अब तो भाजपा ने विधानसभा का चुनाव भी नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ कर देख लिया पर नतीजा वहीं ढाक के तीन पात निकला। लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा ने तीन राज्यों का चुनाव वहां के मुख्यमंत्रियों के नाम पर लड़ा था और तीनों राज्यों में हारी थी। उसके बाद ही बदली हुई रणनीति के तहत दिल्ली में नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ने का फैसला किया गया। तीन राज्यों में तो भाजपा जैसे तैसे प्रतिष्ठा बचाने में कामयाब रही थी पर दिल्ली में पार्टी की शर्मनाक हार हुई।
सो, अब कहा जा रहा है कि अकेले नरेंद्र मोदी राज्यों में भाजपा को चुनाव नहीं जीता सकते हैं। उनके प्रति देश के मतदाताओं का अब भी मोहभंग नहीं हुआ है। संभव है कि अभी दिल्ली में लोकसभा का चुनाव हो तो फिर उनके नाम पर भाजपा सातों सीट जाए। पर विधानसभा में वे पार्टी को जीत नहीं दिला सकता है। लोकसभा चुनाव के आठ महीने बाद ही भाजपा का वोट प्रतिशत 20 फीसदी से ज्यादा कम हो गया। यह मामूली बात नहीं है। इसका मतलब है कि लोग राज्यों अलग किस्म की राजनीति चाहते हैं और इसके लिए जरूरी है कि राज्यों में भी मजबूत क्षत्रप नेता हों।
असल में पिछले पांच-छह साल में जाने-अनजाने में राज्यों में भाजपा के मजबूत क्षत्रपों को कमजोर किया गया। पुराने और जमे जमाए, जमीनी पकड़ वाले नेताओं को किनारे करके नए और बिना किसी खास आधार वाले नेताओं को आगे किया गया। इसी वजह से भाजपा को महाराष्ट्र में भी नुकसान हुआ, हरियाणा में भी हुआ और झारखंड में तो खैर पार्टी चुनाव हार कर सत्ता से बाहर हो गई। यहीं कहानी दिल्ली में भी दोहराई गई है।
अब ऐसा लग रहा है कि भाजपा इसमें बदलाव करेगी और राज्यों में क्षत्रपों को तरजीह देगी। इसकी शुरुआत झारखंड में हो गई है। वहां पार्टी छोड़ कर गए राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी को भाजपा में वापस लाया जा रहा है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह के भाजपा की कमान संभालने के बाद यह संभवतः पहला मामला है, जब इतना बड़ा क्षत्रप पार्टी में वापसी कर रहा है। उनके होने से पार्टी को प्रदेश में लाभ होगा। असल में लोगों को पता है कि नरेंद्र मोदी राज्य में मुख्यमंत्री बनने नहीं आ रहे हैं। इसलिए उनके प्रति सद्भाव रखने के बावजूद मतदाता भाजपा को वोट नहीं करते हैं। अगर राज्य का मजबूत चेहरा होगा तो मोदी के साथ मिल कर वह ज्यादा बड़ा प्रभाव पैदा कर सकता है।

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