार दशकों में वर्ष 1991 में समाजवादी नीतियों के कारण 0.4 प्रतिशत पर पहुंच गई।

दुनिया से मार्क्सवादी समाजवाद का बुलबुला तब फटा, जब नवंबर 1989 बर्लिन की दीवार गिरने के बाद शोषण और यातनाओं की नंगी तस्वीर शेष विश्व ने देखा। यही नहीं, वामपंथ से जकड़े सोवियत संघ में दरिद्रता और मानवीय उत्पीड़न का भी विश्व प्रत्यक्षदर्शी बना। भारत पर भी संकट आया- दैनिक जरूरतों की वस्तुओं के लिए लोगों को लंबी-लंबी कतारों में लगना पड़ा और देश को देनदारी चुकाने के लिए अपना स्वर्ण भंडार विश्व के बैंकों में गिरवी रखना पड़ा। इन घटनाक्रमों से स्पष्ट है कि वामपंथियों की आर्थिक नीति ना ही प्रगति दे सकती है और ना ही उसमें मानवीय मूल्यों का कोई स्थान है।

वस्तुत: विदेशी विचारधारा से प्रेरित अनिश्वरवादी वामपंथी कभी भी देश से स्वयं को जोड़ नहीं पाएं। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में ब्रितानियों का साथ दिया। गांधीजी और सुभाष चंद्र बोस को गालियां दीं। मुस्लिम लीग के पाकिस्तान आंदोलन का समर्थन किया। आजादी के बाद भारत को स्वतंत्र को मानने से इनकार किया। 1962 के युद्ध चीन का समर्थन किया। भारत की एकता की बजाय उसे टुकड़ों में बांटे रखने की हरसंभव प्रयास किया और ऐसा आज भी अनेक रूपों में जारी है।

माओवादियों/नक्सलियों के प्रति वामपंथियों की सहानुभूति का बड़ा कारण भी दोनों का सामान वैचारिक दर्शनशास्त्र है- जिसकी प्रेरणा उन्हे माओ-त्से-तुंग से मिलती है। यही कारण है कि देश में नक्सलियों को चीन का अप्रत्यक्ष समर्थन प्राप्त है। गत दिनों गृहमंत्रालय की ओर से जारी रिपोर्ट के अनुसार, देश में नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या 126 से घटकर 90 हो गई है। क्या यह सब एकाएक हुआ है? इसके पीछे जहां विकास संबंधी परियोजनाओं और वर्तमान सरकार की नक्सल विरोधी नीति ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, वहीं देश में निरंतर सिकुड़ते वामपंथ से भी प्रशासन को नक्सलवादी क्षेत्र में स्थानीय लोगों को मुख्यधारा से जोड़ने में सहायता मिली है।

भारतीय राजनीति में आज वेंटिलेटर पर पहुंच चुके वामपंथी, कांग्रेस से कृत्रिम श्वास की आशा कर रहे हैं- तो वहीं स्वयं कांग्रेस राजनीतिक रण में क्षत्रपों की बैसाखी के सहारे दोबारा उठ खड़े होने का स्वप्न देख रही है। वास्तव में, कांग्रेस और वामपंथियों या फिर अन्य दलों के संभावित गठबंधन/तालमेल के पीछे कोई विचारधारा नहीं, बल्कि सभी का अपना अस्तित्व बचाना और संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति करना है।

क्या कांग्रेस-मार्क्सवादी गठबंधन- चुनाव परिणामों को महत्ती रूप में प्रभावित कर सकता है? जैसा कि उपरोक्त पंक्तियों में कहा गया है कि वामपंथियों का प्रभाव देश के केवल तीन प्रदेशों- केरल, प.बंगाल और त्रिपुरा तक सीमित है। इसका अर्थ है कि शेष राज्यों में कांग्रेस को इस गठबंधन से कुछ प्राप्त नहीं होगा। प.बंगाल-केरल मंा कांग्रेस और वामपंथी मुख्य प्रतिद्वंदी है। यदि वहां गठबंधन होता भी है, तो इन राज्यों में विपक्ष का स्थान भाजपा के लिए उपलब्ध होगा। अर्थात्- गठबंधन के होने या ना होने पर भाजपा ही लाभ की स्थिति में होगी। इन परिस्थितियों में गठबंधन का शोर तो होगा, किंतु परिणाम क्या होगा- उसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है।

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