अरविंद केजरीवाल ने सचमुच चमत्कार कर दिखाया। भारत में आज के माहौल में कोई पार्टी या नेता अपने काम पर वोट मांग कर चुनाव जीते, तो इसे एक सुखद आश्चर्य ही कहा जाएगा। केजरीवाल को ये श्रेय देना होगा कि उन्होंने “अपने काम” को चुनावी मुद्दा बनाया। शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी और परिवहन की सुविधाएं आम जन तक पहुंचाने की अपनी कामयाबियों पर दोबारा जनादेश मांगा।
अब चूंकि उन्हें ऐसा भारी जनादेश मिल गया है, तो यह मानना पड़ेगा कि दिल्ली के लोगों ने इन मामलों में उनकी सरकार के दावों पर अपनी मुहर लगा दी है। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी लाभ की स्थिति में चुनाव मैदान में उतरी थी। उसके पास संसाधनों की तो कभी कमी नहीं रहती। मगर इस बार माहौल भी उसके पक्ष में था। आठ महीने पहले आए लोक सभा चुनाव के नतीजों में उसने दिल्ली की 70 में से 65 सीटों पर बढ़त बनाई थी। उसने 55 फीसदी से अधिक वोट हासिल किए थे। दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी लोक सभा की सात में से पांच सीटों पर तीसरे नंबर पर थी। तीन साल पहले नगर निगम के चुनाव में भी वह भाजपा से मात खा गई थी। ऐसे में आरंभ में आम अनुमान भाजपा के पक्ष में होना स्वाभाविक था। मगर भाजपा ना तो दिल्ली में कोई चेहरा पेश कर पाई, ना यहां के मुद्दों पर यहां के लोगों से अपने तार जोड़ पाई। इसके विपरीत उसने हिंदू-मुसलमान, पाकिस्तान, शाहीन बाग आदि जैसे जज्बाती मुद्दे छेड़े। गृह मंत्री अमित शाह ने जिस स्तर पर अपने को चुनाव में झोंक दिया, वह अभूतपूर्व है। मगर ये सब मिलकर भी केजरीवाल के काम का काट नहीं बन सके।
जाहिर है, इससे अमित शाह की छवि को भारी नुकसान पहुंचा है। उनके कथित माइक्रो मैनेजमेंट और चुनाव जीतने की महारत अब संदिग्ध हो गई है। सवाल है कि जब महाराष्ट्र, हरियाणा, और झारखंड के विधान सभा चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दे कारगर नहीं हुए थे, तो भी फिर दिल्ली में उन पर ही चुनाव लड़ने का फैसला करना आखिर कितना बुद्धिमत्तापूर्ण था? बहराहल, आप और भाजपा के बीच हुए ध्रुवीकरण में कांग्रेस फिर पिस गई। वह इस पर तो संतोष कर सकती है कि भाजपा को एक और हार का मुंह देखना पड़ा है, मगर दिल्ली में अब उसके सामने अस्तित्व का संकट है। वैसे यह माना जा सकता है कि दिल्ली के चुनाव नतीजों से सभी विपक्षी दलों में उत्साह का संचार होगा, क्योंकि ये संदेश फिर गया है कि भाजपा अपराजेय नहीं है।

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