नरेंद्र मोदी- अमित शाह की शतरंज बिसात के लोकसभा चुनाव में मोहरे होंगे। उत्तरप्रदेश, गुजरात और कर्नाटक तीनों राज्यों के विधानसभा चुनाव में मोदी-शाह ने विपक्ष की फूट, विरोधी नेताओं का टेंटुओं पकड़, साम-दाम-दंड-भेद से जैसे चुनाव लड़ा वह क्या 2019 में नहीं होगा? बसपा, एनसीपी ने गुजरात में भाजपा को जीतवाया तो यदि कर्नाटक में भाजपा जीतेगी तो जनता दल(एस), बसपा के वोट काटने से। लिख कर रखें कि बसपा आगे राजस्थान, मध्यप्रदेश, छतीसगढ में भी विधानसभा चुनाव लडेगी तो अजित जोगी अलग से छतीसगढ़ में भाजपा के मददगार होंगे।
यह पैटर्न लोकसभा चुनाव में बंगाल में भी होगा तो तेलंगाना और आंध्र और महाराष्ट्र में भी! इसलिए कि सोशल मीडिया, शहरी-मध्य वर्ग के मुखर हल्ले ने राहुल गांधी, मायावती, ममता बनर्जी, लेफ्ट सब में यह मूर्खतापूर्ण ख्याल बना दिया है कि 2019 में नरेंद्र मोदी हार जाएगें। चुनाव या तो सामान्य, पुराने ढर्रे वाला होगा या मोदी के खिलाफ आंधी वाला होगा। मोदी से मुसलमान, दलित, मध्यवर्ग, व्यापारी नाराज हो गए है और फारवर्ड, ब्राह्यण भी मोहभंग की दशा में है।
अपनी जगह ये सब तर्क है लेकिन ये तर्क रूटिन की चुनावी लड़ाई में सटीक बैठते है जबकि नरेंद्र मोदी, अमित शाह ने चुनाव को रूटिन का रहने ही नहीं दिया है। मैं धीरे-धीरे यह होता हुआ भी बूझ रहा हूं कि मई 2019 आते-आते विपक्ष के लिए रैलियां करने के पैसे का भी टोटा हो जाएगा। विपक्षी नेताओं, पार्टियों को घेरने और जमीन पर हिंदू बनाम मुस्लिम की राजनीति उभारने के लिए ऐसे-ऐसे माइक्रो प्रबंधन सोचे जा रहे है कि आप कल्पना नहीं कर सकते। हालांकि इसमें यह सनातनी सत्य अपनी जगह है कि अंहकार, पाप और अति का घड़ा अंततः फूटता भी है।
अब ऐसा सोचना और वक्त का मसला अपनी जगह। पर राजनीति पर हकीकत से ही विचारा जाना चाहिए। कर्नाटक से फिर जाहिर हकीकत है कि मोदी-शाह येन केन प्रकारेण विपक्ष को विभाजित रखेगें। येन केन प्रकारेण भारी हिंदू-मुसलमान होगा। येन- केन प्रकारेण भाजपा की खर्च ताकत लाख रुपए होगी तो विपक्ष की हजार रुपए की। येन केन प्रकारेण यह नैरेटिव बनेगा कि नरेंद्र मोदी की जगह क्या राहुल गांधी को चुनेगें या मायावती को या ममता बनर्जी को या शरद पवार को?
हां, अमित शाह ने शुक्रवार की शाम टाइम्स नाऊ में बेबाकी में, विश्वास-अंहकार से दो टूक शब्दों में बता दिया कि 2019 के चुनाव में अभी एक साल बाकि है और तब तक क्या होगा इसे आप समझ नहीं सकते। और क्या गलत है विकास के साथ भगवा की चिंता करने में। हमें इसके उपयोग में रत्ती भर संकोच नहीं। प्रधानमंत्री बीस नहीं 24 रैली करे तो हम तो ऐसे ही चुनाव लड़ते है।
सोचे, कांग्रेस के सब नेता कर्नाटक जा कर नहीं बैठे। सिद्वारमैया और राहुल गांधी अकेले घूम रहे है। भाजपा ने वहां रेड्डी भाईयों को भी लिया तो येदियुरप्पा को ईमानदारी का चेहरा भी बना दिया। राहुल गांधी ऐसा अजित जोगी के साथ नहीं कर सकते तो न राहुल, मायावती या अखिलेश यूपी में भगवा राजनीति के काउंटर में यह स्टेंड ले सकते है कि हम बनवाएगें अयोध्या में राम मंदिर। उलटे अभी यह नजारा देखने को मिला कि ममता बनर्जी ने पंचायत चुनाव में कांग्रेस, लेफ्ट उम्मीदवारों को खड़े होने नहीं दिया। अकेले पंचायत के चुनावों से ऐसी कटुता बनी है कि प्रदेश के नेताओं में लेफ्ट-कांग्रेस-भाजपा वालों में साझा है और ममता बनर्जी अकेले है। तब लोकसभा चुनाव में तृणमूल, कांग्रेस, लेफ्ट में कैसे एलायंस बन सकता है? इस तरह की स्थिति का चुनावी दोहन मोदी-शाह 2019 में बेखूबी करेगें यह यूपी, गुजरात में साबित हुआ तो आगे कर्नाटक, राजस्थान, मध्यप्रदेश में भी साबित हो सकता है।
यह पैटर्न लोकसभा चुनाव में बंगाल में भी होगा तो तेलंगाना और आंध्र और महाराष्ट्र में भी! इसलिए कि सोशल मीडिया, शहरी-मध्य वर्ग के मुखर हल्ले ने राहुल गांधी, मायावती, ममता बनर्जी, लेफ्ट सब में यह मूर्खतापूर्ण ख्याल बना दिया है कि 2019 में नरेंद्र मोदी हार जाएगें। चुनाव या तो सामान्य, पुराने ढर्रे वाला होगा या मोदी के खिलाफ आंधी वाला होगा। मोदी से मुसलमान, दलित, मध्यवर्ग, व्यापारी नाराज हो गए है और फारवर्ड, ब्राह्यण भी मोहभंग की दशा में है।
अपनी जगह ये सब तर्क है लेकिन ये तर्क रूटिन की चुनावी लड़ाई में सटीक बैठते है जबकि नरेंद्र मोदी, अमित शाह ने चुनाव को रूटिन का रहने ही नहीं दिया है। मैं धीरे-धीरे यह होता हुआ भी बूझ रहा हूं कि मई 2019 आते-आते विपक्ष के लिए रैलियां करने के पैसे का भी टोटा हो जाएगा। विपक्षी नेताओं, पार्टियों को घेरने और जमीन पर हिंदू बनाम मुस्लिम की राजनीति उभारने के लिए ऐसे-ऐसे माइक्रो प्रबंधन सोचे जा रहे है कि आप कल्पना नहीं कर सकते। हालांकि इसमें यह सनातनी सत्य अपनी जगह है कि अंहकार, पाप और अति का घड़ा अंततः फूटता भी है।
अब ऐसा सोचना और वक्त का मसला अपनी जगह। पर राजनीति पर हकीकत से ही विचारा जाना चाहिए। कर्नाटक से फिर जाहिर हकीकत है कि मोदी-शाह येन केन प्रकारेण विपक्ष को विभाजित रखेगें। येन केन प्रकारेण भारी हिंदू-मुसलमान होगा। येन- केन प्रकारेण भाजपा की खर्च ताकत लाख रुपए होगी तो विपक्ष की हजार रुपए की। येन केन प्रकारेण यह नैरेटिव बनेगा कि नरेंद्र मोदी की जगह क्या राहुल गांधी को चुनेगें या मायावती को या ममता बनर्जी को या शरद पवार को?
हां, अमित शाह ने शुक्रवार की शाम टाइम्स नाऊ में बेबाकी में, विश्वास-अंहकार से दो टूक शब्दों में बता दिया कि 2019 के चुनाव में अभी एक साल बाकि है और तब तक क्या होगा इसे आप समझ नहीं सकते। और क्या गलत है विकास के साथ भगवा की चिंता करने में। हमें इसके उपयोग में रत्ती भर संकोच नहीं। प्रधानमंत्री बीस नहीं 24 रैली करे तो हम तो ऐसे ही चुनाव लड़ते है।
सोचे, कांग्रेस के सब नेता कर्नाटक जा कर नहीं बैठे। सिद्वारमैया और राहुल गांधी अकेले घूम रहे है। भाजपा ने वहां रेड्डी भाईयों को भी लिया तो येदियुरप्पा को ईमानदारी का चेहरा भी बना दिया। राहुल गांधी ऐसा अजित जोगी के साथ नहीं कर सकते तो न राहुल, मायावती या अखिलेश यूपी में भगवा राजनीति के काउंटर में यह स्टेंड ले सकते है कि हम बनवाएगें अयोध्या में राम मंदिर। उलटे अभी यह नजारा देखने को मिला कि ममता बनर्जी ने पंचायत चुनाव में कांग्रेस, लेफ्ट उम्मीदवारों को खड़े होने नहीं दिया। अकेले पंचायत के चुनावों से ऐसी कटुता बनी है कि प्रदेश के नेताओं में लेफ्ट-कांग्रेस-भाजपा वालों में साझा है और ममता बनर्जी अकेले है। तब लोकसभा चुनाव में तृणमूल, कांग्रेस, लेफ्ट में कैसे एलायंस बन सकता है? इस तरह की स्थिति का चुनावी दोहन मोदी-शाह 2019 में बेखूबी करेगें यह यूपी, गुजरात में साबित हुआ तो आगे कर्नाटक, राजस्थान, मध्यप्रदेश में भी साबित हो सकता है।

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें