सोमवार, 17 फ़रवरी 2020

राष्ट्रीय स्तर पर कैसे बनेगा विकल्प?

दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों की समीक्षा और विश्लेषण के बाद दो बातें बहुत स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आई हैं। पहली बात तो यह है कि अरविंद केजरीवाल के अंदर एक बार फिर राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा हिलोरें मार रही है। और दूसरी यह कि राज्यों में तो भाजपा को हराया जा सकता है पर राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष के पास नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प नहीं है, इसलिए उनको हराना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। ये दोनों बातें आपस में जुड़ी हुई भी हैं। राष्ट्रीय स्तर पर सचमुच विकल्प की कमी ने ही केजरीवाल को इस बात के लिए प्रेरित किया है कि वे अपनी महत्वाकांक्षा को विस्तार दें। उन्होंने भरोसा है कि देश के लोग एक विकल्प के तौर पर उनको स्वीकार कर सकते हैं। 

इस भरोसे का कारण यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव के समय जब नरेंद्र मोदी को लेकर उत्तर भारत के लोगों में अदम्य आकर्षण था और उनकी लोकप्रियता अपने चरम पर थी, तब केजरीवाल ने वाराणसी जाकर उनको चुनौती दी थी। उस समय केजरीवाल की कुल जमा उपलब्धि यह थी कि उनकी पार्टी ने दिसंबर 2013 में दिल्ली विधानसभा में 28 सीटें जीती थीं और वे कांग्रेस के समर्थन से 49 दिन तक मुख्यमंत्री रहे थे। सिर्फ इतनी उपलब्धि के दम पर वाराणसी के लोगों ने उनको नरेंद्र मोदी का मुख्य विपक्ष मान लिया था। तभी उस एकतरफा चुनाव में नरेंद्र मोदी को मिले पांच लाख 81 हजार वोट के मुकाबले केजरीवाल को दो लाख नौ हजार वोट मिले थे। कांग्रेस के अजय राय को 75 हजार, बसपा के विजय प्रकाश जायसवाल को 60 हजार और सपा के कैलाश चौरसिया को 45 हजार वोट मिले थे। कांग्रेस, बसपा और सपा तीनों को मिला कर केजरीवाल से कम वोट आया था। इन तीनों की जमानत जब्त हो गई थी। मोदी के मुकाबले केजरीवाल एकमात्र उम्मीदवार थे, जिनकी जमानत बची।

सोचें, जब उनकी उपलब्धियां बहुत मामूली थीं और उनके पास राजनीति या प्रशासन का कोई मॉडल नहीं था तब वाराणसी की जनता ने उनको मोदी के मुकाबले का मुख्य विपक्ष माना था। अब तो उनके पास दिल्ली में पांच साल सरकार चलाने के बाद कामकाज का एक मॉडल है, जिसे वे मोदी के गुजरात मॉडल की तरह पूरे देश में प्रचारित कर रहे हैं। यह काम कुछ वे खुद कर रहे हैं और कुछ हेमंत सोरेन जैसे मुख्यमंत्री भी कर रहे हैं। जैसे मोदी के गुजरात मॉडल को लेकर उत्तर भारत के लोगों में उत्सुकता थी वैसी ही उत्सुकता अब केजरीवाल मॉडल को लेकर हो जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। तभी अरविंद केजरीवाल अपने लिए बहुत अच्छी संभावना देख रहे हैं। अगले लोकसभा चुनाव तक वे दिल्ली में कामकाज के अपने मॉडल को और बेहतर बना कर उसे लोकप्रिय कर चुके होंगे।

यह तो रही केजरीवाल की बात और उनकी महत्वाकांक्षा के पीछे के कारण। पर सवाल है कि क्या बाकी विपक्षी पार्टियां उनको नेता मान कर या मोदी का विकल्प मान कर आगे की राजनीति करने को तैयार होंगी? फिलहाल इसकी संभावना कम दिख रही है। अभी कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी से आगे नहीं देख पा रहे हैं। एनसीपी के नेताओं को शरद पवार में ही वह चमत्कारिक नेतृत्व दिख रहा है, जो समूचे विपक्ष को एकजुट कर सकता है। उधर पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के नेता ममता बनर्जी को स्वाभाविक विकल्प मान रहे हैं। अगर अगले साल के चुनाव में ममता तीसरी बार जीतती हैं तो वे किसी की बात नहीं सुनेंगी। इनके अलावा कुछ और क्षत्रप भी हैं, जो चमत्कार की उम्मीद कर रहे हैं और एचडी देवगौड़ा, आईके गुजराल की तरह लॉटरी निकलने के इंतजार में हैं। ऐसे नेता भी कोई मजबूत, लोकप्रिय और जनता में आकर्षण पैदा करने वाले नेता को आगे बढ़ने से रोकेंगे।

इस वजह से राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा और नरेंद्र मोदी के विकल्प के बारे में सोचने में मुश्किल आ रही है। तभी ऐसा लग रहा है कि अभी तुरंत राष्ट्रीय स्तर पर किसी विकल्प की चर्चा नहीं होगी। पार्टियां भी इंतजार करेंगी, अपनी पोजिशनिंग करेंगी और लोग भी इंतजार करेंगे। अगले कुछ दिन में होने वाले राज्यों के चुनावों से कई चीजें तय होंगी। अगर दिल्ली के बाहर आम आदमी पार्टी कहीं भी चुनाव जीतने में कामयाब होती है तो केजरीवाल का ग्राफ बढ़ेगा और तब उनके लिए अपने को स्वीकार्य बनवाना आसान होगा। इसकी शुरुआत बिहार से हो सकती है, जहां केजरीवाल के साथ चुनावी रणनीतिकार के तौर पर काम कर चुके प्रशांत किशोर नई राजनीति शुरू करने जा रहे हैं। बिहार और पंजाब इन दो राज्यों की राजनीति केजरीवाल की संभावना को सबसे ज्यादा प्रभावित करेंगी।

दूसरी ओर राज्यों में कांग्रेस के प्रदर्शन पर भी बहुत कुछ निर्भर करेगा। अगर अगले लोकसभा चुनाव से पहले होने वाले राज्यों के चुनाव में कांग्रेस पिटती गई तो उसके लिए लोकसभा में कोई संभावना नहीं बनेगी। सो, कांग्रेस की पहली चुनौती कुछ नए राज्यों में जीत हासिल करना और अपने जीते हुए राज्यों में सत्ता बचाने की होगी। संभव है कि अगले चुनाव तक महाराष्ट्र में तख्तापलट हो जाए तो कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष की एकजुटता का प्रयास भी नहीं होगा। यह भी मान कर चलना चाहिए कि तमाम सद्भाव दिखाने के बावजूद केंद्र सरकार दिल्ली में केजरीवाल सरकार के कामकाज में रोड़े अटकाएगी क्योंकि केजरीवाल मॉडल की सफलता भाजपा और नरेंद्र मोदी दोनों के लिए खतरे की घंटी है। भाजपा अगले पांच साल इस बात का हर प्रयास करेगी कि केजरीवाल दिल्ली से बाहर नहीं निकल पाएं और उनका मॉडल पंक्चर हो। कांग्रेस मुक्त भारत की बजाय अब मोदी का जोर अब केजरीवाल को रोकने पर होगा।

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