बुधवार, 24 जुलाई 2019

'कर्नाटक' के नाटक के बाद 'मध्यप्रदेश' में आहट..!

कुमार स्वामी सरकार के जाने के साथ  यदि कर्नाटक के नाटक का पटाक्षेप हो गया। तो अब राष्ट्रीय स्तर पर इस बहस के कारण सियासत की धुरी कांग्रेस शासित राजस्थान मध्य प्रदेश का बनना तय।  इन दोनों राज्यों में विधानसभा का अपना गणित।  तो खासतौर से मध्यप्रदेश में कॉन्ग्रेस सरकार सपा, बसपा और निर्दलीयों के समर्थन से राज कर रही है।  जिनके बदलते बयान डैमेज कंट्रोल के लिए मजबूर करते रहे । मुख्यमंत्री कमलनाथ सदन में अपना बहुमत एक से ज्यादा बार सिद्ध कर चुके तो 24 घंटे पहले ही बजट पारित कराकर सरकार की स्थिरता का संदेश भी दे चुके।  बावजूद इसके प्रबंधन के महारथी कमलनाथ के लिए बदलते सियासी परिदृश्य में नई चुनौतियों से इंकार नहीं किया जा सकता।  सपा बसपा और निर्दलीय विधायकों को पूरी तरह से भरोसे में लेना उनकी यदि पहली प्राथमिकता होगी तो झाबुआ उपचुनाव में जीत । 

संख्या गणित को  मजबूत करने के लिए कुछ ज्यादा ही जरूरी हो गई है।   कर्नाटक के नाटक को ध्यान में रखते हुए कमलनाथ को अपना कुनबा भी और अच्छी तरह से दुरुस्त करना होगा ।  क्योंकि कर्नाटक में भले गठबंधन की सरकार हो लेकिन कांग्रेस के विधायकों का भी अपनी पार्टी और नेता से मोहभंग हुआ।  ऐसे में सवाल खड़ा होना लाजमी समन्वय सामंजस्य की कार्यशैली पर चलते हुए जब कमलनाथ ने भाजपा सरकार के खिलाफ व्यापम सिंहस्थ समेत एक साथ कई जांच का रास्ता साफ करवा दिया । तब देखना दिलचस्प होगा उनकी इस आक्रमक राजनीति पर भाजपा का आखिर रुख क्या होगा । जो फिलहाल नेतृत्व के संकट से जूझ रही और कर्नाटक के यदि पन्ने पलटकर पिछले 6 माह का ट्रैक रिकार्ड देखा जाए तो कम से कम मध्यप्रदेश में भाजपा की ओर से ऐसी कोई कोशिश नहीं की गई जिससे यह संदेश जाए की उसकी रुचि कांग्रेस सरकार को गिराने में है । 

वह बात और है कि भाजपा के कई नेता सरकार को गिराने का दावा जरूर करते रहे।  एक बार फिर कुमार स्वामी सरकार जाने का कारण पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कॉन्ग्रेस कि अंतर कलह बताया तो मध्यप्रदेश में कमलनाथ सरकार को सावधान इशारों इशारों में किया। ऐसे में  कमलनाथ भले ही दावा करे कि उनकी सरकार के लिए कर्नाटक जैसा कोई संकट खड़ा नहीं होने वाला।  लेकिन झाबुआ विधानसभा उपचुनाव से लेकर फिलहाल दूर लेकिन राज्यसभा चुनाव के दौरान इस सरकार की स्थिरता और स्थिरता को लेकर जरूर सवाल खड़े किए जा सकते।  क्योंकि भाजपा का ऑपरेशन कमल इन दिनों राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में है चाहे फिर मामला राज्यसभा का हो या फिर राज्यों की राजनीति से जुड़ा।  फिर भी बड़ा सवाल जब विधानसभा का बजट सत्र समापन की ओर है क्या इसके बाद कमलनाथ अपने मंत्रिमंडल का पुनर्गठन करेंगे जिसके बाद ही संकट दूर दूर तक नहीं या फिर बढ़ेगा इसकी सही तस्वीर सामने आ सकेगी। 

कुमार स्वामी  सरकार के बहुमत खो देने का कारण यदि कांग्रेस और उनके अपने जेडीएस के विधायकों का बगावत कर बीजेपी के पाले में खड़ा हो जाना था।  तो भी इस पूरे घटनाक्रम से  जो संदेश निकल कर सामने आए  उसे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ को भी  समय रहते समझ लेना चाहिए।  ऑपरेशन कमल के दौरान  मुख्यमंत्री कुमार स्वामी ने अपने अंतिम भाषण में जो महत्वपूर्ण बात कही  उसमें एक यह भी थी  कि उन्होंने  राज्य के लिए दिल्ली जाकर  करीब आधा दर्जन केंद्रीय मंत्रियों से  सहयोग मांगा लेकिन उन्हें नहीं मिला। 

तो अपनों को नहीं मना पाए जो रूठ गए थे  और बगावत तक जा पहुंचे। वही बसपा सुप्रीमो मायावती के फरमान के बाद  उनके एकमात्र विधायक ने मतदान में हिस्सा भी नहीं लिया।   ऐसे में मध्य प्रदेश के बसपा के 2 विधायकों पर कमलनाथ सरकार को पैनी नजर रखना होगी।  यही नहीं विधायक स्तर से आगे कमल नाथ जो मायावती के संपर्क में लगातार बना रहना होगा।   उन्हें भी व्यक्तिगत स्तर पर अपनी सरकार की सेहत के लिए भरोसे में लेना ही होगा।  बात लगातार दे रहे समर्थन तक सीमित नहीं रहती न जाने कब बहन जी का संदेश आ जाए या फिर बीजेपी इन पर डोरे डालने लगे । 

कांग्रेस के लिए अच्छी बात यह है कि रामबाई को पारिवारिक मामलों में पुलिस द्वारा जो राहत मिली उसके बाद कमलनाथ के प्रति उनका भरोसा बढ़ा।  लेकिन मंत्री नहीं बनाए जाने की कसक गाहे-बगाहे उन्हें दलित जरूर करती रही है । तो संजीव सिंह कुशवाहा की मंत्रियों से नाराजगी का भी कोई स्थाई समाधान सीधे हस्तक्षेप के साथ मुख्यमंत्री को निकाल लेना होगा।  सपा विधायक राजेश शुक्ला बबलू की गिनती गैर भाजपा गैर कांग्रेस उन विधायकों में होती  जिन्होंने खुलकर कमलनाथ के खिलाफ प्रेशर पॉलिटिक्स का सहारा नहीं लिया । बावजूद इसके अपने क्षेत्र के विकास को लेकर उनकी पीड़ा किसी से छुपी नहीं है । एक निर्दलीय प्रदीप जयसवाल को कमलनाथ द्वारा मंत्रिमंडल में शामिल किए जाने के बाद तीन अतिरिक्त निर्दलीय विधायकों की महत्वाकांक्षाओं को भी कमलनाथ को समझना होगा। 

क्योंकि इन अतिरिक्त विधायकों में से यदि किसी एक ने दूसरे का हाथ पकड़कर सरकार के खिलाफ अपनी नाराजगी का इजहार खुलकर किया या परदे के पीछे वह भाजपा के मैनेजरों के संपर्क में आ गया तो फिर कांग्रेस का संकट आगे भी बढ़ सकता है।  दूसरी बड़ी चुनौती जिसका जिक्र अक्सर कमलनाथ और उनके मंत्री करते हैं कि खजाना बीजेपी की सरकार खाली छोड़ कर गई है।  ऐसे में केंद्र की मोदी सरकार से कमलनाथ की अपेक्षाएं कितनी पूरी होंगी समझा जा सकता है।  वह बात और है कि व्यक्तिगत तौर पर कमलनाथ के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कई मंत्रियों से अच्छे संबंध है। 

लेकिन मध्यप्रदेश के लिए केंद्र अपना खजाना खोल देगी इसके लिए इंतजार करना होगा । तो वचन पत्र के जरिए विधानसभा चुनाव में किए गए वादे पूरे करना इस कांग्रेस सरकार के लिए आसान नहीं होगा खासतौर से जिस तरह किसान कर्ज माफी के मामले में समस्याएं खत्म होने का नाम नहीं ले रही।  वह बात और है कि पिछड़े वर्ग को 27% आरक्षण देने का वादा निभाने के लिए इस सरकार ने सदन में विधेयक पारित करवा लिया।  तो पदोन्नति में आरक्षण को लेकर सवर्णों की नाराजगी दूर करने के लिए भी मंत्रियों की समिति का गठन किया जा चुका है । 

अच्छी बात यह है  कमलनाथ ने ज्योतिरादित्य सिंधिया से लेकर दिग्विजय सिंह को भरोसे में लेकर कांग्रेस के अंदर की कलह को भले ही थाम लिया।   लेकिन जिन विधायकों को मंत्री महत्व नहीं दे रहे और जो अपनी अपेक्षाओं के साथ मुख्यमंत्री तक नहीं पहुंच पाते उन्हें भी भरोसे में  लेना होगा।  या फिर आर्थिक तौर पर कमजोर विधायक खुद को नजरअंदाज महसूस कर रहे  कही वो प्रलोभन के चलते कांग्रेस के लिए कमजोर कड़ी साबित तो साबित नहीं हो जाएंगे । 

कर्नाटक के नाटक पर यदि गौर किया जाए बीजेपी ने अपना कुनबा मजबूत करने के लिए सारे विकल्प न सिर्फ खोल दिए थे । बल्कि जेडीएस कांग्रेस सरकार की रवानगी को अपनी प्रतिष्ठा से भी जोड़ लिया था । इस मुहिम की अगुवाई पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने की तो सवाल यही पर खड़ा होता है कि अधिक कर्नाटक में बीजेपी ने सब कुछ येदुरप्पा के ऊपर छोड़ रखा था।  तो मध्यप्रदेश में राष्ट्रीय नेतृत्व आखिर किस नेता  पर भरोसा करेगा । जो पार्टी के संख्या गणित को मैजिक फिगर तक पहुंचाने में दिलचस्पी ले।  परदे के पीछे इसकी रणनीति हो या फिर शर्त और समझौते बीजेपी के लिए आसान नहीं होंगे। 

सवाल भाजपा के अंदर मध्य प्रदेश को लेकर खड़ा होना तय है क्योंकि विधानसभा चुनाव हारने के बाद जब केंद्र में मोदी सरकार लौट चुकी है । बावजूद इसके प्रदेश भाजपा में जो समन्वय जोश उत्साह नजर आना चाहिए वह नहीं देखा जा रहा।  कारण कुछ भी हो चाहे फिर पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की संगठन द्वारा राष्ट्रीय भूमिका और सदस्यता अभियान में उन्हें काम पर लगा देना हो बावजूद उसके शिवराज मध्य प्रदेश छोड़ने को तैयार नजर नहीं आते। 

कुमार स्वामी सरकार गिरने के बाद शिवराज की प्रक्रिया भी गौर करने लायक है जो अपने पुराने रुख पर कायम है लेकिन संभावनाओं को खत्म भी नहीं करते।  तो पश्चिम बंगाल के हीरो  राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय की बढ़ती धमक और सियासी कद के बावजूद मध्यप्रदेश में उनकी धमाकेदार एंट्री संभव नहीं हो पाई है।  यही नहीं शिवराज के नेता प्रतिपक्ष नहीं बनने के बाद गोपाल भार्गव ने यदि अपनी सक्रियता बढ़ाई है तो पूर्व संसदीय मंत्री नरोत्तम मिश्रा की आक्रमक राजनीति से भाजपा विधायकों के बीच कई सेंटर बन चुके हैं। 

कुल मिलाकर भाजपा के अंदर अनिश्चितता का माहौल है तो उसकी वजह है पार्टी हाईकमान का फिलहाल मध्य प्रदेश को नजरअंदाज करना।  जो अच्छी तरह जानती है कि बिना कांग्रेस के कुछ विधायकों के पाला बदले उसके लिए ऑपरेशन कमल आसान नहीं है ।  तो  कभी  कांग्रेस और उसकी विचारधारा से जुड़े रहे  विधायक जो भाजपा में है  उन पर  कमलनाथ की भी नजर है । 

विधायक दल और प्रदेश भाजपा संगठन भले ही समन्वय का दावा करें लेकिन लचर कमजोर संगठन और उसकी गतिविधियों ने भाजपा को चुनाव हारने के बाद कमजोर ही साबित किया है।  कुल मिलाकर कर्नाटक की तरह भाजपा के पास कांग्रेस सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने वाला कोई एक स्वीकार्य नेता नहीं है।  जो खुलकर अपने विधायकों और विरोधियों को यह संकेत दे कि कमलनाथ सरकार को चुनौती दी जा सकती है । तो राष्ट्रीय नेतृत्व की मध्य प्रदेश को लेकर अनदेखी और अपनी ही पार्टी भाजपा की गतिविधियों को नजरअंदाज करना पहले से ही चर्चा का विषय बना हुआ।  

कर्नाटक में कुमारस्वामी का विकल्प यदि येदुरप्पा को माना जा रहा था इसलिए विरोधी उनके पीछे आकर खड़े हो गए।  लेकिन मध्यप्रदेश में कमलनाथ की सरकार भले ही तलवार की धार पर चल रही हो  उसे भाजपा की चुनौती दूर-दूर तक यदि नजर नहीं आती ।  उसकी बड़ी वजह है पार्टी के अंदर नेतृत्व का गहराता संकट और अनिश्चितता आखिर कौन सत्ता में लौटने के लिए संख्या गणित जुटाने के लिए आगे आएगा । तो वह रणनीतिकार कौन होंगे जो इसे अंजाम तक पहुंचा सकते हैं। 

यह जानते हुए कि कमलनाथ ने अपनी सरकार को स्थिरता प्रदान करने के लिए न सिर्फ अतिरिक्त विधायकों को भरोसे में ले रखा है बल्कि पार्टी के अंदर कुनबे की कलह को भी बड़ी होशियारी और चतुराई से रोक रखा है।  यही नहीं दिल्ली से राहुल गांधी की मध्य प्रदेश को लेकर नाराजगी की जो खबरें आती रही उन पर भी अब विराम लग चुका है। 

कुल मिलाकर कर्नाटक के नाटक के बाद कांग्रेस से ज्यादा कमलनाथ की साख दूरदर्शिता और उनकी प्रबंधन क्षमता रोज नई चुनौती के साथ कसौटी पर होगी।  जिनका ज्यादातर समय अधिकारियों पार्टी के विधायकों के बीच गुजरता है जबकि प्रदेश की जनता और पार्टी के कार्यकर्ताओं को उनका जिला स्तर पर प्रस्तावित दारु के साथ  आज भी इंतजार है। 

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