गुरुवार, 31 मई 2018

उपचुनाव से 2019 की तस्वीर

2019 की तस्वीर! पर  आज 182 सीटों वाले उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार और झारखंड के चार राज्यों ने बता दिया है कि नरेंद्र मोदी 2019 में वापिस प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे। वे तभी बन सकते हैं जब मायावती, अखिलेश यादव, राहुल गांधी व अजित सिंह आज जैसी आपसी समझ को खत्म करके मूर्खता करें और 2019 में अलग अलग चुनाव लड़ें। अन्यथा इन चार राज्यों में 2014 में भाजपा और उसकी सहयोगियों ने 182 में से 158 सीटे जीतने का जो चमत्कार दिखाया था उसकी चौथाई सीटें भी भाजपा को 2019 में नहीं मिलनी है। आज क्योंकि झूठ का जादू उतरा दिखा है और एक बार उतरता है तो काठ की हांडी हो जाता है इसलिए बात नरेंद्र मोदी के कोई नए अपूर्व, हिमालयी झूठ को बनाने या गढ़ने से भी नहीं बननी है।

यों दोनों की संभावना अपनी जगह है। मगर 31 मई 2018 को मोदी सरकार की मौत लिख गई है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह कितना ही महामृत्युंजय जाप कराएं इनका झूठ अब उस हिंदू घर में भी महा झूठ माना जाने लगा है, जो चार साल पहले अपनी बहू-बेटियों की चिंता में मुसलमान उम्मीदवार की बात सुन कर भड़क उठता था। उत्तर प्रदेश के कैराना ने आज प्रमाणित किया है कि झूठ सुन सुन कर लोगों के कान इतने पक गए हैं कि वे न केवल अपने साथ धोखा हुआ मानते हैं, बल्कि गांठ बांध रहे हैं कि नरेंद्र मोदी दरवाजे पर आ कर भाषण करें, अमित शाह घर आ कर गिड़गिड़ाएं, योगी कटोरा ले कर भीख मांगें तब भी लोग इन्हें वोट देने के लिए घर से बाहर नहीं निकलेंगें।

हां, कैराना के उपचुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह, योगी आदित्यनाथ सबने वह सब कोशिश की जो वोट के लिए हिंदू को पिघलाने के खातिर थी। लेकिन हिंदुओं में जोश बना ही नहीं। पहली बात मतदान ही कुल कम हुआ। दूसरी बात जाट हो जाटव हो या मध्यवर्गी शहरी हिंदू सबने बेगम तबुस्सम हुसैन के चुने जाने में हर्ज नहीं माना।

यही हिंदुओं के झूठ से कान पकने के प्रमाण का सबसे बड़ा संकेत है। मैंने कर्नाटक के चुनाव नतीजों से पहले लिखा था कि कर्नाटक से अधिक कैरान का उपचुनाव देश की राजनीति को बतलाने की अहमियत लिए हुए है। वह 2019 की धड़कन बताने वाला होगा। कैराना में अखिलेश, मायावती, राहुल गांधी ने बहुत बड़ा जुआ खेला, जो पहले तो अजित सिंह की पार्टी को सीट दी। दूसरे, मुस्लिम महिला बेगम तबुस्सम हुसैन को उम्मीदवार बनाया। ध्यान रहे, याद करें कैराना, मुजफ्फरपुर में ही तो 2012-13 में सांप्रदायिक हिंसा की वह आग बनी थी, जिस पर पूरे प्रदेश में हिंदू बनाम मुसलमान की राजनीति पकी और हिंदुओं के पलायन की खबरों के साथ अमित शाह ने वह चुनावी बिसात बिछाई, जिससे जाट, जाटव, गुर्जर, ब्राह्मण, बनिया, राजपूत सब बावले हो हर, हर मोदी करने लगे!

उस एपीसेंटर में राष्ट्रीय लोकदल की तरफ से मुस्लिम महिला उम्मीदवार को खड़ा कर विपक्ष ने बहुत बड़ी जोखिम ली। वह भी तब जब गोरखपुर और फूलपुर के लोकसभा उपचुनाव में हार से घायल हुए योगी आदित्यनाथ, अमित शाह इस चुनाव में सबकुछ झोंक देने वाले थे।

और दोनों ने एक उपचुनाव को जीतने के लिए कोई कसर नहीं रख छोड़ी। चुनाव प्रचार खत्म होने व मतदान से ठीक पहले प्रधानमंत्री ने कैराना सीट के बगल में जा कर एक हाईवे का उद्घाटन किया। उनकी सभा का लाइव शो हुआ। नरेंद्र मोदी ने मतदाताओं को आव्हान करते हुए वह सब कहा, जिससे हिंदुओं को लगे, वे सोचें कि मोदी अकेला अच्छी नीयत वाला। बाकी सब चोर, लुटेरे पापी! फिर मतदान की घड़ी आई तो बूथ में वीवीपैट मशीन की खराबी, टीवी चैनलों पर लाइन में खड़े मुसलमानों की भीड़ की हिंदुओं में प्रतिक्रिया पैदा करने के माइक्रो प्रबंधन हुए। करिश्मे का, भगवा रंग का, प्रशासन का, पैसे का, चुनाव के माइक्रो प्रबंधन के तमाम काम इस संकल्प से हुए कि कुछ भी हो जाए कैराना में चुनाव जीतना ही है!

और हुआ क्या? पिछले चुनाव में कुल वोटों का 50.5 प्रतिशत वोट, 5.65 लाख वोट लेने वाली भाजपा आज 3.52 लाख वोट पर सिमटी, जहां ढाई लाख वोट कम वहीं पचास हजार वोटों के अंतर से हार। 

यह झूठ के घड़े का फूटना नहीं तो क्या?

माना झूठ बोलना बड़ा पाप नहीं है बावजूद इसके झूठ सुनने की भी सीमा होती है। हर समय, चौबीसों घंटे केवल झूठ और झूठ के प्रचार और हिंदू-मुस्लिम के हल्ले में कभी न कभी तो इंसान इस फैसले पर होगा ही कि बहुत हुआ अब लौटा जाए रोजमर्रा के जीवन और अनुभव में!

इस उपचुनाव का अर्थ यह भी है कि योगी आदित्यनाथ के घर याकि पूर्वी यूपी के केंद्र गोरखपुर, मध्य यूपी के फूलपुर और पश्चिमी यूपी के कैराना में भाजपा का हारना लोकसभा की सभी 80 सीटों में भाजपा के तोते उड़ना है। विपक्ष ने जैसे कैराना, गोरखपुर, फूलपुर लड़ा वैसे यदि 2019 में यूपी की लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा तो नरेंद्र मोदी को वाराणसी की अपनी सीट के लिए भी मोहल्ले-मोहल्ले घूमना होगा।

 54 लोकसभा सीट वाले बिहार, झारखंड में जो हुआ और 48 सीटों वाले महाराष्ट्र में जो हुआ वह भाजपा के लिए बहुत खतरनाक है। पालघर को लेकर भाजपा आज भले यह सोच बम-बम हो कि उद्धव ठाकरे को धूल चटा दी लेकिन अपना मानना है महाराष्ट्र में आज 2019 के चुनाव के संदर्भ में भाजपा की कब्र खुद गई है। हिसाब से पालघर का उपचुनाव भाजपा को लड़ना ही नहीं था। शिवसेना के लिए यह सीट छोड़ देनी थी। शिवसेना के नेता उद्धव ठाकरे ने इस सीट को जब प्रतिष्ठा का विषय बनाया हुआ था तो भाजपा को चुपचाप पीछे हट लेना था। लेकिन भाजपा ने जिद्द से चुनाव जीता। नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने अहंकार में पालघर में जीत करके उद्धव ठाकरे को वैसी ही औकात दिखाने का रवैया अपनाया जैसे 2104 के बाद विधानसभा चुनाव के वक्त शिवसेना को धोखा दे कर अलग लड़ने के लिए मजबूर किया गया था। ध्यान रहे पालघर में शिवसेना पहले कभी नहीं लड़ी है। उद्धव ठाकरे ने भाजपा से खुन्नस के चलते इस चुनाव में प्रतिष्ठा लगाई। मोदी-शाह-फड़नवीस ने परवाह नहीं की। नतीजतन चुनाव के दौरान ऐसा टकराव हुआ कि शिवसेना ने वोट के भाजपाई माइक्रो प्रबंधन को ले चुनाव आयोग को मोदी सरकार की रखैल तक कह दिया।

और आज उद्धव ठाकरे इस कदर घायल शेर की तरह होंगे कि 2019 के लोकसभा चुनाव की उनकी स्क्रिप्ट लिख गई होगी। मोदी-शाह ने अपने अहंकार में जैसे उत्तर प्रदेश में विपक्ष को एकजुट बनाया वैसे महाराष्ट्र में 2019 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस, एनसीपी, शिवसेना, मनसे की प्रत्यक्ष-परोक्ष सहमति से लड़ा जाना है। गौर करें भाजपा को पालघर में मिले आज के वोटों पर। सिर्फ 2.72 लाख करीब वोट। जबकि शिवसेना के 2.43 लाख और एक दलित पार्टी बीवीआर को मिले 2.22 लाख वोट व सीपीएम के 71 हजार और कांग्रेस को 43 हजार। मतलब विपक्ष के ये करीब पौने छह लाख वोट भाजपा के दो लाख 72 हजार वोटों पर 2019 में कितने भारी पड़ने वाले हैं यह आज लिख गया है। तय मानें कि अब उद्धव ठाकरे के यहां नरेंद्र मोदी, अमित शाह जा कर उनकी मिन्नत करें तब भी घायल शेर अपनी सवारी के लिए अपने को पेश नहीं करेगा।

और बिहार, झारखंड का कमाल यह है कि नीतीश कुमार, भाजपा, लोजपा सब नेताओं ने पूरा दम लगाया जनता दल यू की 2005 से लगातार जीती जा रही सीट को जीतने के लिए लेकिन लालू की पार्टी राजद आश्चर्यजनक रूप से वहां जीती। वोट के लिए हिंदू-मुस्लिम कराने की न केवल कोशिश हुई, बल्कि अपनी जानकारी अनुसार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने निजी तौर पर माइक्रो प्रंबधन के तमाम तरीके अपनाए लेकिन जनता दल यू और भाजपा का गठजोड़ बुरी तरह हारा। आज सचमुच नीतीश कुमार को समझ नहीं आ रहा होगा कि हवा का रूख इतना कैसे बदला हुआ? नीतीश कुमार का अब मोदी सरकार से मोहभंग जैसे जो बनेगा उसकी कल्पना ही की जा सकती है। बिहार की 40 लोकसभा सीट में अब भाजपा के लिए नीतीश की पुण्यता खत्म है तो नीतीश भी सोचेंगें कि नरेंद्र मोदी से उनको चुनाव लड़ने की कितनी तो सीटें मिलेंगी और उनका बनेगा क्या?

झारखंड की दो सीटों में दोनों पर ही जेएमएम का जीतना और जीत के साथ कांग्रेस, बाबूलाल मरांडी पार्टी का सहयोग विपक्षी एलायंस का संकेत लिए हुए है तो एक सीट पर भाजपा का नंबर तीन पर चले जाना बहुत हैरानी वाली बात है। गोमिया की इस सीट पर जेएमएम से आजसू लड़ती हुई नंबर दो पर थी और भाजपा नंबर तीन पर। यह छोटा मगर आदिवासी-पिछड़े वोटों की पट्टी के नाते यह बहुत गंभीर बात है। सवाल है कि गरीब, आदिवासी पट्टी में भी यदि प्रचार का, झूठ का जादू उतरा हुआ ऐसा दिखा है तो फिर बचता क्या है?

इस सबके बावजूद नोट करके रखे कि इन सब बातों का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह के लिए कोई मतलब नहीं है। ये आज से इस नई धुन में आएंगे कि ऐसा क्या नया जादू रचें, जिससे जनता माने कि भला नरेंद्र मोदी का कोई मुकाबला है? उनके आगे है कौन?  और इस बात पर ये 2019 में आज के ही कैराना में 51 प्रतिशत वोट लिवा लाने का ख्याल बनाए हुए होंगे।

सोशल मीडिया से ख़तरा

सोशल मीडिया पर फैलाई जाने वाली अफवाहें अब भारत में बेहद घातक साबित हो रही हैं। दक्षिण भारत में एक महीने के भीतर छह लोगों की भीड़ ने इन्हीं अफवाहों के आधार पर मौत हत्या कर दी। तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में सोशल मीडिया पर लगातार बच्चों को अगवा करने वाले एक गैंग को लेकर अफवाहें चल रही हैं। हैदराबाद में लोगों ने एक ट्रांसजेंडर महिला को इसी गैंग का सदस्य समझ कर लोगों ने मार डाला। इस घटना में तीन लोग घायल भी हुए। लेकिन पुलिस का कहना है कि इस तरह कि कोई गैंग है ही नहीं। जबकि इस कथित गैंग की अफवाहों के कारण होने वाली ये छठी हत्या थी। इसके पहले हैदराबाद से लगभग 160 किलोमीटर दूर निजामाबाद जिले में 42 साल के एक व्यक्ति को भीड़ ने पीट-पीट कर मार दिया। इस व्यक्ति पर भी भीड़ ने बच्चों को अगवा करने का आरोप लगाया। इसके अलावा आंध्र प्रदेश में 20 मई को सैकड़ों लोगों की भीड़ ने एक मजदूर को पीट-पीट कर मार डाला और उसके सात साथियों को घायल कर दिया। उन पर भी बच्चों की तस्करी करने के आरोप मढ़े गए। आंध्र प्रदेश में ही एक भिखारी को भी इसी तरह मार दिया गया। अब हैदराबाद में पुलिस स्थानीय लोगों के साथ मिल कर लाउडस्पीकर के जरिए सड़कों पर जनता से अफ़वाहों पर ध्यान ना देने और कानून को अपने हाथ में न लेने की अपील कर रही है।

तमिलनाडु में भी ऐसी अफवाहें फैलाई जा रही हैं और लोगों को निशाना बनाया जा रहा है। इन सभी राज्यों में अधिकारियों को लोगों को ऐसा ना करने की कड़ी चेतावनी दी है। पुलिस का कहना है कि मारे गए ज्यादातर लोग उस इलाके से नहीं थे, जहां उन्हें मारा गया। फिलहाल वीडियो सर्कुलेट करने के आरोप में पुलिस ने एक दर्जन लोगों को गिरफ्तार किया है। इन वीडियो में कुछ लोगों को घर के सामने से बच्चा उठाते हुए और एक शिशु के अंगों को छिन्न भिन्न करते दिखाया गया है। सोशल मीडिया पर डेटा की प्राइवेसी को लेकर चिंता पहले से जारी है। गौरतलब है कि जब से फेसबुक डाटा लीक विवाद में फंसा है, तब से बहुत सी सरकारों की उस पर तिरछी नजर है। फेसबुक के करोड़ों यूजर्स का डेटा एक ब्रिटिश कंपनी कैम्बिज एनालिटिका तक पहुंचा था। इस मुद्दे को लेकर फेसबुक के संस्थापक मार्क जकरबर्ग की अमेरिकी और यूरोपीय संसदों में पेशी भी हो चुकी है। 

उपचुनावों में भाजपा की लगातार हार

एक तरफ जहां भारतीय जनता पार्टी एक के बाद एक राज्य में चुनाव जीतती जा रही है वहीं दूसरी ओर उपचुनावों में उसकी हार का सिलसिला भी बढ़ता जा रहा है। 2014 में लोकसभा का चुनाव जीत कर पूर्ण बहुमत हासिल करने के बाद से भाजपा लगातार लोकसभा के उपचुनावों में हार रही है। वह अपनी जीती हुई सीटें हार रही है और वैसी सीटों पर भी हार रही है, जो बरसों से उसका गढ़ रही हैं। तभी विपक्षी पार्टियां इससे यह निष्कर्ष निकाल रही हैं कि नरेंद्र मोदी का जादू कम हो रहा है।


पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कैराना लोकसभा सीट को मिसाल के तौर पर पेश किया जा रहा है। यह सीट भाजपा के लिए प्रतिष्ठा की थी क्योंकि उसके दिग्गज नेता हुकूम सिंह ने 2014 में इसे जीता था। उनको 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे। ध्यान रहे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह लगातार कह रहे हैं कि उनका लक्ष्य अगले चुनाव में 50 फीसदी वोट हासिल करने का है। कैराना सीट पर हुकूम सिंह ने 50 फीसदी वोट हासिल किए थे। पर उनके निधन से खाली हुई इस सीट पर उनकी बेटी मृगांका सिंह को सपा, बसपा और कांग्रेस समर्थित रालोद उम्मीदवार तबस्सुम हसन ने हरा दिया।

वह भी तब जबकि इस सीट को जीतने के लिए भाजपा ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जबरदस्त प्रचार किया था और गन्ना की बजाय जिन्ना का मुद्दा उठाया था ताकि ध्रुवीकरण कराया जा सके। वोटिंग से एक दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक रोड शो किया और कैराना के ठीक बगल के बागपत में एक बड़ी रैली करके करीब एक घंटे का भाषण दिया। फिर भी पार्टी चुनाव हार गई। ऊपर से वोटिंग के दिन जाने अनजाने मुस्लिम व दलित बहुल इलाकों में डेढ़ सौ ईवीएम खराब हो गए थे।

भाजपा महाराष्ट्र में अपनी जीती एक और सीट हार गई। भंडारा गोंदिया सीट पर एनसीपी ने भाजपा उम्मीदवार को हराया। पालघर में जरूर भाजपा की इज्जत बच गई। बहरहाल, पिछले चार साल में भाजपा करीब दस लोकसभा सीटों पर उपचुनाव हारी है। उसने उत्तर प्रदेश में अपनी जीती तीन सीटें – गोरखपुर, फूलपुर और कैराना गंवा दी। राजस्थान की अजमेर और अलवर सीट पर वह जीती थी पर उपचुनाव में हार गई। महाराष्ट्र की भंडारा गोंदिया सीट उसके हाथ से निकल गई। मध्य प्रदेश में भाजपा ने अपनी जीती झाबुआ रतलाम सीट गंवा दी और पंजाब में गुरदासपुर में विनोद खन्ना की जीती हुई सीट उसके हाथ से निकल गई। उसकी सहयोगी पीडीपी भी अपनी जीती श्रीनगर सीट हार गई। दूसरी ओर विपक्षी पार्टियों ने बिहार और पश्चिम बंगाल में अपनी जीती सीटें उपचुनाव में भी बचा लीं। 

विपक्षी एकजुटता के कारण फतह

चार लोकसभा और 11 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे भाजपा के लिए सुखद नहीं रहे. विपक्ष ने 11 सीटें जीती, भाजपा और उसके सहयोगी तीन सीटों तक ही सीमित.



 केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा को गुरुवार को एक क़रारा झटका देते हुए विपक्षी पार्टियों ने लोकसभा और विधानसभा की 14 सीटों के उपचुनावों में 11 सीटों पर जीत दर्ज की जबकि भगवा पार्टी तथा उसके सहयोगियों को केवल तीन सीटों तक ही सीमित कर दिया.

विपक्षी एकजुटता के कारण भाजपा ने उत्तर प्रदेश की चर्चित कैराना लोकसभा सीट को भी गंवा दिया.

अगले वर्ष होने वाले आम चुनाव के मद्देनज़र हर एक उपचुनाव को प्रतिष्ठा की नज़र से देखा जा रहा है. विपक्षी नेताओं ने दावा किया कि गुरुवार के परिणामों से पता चलता है कि 11 राज्यों में केंद्र की मोदी सरकार की लोकप्रियता में गिरावट आई है तो वहीं भाजपा ने कहा कि पीएम- ‘पी’ परफॉरमेंस (कामकाज) और ‘एम’ मेहनत (कड़ी मेहनत) अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव का निर्णय करेंगे.

राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी के कैराना लोकसभा सीट गंवाने के साथ ही विपक्षी नेताओं को गैर भाजपा एकता को मजबूत करने के लिए एक बड़ा प्रोत्साहन देखने को मिला है.

लोकसभा की चार सीटों में से हालांकि दो सीटें भाजपा नीत गठबंधन ने जीतीं और दो सीटें विपक्षी पार्टियों की झोली में गई. सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के लिए सबसे बड़ा झटका 10  विधानसभा सीटों के उपचुनाव के परिणाम है, जहां वह केवल एक ही सीट (उत्तराखंड) में जीत सकी. कांग्रेस ने तीन सीटें (मेघालय, कर्नाटक और पंजाब) जीती जबकि छह सीटों पर अन्य पार्टियों ने जीत दर्ज की जिनमें से झामुमो ने झारखंड में दो सीटें, माकपा, सपा, राजद और तृणमूल ने एक-एक सीट क्रमश: केरल, उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में जीतीं.

विधानसभा उपचुनाव परिणामों की बात करें तो. उत्तर प्रदेश की नूरपुर विधानसभा सीट समाजवादी पार्टी (सपा), महाराष्ट्र की पलूस कडेगांव सीट कांग्रेस, बिहार की जोकिहाट सीट आरजेडी, केरल की चेंगन्नूर माकपा, पंजाब की शाहकोट कांग्रेस, झारखंड की सिल्ली और गोमिया झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो), कर्नाटक की राज राजेश्वरी नगर सीट कांग्रेस, पश्चिम बंगाल की महेशतला (तृणमूल कांग्रेस), मेघालय की अंपति कांग्रेस, उत्तराखंड की थराली सीट भाजपा की झोली में गई है.

उत्तर प्रदेश की कैराना लोकसभा सीट रालोद ने जीती, नूरपुर में सपा की फतह
लखनऊ: गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनावों के बाद उत्तर प्रदेश की कैराना लोकसभा सीट और नूरपुर विधानसभा सीट के उपचुनाव में भी विपक्षी एकजुटता के आगे सत्तारूढ़ भाजपा को एक बार फिर शिकस्त का सामना करना पड़ा और दोनों ही सीटों पर सपा-रालोद गठबंधन के प्रत्याशियों ने गुरुवार को जीत हासिल कर ली.

निर्वाचन आयोग के आधिकारिक सूत्रों के मुताबिक कैराना लोकसभा उपचुनाव में रालोद उम्मीदवार तबस्सुम हसन ने अपनी निकटतम प्रतिद्वंद्वी भाजपा प्रत्याशी मृगांका सिंह को 44,618 मतों से हराया. तबस्सुम को 4,81,182 और मृगांका को 4,36,564 वोट मिले.

दूसरी ओर, नूरपुर विधानसभा सीट पर सपा प्रत्याशी नईमुल हसन ने अपनी निकटतम प्रतिद्वंद्वी भाजपा की अवनी सिंह को 5662 मतों से शिकस्त दी.

निर्वाचन अधिकारी ध्रुव त्रिपाठी द्वारा घोषित चुनाव नतीजे के अनुसार, हसन को 94,875 जबकि अवनी को 89,213 वोट मिले.

कैराना लोकसभा उपचुनाव में जीत के साथ 16वीं लोकसभा में रालोद ने अपना खाता खोल लिया है. वहीं, नूरपुर सीट में जीत के साथ राज्य विधानसभा में सपा सदस्यों की संख्या बढ़कर 48 हो गई है.

मालूम हो कि कैराना सीट पर सपा ने रालोद उम्मीदवार को समर्थन दिया है. वहीं, नूरपुर में रालोद ने सपा का सहयोग किया है. इन दोनों ही सीटों के उपचुनाव के लिए गत 28 मई को वोट पड़े थे.



मतदान के दौरान इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) में गड़बड़ी की शिकायतें आई थीं. कैराना सीट पर कल 73 मतदान केंद्रों पर पुनर्मतदान हुआ था.

कैराना उपचुनाव जीतीं तबस्सुम ने इसे जनता की विजय क़रार देते हुए इसके लिए रालोद, सपा, बसपा, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के नेताओं तथा कार्यकर्ताओं का शुक्रिया अदा किया.

सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कैराना लोकसभा और नूरपुर विधानसभा सीटों के उपचुनाव में सपा-रालोद गठबंधन के प्रत्याशियों की कामयाबी के लिए जनता तथा सभी सहयोगी दलों को धन्यवाद देते हुए कहा कि अवाम ने देश को बांटने वाली राजनीति करने वालों को करारा जवाब दिया है.

अखिलेश ने उपचुनाव परिणामों में सपा और रालोद के गठबंधन के प्रत्याशियों को निर्णायक बढ़त मिलने के बाद संवाददाताओं से बातचीत में कहा कि उपचुनाव में भाजपा ने कोशिश की कि ज़मीनी सवालों पर मतदान ना हो. मगर जनता ने गन्ना, गरीबी और रोज़गार के सवाल पर भाजपा को जवाब दिया है.

अपनी प्रत्याशी को मिली जीत के बाद रालोद उपाध्यक्ष जयंत चौधरी ने संवाददाताओं से बातचीत में भाजपा पर हमला करते हुए कहा कि जो लोग सांप्रदायिकता फैलाकर जीतना चाह रहे थे, उनके एजेंडा को जनता ने नकार दिया है. इस उपचुनाव में हर व्यक्ति ने कहा कि ‘जिन्ना नहीं, गन्ना चलेगा.’

उन्होंने कहा कि केंद्र में कहने को तो सरकार है लेकिन इस वक़्त देश को एक-दो लोग ही चला रहे हैं. हर बात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ही नाम लिया जाता है. अगर उपलब्धियां एक व्यक्ति की हैं तो नाकामी पर लोग पूछेंगे कि वह लहर कहां चली गई. चार साल की सरकार में आपने जनता को छला है. हम अगले चुनाव में भी इन्हीं बातों को लेकर चलेंगे और भाजपा से सवाल पूछेंगे.

जयंत ने कहा कि लोकसभा चुनाव से पहले संभावित महागठबंधन में रालोद की बड़ी भूमिका रहेगी.

चुनाव में पराजय के बाद भाजपा उम्मीदवार मृगांका ने कहा कि वह परिणाम से निराश ज़रूर हैं, मगर हताश नहीं. हम कहीं ना कहीं केंद्र और उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकारों की उपलब्धियों को आम लोगों को समझा नहीं पाए.

उन्होंने माना कि उपचुनाव में विपक्षी दलों के गठबंधन की ताकत दिखाई दी. भाजपा को उससे निपटने के लिए ख़ुद को और तैयार करना होगा.

इस बीच, प्रदेश के उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा ने कहा कि कैराना में विपक्ष पिछले डेढ़-दो वर्षों से जातीय उन्माद फैलाने और विषवमन का काम कर रहा था. भाजपा ऐसी राजनीति नहीं करती.

उन्होंने कहा कि चूंकि विपक्ष राजनीतिक बेरोज़गारी की स्थिति में है, लिहाज़ा वह जीत के लिये हर हथकंडा अपना रहा है. हम एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत चुनाव लड़ रहे थे, आगे भी लड़ेंगे और जीतकर आएंगे.

कैराना लोकसभा सीट का उपचुनाव भाजपा सांसद हुकुम सिंह के फरवरी में निधन के कारण कराया गया है. वहीं, नूरपुर में भाजपा विधायक लोकेंद्र सिंह चौहान की सड़क दुर्घटना में मृत्यु के कारण उपचुनाव हुआ है.

जोकीहाट विधानसभा सीट से राजद के शाहनवाज़ आलम जीते
पटना: राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने गुरुवार को बिहार में सत्तारूढ़ जनता दल यूनाइटेड (जदयू) से जोकीहाट विधानसभा सीट 41,000 वोटों के अंतर से छीन ली.

उप मुख्य निर्वाचन अधिकारी बैजू नाथ कुमार ने बताया कि इस सीट पर राजद के शाहनवाज़ आलम ने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी जदयू के मुर्शीद आलम को हराया.

इस जीत से उत्साहित वरिष्ठ राजद नेता तेजस्वी यादव ने गुरुवार को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर निशाना साधा और कहा कि बिहार के मुख्यमंत्री को नैतिकता के आधार पर इस पद से इस्तीफा दे देना चाहिए.



मुस्लिम बहुल अररिया ज़िले की जोकीहाट विधानसभा सीट 2015 के चुनाव में जदयू ने जीती थी. इस उपचुनाव की राजद उम्मीदवार के बड़े भाई विधायक सरफ़राज़ आलम के इस्तीफे की वजह से ज़रूरत पैदा हुई.

सरफ़राज़ आलम राजद के टिकट पर अररिया लोकसभा उपचुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे. उनके पिता तस्लीमुद्दीन के निधन के कारण अररिया लोकसभा उपचुनाव कराया गया था. तस्लीमुद्दीन ने पांच बार जोकीहाट विधानसभा का प्रतिनिधित्व किया था.

इस उपचुनाव में हार नीतीश कुमार के जदयू के लिए एक झटका है जिसने आज की हार से पहले जोकीहाट में लगातार तीन बार जीत दर्ज की थी.

राजस्थान के एक कार्यक्रम से पटना लौटे कुमार ने अब तक इस उपचुनाव परिणाम पर कोई बयान नहीं दिया है. लेकिन जदयू महासचिव केसी त्यागी ने कहा कि जोकीहाट की हार तेल के दामों में हाल की वृद्धि पर देशभर में लोगों की प्रतिक्रिया का परिणाम है.

जदयू उम्मीदवार आलम ने कहा कि यह भी हो सकता है कि भाजपा के साथ हाल ही में हाथ मिलाना पार्टी के पारंपरिक मतदाताओं को गंवारा न हुआ हो.

तेजस्वी ने कटाक्ष किया कि नीतीश ऐसे कप्तान बनकर रह जाएंगे जिसे प्लेइंग इलेवेन में भी जगह नहीं मिल पाई हो.

तेजस्वी ने कहा कि लगातार दो उपचुनाव हारने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को नैतिकता के आधार पर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे देना चाहिए.

उन्होंने नीतीश कुमार पर अवसरवादी राजनीति करने और 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन को मिले जनादेश के साथ विश्वासघात कर भाजपा के साथ प्रदेश में नई सरकार बना लेने का आरोप लगाया.

महाराष्ट्र: पालघर लोकसभा सीट पर भाजपा, भंडारा-गोंडिया से राकांपा की जीत, पलूस कडेगांव विधानसभा सीट कांग्रेस के नाम
मुंबई: भाजपा के राजेंद्र गावित  महाराष्ट्र में शिवसेना के श्रीनिवास वनगा को 29,574 वोटों से हराकर पालघर लोकसभा उपचुनाव जीत गए.

एक राज्य चुनाव अधिकारी के अनुसार मतों की 33 दौर की गिनती के बाद चुनाव परिणाम घोषित किया गया.

गावित को 2,72,780 वोट मिले जबकि वनगा को 2,43,206 मत प्राप्त हुए.

इस सीट पर बहुजन विकास आघाडी के बलीराम जाधव 2,22,837 मतों के साथ तीसरे स्थान पर रहे जबकि माकपा उम्मीदवार किरण गहला को 71,887 वोट मिले. कांग्रेस प्रत्याशी दामोदर शिंगडा 46079 वोट के साथ पांचवें स्थान पर रहे.

भाजपा सांसद चिंतामण वनगा के निधन के बाद इस सीट पर उपचुनाव कराया गया था. उपचुनाव में सहयोगी दलों भाजपा और शिवसेना के बीच काफी टकराव नज़र आया.

शिवसेना ने वनगा के बेटे श्रीनिवास वनगा को टिकट दिया था जबकि भाजपा ने पूर्व कांग्रेस मंत्री गावित को चुनाव मैदान में उतारा था. भाजपा ने इस उपचुनाव को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था.

भंडारा-गोंदिया लोकसभा सीट पर राकांपा को जीत मिली है. राकांपा उम्मीदवार मधुकर कुकड़े ने भाजपा के हेमंत पटले को हराया. यह सीट भाजपा सांसद के नाना पटोले के इस्तीफा देकर कांग्रेस में शामिल हो जाने की वजह से खाली हुई थी.

महाराष्ट्र के भंडारा-गोंदिया लोकसभा उपचुनाव में राकांपा के मधुकर कुकाडे ने भाजपा के हेमंत पाटिल को 48,097 मतों से हरा दिया.

वहीं, पलसू कडेगांव सीट पर कांग्रेस के उम्मीदवार विश्वजीत पतंगराव कदम निर्विरोध निर्वाचित हुए हैं.

झारखंड में गोमिया एवं सिल्ली विधानसभा सीटों पर झामुमो जीती
रांची: उपचुनाव का परिणाम राज्य में मुख्य विपक्षी दल झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के पक्ष में आया है. हालांकि, पहले भी दोनो सीटें झामुमो के पास थीं.

मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी एल ख्यांगते ने बताया कि अभी मतों का पूर्ण विवरण आने में समय लगेगा लेकिन दोनों सीटों पर मतगणना का काम पूरा हो गया है और झामुमो प्रत्याशियों ने जीत दर्ज की है.



गोमिया में झामुमो की बबिता देवी ने अखिल झारखंड छात्रसंघ (आजसू) के लंबोदर महतो को पराजित किया और भाजपा के माधवलाल सिंह तीसरे स्थान पर पिछड़ गए.

सिल्ली में झामुमो की उम्मीदवार सीमा महतो ने आजसू के अध्यक्ष सुदेश महतो को पराजित कर यह सीट झामुमो के पास बरकरार रखी. गौरतलब है कि झामुमो के दो विधायकों को अलग-अलग आपराधिक मामलों में दोषी करार दिए जाने और दो वर्ष की जेल की सजा सुनाए जाने के कारण दोनों सीटें खाली हुई थीं.

मेघालय में कांग्रेस ने जीती अंपाति विधानसभा सीट, विधानसभा में बनी सबसे बड़ी पार्टी
शिलॉन्ग: कांग्रेस प्रत्याशी मिआनी डी शिरा ने मेघालय की अंपाति विधानसभा सीट जीत ली है. इसके साथ ही विपक्षी कांग्रेस मेघालय विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बन गई है. इस सीट पर मिआनी के पिता मुकुल संगमा के इस्तीफे के बाद उपचुनाव कराया गया था.

मुख्य चुनाव अधिकारी एफआर खरकोंगोर ने बताया कि कांग्रेस प्रत्याशी ने 3191 मतों से चुनाव जीत लिया है. मिआनी के खाते में जहां 14,259 मत आए, वहीं एनपीपी प्रत्याशी क्लेमेंट जी मोमिन को कुल 11,069 वोट मिले.’


उन्होंने बताया कि तीसरे स्थान पर एक निर्दलीय प्रत्याशी सुभांकर कोच रहे जिन्हें 360 वोट मिले.

शिरा के पिता और पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा ने इस साल की शुरुआत में यह सीट खाली की थी जिसके बाद यहां उपचुनाव कराया गया. पिछले विधानसभा चुनाव में मुकुल संगमा ने दो सीटों पर जीत दर्ज की थी. बाद में उन्होंने यह अंपाति खाली कर दी थी.

गुरुवार को घोषित परिणाम के साथ ही 60 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस के 21 विधायक हो गए हैं जो एनपीपी से एक ज्यादा है. राज्य में एनपीपी क्षेत्रीय दलों और भाजपा के सहयोग से गठबंधन सरकार की अगुवाई कर रही है.

एनडीपीपी ने नगालैंड लोकसभा सीट के उपचुनाव में जीत हासिल की
कोहिमा: भाजपा की सहयोगी नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) ने नगालैंड लोकसभा सीट के उपचुनाव में गुरुवार को जीत दर्ज की. एनडीपीपी के उम्मीदवार ने एनपीएफ उम्मीदवार को 1.73 लाख से अधिक वोटों से शिकस्त दी.

मुख्य चुनाव अधिकारी अभिजीत सिन्हा ने बताया कि एनडीपीपी उम्मीदवार तोखेहो येपथोमी ने एनपीएफ उम्मीदवार सी. अपोक जमीर को उपचुनाव में 1,73,746 मतों से पराजित किया.

येपथोपी को 5,94,205 मत मिले जबकि एनपीएफ उम्मीदवार जमीर को 4,20,459 वोट प्राप्त हुए.

इस सीट पर 28 मई को मतदान हुआ था. सत्तारूढ़ पीपुल्स डेमोक्रेटिक अलायंस (पीडीए) के उम्मीदवार येपथोमी ने पिहेक और पेरेन जिलों को छोड़कर नौ जिलों में जीत दर्ज की.

नेफियू रियो के मुख्यमंत्री बनने के बाद इस सीट पर उपचुनाव कराया जाना आवश्यक हो गया था। रियो ने फरवरी में लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था.

इस वर्ष फरवरी में नगालैंड में चुनाव के बाद एनडीपीपी ने रियो के नेतृत्व में गठबंधन सरकार बनाने के लिए भाजपा से हाथ मिला लिया था.

पंजाब की शाहकोट सीट पर कांग्रेस की फतह
चंडीगढ़: सत्तारूढ़ कांग्रेस के हरदेव सिंह लाडी ने अपने करीबी प्रतिद्वंद्वी शिरोमणी अकाली दल (शिअद) के उम्मीदवार नायब सिंह कोहाड़ को 38,801 मतों के अंतर से हराया.

लाडी को उपचुनाव में 82,745 वोट हासिल हुए, वहीं कोहाड़ को महज 43,944 वोट मिले. आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार रत्तन सिंह कक्कड़ कलां को महज 1,900 वोट मिले.

इस सीट को शिअद का गढ़ माना जाता था जहां से नायब सिंह के पिता अजित सिंह कोहाड़ ने पांच बार जीत दर्ज की थी.

इस जीत के साथ 117 सदस्यीय पंजाब विधानसभा में कांग्रेस विधायकों की संख्या 78 हो गई है जो सदन में दो-तिहाई संख्याबल है.

मतगणना के समय से ही लाडी बढ़त बनाए हुए थे. इसे 14 महीने पुरानी अमरिंदर सिंह सरकार की लोकप्रियता के पैमाने के तौर पर देखा जा रहा था.

केरल में माकपा की अगुवाई वाले एलडीएफ ने बरकरार रखी चेंगन्नूर सीट
चेंगन्नुर: केरल में सत्तारूढ़ माकपा के नेतृत्व वाले लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) के उम्मीदवार साजी चेरियन ने चेंगन्नूर विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस के अपने करीबी प्रतिद्वंद्वी को 20,956 मतों के भारी अंतर से मात दी.

मुख्य निर्वाचन कार्यालय के अनुसार, चेरियन को 67,303 मत मिले जबकि कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ उम्मीदवार डी विजय कुमार ने 46,347 मत हासिल किए. वहीं, भाजपा उम्मीदवार एस श्रीधरन पिल्लै 35,270 मत प्राप्त करके तीसरे स्थान पर रहे.

जनवरी में माकपा विधायक केके रामचंद्रन नायर के निधन के बाद यहां उपचुनाव हुआ था. साजी चेरियन ने शुरुआत से ही बढ़त बनाए रखी. इस सीट पर एलडीएफ, यूडीएफ और एनडीए तीन मोर्चों के बीच मुख्य मुकाबला था.

बेंगलुरु की राजराजेश्वरी नगर विधानसभा सीट पर कांग्रेस की जीत
बेंगलुरु: कांग्रेस ने बेंगलुरु शहर में राजराजेश्वरी नगर विधानसभा सीट पर 25,400 से ज्यादा वोटों से जीत दर्ज की. एचडी कुमारस्वामी की अगुवाई वाली कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन सरकार के गठन के बाद यह पहला चुनाव है.

गठबंधन साझेदार होने के बाद भी कांग्रेस और जेडीएस ने इस सीट पर एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ा था. जेडीएस इस मुकाबले में तीसरे स्थान पर रही.

चुनाव अधिकारियों के मुताबिक, कांग्रेस के एन मुनिरत्ना को 1,08,064 वोट मिले जबकि उनके सबसे नजदीकी प्रतिद्वंद्वी और भाजपा उम्मीदवार तुलसीमुनि राजू गौड़ा को 82,572 वोट मिले.

जेडीएस उम्मीदवार जीएच रामचंद्र को महज 60,360 वोट प्राप्त हुए. रामचंद्र चुनाव से कुछ दिन पहले ही भाजपा छोड़कर जेडीएस में शामिल हुए थे.

इस सीट पर पहले भी कांग्रेस का ही कब्जा था.

बीते 12 मई को कर्नाटक में विधानसभा चुनाव हुए, लेकिन राजराजेश्वरी नगर सीट पर मतदान 28 मई तक के लिए उस वक्त टाल दिया गया था जब वोटर आईडी विवाद पैदा हुआ था. चुनावी कदाचार के मामले भी सामने आए थे.

12 मई को होने वाले चुनाव से पहले राजराजेश्वरी नगर सीट के एक अपार्टमेंट से करीब 10,000 वोटर आईडी कार्ड जब्त किए गए थे. मुनिरत्ना वोटर आईडी कार्ड विवाद से जुड़े मामले में आरोपी हैं.

उत्तराखंड की थराली सीट से भाजपा उम्मीदवार विजयी घोषित
चुनाव आयोग ने उत्तराखंड की थराली विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में भाजपा उम्मीदवार मुन्नी देवी शाह को विजयी घोषित किया.

आयोग की ओर से गुरुवार को इस सीट पर 15 दौर की मतगणना के बाद घोषित चुनाव परिणाम के अनुसार भाजपा की मुन्नी देवी को 25,737 वोट मिले. उन्होंने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के डॉक्टर जीतराम शाह को 1981 मतों के अंतर से हराया. जीतराम को 23,756 वोट मिले.

थराली में मिली विजय से 70 सदस्यीय राज्य विधानसभा में भाजपा सदस्यों की संख्या बढ़कर फिर 57 हो गई है.

विजयी उम्मीदवार मुन्नी देवी दिवंगत विधायक मगनलाल शाह की विधवा है.

पश्चिम बंगाल की महेशतला सीट टीएमसी ने बचाई
कोलकाता: तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के दुलाल दास ने पश्चिम बंगाल में महेशतला विधानसभा उपचुनाव में भाजपा के सुजीत कुमार घोष को 62,827 मतों से हरा दिया है. पहले भी यह सीट टीएमसी के ही पास थी.

निर्वाचन अधिकारी शर्मिष्ठा घोष ने बताया कि तृणमूल उम्मीदवार दुलाल दास को 104,814 वोट जबकि भाजपा के सुजीत घोष को 41,987 वोट मिले.

वाम मोर्चा के उम्मीदवार प्रभात चौधरी, जिन्हें कांग्रेस का भी समर्थन प्राप्त था, को 30,316 वोट मिले.

तृणमूल कांग्रेस की विधायक कस्तूरी दास के निधन के बाद इस सीट पर 28 मई को उप-चुनाव कराया गया था. दुलाल दास कस्तूरी के पति हैं.

राज्य की 294 सदस्यीय विधानसभा में टीएमसी के 215 विधायक हैं.

चयनकर्ताओं और अंपायरों को मालामाल कर देगा बीसीसीआई

बीसीसीआई ने तीन राष्ट्रीय चयनकर्ताओं का पारिश्रमिक बढ़ाने के साथ अंपायरों , स्कोरर और वीडियो विश्लेषकों की फीस दोगुनी करने का फैसला किया.







बीसीसीआई की सबा करीम की अध्यक्षता वाली क्रिकेट परिचालन विंग ने यह फैसला किया। सीओए को भी लगता है कि मुख्य चयनकर्ता एमएसके प्रसाद एंड कंपनी को उनकी सेवाओं का फायदा मिलना चाहिए.

दिलचस्प बात है कि बीसीसीआई कोषाध्यक्ष अनिरूद्ध चौधरी वेतन बढ़ाने के फैसले से अवगत नहीं थे. अभी चेयरमैन को सालाना 80 लाख रुपये जबकि अन्य चयनकर्ताओं को 60 लाख रुपये मिले रहे हैं. पारिश्रमिक बढ़ाने का फैसला इसलिये लिया गया क्योंकि बाहर किये गये चयनकर्ता गगन खोड़ा और जतिन परांजपे भी इतना ही वेतन हासिल कर रहे हैं जितना देवांग गांधी और सरनदीप सिंह.

बीसीसीआई के सीनियर अधिकारी ने कहा , चयनकर्ताओं की नियुक्ति आम सालाना बैठक में ही हो सकती है , जतिन और गगन सेवा नहीं देने के बावजूद नियमों के अनुसार इतनी ही सैलरी पा रहे हैं. देवांग और सरनदीप के साथ यह ठीक नहीं होगा क्योंकि वे देश से बाहर भी आते जाते रहते हैं.

उम्मीद है अब मुख्य चयनकर्ता को करीब एक करोड़ रुपये मिलेंगे जबकि दो अन्य को 75 से 80 लाख रुपये के करीब मिलेंगे. बीसीसीआई ने छह साल के अंतराल बाद घरेलू मैच रैफरियों , अंपायरों , स्कोरर और वीडियो विश्लेषकों की फीस भी दोगुनी करने का फैसला किया. फीस बढ़ाने की सिफारिश सबा करीम ने 12 अप्रैल को सीओए के साथ बैठक के दौरान की थी.

हालांकि कोषाध्यक्ष चौधरी को इन वित्तीय फैसलों से दूर रखा गया. बीसीसीआई अधिकारी ने नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा , मुझे याद है कि अनिरूद्ध ने पिछले साल वित्तीय समिति की बैठक के दौरान इस बढ़ोतरी का सुझाव दिया था लेकिन मुझे नहीं लगता कि उन्हें इस बार उन्हें इस फैसले में शामिल किया गया.

अंपायरों को संशोधित फीस के अनुसर प्रथम श्रेणी मैच , 50 ओवरों के मैच या तीन दिवसीय मैच में 40,000 रुपये प्रतिदिन मिलेंगे जबकि पहले उन्हें 20,000 रुपये प्रतिदिन मिलते थे. टी 20 मैचों में इसे 10,000 रुपये से बढ़ाकर 20,000 रुपये प्रत्येक मैच कर दिया जायेगा.
मैच रैफरियों को चार दिवसीय , तीन दिवसीय औरएक दिवसीय मैच के लिये 30,000 रुपये जबकि टी 20 मैचों के लिये 15,000 रुपये मिलेंगे. स्कोरर को अब मैच के दिन 10,000 रुपये जबकि टी 20 मैचों में 5,000 रुपये मिलेंगे.

वीडियो विश्लेषकों को टी 20 मैचों के लिये 7,500 रुपये जबकि अन्य मैचों के लिये 15,000 रुपये प्रतिदिन मिलेंगे. इस बीच तेलगांना क्रिकेट संघ ने भी सीओए से एसोसिएट सदस्यता की मांग की है क्योंकि हैदराबाद के पास मतदाता सदस्य के रूप में मुख्य सदस्यता हासिल है.

राजनीति ने उर्दू को मुसलमान बना दिया है

आम जनमानस में उर्दू मुसलमानों की भाषा बना दी गई है, शायद यही वजह है कि रमज़ान की मुबारकबाद देने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने उर्दू को चुना. सच यह है कि जम्मू कश्मीर, पश्चिम बंगाल, केरल जैसे कई मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में उर्दू नहीं बोली जाती.

क्या उर्दू इस्लाम की भाषा है? क्या उर्दू मुसलमान है? क्या उर्दू, इस्लाम और मुसलमान किसी राजनीतिक श्रृंखला या त्रिकोण का निर्माण करते हैं? इस बारे में कोई भी विचार व्यक्त करने से पहले मैं आपको दिल्ली के एक कॉलेज का क़िस्सा सुनाना चाहती हूं.

ये मेरी एक सहेली की आपबीती है, तो हुआ यूं कि पहले ही दिन जब वो क्लास में पढ़ाने गई तो उसकी ‘पहचान’ को उसके साथ जोड़ दिया गया और ख़ास तरह से उसकी स्टीरियो-टाइपिंग की गई. चूंकि वो हिजाब पहनती है इसलिए विद्यार्थियों ने पूर्वाग्रह में ये मान लिया कि मैडम को अंग्रेज़ी-वंग्रेज़ी कहां आती होगी, ये हमें क्या पढ़ाऐंगी…

मेरी सहेली ने ये प्रसंग सुनाते हुए उन विद्यार्थियों के हाव-भाव और शारीरिक-भाषा को ख़ास तौर पर चिह्नित करते हुए बताया कि बच्चे मानो सोच कर बैठे थे कि मैडम से उर्दू का शेर सुनेंगे, जैसे उन्हें अपने भविष्य की चिंता से ज़्यादा एक नए टीचर के उपहास की ख़ुशी थी.

मज़ेदार बात ये है कि मेरी सहेली हिंदी-पट्टी से नहीं आती. हिंदी-उर्दू से उसका दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं. ख़ैर जब उसने अंग्रेज़ी बोलना शुरू किया और साफ़ तौर पर ये कहा कि उसको उर्दू नहीं आती तो जैसे कई बच्चों के एक्साइटमेंट से लबरेज प्लान और बदमाशियों पर ठंडा पानी पड़ गया.

हालांकि बाद में कुछ बच्चों ने उससे ये कहते हुए माफ़ी मांगी कि मैम आप के हिजाब के कारण हमने आपको गलत समझा. हमें लगा आपको उर्दू आती होगी, अंग्रेज़ी नहीं. ये बात बस एक उदाहरण है, उर्दू के मुसलमान होने की और मुसलमानों के उर्दू बन जाने की.

ऐसी कहानियां अब आम हो गई हैं. उर्दू और मुसलमान में कोई अंतर नहीं रहा और यही आज की सच्चाई है. जी, उर्दू मुसलमान है, शायद इसलिए भी अब ये एक मानसिकता बन चुकी है कि हर मुसलमान को उर्दू आनी चाहिए. उर्दू पढ़ने वाले अब मुसलमान ही समझे जाते हैं, और शायद होते भी हैं.

गोया मुसलमानों पर उर्दू पढ़ना फ़र्ज़ है. परिणामस्परूप उर्दू विभाग के अलावा भी अगर कोई पढ़ने-लिखने वाली लड़की हिजाब पहनती है तो ये मान लिया जाता है कि उसे उर्दू ज़रूर आती होगी, बेचारी मुसलमान जो ठहरी.



इस तरह जनमानस में उर्दू मुसलमानों की भाषा है, हालांकि ये सच्चाई नहीं, राजनीतिक सच्चाई है. इसकी ताज़ा-तरीन मिसाल हमारे प्रधानसेवक का उर्दू में किया गया ट्वीट है. अभी पिछले ही दिनों माननीय प्रधानमंत्री ने रमज़ान की शुभकमाना देते हुए उर्दू में ट्वीट किया था.

इससे पहले वो फ़ारसी,अरबी और दुनिया-भर की भाषाओं में ट्वीट कर चुके हैं. लेकिन ध्यान देने योग्य बात ये है कि उर्दू में ही रमज़ान की शुभकामना देने का विचार प्रधानमंत्री के ज़ेहन में या उनकी सोशल मीडिया टीम को क्यों आया? कहीं ऐसा तो नहीं कि मोदी जी अपने ट्वीट के माध्यम से भी अवाम को ये संदेश देना चाहते थे कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है ?

और क्या एक ख़ास तरह के अवसर पर मोदी जी के उर्दू का ‘प्रयोग’ किसी राजनीतिक चालाकी की दास्तान नहीं सुनाता? शुभकामना तो किसी भी भाषा में दी जा सकती थी, लेकिन ख़ास तौर पर उर्दू का चयन ये बताता है कि उर्दू मुसलमानों की भाषा ही नहीं इस्लामी भाषा भी है.

इस तरह वज़ीर-ए-आज़म ने भी उर्दू की स्टीरियो-टाइपिंग में एक बड़ी भूमिका निभाई है. क्या प्रधानमंत्री इतने मासूम हैं, क्या उन्हें नहीं पता कि उनका ये ट्वीट जनमानस की मानसिकता को बल देगा?

वैसे सियासत मानसिकता के साथ अच्छी तरह खेलने को भी कहते हैं. और क्या हुआ जो पहले से ही लोग उर्दू को मुसलमानों की भाषा समझ कर उसके साथ सौतेला व्यवहार करते हैं. और क्या हुआ जो सुषमा स्वराज पाकिस्तान में जाकर कहती हैं कि उर्दू तो हिंदुस्तान की भाषा है.

हमारी राजनीति ने उर्दू को मुसलमान बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी और अब प्रधानसेवक ने भी अपना काम कर दिया है, आप भले से राग अलापते रहिए कि उर्दू मुसलमानों की ज़बान नहीं है. जानने वाली बात ये भी है कि प्रधानमंत्री की पर्सनल वेबसाइट का उर्दू वर्ज़न मौजूद है, जहां अधिकतर तस्वीरें हिजाब और बुर्क़ा पहनने वाली औरतों और टोपी पहनने वाले मुसलमानों की नज़र आती हैं.

उस समय भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार और अब प्रधानमंत्री की इस आधिकारिक वेबसाइट का विमोचन सलमान ख़ान के पिता और प्रख्यात पटकथा लेखक सलीम ख़ान ने किया था. 16 अप्रैल 2014 को शुरू हुई इस वेबसाइट पर भी इसकी जानकारी दी गई है और बताया गया है कि प्रधानमंत्री ने इसके लिए सलीम ख़ान का शुक्रिया अदा किया था.


मोदी जी के इस उर्दू प्रेम की पृष्ठभूमि पर दैनिक जागरण की एक ख़बर के अनुसार सलीम ख़ान ने कहा था, ‘मुझे भी उर्दू पसंद है. मैंने ही मोदीजी को वेबसाइट की सलाह दी थी और यह मुस्लिम वोटरों को आकर्षित करने के लिए भाजपा की रणनीति नहीं है.’

यहां मुस्लिम वोटरों के हवाले से वज़ाहत मानी-ख़ेज़ है. और ये मानी-ख़ेज़ इसलिए है कि वेबसाइट पर भी ये दर्ज है कि समाज के अलग-अलग लोगों तक मोदी जी की विचारधारा को पहुंचाने के लिए ये एक माध्यम है, लेकिन इसको देखकर साफ़ लगता है कि ये केवल मुसलमानों के लिए है. ऐसे में ये सिर्फ आरोप नहीं कि मोदी जी उर्दू के साथ मुसलमान को संयोगवश जोड़ रहे हैं. सलीम साहब के शब्दों में भले से ये भाजपा की रणनीति न हो.

वैसे ये सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि क्या प्रधानमंत्री ने पहले कभी उर्दू में कोई ट्वीट किया है, जिसमें मुसलमानों से जुड़ा न हो? अगर नहीं तो क्या उर्दू में उनका ये ट्वीट 2019 की तैयारी है. हालांकि ये सियासत को शायद हल्का करके देखने जैसा है. इसलिए अब ये पूछा जा सकता है कि क्या ट्वीट भी हिंदू-मुसलमान हो सकते हैं ?

ग़ौरतलब है कि मोदी जी ने उर्दू के बाद अंग्रेज़ी में भी रमज़ान की शुभकामना दी, हां उर्दू के बाद, लेकिन क्यों? ये सवाल शायद नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि राजनीति ने उर्दू का धर्म चुन लिया है और ये सिर्फ़ भारतीय जनता पार्टी ने नहीं किया बल्कि तुष्टिकरण की राजनीति में कांग्रेस के हाथ ज़्यादा मैले हैं.

मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में बैनर, पोस्टर और तमाम तरह की अपील उर्दू में क्यों नज़र आती है? अगर उर्दू मुसलमान नहीं है तो आम जगहों पर भी ये इश्तिहार-बाज़ी क्यों नहीं होती ? इस सवाल का राजनीतिक जवाब देकर कुछ मुसलमान ख़ुश हो सकते हैं, भारतीय नागरिक नहीं.

सवाल ये भी है कि क्या सोशल मीडिया इन बातों के लिए सही प्लेटफॉर्म है ? जहां तक भाजपा की रणनीति की बात है तो उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी जी के नाम से उर्दू ट्विटर हैंडल भी मौजूद है. ये साफ़ तौर नहीं कहा जा सकता कि ये ट्विटर हैंडल मोदी जी का ऑफीशियल ट्विटर एकाउंट है, लेकिन वो ख़ुद इसको फॉलो करते हैं.

यहां सावरकर को लेकर उर्दू में किए गए ट्वीट भी देखे जा सकते हैं. शायद ये भी मुसलमानों को लुभाने की एक कोशिश है और सीएम से पीएम तक के कुर्सी की रणनीति भी.

अब देखिए न ये हैंडल 2014 की कहानी को उर्दू में बयान करता है और फिर चुप्पी साध लेता है. आपको याद हो कि 26 मई 2014 को मोदी जी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी और 28 मई के सावरकर वाले ट्वीट के बाद से ये ट्विटर हैंडल ख़ामोश है.



ये वही मोदी हैं जिन्होंने 2011 में एक सदभावना प्रोग्राम के तहत ‘टोपी’ पहनने से इनकार कर दिया था. जिसके स्पष्टीकरण में उन्होंने कहा था कि वो उन चीज़ों में हिस्सा लेना ज़रूरी नहीं समझते,जो उनकी आस्था से अलग हैं. फिर रमज़ान की शुभकामना भी क्यों और वो भी पैग़म्बर की शान में क़सीदा पढ़ते हुए.

क्या ये प्रतीकवाद या टोकनिज़्म की सियासत नहीं है ? इस सियासी हरबे से तो यही नतीजा निकलता है कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है और देश का प्रधानमंत्री ज़रुरत पड़ने पर मुसलमानों से उसी की भाषा में बात कर सकता है.

वैसे इन बातों के लिए सिर्फ़ मोदी जी को दोष क्यों दिया जाए. लिहाज़ा रमज़ान के महीने में उर्दू का कोई भी अख़बार उठा लीजिए. जुमा-मुबारक और रमज़ान के महिमामंडन से ओतप्रोत कई पन्ने मिल जाएंगे. बेचारे उर्दू अख़बारों के संपादक विशेष तौर पर रमज़ान में और जुमा के दिन ख़बरें छापने का काम नहीं बल्कि नेकियां कमाने का काम करते हैं.

इन विशेष दिनों में ये अख़बार कम धार्मिक पत्रिका ज़्यादा मालूम पड़ते हैं. हालांकि भारतीय मुसलमानों की समस्याएं और इस्लाम दो अलग बातें हैं. लेकिन जुमा-मुबारक और रमज़ान में ये करें, वो न करें टाइप की चीज़ों से पेज भरने वाले संपादक भला प्रधानसेवक को ग़लत साबित करने में क्यों रहें, इसलिए उन्होंने पहले से ज़मीन तैयार करके रखी है.

फिर हम और आप भी मान लेते हैं. मेरी इस बात पर नाक-भौंह चढ़ायी जा सकती है लेकिन सवाल वही है कि किसी अन्य भाषा के अख़बार में इस्लाम या और धर्मो से जुड़ी कितनी चीज़ें छपती हैं? अगर नहीं छपती हैं तो उर्दू अख़बारों ने ये ठेका क्यों ले रखा है. शायद जवाब भी वही है कि उर्दू मुसलमान है. कुछ इसी तरह की बातों की वजह से शहीद-ए-आज़म भगत सिंह ने भी उर्दू अख़बारों को मुसलमानों का अख़बार कहा था,

‘ज़मींदार और सियासत आदि मुसलमान-अख़बार में तो अरबी का ज़ोर रहता है, जिसे एक साधारण व्यक्ति समझ भी नहीं सकता. ऐसी दशा में उनका प्रचार कैसे किया जा सकता है?’

आज भगत सिंह होते तो पता नहीं क्या-क्या कहते कि अब उर्दू अख़बारों में गंगा-जमुनी तहज़ीब के कितने धारे बहते हैं? यूं देखें तो भाषा और साहित्य की तरक़्क़ी के लिए काम करने वाली उर्दू अकादमी की इफ़तार-पार्टी का मतलब भी समझ से परे है. इन संस्थानों में विशेष धर्म के सामाजिक व्यवहार को कैसे जायज़ ठहराया जा सकता है?

उर्दू के नाम पर सबसे ज़्यादा रोटी खाने वाली कांग्रेस ही वो पार्टी है जिसने इस तरह के आयोजनों को हमारे संस्थानों में जगह दी और अपने सेकुलर होने का ढोल पीटा. जो लोग इस तरह के आयोजनों में जाते रहे हैं वो जानते हैं कि निमंत्रण पर बाक़ायदा मुख्यमंत्री का नाम मोटे-मोटे शब्दों में लिखा होता है.

गोया राजनीतिक पार्टियों के चश्में से देखें तो उर्दू मुसलमान है और हर मुसलमान को उर्दू आनी चाहिए, चाहे वो मेरी ग़ैर हिंदी-पट्टी वाली सहेली ही क्यों न हो. आपको ये भी याद दिलाती चलूं कि आज भी मुल्क के मुस्लिम बहुल प्रदेश में उर्दू नहीं बोली जाती. जम्मू-कश्मीर, लक्षद्वीप, केरल, असम, पश्चिम बंगाल को ही देख लीजिए, जबकि मुसलमानों की एक बड़ी आबादी इन प्रदेशों में रहती है.

अब जी चाहे तो आप उनके मुसलमान होने पर भी सवाल उठा सकते हैं. रही बात मोदी जी की तो उनका ट्वीट भी इस समाज का दर्पण है और क्या? सदा अम्बालवी के शब्दों में कहें तो,

अपनी उर्दू तो मोहब्बत की ज़बां थी प्यारे

अब सियासत ने उसे जोड़ दिया मज़हब से

कांग्रेस में दिग्गज बदलेंगे रणक्षेत्र



अत्री कुमार दाधीच 
जयपुर। इस साल के आखिर में होने जा रहे विधानसभा चुनाव कांग्रेसी नेताओं ने दौड़ धूप तेज कर दी है। बड़े नेताओं के यहां दस्तक देने के साथ ही अपने- अपने क्षेत्रों में पूरी तरह सक्रियता भी बढ़ा दी है। वहीं पार्टी में कुछ दिग्गज नेता ऐसे भी हैं, जो इस बार अपनी विधानसभा क्षेत्र की बजाए दूसरी जगह से दावेदारी जता रहे हैं। दरअसल पार्टी नेताओं को विश्वास है कि इस बार राज्य में सरकार कांग्रेस की बनेगी, ऐसे में वे अपनी पुराने
निर्वाचन क्षेत्र से रिस्क लेने की बजाए अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए सुरक्षित सीटों की तलाश में हैं। इसके लिए इन नेताओं ने अपने समर्थकों से राय मशवरा करना भी शुरू कर दिया है। वहीं कुछ नेता तो ऐसे हैं भी हैं जिन्होंने अपने लिए नए निर्वाचन क्षेत्र ढूंढ भी लिए हैं और वहां सक्रियता दिखानी भी शुरू कर दी है और हर छोटे बड़े कार्यक्रमों में शामिल भी हो रहे हैं। ऐसे में ये कयास लगाए जा रहे हैं कि इस बार ये अपने पुराने निर्वाचन क्षेत्र की बजाए नई जगह से ताल ठोकने को तैयार हैं। बताया जाता है कि अकेले जयपुर में दो विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां से दो पूर्व सांसद महेश जोशी और दुर्रू मियां भी दावेदारी कर रहे हैं। इन नेताओं की नई जगह दावेदारी  राजनीतिक गलियारों से छन-छन कर आ रही खबरों की माने तो जो नेता पुराने क्षेत्र की जगह नई जगह से दावेदारी कर रहे हैं, उनमें पूर्व सांसद महेश जोशी, दुर्रूमियां, अश्क अली टांक, हरेंद्र मिर्धा, डॉ. चंद्रभान, रामलाल जाट, अर्चना शर्मा, सुनीता भाटी, सुरेश चौधरी आदि हैं।
कौन कहां से दावेदार
   
  नेता--------------- पहले--------------- अब
 महेश जोशी------    किशनपोल-------------  हवामहल
दुर्रू मियां---------   तिजारा----------------आदर्श नगर
अश्क अली--------किशनपोल-------------फतेहपुर
हरेंद्र मिर्धा--------नागौर------------------- खींवसर
रामलाल जाट----- आसींद----------------मांडल
डॉ.चंद्रभान---------मंडावा----------------- मालपुरा
अर्चना शर्मा-------मालवीय नगर-------- हवामहल, विराट नगर
सुनीता भाटी-------जैसलमेर---------------- पोकरण
सुरेश चौधरी-------- फुलेरा------------------ नवलगढ़

बुधवार, 30 मई 2018

नरेंद्र मोदी की 'आयुष्मान' योजना को झटका

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की देश के 50 करोड़ लोगों को स्वास्थ्य बीमा देने की योजना को बड़े कॉरपोरेट अस्पतालों से झटका मिला है। इन अस्पतालों ने आयुष्मान भारत के तहत मरीजों को सस्ता इलाज देने से साफ तौर पर इंकार कर दिया है। अमर उजाला को मिली एक्सक्लुसिव जानकारी के अनुसार दिल्ली सहित मेट्रो शहरों के चर्चित प्राइवेट अस्पतालों ने आयुष्मान भारत के तहत सस्ता उपचार करने से मनाही कर दी है।
दो हजार से ज्यादा कॉरपोरेट अस्पतालों की आयुष्मान भारत से दूरी

मरीजों को सस्ता इलाज देने से अस्पतालों का इनकार

अस्पतालों के इस रुख ने मंत्रालय को भी झटके में ला दिया है। सूत्रों की मानें तो दो हजार से ज्यादा अस्पतालों ने यह फैसला लिया है। जिसके बाद मरीज को दिल्ली जैसे शहर में इलाज उपलब्ध कराना सरकार के लिए बड़ी चुनौती बन गया है। कुछ ही दिन पहले इन अस्पतालों ने नीति आयोग और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को एक पत्र में इसका खुलासा भी किया था। जिसके बाद आयुष्मान भारत के तहत मरीजों को अस्पताल में मिलने वाले पैकेज की कीमतों में 28 मई को बदलाव भी किया गया।

दिल्ली सहित देश के टॉप अस्पतालों ने सरकार को लिखा पत्र 

60 हजार रुपये में मरीज को नहीं लगा सकते हैं स्टेंट

लेकिन  इन सभी अस्पतालों ने नई कीमतों को भी मानने से इंकार कर दिया। इनका कहना है कि सरकार ने केंद्रीय स्वास्थ्य योजना (सीजीएचएस) कीमतों से भी कम आयुष्मान भारत को रखा है। जोकि निजी अस्पतालों के लिए बड़ा नुकसान हो सकता है। सूत्रों की मानें तो इस सूची में फोर्टिस, मेदांता, मैक्स और अपोलो जैसे बड़े अस्पताल शामिल हैं। 
         
निजी अस्पतालों के दवाब में आयुष्मान भारत की कीमतों में हुआ बदलाव

नई कीमतों को भी अस्पतालों ने मानने से ठुकराया     

प्राइवेट अस्पतालों के संगठन एसोसिएशन ऑफ हेल्थ केयर प्रोवाइडर्स के डीजी डॉ. गिरधर ज्ञानी ने बताया कि सरकार ने 10 जकरोड़ परिवार को पांच लाख रुपये प्रतिवर्ष स्वास्थ्य बीमा लाभ देने के लिए योजना शुरू की है। लेकिन इसमें बीमारियों के करीब 1352 पैकेज शामिल किए हैं, उनकी कीमतें बेहद कम हैं। व्यवहारिक तौर पर इन कीमतों में मरीज को इलाज देना किसी भी अस्पताल के लिए संभव नहीं है। यही वजह है कि बुधवार को भी नीति आयोग और आयुष्मान भारत के सीईओ को पत्र लिखा है।   
       
घाटे का सौदा है आयुष्मान भारत

अस्पतालों के सख्त रुख को देखते हुए दो दिन पहले ही मरीजों के पैकेज में थोड़ा बहुत संशोधन किए गए हैं, लेकिन बावजूद इसके कॉरपोरेट अस्पतालों का कहना है कि अभी भी कीमतें कम हैं। दिल्ली के मल्टी सुपर स्पेशलिटी अस्पताल के एमडी ने बताया कि घुटना प्रत्यारोपण में आमतौर पर करीब दो लाख रुपये का खर्चा आता है। लेकिन आयुष्मान भारत के तहत सरकार केवल 80 हजार रुपये देगी। जबकि सरकार पहले से ही सीजीएचएस के तहत डेढ़ लाख रुपये दे रही है। ऐसे में जाहिर है कि आयुष्मान भारत घाटे का सौदा है। 
         
अस्पतालों से बातचीत करेगी सरकार

मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकार ने कहा कि आयुष्मान भारत योजना किसी भी अस्पताल के लिए अनिवार्य नहीं है। 15 जून से अस्पतालों के आवेदन आमंत्रित हैं। अगर इस दौरान भी कॉरपोरेट अस्पताल आवेदन नहीं करते हैं तो सरकार बातचीत का रास्ता खुला रखेगी। फिर भी अस्पतालों को परेशानी होती है तो उस दिशा में अलग से कानून बनाया जाएगा। 
         
इस तरह कीमतों में हुआ है बदलाव

पैकेज           सामान्य रेट     सीजीएचएस    आयुष्मान भारत (पहले)   आयुष्मान भारत (अब)
एंजियोप्लास्टि    90 हजार       90 हजार       40 हजार                        65 हजार           
सीएबीजी          2 लाख         1.10 लाख     1.10 लाख                     1.10 लाख           
नी रिप्लेसमेंट     2 लाख         1.50 लाख      90 हजार                       80 हजार           
स्पाईन सर्जरी    एक लाख        24 हजार       20 हजार                      40 हजार           
सर्वाइकल सर्जरी  1.25 लाख     25 हजार       20 हजार                     40 हजार           
न्यूरो सर्जरी         1.10 लाख     23 हजार       20 हजार                      30 हजार           
ट्यूमर सर्जरी       2.50 लाख     35 हजार       35 हजार                      50 हजार           
ऑर्टरी सर्जरी     3.50 लाख       59 हजार       42 हजार                      65 हजार     

चंदे के मामले में बीजेपी अमीर अन्य दलों गरीब

एडीआर की रिपोर्ट में कहा गया है कि भाजपा द्वारा घोषित चंदा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस,राकांपा, भाकपा, माकपा, अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (एआईटीसी) को कुल मिलाकर प्राप्त चंदे से नौ गुना अधिक है.

7 राष्ट्रीय दलों को मिला 587 करोड़ रुपये का चंदा, सिर्फ बीजेपी ने झटक लिए इतने करोड़ रुपये

 सात राष्ट्रीय दलों को 2016-17 में ‘अज्ञात स्रोतों ’ से 710.80 करोड़ रुपये का चंदा मिला है. वहीं इस दौरान पार्टियों द्वारा घोषित चंदा (20,000 रुपये से अधिक राशि में) 589.38 करोड़ रुपये रहा है. एक रिपोर्ट में कहा गया है कि इसमें से 532.27 करोड़ रुपये का घोषित चंदा अकेले भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को मिला. उसे यह चंदा 1,194 इकाइयों से प्राप्त हुआ. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट में कहा गया है कि भाजपा द्वारा घोषित चंदा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी), राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा), भाकपा , माकपा , अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (एआईटीसी) को कुल मिलाकर प्राप्त चंदे से नौ गुना अधिक है.


राष्ट्रीय दलों ने उन्हें प्राप्त 20,000 रुपये से अधिक राशि वाले 589.38 करोड़ रुपये के चंदे की घोषणा की है. यह चंदा राष्ट्रीय दलों को 2,123 इकाइयों से मिला. इसमें से भाजपा को 1,194 इकाइयों से 532.27 करोड़ रुपये जबकि कांग्रेस को 41.90 करोड़ रुपये का चंदा 599 इकाइयों से मिला.

बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने कहा है कि 2016-17 के दौरान उसे 20,000 रुपये से अधिक की राशि में कोई चंदा नहीं मिला. पिछले 11 साल से बसपा लगातार इसी तरह की घोषणा करती रही है. एडीआर और नेशनल इलेक्शन वाच (न्यू) द्वारा तैयार रिपोर्ट में बताया गया है कि 2016-17 में राष्ट्रीय दलों को 2015-16 की तुलना में 487.36 करोड़ रुपये का चंदा अधिक मिला. इससे पिछले वित्त वर्ष में उन्हें 102.02 करोड़ रुपये का चंदा मिला था.


दिल्ली के शोध संस्थान के अनुसार 2015-16 में भाजपा को जहां 76.85 करोड़ रुपये का चंदा मिला था वहीं 2016-17 में उसे 532.27 करोड़ का चंदा मिला. राकांपा को 2015-16 में सिर्फ 71 लाख रुपये का चंदा मिला था जो 2016-17 में बढ़कर 6.34 करोड़ रुपये हो गया.

इसी तरह आलोच्य अवधि में एआईटीसी को प्राप्त चंदा राशि में 231 प्रतिशत, माकपा को मिले चंदे में 190 प्रतिशत तथा कांग्रेस को प्राप्त चंदे में 105 प्रतिशत का इजाफा हुआ. वहीं भाकपा की चंदा राशि इस अवधि में 9 प्रतिशत घट गई.

रिपोर्ट में कहा गया है कि 2016-17 में राष्ट्रीय दलों की कुल प्राप्ति 1,559.17 करोड़ रुपये रही. इसमें से ज्ञात स्रोतों से उनकी आय सिर्फ 589.38 करोड़ रुपये रही, जो कुल आय का मात्र 37.8 प्रतिशत है. इसी तरह इन दलों की अन्य ज्ञात स्रोतों मसलन संपत्ति की बिक्री, सदस्यता शुल्क, बैंक ब्याज, प्रकाशन की बिक्री और पार्टी शुल्क से आय 258.99 करोड़ रुपये रही, जो कुल आय का 16.61 प्रतिशत है.



एडीआर के अनुसार, इन सात राष्ट्रीय दलों की अज्ञात स्रोतों (आयकर रिटर्न में जिनका ब्योरा है लेकिन स्रोत अज्ञात है) से आय 2016-17 में 710.80 करोड़ रुपये रही , जो उनकी कुल आय का 45.59 प्रतिशत है. वर्ष 2016-17 में भाजपा की अज्ञात स्रोतों से आय 464.94 करोड़ रुपये रही , जबकि कांग्रेस की अज्ञात स्रोतों से आय 126.12 करोड़ रुपये रही.

अज्ञात स्रोतों में सबसे अधिक राशि भाजपा ने स्वैच्छिक योगदान के रूप में जुटाई. इस मद में पार्टी ने 464.84 करोड़ रुपये जुटाए जो अज्ञात स्रोतों से उसकी आय का 99.98 प्रतिशत बैठता है. वहीं कांग्रेस की अज्ञात स्रोतों से आय में प्रमुख योगदान कूपन बिक्री का रहा. इस मद में पार्टी ने 115.64 करोड़ रुपये जुटाए जो उसकी अज्ञात स्रोतों से आय का 91.69 प्रतिशत बैठता है. ॉ


टिप्पणियांरिपोर्ट में बताया गया है कि राष्ट्रीय दलों को कुल 563.24 करोड़ रुपये के 708 चंदे कारपोरेट व्यापारिक क्षेत्र से मिला. यह कुल चंदे का 95.56 प्रतिशत है. वहीं उन्हें 25.07 करोड़ रुपये का चंदा 1,354 व्यक्तिगत चंदा देने वालों से प्राप्त हुआ. एडीआर ने कहा कि भाजपा को कॉरपोरेट - व्यापारिक चंदा 515.43 करोड़ रुपये का मिला. वहीं कांग्रेस को कारपोरेट व्यापारिक इकाइयों से 36.06 करोड़ रुपये का चंदा मिला.

वीर सावरकर की विरासत

शंकर शरण

वीर सावरकर की जयन्ती। मतलब दो दिन पहले गुजरा दिन। विचार किया जाए कि जिन हिन्दू राष्ट्रवादियों को नेताओं की जयंती, बरसी आदि मनाने में बड़ा उत्साह रहा है - उन्होंने सावरकर का स्मरण करने और देश को कराने के लिए क्या कुछ खास किया? सोचे तो लगेगा कि या तो उन्हें भय है, अथवा ईर्ष्या, या फिर समकालीन हिन्दू राजनीतिक चिंतन और कर्मधारा पर दलीय एकाधिकार रखने के लिए अपने संगठन से भिन्न महापुरुषों को जान-बूझ कर भुलाए जाने की प्रवृति है। संभवतः इसीलिए, एक औपचारिक विज्ञापन तक अखबार में नहीं आया! जबकि इस काम में, लगभग दैनिक रूप से, अनर्गल तक बातों के लिए, राजकोष का धन बेरहमी से उड़ाया जाता है। केवल इसलिए ताकि किसी न किसी पार्टी-नेता की फोटो देश भर को दिखती रहे।

कारण जो हो, मगर यह हिन्दू या राष्ट्र चिन्ता को पार्टी में सीमित करने का उदाहरण है। वरना, सावरकर का स्मरण करने से दिवंगत सावरकर को क्या मिलना है!

सच पूछें तो कभी-कभी वामपंथियों द्वारा सावरकर का अपमान करने से इस चिंतक, योद्धा और कवि की ओर हमारा ध्यान अनजाने ही जाता रहता है। विद्वेषपूर्वक ही, लेकिन वही सावरकर को प्रायः याद करते हैं। बहरहाल, जैसे भी हो, सावरकर का नाम अमर रहना तय है। भारत ही नहीं, विदेशों में भी सावरकर को जाना जाता है।

सावरकर के नाम के साथ ‘वीर’ उसी तरह लगा हुआ है जैसे गाँधी के साथ ‘महात्मा’, सुभाष के साथ ‘नेताजी’, पटेल के साथ ‘सरदार’, टैगोर के साथ ‘कविगुरू’ या भगत सिंह के साथ ‘शहीद’।

सावरकर के जीवन और कार्य के आधार पर उन्हें पिछली सदी में भारत की दस सर्वश्रेष्ठ विभूतियों में गिना जा सकता है। उन पर लिखी जीवनी स्वातंत्र्य-वीर सावरकर से इस की झलक मिलती है। जिस के लेखक श्री धनंजय धीर को इंदिरा गाँधी ने 1971 में पद्म-विभूषण से अलंकृत किया था।

सावरकर के साथ इतिहास के जितने ‘प्रथम’ जुड़े हैं उस का कोई सानी नहीं है। वे प्रथम भारतीय थे जिस ने ब्रिटिश साम्राज्य के केंद्र लंदन में उस के विरुद्ध एक क्रांतिकारी आंदोलन संगठित किया। वे पहले भारतीय थे जिस ने 1906 में ‘स्वदेशी’ का नारा देकर विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी, जो गाँधी जी ने बरसों बाद दुहराया। सावरकर पहले भारतीय थे जिन्हें अपने विचारों के कारण बैरिस्टर की डिग्री खोनी पड़ी। वे पहले भारतीय थे जिन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता की माँग की थी। वे पहले भारतीय थे जिन्होंने 1857 की लड़ाई को भारत का ‘स्वाधीनता संग्राम’ कहा था। वे पहले लेखक थे जिन की इस विषय पर लिखी किताब को प्रकाशित होने से पहले ही ब्रिटिश और भारत सरकारों ने प्रतिबंधित कर दिया था!

सावरकार दुनिया के पहले राजनीतिक कैदी थे जिन का मामला हेग के अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में चला था। सावरकर ने ही वह पहला भारतीय झंडा बनाया था जिसे जर्मनी में 1907 की अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस में मैडम भीका जी कामा ने फहराया था। वे पहले भारतीय राजनीतिक कैदी थे जिस ने एक अछूत को मंदिर का पुजारी बनाया था। सावरकर ही वे पहले कवि थे जिस ने कलम, कागज के बिना जेल की दीवारों पर पत्थर के टुकड़ों से कविताएं लिखी। यही नहीं, अपनी रची दस दजार से भी अधिक पंक्तियों को प्राचीन वैदिक साधना के अनुरूप बरसों स्मृति में सुरक्षित रखा, जब तक वह अंततः लिपिबद्ध होकर देशवासियों तक नहीं पहुँच गई!

स्वाधीनता संघर्ष में भी सावरकर का योगदान अद्वितीय रहा है। केवल एक ही उल्लेख उन के अनोखे योगदान को समझने के लिए काफी होगा। जब कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के ‘डायरेक्ट एक्शन’ के तहत चली हिंसा से घबड़ाकर 1946 ई. में देश का विभाजन अंततः स्वीकार कर लिया, तो मूल योजना के अनुसार पूरा पंजाब और पूरा बंगाल पाकिस्तान में जाने वाला था।

तब वीर सावरकर ने ही यह अभियान चलाया कि इन प्रांतों के भारत से लगने वाले हिन्दू बहुल इलाकों को भारत में रहना चाहिए। ब्रिटिश शासकों और लॉर्ड माउंटबेटन को इस का औचित्य मानना पड़ा। तब जाकर पंजाब और बंगाल को विभाजित करके कुछ हिस्से भारत को दिए गए।

अतः आज यदि कलकत्ता और अमृतसर भारत में हैं, तो इस का बहुत बड़ा श्रेय केवल वीर सावरकर को है! इन्हीं कारणों से सुप्रसिद्ध लेखक विष्णु सखाराम खांडेकर ने सावरकर को इंद्रधनुषी प्रतिभा का महान, साहसिक कवि कहा था जिन के सामने ‘हम सब बौने हैं’। स्वतंत्र भारत में भी अंदरूनी और बाह्य परिदृश्य पर सावरकर की कितनी ही चेतावनियाँ अक्षरशः सही साबित हुईं। कश्मीर, सेक्यूलरिज्म, इस्लाम, तिब्बत, पंचशील और चीन कुछ ऐसे विषय हैं।

यह तमाम बातें ब्रिटिश या पाकिस्तानी इतिहासकारों की किताबों में बेशक मिल जाए, हमारे देश के प्रचलित, यानी वामपंथी इतिहासकारों की किताब में नहीं मिलेगी। क्योंकि जैसे राजनीति, वैसे ही हमारी एलीट अकादमियों और अंग्रेजी मीडिया में सब से बड़ा कर्तव्य हिन्दू-विरोध है। तब आश्चर्य ही क्या कि क्रांतिकारी, चिंतक, कवि और स्वातंत्र्य-वीर सावरकर को वे एक फासिस्ट, कायर, हिंदू-सांप्रदायिक, षड्यंत्रकारी आदि घृणित रूपों में पेश करने की कोशिश करते हैं! दुःख की बात है कि हिन्दुओं से समर्थन पाने वाले नेता भी सावरकर के प्रति उपेक्षा दिखाते हैं। वही स्थिति बौद्धिक जगत के गुट-परस्तों की भी है जिन की कुल बौद्धिक खुराक किसी न किसी प्रकार का पार्टी-साहित्य भर रही है।

हालाँकि सावरकर के प्रति वामपंथियों के विरोध का कारण हिन्दू-विरोध की प्रवृत्ति है। क्योंकि सावरकर ने आधुनिक संदर्भ में राजनीतिक हिन्दुत्व को परिभाषित करने की कोशिश की थी। साथ ही उन्होंने इस्लामी तबलीगियों और ईसाई मिशनरियों द्वारा हिन्दुओं के धर्मांतरण के विरुद्ध भी अभियान चलाया था। इस प्रकार, उन्होंने सदियों से विदेशी आक्रांताओं के समक्ष पराजय से हिन्दुओं में जमी ऐतिहासिक भीरुता को तोड़ने का प्रयास किया था। कम्युनिस्ट नेताओं, प्रोफेसरों, पत्रकारों की सावरकर से घृणा का असली कारण यही है।

जबकि गंभीरता से विचार करें तो मानवता, हिन्दुत्व और तत्संबंधी भारतवासियों के कर्तव्य के बारे में सावरकर का दर्शन काल की कसौटी पर लगभग खरा उतरा है। सामान्य हिन्दू स्वभाव के अनुरूप, सावरकर का हिन्दुत्व भी दूसरे मजहबों के खिलाफ नहीं था। बल्कि वे तो पूरी मानवता को एक मानते थे!

कृपया सावरकर के इन शब्दों पर विचार करें: “पूरी मानव जाति में एक ही रक्त है, एक मानव संबंध है। बाकी सब बातें तात्कालिक और आंशिक सत्य हैं। विभिन्न नस्लों के कृत्रिम विभाजनों को स्वयं प्रकृति निरंतर तोड़ती है। मनुष्यों में यौन-आकर्षण आज तक के सारे पैगम्बरों के समवेत आवाहनों से भी ज्यादा शक्तिशाली साबित हुआ है”। इस से अधिक सेक्यूलर और मानवीय विचार और क्या हो सकता है! तब हमारे सेक्यूलरवादी बुद्धिजीवी सावरकर से क्यों बचते हैं?  शायद इसलिए क्योंकि इस के बाद सावरकर उस कटु यथार्थ पर भी दो-टूक कहते हैं, जिस से हमारा भीरू, आराम-पसंद बुद्धिजीवी सदैव कन्नी काटता है।

सावरकर के अनुसार, मानव जाति की समानता बिलकुल सत्य है, ‘‘लेकिन जब तक पूरी दुनिया में नस्ल और राष्ट्र के आधार पर खूँरेजी चल रही है, जिससे मनुष्य क्रूरता पर आमादा हो जाता है, तब तक भारत को अपनी राष्ट्रीय, नस्ली सुरक्षा के लिए शक्तिशाली बने रहना होगा।’’

इस प्रकार, सावरकर हिन्दुओं में आत्म-रक्षा और आत्म-सम्मान का समावेश करने की बात भी कहते थे। क्योंकि हिन्दू दर्शन की गहनता, अन्य धर्मावलंबियों के प्रति उदारता, मानवीयता, प्राणिमात्र के प्रति संवेदना आदि उस की रक्षा के लिए पर्याप्त नहीं है। सदियों की छोड़िए, पिछले सौ साल में कश्मीरी हिन्दुओं का क्या हश्र हुआ? सावरकर ने जरूरी सच कहा था, संपूर्ण सच कहा था। इसीलिए उन्हें हमारे सेक्यूलरवादी नेता-बुद्धिजीवी पसंद नहीं करते। प्रश्न है, क्या इसीलिए पार्टी-बंदी में सीमित हिन्दूवादी भी वीर सावरकर को पसंद नहीं करते?

राजस्थान में टूट रही भाजपा

भाजपा इन दिनों आपसी गुटबाजी और खींचतान की दौर से गुजर रही है। भाजपा प्रदेशाध्यक्ष को लेकर अमित शाह और वसुंधरा के बीच सियासत जारी है। वहीं अब पार्टी के विधायकों के बीच ठन रहे नए विवाद के बाद पार्टी मुश्किलों का सामना कर रही है...।

जयपुर । राज्य में विधानसभा चुनाव इस साल के अंत में हैं और पार्टी आपसी गुटबाजी और खींचतान की दौर से गुजर रही है। भाजपा प्रदेशाध्यक्ष के मामले में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और प्रदेश की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के बीच सियासती तनातनी से पूरे संगठन में पहले खलबली मची पड़ी है। वहीं, अब पार्टी के दूसरे कई विधायकों के बीच खड़े हो रहे विवाद पार्टी को नई मुसीबत में डालते जा रहे हैं।





भाजपा प्रदेशाध्यक्ष को लेकर शाह और वसुंधरा के बीच चल रही खेमेबंदी की  राजनीति से पार्टी के कामकाज और रणनीति पर तो असर पड़ ही रहा है, साथ ही पार्टी की छवि पर भी असर पड़ रहा है। प्रदेशाध्यक्ष को लेकर अब तक हुई वार्ता अंतिम क्षण में अड़ा-अड़ी पर ही आकर खत्म हो जा रही है। प्रदेशाध्यक्ष के मामले में शाह और वसुंधरा अपनी पसंद से कम पर समझौता करने को तैयार नहीं हो रहे हैं। जानकारों का कहना है कि इसका असर आगामी चुनाव पर भी पड़ सकता है। वहीं, पार्टी के अन्य कई नेता भी आपस में उलझने से  गुरेज नहीं कर रहे हैं।


पहले एक कार्यक्रम के दौरान कोटा में विधायक प्रहलाद गुंजल और चंद्रकांता के बीच विवाद सामने आया था. वहीं अब किरोड़ी लाल मीणा और ओमप्रकाश हुड़ला के बीच का विवाद पार्टी आलाकमान के पास पहुंच गया है। एक के बाद एक विधायकों के आपसी विवाद सामने आने से पार्टी को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। जानकारों का कहना है कि आए दिन सार्वजनिक मंच पर विधायकों के आरोप-प्रत्यारोप होने से पार्टी को नुकसान उठाना पड़ सकता है। वहीं, भाजपा के इस कलह को कांग्रेस मुद्दा बनाकर उसे कैश करने की जुगत में है।


मंच पर हुई टिप्पणी से बढ़ा विवाद
कोटा में 12 मई को  कलेक्ट्रेट में विकास कार्यों को लेकर चर्चा हो रही थी। तभी विधायक भवानी सिंह राजावत ने कहा कि बंधा धर्मपुरा में एनएच 76 के पास अंडरपास की उपयोगिता नहीं है। इस पर विधायक गुंजल ने कहा कि जब मुख्यमंत्री की बजट घोषणा का ही क्रियान्वयन नहीं तो फिर घोषणा का क्या मतलब। इसी बीच विधायक चंद्रकांता मेघवाल ने कहा कि मोड़क में अंडरपास की जरूरत है। जहां जरूरत है वहां नहीं बन रहा जहां नहीं है वहां बन रहा। इस पर गुंजल भड़क गए और दोनों में बहस होगी। बात इतनी बढ़ गई कि गुंजल ने विधायक चंद्रकांता को दो कौड़ी का विधायक तक बोल दिया। इसके बाद विधायक चंद्रकांता ने वरिष्ठ पदाधिकारियों के ईमेल भेजकर घटना की जानकारी दी थी।


अब किरोड़ी और हुड़ला में ठनी
किरोड़ी लाल मीणा के भाजपा में वापस आने के बाद से उनके और ओमप्रकाश हुड़ला के बीच का विवाद फिर गरमा गया है। दोनो के बीच प्रभुत्व की लड़ाई 4 साल पहले शुरू हुई थी। जो पिछले दिनों किरोड़ी के भाजपा में आने के बाद और तेज हो गई। वर्ष 2013 के चुनाव में हुड़ला भाजपा से विधायक बने थे। वहीं पार्टी ने उन्हें संसदीय सचिव बनाया था। उस समय किरोड़ी अलग पार्टी बनाकर चुनाव लड़ रहे थे। इस दौरान दोनों की लड़ाई खुलकर सामने आ गई थी। अब किरोड़ी के भाजपा में आ जाने से हुड़ला कैम्प बैचेन नजर आ रहा है। हुड़ला द्वारा की जा रही बयानबाजी से पार्टी नेता परेशान हैं। तो वहीं किरोड़ी ने भी खुद पर की गई असहज टिप्पणियों के चलते हुड़ला की शिकायत आलाकमान से कर दी है। इससे पहले वह सीएम राजे को भी मामला बता चुके है।

वसुंधरा-शाह की लड़ाई में इस बार सबसे ज्यादा फायदा बसपा को होगा, वोट प्रतिशत तो बढ़ेगा ही सीटें भी आएंगी

जयपुर। बीजेपी के प्रदेशाध्यक्ष के नाम को लेकर बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व और वसुंधरा राजे के बीच जंग छिड़ी हुई है। इस जंग से बीजेपी को नुकसान होगा लेकिन फायदा किसे होगा। इस लड़ाई से फायदा बसपा को होगा या फिर कांग्रेस को। क्यों कि कर्नाटक चुनाव के बाद जो आंकड़े आए हैं उसमें राजस्थान में भाजपा के वोट फीसदी कम होते नजर आ रहे हैं।

एक सर्वे के मुताबिक भाजपा के 6 प्रतिशत वोट घटे हैं। ये घटे वोट या तो बसपा के खाते में जाएंगे या फिर कांग्रेस के। बसपा के इतिहास पर अगर नजर डालें तो 3 से 6 एमएलए इनके जीतते हैं। वो भी जीतने के बाद टिक नहीं पाते हैं और किसी बड़ी पार्टी के साथ मिल जाते हैं। पिछली बार भी बसपा के एमएल जीत के बाद गहलोत के साथ चले गए थे।





बसपा अकेले लड़े या फिर कांग्रेस के साथ अलायंस में दोनों में फायदा हो सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जो लोकप्रियता है उससे सारी विपक्ष की पार्टियां सकते में हैं। देश में मोदी-शाह की जुगलबंदी के आगे एक के बाद एक राज्य में पस्त होने वाली कांग्रेस को अब क्षेत्रीय पार्टियों की जरूरत और ताकत का एहसास होने लगा है । ऐसे में कांग्रेस अब बिना मौका गंवाए गठबंधन करते हुए सत्ता के कुर्सी का रास्ता तय करने लगी है। इसे देश में कांग्रेस की नई राजनीतिक अंदाज के रूप में देखा जा रहा है। कांग्रेस के गठबंधन सियासत को यदि इस बार 'हाथी' (बसपा) का साथ मिल गया तो साल के अंत में होने वाले तीन राज्यों के चुनाव में कमल 'मुरझाता' हुआ ही नजर आएगा।


बात राजस्थान की करें तो यहां वर्ष 2003 में भाजपा का वोट शेयर 39.20 फीसदी रहा है, वहीं कांग्रेस-बसपा को जोड़कर देखें तो इनका वोट शेयर 39.62 फीसदी रहता है। 2008 में कांग्रेस+बसपा के वोट शेयर 44.42 फीसदी तथा भाजपा के 34.27 फीसदी रहा है। 2013 में भाजपा का वोट शेयर 45.17 फीसदी व कांग्रेस-बसपा के 36.44 फीसदी रहा है।



वहीं लेकिन इस के बाद भी अगर अलायंस की बात करें तो कांग्रेस को कई बार नुकसान का फायदा उठाना पड़ा है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की बात करें तो कांग्रेस ने यहां पर समाजवादी पार्टी के साथ अलायंस किया था। जिसका खामियाजा ने ऐतिहासिक हार के साथ उठाना पड़ा। लेकिन वहीं कर्नाटक की बात करें तो यहां जीत के बाद अलायंस किया जिसका फायदा यह मिला कि वहां पर कांग्रेस ने गठबंधन कर सरकार बना ली।


कर्नाटक में सीएम के शपथ ग्रहण के दौरान जिस तरह से सारी विपक्षी पार्टियां एक दूसरे के साथ मिल रहे थे। उससे तो लगता है कि आने वाले चुनावों में पूरा का पूरा विपक्ष एक साथ मिलकर मोदी के खिलाफ मैदान में उतरेगा। खैर बीजेपी के लिए यह थोड़ी चिंत का विषय है वोट फीसदी का कम होना। लेकिन अमित शाह भी मंझे हुए खिलाड़ी हैं। उन्हें भी पता है कि अब उन्हें क्या करना है।

भारत में धार्मिक अल्पसंख्यक असुरक्षित, गोरक्षकों की हिंसा पर दर्ज नहीं होता केस: रिपोर्ट

अमेरिकी विदेश मंत्री ने वर्ष 2017 की अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वंतत्रता रिपोर्ट जारी की. इसमें कहा गया है कि भारत में साल के पहले छह महीनों में ईसाइयों को प्रताड़ित करने की 410 घटनाएं सामने आईं हैं.



 अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर आधारित एक अमेरिकी रिपोर्ट में मंगलवार को कहा गया कि भारत में 2017 में हिंदू राष्ट्रवादी समूहों की हिंसा के कारण अल्पसंख्यक समुदायों ने खुद को बेहद असुरक्षित महसूस किया.

अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ ने अमेरिकी कांग्रेस द्वारा अधिकृत 2017 की अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता वार्षिक रिपोर्ट जारी की. रिपोर्ट के मुताबिक, धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के प्रतिनिधियों ने बताया कि जहां राष्ट्रीय सरकार ने कुछेक बार हिंसा की घटनाओं के खिलाफ बोला, स्थानीय नेताओं ने शायद ही ऐसा किया और कई बार ऐसी सार्वजनिक टिप्पणियां कीं जिनका मतलब हिंसा की अनदेखी करने से निकाला जा सकता है.

इसमें कहा गया, ‘सिविल सोसाइटी के लोगों एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों ने कहा है कि मौजूदा सरकार के अधीन धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों ने गैर हिंदुओं एवं उनके पूजास्थलों के खिलाफ हिंसा में शामिल हिंदू राष्ट्रवादी समूहों के कारण खुद को काफी असुरक्षित महसूस किया.’

रिपोर्ट के अनुसार, ‘अधिकारियों ने अकसर ही गोवध या गैरकानूनी तस्करी या गोमांस के सेवन के संदिग्ध लोगों, अधिकतर मुसलमानों के प्रति गोरक्षकों की हिंसा के खिलाफ मामले दर्ज नहीं किए.’

इसमें कहा गया, ‘सरकार ने उच्चतम न्यायालय में मुस्लिम शिक्षण संस्थानों के अल्पसंख्यक दर्जे को चुनौती देना जारी रखा. अल्पसंख्यक दर्जे से इन संस्थानों को कर्मचारियों की नियुक्ति एवं पाठ्यक्रम संबंधी फैसलों में स्वतंत्रता मिली हुई है.’

रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र है कि 13 जुलाई 2017 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गोमांस व्यापारियों, गोमांस के उपभोक्ताओं एवं डेयरी किसानों पर भीड़ द्वारा किए गए जानलेवा हमले की निंदा करते हुए कहा कि गोरक्षा के नाम पर लोगों की जान लेना अस्वीकार्य है.

इसमें कहा गया है कि सात अगस्त को तत्कालीन उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने कहा था कि देश में दलित, मुसलमान और ईसाई खुद को काफी असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. उन्होंने 10 अगस्त को एक साक्षात्कार में भी अपनी बात को दोहराते हुए कहा कि देश में मुसलमान खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं.

उनकी टिप्पणियों के लिए भाजपा और हिंदू राष्ट्रवादी समूहों ने उनकी आलोचना की.

रिपोर्ट में कहा गया है कि अंतरराष्ट्रीय गैर सरकारी संगठन ‘ओपन डोर्स’ के स्थानीय भागीदारों द्वारा जुटाए गए आंकड़ों के मुताबिक साल के पहले छह महीनों में सामने आईं 410 घटनाओं में ईसाइयों को प्रताड़ित किया गया, डराया-धमकाया गया या धर्म को लेकर उन पर हमला किया गया. पूरे 2016 में इस तरह की 441 घटनाएं हुई थीं.

साथ ही, इसमें कहा गया कि 2017 में जनवरी से लेकर मई के बीच गृह मंत्रालय ने धार्मिक समुदायों के बीच 296 संघर्ष होने की सूचना दी. संघर्षों में 44 लोग मारे गए और 892 घायल हुए.

मंगलवार, 29 मई 2018

नरेंद्र मोदी सरकार के 4 साल का विश्लेषण

नरेंद्र मोदी सरकार के 4 साल --- जन धन योजना से जीएसटी तक आर्थिक नीतियों पर एक विश्लेषण,  जिसने  प्रधान जन सेवक पीएम के कार्यकाल और भारत के भविष्य को परिभाषित किया।

डाक्टर आलोक भारद्वाज



नरेंद्र मोदी जी भारत गणराज्य के  प्रधान मंत्री के रूप में चार साल पूरे कर रहे हैं। इस समय के दौरान, मोदी सरकार ने आर्थिक नीति पर कई निर्णय ले लिए हैं, जिनमें से नौ महत्वपूर्ण हैं।
कॉर्पोरेट दिवालियापन के लिए काले धन पर पहचान और हमले से  लेकर वित्तीय समावेश , इन सभी नीतियों नपर  पिछले 48 महीनों में पक्ष और विरोध में काफी कुछ कहा जा रहा  है। इनमें से कुछ नीतियां पिछले विचारों के विस्तार और उनमें सुधार  हैं, उदाहरण के लिए आधार या सामान और सेवा कर (जीएसटी) आगे बढ़ने वाले काम। दूसरा , जैसे विमुद्रीकरण और दिवालियापन और दिवालियापन संहिता, नए विचार हैं।जीएसटी जैसे कुछ में, सरकार को संसद, राज्यों और मीडिया से सहयोग मिला। दूसरों में, विशेष रूप से demonetisation, में यह सहयोग उतना नहीं  था। ये नीतियां (2014 में एक, 2015 में एक और 2017 में एक , और 2016 में छः) मोदी सरकार की आर्थिक सोच की दिशा को परिभाषित करती हैं। मोदी जी को 2019 में सत्ता में  अवश्य लौटना चाहिए, हम उन नींवों को जानते हैं जिन पर नई नीतियां बनाई जाएंगी।  2019 के चुनाव परिणाम के बाद  भी  अगली सरकार को सही दिशा में ये नीतियां सहारा देगी, इस विश्लेषणात्मक आकलन  में मैंने इन नौ नीतियों का मूल्यांकन
करने की कोशिश की।

(1) प्रधान मंत्री जन धन योजना
प्रधान मंत्री कार्यालय में तीन महीने व्यतीत करने के बाद , मोदी जी ने वित्तीय मंत्रों की राजस्व और जनहित हेतु राजनीतिक ईच्छाशक्ति  के साथ प्रधान मंत्री जन धन योजना शुरू की। शीर्ष से वित्तीय समावेशन देने की एक योजना, जन धन योजना असंबद्ध भारतीयों को बैंक खाता खोलने, डेबिट कार्ड प्राप्त करने और बीमा और पेंशन जैसी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं तक पहुंचने में सहायता करती है।संख्याओं के संदर्भ में, इसने 17 जनवरी 2018 को भारत के वित्तीयकरण को वहां पहुंचाया है जो हम भारतीयों ने पहले कभी नहीं देखा, - लगभग 310 मिलियन लाभार्थी हैं जिनमें से 3/5 भाग , ग्रामीण क्षेत्रों में से है । प्रति खाता 2,377 रुपये की औसत शेष राशि के साथ कुल 73690 करोड़ रूपये की शेष राशी इन खातों में है ।, इससे पता चलता है कि न्यूनतम शेषराशि आवश्यकताओं के बावजूद, संगठित वित्त की ओर असंबद्ध भारतीयों के पहले कदम उठाए गए हैं। आलोचकों ने गोपनीयता और सुरक्षा के मुद्दों को उठाया है और इन्हें आगे बढ़ने की संभावना है। लेकिन कोई भी आधुनिक वित्त तक पहुंचने वाले गरीबों के फायदे से इनकार नहीं कर सकता है।

(2) मध्यस्थता और समझौता (संशोधन) अधिनियम (The Arbitration and Conciliation (Amendment)Act

अपने कार्यकाल के  उन्नीस वें महीने में , मोदी सरकार यह कानून लायी जो संसद में पारित होकरमध्यस्थता और समझौता (संशोधन) अधिनियम (एसीएए) का स्वरुप प्राप्त करके वाणिज्यिक विवादों के मध्यस्थता को गति देता है।यद्यपि कानून का मूलस्वरुप भारतीय मध्यस्थता अधिनियम(1899) के माध्यम से   पुराना है, लेकिन स्वतंत्र भारत की स्थितियों के विकास और अनुकूलन के अनुरूप इसमें  लंबे समय से बदलाव की आवश्यकता रही  हैं। मध्यस्थता पर न्यायमूर्ति सराफ कमेटी ने नोट किया कि एसीएए ने विधायी और कानूनी झुर्रियों को उखाड़ फेंक दिया जैसे "मध्यस्थों पर मध्यस्थता से पहले ,और  मध्यस्थता के बाद" अदालतों की भूमिका। नए कानून ने हितों  के संघर्ष को भी सुगम बना दिया है और मध्यस्थों द्वारा कानून में खुलासा लाया है।
सबसे महत्वपूर्ण : अब सभी मध्यस्थताएं 12 महीने के भीतर समाप्त होनी चाहिए, मध्यस्थता का मूल उद्देश्य - समाधान हेतु गति - कानून की शक्ति।

(3) हाइड्रोकार्बन एक्सप्लोरेशन और लाइसेंसिंग पॉलिसी -
अपने 23 वें महीने में, मोदी सरकार ने 19 वर्ष पुरानी न्यू अन्वेषण लाइसेंसिंग नीति (NELP) की जगह, हाइड्रोकार्बन एक्सप्लोरेशन एंड लाइसेंसिंग पॉलिसी (HELP) के माध्यम से ऊर्जा क्षेत्र में सरकार और निजी कंपनियों के बीच स्टेलेमेंट की मंजूरी को मंजूरी दे दी।निष्पादन के मामले में, HELP का राजकोषीय मॉडल, (जिसके अंतर्गत तेल और गैस क्षेत्रों की नीलामी की जाती है), ने इस क्षेत्र में स्टेलेमेंट के लिए NELP के लाभ साझाकरण से राजस्व साझा करने के लिए स्थानांतरित कर दिया है। यह कंपनी के खर्चों के माइक्रोमैनेजमेंट को कम करेगा, जो बदले में नियामक बोझ और प्रशासनिक विवेकाधिकार को कम करता है। यह नीति कोयला बिस्तर मीथेन, शेल गैस और तेल, तंग गैस और गैस हाइड्रेट जैसे हाइड्रोकार्बन के सभी रूपों की खोज और उत्पादन के लिए एक समान लाइसेंस भी प्रदान करती है।यह NELP की हाइड्रोकार्बन-विशिष्ट नीतियों को प्रतिस्थापित करता है - अक्सर, एक प्रकार के हाइड्रोकार्बन के लिए खोज करते समय, एक अलग पाया जाएगा और कंपनियों को इसके लिए एक अलग लाइसेंस की आवश्यकता होगी - और प्राकृतिक गैस के लिए अधिक विपणन और मूल्य निर्धारण स्वतंत्रता प्रदान करता है (कच्चे तेल के पास पहले से ही यह  आजादी है)  ।

(4) (आधार)(AADHAAR)
26 मार्च 2016 को, मोदी सरकार के 23 वें महीने में  आधार, (जनवरी 2009 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन द्वारा शुरू की गई पहचान मानचित्रण उपकरण) को मजबूत किया गया, आगे बढ़ाया गया और संस्थागत बनाया गया। एक देश में, जहां बुनियादी लाभ के वादे पर चुनाव जीते जाते हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि वे लक्षित लाभार्थियों तक पहुंचें, मजदूरी से पेंशन तक धन वितरण नीतियों के लिए एक चुनौती बना रहा है।
अभी तकआधार भारत की विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) के तहत उद्धृत,  को वैधानिक समर्थन की कमी थी। नतीजतन, मोदी सरकार ने प्रस्तावित किया और संसद ने आधार (वित्तीय और अन्य सब्सिडी, लाभ और सेवाओं के लक्षित वितरण) अधिनियम को अधिनियमित किया। आज, आधार भारत की सबसे विश्वसनीय पहचान मुद्रा बन गया है, और करों को भरते समय और म्यूचुअल फंड जैसे वित्तीय उत्पादों को खरीदने के दौरान उपयोग किया जाता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली, रोजगार गारंटी योजनाओं, गरीबों को नकदी हस्तांतरण, और बैंक खातों को खोलने जैसे प्रत्यक्ष लाभों को जोड़ने के साथ-साथ विभिन्न न्यायालयों में चुनौती दी गई है और राज्य को आपत्तिजनक और आईरिस स्कैन जैसी व्यक्तिगत जानकारी एकत्रित करने के लिए आपत्तियां हैं। हालांकि इन्हें एक तरफ या दूसरे तरीके से हल किया जाएगा, आधार में भारत के प्रमुख सॉफ्ट पावर निर्यात में से एक बनने की क्षमता है।
(5) दिवालियापन और दिवालियापन संहिता  (Insolvency and Bankruptcy Code "IBC")
18 मई 2018 को, टाटा स्टील की सहायक कंपनी बमनिपल स्टील ने बीमार भूषण स्टील में 35,200 करोड़ रुपये के लिए 72.65 प्रतिशत की नियंत्रण हिस्सेदारी हासिल की। हालांकि कर्नाटक चुनावों के दिन में इस खबर का आयात खो गया था, यह दिवालियापन और दिवालियापन संहिता (आईबीसी) के तहत हल किया गया पहला बड़ा दिवालियापन है, जिसे मोदी सरकार के  24 वें महीने में प्रस्तावित एक नये कानून और संसद द्वारा अधिनियमित कानून के अन्तर्गत किया गया । कॉर्पोरेट प्राथमिकता के समयबद्ध संकल्प इसके प्राथमिक फोकस के साथ-साथ यह समझौता क्रॉनी पूंजीवाद समाप्त करने की दिशा में पहला कदम है। विश्व बैंक के मुताबिक, दिवालियापन को हल करने के लिए 2016 के वैश्विक औसत 2.5 वर्षों के खिलाफ, जापान ने 0.6 साल, सिंगापुर और कनाडा 0.8 साल, यूएस 1.5 साल और चीन ने 1.7 साल लिया। भारत के लिए आंकड़ा: 4.3 साल। IBC का लक्ष्य उद्यमियों को बढ़ावा देने, क्रेडिट की उपलब्धता और हितों को संतुलित करने के लिए ऐसे व्यक्तियों की संपत्ति के मूल्य को अधिकतम करने के लिए समय-समय पर कॉर्पोरेट व्यक्तियों, साझेदारी फर्मों और व्यक्तियों के पुनर्गठन और दिवालिया प्रस्ताव से संबंधित कानूनों को मजबूत और संशोधित करना है। इस कानून ने  संसद के 10 अधिनियमों में संशोधन किया और भारत की दिवालियापन और दिवालियापन बोर्ड की स्थापना की, जिसमें दिवालिया पेशेवरों, दिवालिया पेशेवर एजेंसियों और सूचना उपयोगिताओं पर नियामक निरीक्षण है और संहिता के कार्यान्वयन के लिए जिम्मेदार है। एक पंक्ति में: यह कानून एक असफल व्यापार से आसानी से  बाहर निकलने की अनुमति देता है।
(6) बेनामी लेनदेन (निषेध) संशोधन अधिनियम
मोदी सरकार के 31 वें महीने में संपत्ति में काले धन के खिलाफ यह कानून लाया गया । गैरकानूनी, कर-व्यय किए गए पैसे के खिलाफ भारत का लंबा युद्ध एक व्यक्ति के नाम पर संपत्ति की खरीद के माध्यम से 'बेनामी' लेनदेन के रूप में जाना जाता है, लेकिन दूसरे द्वारा वित्त पोषित किया जाता है, जो इसे नियंत्रित करता है। 1988 का बेनामी प्रॉपर्टी ट्रांजैक्शन एक्ट कमजोर था - सिविल कोर्ट की कोई शक्ति नहीं, जब्त संपत्ति के निहित होने के लिए कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं, कोई अपीलीय संरचना परिभाषित नहीं हुई थी। 1 नवंबर 2016 से बेनामी लेनदेन (निषेध) संशोधन अधिनियम, बेनामी सम्पति हेतु अधिकारियों को अस्थायी रूप से उसे संलग्न करने और अंततः बेनामी संपत्तियों को जब्त करने का अधिकार देता है। इसमें एक से सात साल के बीच जेल की शर्त और जुर्माना भी है जो संपत्ति के उचित बाजार मूल्य के 25 प्रतिशत तक हो सकता है। अधिनियम के छह महीने के भीतर लागू होने के बाद, अधिकारियों ने 600 से अधिक करोड़ रुपये के बाजार मूल्य के साथ 240 से अधिक संपत्तियों के साथ बैंक खातों, जमा भूखंडों, फ्लैटों और आभूषणों में जमा सहित 400 से अधिक बेनामी लेनदेन की पहचान की।

(7) विमुद्रीकरण (Demonetisation)

 31 वें महीने में  मोदी सरकार की सबसे चर्चित नीति है - Demonetisation।
 8 नवंबर 2016 को देश को संबोधित करते हुए मोदी जी ने घोषणा की कि 500 ​​रुपये और 1,000 मुद्रा नोट मध्यरात्रि के बाद कानूनी निविदा बने रहेंगे। उच्च स्थानों पर भ्रष्टाचार और अर्थव्यवस्था में व्यापक काले धन को देखते हुए मोदी ने "राष्ट्र विरोधी और सामाजिक-विरोधी तत्वों" के खिलाफ राजनीतिक विरोधव्यक्त किया । इस योजना का एक अतिरिक्त उद्देश्य सीमा पार से नकली मुद्रा और आतंक वित्तपोषण को रोकना था। चूंकि व्यक्तिगत और लघु व्यवसाय मेंकठिनाइयों की रिपोर्ट की देश में  बाढ़ सी आ गयी  , और 98.96 प्रतिशत नोटिस बैंकिंग प्रणाली पर वापस लौट रहे थे, इसलिए विमुद्रीकरण ने तीव्र व्यक्तिगत संकट पैदा किया जो वित्त मंत्री ने 'अचूक' कहा। इसने अचल संपत्ति को प्रभावित किया, कम मांग, बाधित आपूर्ति श्रृंखलाओं और अनिश्चितता में वृद्धि के कारण विकास में धीमी वृद्धि हुई। इसके अतिरिक्त, इससे नकद-संवेदनशील स्टॉक मार्केट सेक्टरल इंडेक्स जैसे रियल्टी, फास्ट-मूविंग कंज्यूमर सामान और ऑटोमोबाइल में गिरावट आई और अनौपचारिक, नकद संचालित अर्थव्यवस्था को प्रभावित हुई। कठिनाई को छोड़कर, विमुद्रीकरण  ने बैंकिंग क्षेत्र में पैसे को बहने के लिए  मजबूर कर दिया है, और जमाखोरों को आईना दिखाया है  ,जिसे ट्रैक किया जा सकता है और ट्रैक किया जा रहा है।
 (8) रियल एस्टेट (विनियमन और विकास) अधिनियम
मोदी सरकार  के 31 वें महीने में एक और महत्वपूर्ण नीति थी: रियल एस्टेट (विनियमन और विकास) अधिनियम की शुरूआत।
अभी तक पूर्ववर्ती सरकारों में
भारत की नीति निर्माण के समय अचल संपत्ति हेतु बनाये नियमों में विरोधाभास रहा है । आवासों की कमी और विकसित भूमि की कमी से सट्टेबाज़ी से प्रेरित बुलबुला जैसी संपत्ति की कीमतों में गैर-गणना के लिए और व्यक्तिगत, कॉर्पोरेट और सरकारी भ्रष्टाचार के एक ओवरराइडिंग पारिस्थितिकी तंत्र ने नागरिकों को बाजारों में हेरफेर करने वाली ताकतों की दया पर रखा है। इस जटिल उद्योग पर निगरानी रखने के लिए एक नियामक की आवश्यकता एक दशक से भी अधिक समय से महसूस की जा रही  है। इस मुद्दे को जटिल बनाना यह है कि भूमि और उसका विकास एक राज्य विषय है, उपभोक्ता चलायमान हैं, आसानी से एक राज्य से दूसरे राज्य में प्रवास कर रहे हैं। यह कानून एक निर्णायक तंत्र और अपीलीय न्यायाधिकरण के माध्यम से इस क्षेत्र की निगरानी करने के लिए नियामक की स्थापना करके और "अचल संपत्ति क्षेत्र में उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा" की स्थापना करके इन समस्याओं को ठीक करने का प्रयास करता है। इस कानून को राज्य सरकारों द्वारा लागू करने की आवश्यकता है, जिनमें से अधिकांश ने इसे अधिसूचित किया है, आरईआरए मोदी  सरकार  की सबसे बड़ी सफल नीति बन सकती है।

 (9) सामान और सेवा कर (जीएसटी)

 मोदी सरकार के सबसे बड़े सुधार , सार्वजनिक वित्त के लिए सबसे बड़ा प्रभाव, और कर चोरी के खिलाफ सबसे मजबूत उपकरण और तर्कसंगत रूप से स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे जटिल कानून - माल और सेवाओं कर (जीएसटी) को सरकार के कार्यकाल के  39 वें महिने में लॉन्च किया गया था उसकी अवधि का महीना सक्षम तंत्र संविधान (101 संशोधन) अधिनियम के अधिनियमन द्वारा प्रदान किया गया था, जिसके बाद संसद ने चार केंद्रीय कानूनों को अधिनियमित किया था। इसके अलावा, सभी 2 9 राज्यों ने अपने असेंबली में कानूनों को सक्षम करने के लिए अधिनियमित किया, जबकि केंद्र ने इसे सभी सात केंद्र शासित प्रदेशों के लिए अधिसूचित किया। जीएसटी आठ केंद्रीय करों और नौ राज्य करों की जगह लेता है, लेकिन मानव उपभोग के लिए पांच पेट्रोलियम उत्पादों और शराब को छोड़ देता है। 140 अन्य देशों में अप्रत्यक्ष करों के साथ, मोदी सरकार  भारत के सबसे लंबे सुधारों में से एक को पूरा करने के लिएGST  लायी है । जीएसटी की कहानी 1985 में तीन दशक पहले शुरू हुई थी। संरचनात्मक सुधार की कार्यवाही हो चुकी है, मामूली झुकाव जारी रहेगा।

क्या देश में वाकई ‘भगवा’ लहर चल रही है

आंकड़ों पर ग़ौर करें तो भाजपा समर्थकों का यह दावा पूरी तरह से सही नहीं दिखता है. देश की कुल 4,139 विधानसभा सीटों में से सिर्फ़ 1,516 सीटें यानी करीब 37 फीसदी ही भाजपा के पास हैं और सिर्फ़ दस राज्यों में भाजपा की बहुमत वाली सरकार है.


हाल ही में कर्नाटक में हुए विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद भी भाजपा सरकार बनाने में असफल रही है. एक समय जब दो दिन के लिए ही प्रदेश में भाजपा की सरकार रही तब तमाम लोगों द्वारा यह दावा किया गया कि भाजपा 21 राज्यों में अपने बूते या अपने सहयोगियों के ज़रिये सत्ता पर काबिज हो गई है.

हालांकि कर्नाटक में सरकार गिर जाने के बाद यह आंकड़ा फिर से 20 पर पहुंच गया है. लेकिन यह दावा भाजपा और उनके सर्मथकों द्वारा लगातार किया जा रहा है कि 2014 में मोदी सरकार आने के बाद से पूरा देश भगवामय हो गया है.

यहां तक कि कर्नाटक में दिखाई गई विपक्षी एकता का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी हाल में कटक में कहा, ‘भाजपा देश के 20 राज्यों में सत्ता पर काबिज़ है. यह दिखाता है कि पिछले चार साल में एनडीए के प्रदर्शन को लोगों ने समर्थन दिया है.’

इससे पहले भी गुजरात और हिमाचल प्रदेश में सरकार बनने के बाद भाजपा सांसदों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘हम 19 राज्यों में सरकार चला रहे हैं. यहां तक कि इंदिरा गांधी, जब सत्ता में थीं तो 18 राज्यों में ही उनकी सरकार थी.’

हालांकि प्रधानमंत्री, भाजपा नेताओं और उनके समर्थकों द्वारा किए जा रहे इन दावों से इनकार नहीं किया जा सकता है कि पिछले चार सालों में भाजपा ने कई नए राज्यों में सरकार बनाई है और उनका भौगोलिक और सामाजिक विस्तार हुआ है.

लेकिन यदि हम आंकड़ों को ध्यान से देखेंगे तो हमें यह समझ में आएगा कि भाजपा का कई राज्यों में सरकार बनाने का दावा या फिर पूरे देश के भगवामय हो जाने का दावा महज़ क्षेत्रीय दलों के साथ स्मार्ट चुनावी गठजोड़ (चुनाव पूर्व और चुनाव बाद- दोनों) का नतीजा है.

वास्तव में अगर हम उनके सहयोगियों को हटा दें तो भाजपा देश के 29 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों में से केवल 10 पर बहुमत वाली सरकार चला रही है. कुल मिलाकर देश की कुल 4,139 विधानसभा सीटों में 1,516 सीटें यानी करीब 37 फीसदी ही भाजपा के पास हैं. इसमें से भी आधी से ज़्यादा यानी करीब 950 सीटें मात्र छह राज्यों- उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक की हैं.



यानी भाजपा को हम सिर्फ इस बात का श्रेय दे सकते हैं कि उसने भारत के कुछ सबसे बड़े और चुनावी लिहाज़ से महत्वपूर्ण राज्यों में व्यापक जीत हासिल की है.

उत्तर प्रदेश (312/403), हरियाणा (47/90), मध्य प्रदेश (165/230), छत्तीसगढ़ (49/90), राजस्थान (163/200), गुजरात (99/182), उत्तराखंड (56/70) और हिमाचल प्रदेश (44/68) आदि वे राज्य हैं जहां पर भाजपा को स्पष्ट जीत मिली है. इनमें से ज़्यादातर उत्तर भारत के राज्य हैं.

त्रिपुरा, पूर्वोत्तर का इकलौता ऐसा राज्य है जहां पर भाजपा ने अपने दम पर सरकार बनाई है. पार्टी को यहां 60 सीटों में से 35 पर जीत मिली है. इस जीत को भी भाजपा ने वामदलों पर वैचारिक जीत बताया, जिनका करीब तीन दशक से राज्य पर शासन था. भाजपा की इस रणनीति का मकसद सिर्फ इस जीत को बड़ी विजय साबित करने का था.

ऐसे ही पूर्वोत्तर का एक और राज्य अरुणाचल प्रदेश है, जहां पर भाजपा अभी बहुमत में है, लेकिन यहां की कहानी दूसरी है. 2014 में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा को सिर्फ 11 सीटों पर जबकि कांग्रेस को 42 सीटों पर जीत मिली थी लेकिन बाद में भाजपा ने जोड़-तोड़ करके पूरी सरकार अपनी बना ली. अभी प्रदेश में भाजपा के 48 विधायक हैं.

अब हम दूसरे भाजपा शासित राज्यों पर नज़र डालते हैं. महाराष्ट्र (122/288), असम (60/126), बिहार (53/243), झारखंड (35/81), गोवा (13/40), जम्मू कश्मीर (25/89), मणिपुर (21/60), मेघालय (2/60) और नगालैंड (12/60) का आंकड़ा बताता है कि इन राज्यों पर सत्ता में रहने के लिए भाजपा अपने सहयोगियों पर पूरी तरह से निर्भर है.



अब उन राज्यों की चर्चा करते हैं जहां पर भाजपा सत्ता में नहीं है. केरल (1/140), पंजाब (3/117), पश्चिम बंगाल (3/295), तेलंगाना (5/119), आंध्र प्रदेश (4/175), दिल्ली (3/70), ओडिशा (10/147) में भाजपा की राजनीति बेहद कमज़ोर हालत में है.

केवल कर्नाटक एकमात्र दक्षिण भारतीय राज्य है जहां पर भाजपा की स्थिति बेहतर है. इस राज्य में हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 222 में से 104 सीटों पर जीत दर्ज की है. इसके अलावा तमिलनाडु, सिक्किम और पुडुचेरी में भाजपा अपना खाता भी नहीं खोल पाई है.

यानी अगर हम आंकड़ों की माने तो भाजपा के खिलाफ बन रहा महागठबंधन अगर वास्तविकता में सामने आ जाता है तो यह 2019 के आम चुनावों में भाजपा की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक साबित हो सकता है.

2014 से भाजपा का चुनावी सफ़र
इसी तरह केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद यानी पिछले चार सालों में 18 राज्यों में चुनाव हुए हैं, इसमें से भाजपा को केवल पांच राज्यों में पूर्ण बहुमत मिला है. छह राज्यों में उसने सहयोगियों के साथ सरकार बनाई है, वहीं सात राज्यों में अन्य दलों की सरकार बनी है.

अगर हम साल के हिसाब से बात करें तो 2014 में आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, हरियाणा, झारखंड, महाराष्ट्र, ओडिशा, सिक्किम और जम्मू कश्मीर कुल 9 राज्यों में चुनाव हुए थे. इसमें से हरियाणा और झारखंड में भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी जबकि महाराष्ट्र, जम्मू कश्मीर और सिक्किम में भाजपा ने गठबंधन सरकार बनाई. अरुणाचल में बाद में उसकी सरकार बन गई.

2015 में दिल्ली और बिहार में विधानसभा चुनाव हुए, लेकिन इन दोनों जगहों पर भाजपा को बुरी तरह हार का मुंह देखना पड़ा. अब ये अलग बात है कि बिहार में जेडीयू के साथ गठबंधन करके भाजपा सत्ता में है.

2016 में असम, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव हुए. लेकिन भाजपा को कही भी बहुमत नहीं मिला, सिर्फ असम में वह गठबंधन की सरकार बना पाई.

2017 में गोवा, गुजरात, मणिपुर, पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव हुए. इसमें उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात और हिमाचल प्रदेश में भाजपा ने बहुमत वाली सरकार बनाई, वहीं गोवा और मणिपुर में भाजपा ने गठबंधन की सरकार बनाई.

2018 में अब तक मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा और कर्नाटक में चुनाव हुए हैं. इसमें से सिर्फ त्रिपुरा में भाजपा की बहुमत वाली सरकार है, जबकि मेघालय और नगालैंड में वह सरकार में शामिल है और कर्नाटक में विपक्ष में है.

इस साल के अंत में तीन बड़े राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के अलावा पूर्वोत्तर के मणिपुर में चुनाव होने हैं.


गांधी और नेहरू की तरह सावरकर के नाम को क़ानूनी संरक्षण देने की मांग

हिंदूवादी संगठन अभिनव भारत से जुड़े एक व्यक्ति ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मांग की है कि सावरकर का नाम प्रतीक और नाम (अनुचित प्रयोग रोकथाम) क़ानून में शामिल हो ताकि उन पर किसी तरह का आक्षेप न लगाया जा सके.

 महात्मा गांधी की हत्या की साजिश में विनायक दामोदर सावरकर की किसी भी तरह की भूमिका को नकारने वाले उच्चतम न्यायालय के हालिया आदेश के बाद मुंबई के एक निवासी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सावरकर के नाम का दुरुपयोग और किसी अन्य तरह के विवाद में खींचे जाने से बचाने की अपील की.

प्रधानमंत्री को लिखे एक पत्र में मुंबई के एक हिंदूवादी संगठन अभिनव भारत से जुड़े एक शोधकर्ता एवं न्यासी डॉक्टर पंकज फडनीस ने कहा कि उच्चतम न्यायालय के 28 मार्च के आदेश में अब जब सावरकर के नाम को क्लीन चिट दी जा चुकी है तो जरूरत है कि सावरकर के नाम को प्रतीक और नाम (अनुचित प्रयोग रोकथाम) कानून 1950 में शामिल किया जाए ताकि आगे उन पर किसी तरह का आक्षेप न लगाया जा सके.

अभी तक इस कानून के तहत केवल महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और छत्रपति शिवाजी के नाम शामिल हैं. फडनीस ने सोमवार को सावरकर की 135 वीं जयंती के मौके पर उच्चतम न्यायालय के आदेश की वह प्रति मीडिया के सामने जारी की जिसमें उन पर लगे आरोपों को खारिज किया गया. वीर सावरकर का जन्म 28 मई, 1883 को हुआ था.

रविवार, 27 मई 2018

वसुंधरा सरकार की बेरुख़ी के बीच दो और लहसुन उत्पादक किसानों ने आत्महत्या की

कृषि मंत्री का कहना है कि राजस्थान के किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्ति नहीं है. जब तक जांच पूरी न हो जाए तब तक उसे आत्महत्या कहना ग़लत है.


लहसुन की उपज के कम भाव मिलने की वजह से राजस्थान के हाड़ौती संभाग में अब तक पांच किसान आत्महत्या कर चुके हैं जबकि दो की सदमे से मौत हो चुकी है.

राजस्थान के हाड़ौती संभाग (कोटा, बूंदी, बारां व झालावाड़ ज़िले) के लहसुन उत्पादक किसानों की मुसीबतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा. बाज़ार में उपज का सही दाम नहीं मिल रहा और सरकारी केंद्रों पर बदइंतज़ामी की वजह से ख़रीद नहीं हो पा रही. इससे निराश और हताश किसान मौत को गले लगा रहे हैं.

क्षेत्र के अब तक पांच किसान आत्महत्या कर चुके हैं जबकि दो की मौत सदमे से हो चुकी है. वहीं क्षेत्र के हज़ारों लहसुन उत्पादक किसान अवसाद की स्थिति में पहुंच चुके हैं.

हालात इतने ख़राब हो गए हैं कि कई किसानों को इससे निकलने का आत्महत्या के अलावा और कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझ रहा. बलदेवपुरा (बारां) के चतुर्भुज मीणा भी इनमें से एक हैं. वे 24 मई को लहसुन मंडी में अपनी उपज का दाम पता करने गए थे. वहां उन्हें 500 रुपये प्रति क्विंटल का भाव मिला तो उनकी हिम्मत जवाब दे गई.

उन्होंने इसी दिन रात को सल्फास खाकर अपनी जा दे दी. पहले से ही तंगहाली और क़र्ज़ से परेशान परिवार अपने मुखिया की मौत से सदमे में है. उन्हें इससे उबरने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा.

चतुर्भुज के बेटे मेघराज कहते हैं, ‘हमारे पास ख़ुद की ज़मीन नहीं है. पिता जी ने 16 हज़ार रुपये में भैंस बेचकर दो बीघा ज़मीन किराये पर लेकर इसमें लहुसन बोया. फसल तैयार करने के लिए 60 हज़ार रुपये का क़र्ज़ लिया. फसल भी अच्छी हुई. सोचा था क़र्ज़ भी उतर जाएगा और कुछ बचत भी हो जाएगी, लेकिन हुआ इसका उल्टा. मंडी में जो कीमत मिल रही है उससे तो ज़मीन का किराया भी नहीं निकल रहा. जिनसे उधार लिया था वे रोज़ाना मांगने आते थे. वे बेइज़्ज़त करते थे. धमकी देते थे. पिता जी को इससे बचने का कोई रास्ता नहीं दिखा इसलिए उन्होंने ज़हर खाकर जान दे दी.’

बृजनगर (कोटा) के 38 वर्षीय हुकम चंद मीणा की दास्तां भी ऐसी ही है. उन्होंने 23 मई को अपनी जान दे दी. खेती से घर चलाने लायक मुनाफा कमाने की ज़िद ने उन्हें क़र्ज़ के ऐसे चक्रव्यूह में फंसा दिया कि आत्महत्या करने के अलावा उन्हें इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं मिला.


उनके छोटे भाई सत्यनारायण बताते हैं, ‘ज़मीन की हमारे यहां कोई कमी नहीं है, लेकिन सिंचाई के लिए पानी नहीं है. बड़े भाई ने क़र्ज़ लेकर कई बोरिंग करवाए मगर पानी नहीं निकला. ट्रैक्टर का क़र्ज़ पहले से था. इस बार ख़ुद की ज़मीन के अलावा 20 बीघा किराये की ज़मीन लेकर लहसुन बोया किंतु उल्टा घाटा हो गया.’

हुकम चंद मीणा के यूं चले जाने के बाद पत्नी संतोष बदहवास है. चार बेटियों और एक बेटे के लालन-पालन की ज़िम्मेदारी अब उनके कंधों पर ही है. सबसे बड़ी बेटी 13 साल की है.

वे कहती हैं, ‘मेरे पति हिम्मत हारने वालों में से नहीं थे. उनके बराबर कोई मेहनत नहीं कर सकता. मंडी में लहसुन का भाव कम होने की वजह से वे यह तो कहते थे कि इस बार लहसुन ने बर्बाद कर दिया मगर यह नहीं सोचा था कि ज़हर खाकर जान दे देंगे. अब बच्चों को कौन पालेगा? क़र्ज़ तो हमारे सिर पर रहेगा ही. अब मैं इसे कैसे चुकाऊंगी? मेरा भी मरने का मन होता है पर बच्चों को देखकर रुक जाती हूं.’

कम भाव मिलने की वजह से अब तक सात लहसुन उत्पादक किसान अपनी जान गंवा चुके हैं, लेकिन राज्य की वसुंधरा राजे सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही. वह तो उल्टा अपनी पीठ थपथपा रही है. बाज़ार हस्तक्षेप योजना की अंतर्गत 5864.74 मीट्रिक टन लहसुन खरीद को सरकार अपनी बड़ी उपलब्धि मानती है.

प्रदेश भाजपा के आधिकारिक फेसबुक पेज पर इसके बखान की एक पोस्ट भी है. इसमें सरकारी खरीद केंद्रों से लहसुन खरीद की समय सीमा 15 मई से बढ़ाकर 31 मई करने का भी ज़िक्र है.

राजस्थान भाजपा के फेसबुक पेज पर लहसुन की सरकारी ख़रीद योजना का बखान.
राजस्थान भाजपा के फेसबुक पेज पर लहसुन की सरकारी ख़रीद योजना का बखान.

गौरतलब है कि सरकार बाज़ार हस्तक्षेप योजना के अंतर्गत 3257 रुपये प्रति क्विंटल की दर से लहसुन खरीद रही है, लेकिन इसमें इतनी खामियां कि बहुत कम किसान अपना लहसुन सरकारी ख़रीद केंद्रों पर बेच पा रहे हैं.

सिर्फ कोटा केंद्र की ही बात करें तो यहां कुल 57 हज़ार 545 किसानों ने लहुसन बेचने के लिए पंजीकरण करवाया है, लेकिन अभी तक महज़ 2363 किसानों का लहसुन खरीदा गया है. 31 मई तक और कितने किसान यहां अपनी उपज बेच पाएंगे इसका आकलन किया जा सकता है.

दरअसल, सरकार ने बाज़ार हस्तक्षेप योजना के अंतर्गत लहसुन ख़रीद के जो नियम बना रखे हैं वे इतने कड़े हैं कि ज़्यादातर किसान इसके दायरे से बाहर हो गए हैं. ख़रीद की पहली शर्त यह है कि लहसुन की गांठ का आकार न्यूनतम 25 मिलीमीटर होना चाहिए.

इसके अलावा वह गीली, ढीली व पिचकी हुई नहीं होनी चाहिए. जिन किसानों का लहसुन गुणवत्ता के इन मापदंडों पर खरा भी उतर रहा है उसे भी सरकार आसानी से नहीं ख़रीद रही. अव्वल तो ख़रीद के केंद्र सीमित हैं और यहां तुलाई की गति बहुत धीमी है. यही वजह है कि किसानों का धैर्य जवाब देने लगा है.

सरकार की इस बेरुख़ी से इलाके के भाजपा के नेता ही परेशान हैं. छबड़ा से पार्टी के विधायक प्रताप सिंह सिंघवी सरकार की लहसुन ख़रीद नीति पर सार्वजनिक रूप से प्रश्नचिह्न लगा चुके हैं.

सिंघवी कहते हैं, ‘इस बार क्षेत्र में लहसुन की बंपर पैदावार हुई है, लेकिन किसानों को लागत के बराबर भी भाव नहीं मिल रहे. सरकार बाज़ार हस्तक्षेप योजना के अंतर्गत ख़रीद तो कर रही है मगर इसकी शर्तें इतनी कड़ी और सिस्टम इतना हैं कि ज़्यादातर किसानों को इसका लाभ नहीं मिल रहा. ख़रीद के लिए लहसुन का न्यूनतम 25 एमएम का होने की शर्त पूरी तरह से बेतुकी है. मैंने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर किसानों की समस्याओं का समाधान करने की मांग की है.’

हालांकि राज्य के कृषि मंत्री प्रभु लाल सैनी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि सरकार की लहसुन ख़रीद नीति में कोई खामी है. वे कहते हैं, ‘सरकार पूरी तत्परता से लहसुन की ख़रीद कर रही है. जहां तक नियम-शर्तों का सवाल है तो गुणवत्ता देखकर ख़रीद करना ज़रूरी है. ख़राब लहसुन को कोई नहीं खरीदेगा. आख़िर सरकार को भी इसे बेचना ही है.’

किसानों की आत्महत्या से भी सैनी इत्तेफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, ‘राजस्थान के किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्ति नहीं है. जब तक जांच पूरी न हो जाए तब तक उसे कम भाव मिलने के कारण आत्महत्या कहना गलत है.’

किसान नेता दशरथ कुमार लहसुन ख़रीद मामले में सरकार की मंशा पर सवाल खड़े करते हुए कहते हैं, ‘सरकार महज़ खानापूर्ति के लिए बाज़ार हस्तक्षेप योजना के अंतर्गत लहसुन की ख़रीद कर रही है. उसका मक़सद किसानों को राहत पहुंचाना है ही नहीं. न तो ख़रीद के लिए 25 एमएम आकार की शर्त रखना तर्कसंगत है और न ही चुनिंदा खरीद केंद्र खोलना. सरकारी केंद्रों पर जिस गति से लहसुन ख़रीदा जा रहा है उस हिसाब से तो किसानों की उपज खरीदने में 13 महीने का समय लगेगा जबकि समय सीमा 31 मई तक की है.’

आश्चर्यजनक यह है कि राजस्थान के जिस हाड़ौती संभाग में लहसुन उत्पादक किसान परेशान हैं वही मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का निर्वाचन क्षेत्र भी है. उनके बेटे दुष्यंत सिंह भी यहीं से सांसद हैं. बावजूद इसके सरकार की बेरुख़ी समझ से परे है.

किसानों की नाराज़गी का एक कारण मध्य प्रदेश सरकार की भावांतर योजना भी है.

उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश की शिवराज सरकार इस योजना के अंतर्गत लहसुन की उपज पर किसानों को भाव के अंतर के तौर पर 800 रुपये प्रति क्विंटल की दर से भुगतान कर रही है. चूंकि राजस्थान का हाड़ौती संभाग मध्य प्रदेश सीमा पर स्थित है इसलिए यहां के किसानों को शिवराज सरकार की इस योजना की जानकारी है.