मतदाता एक ही जगह मतदान कर सकता है तो उम्मीदवार दो जगह से कैसे खड़ा हो सकता है
समाज शास्त्रियों के अनुसार भारत में सामाजिक एवं आर्थिक के विकास के साथ ही चुनाव प्रक्रिया में व्यापक सुधार की जरूरत है। लेकिन, चुनाव सुधार की रफ्तार अत्यंत ही धीमी होने की वजह से आज भी कई सवाल अनुत्तरित रह गये हैं।
पिछले दिनों चुनाव आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय में इस बाबत एक हलफनामा दिया है। अपने हलफनामे में चुनाव आयोग ने न्यायालय के समक्ष कहा है कि एक प्रत्याशी को दो सीटों से चुनाव लड़ने से रोका जाना चाहिए, क्यों कि इससे खर्च बढ़ता है। आयोग ने यह भी कहा कि अगर कोई उम्मीदवार दोनों सीट जीतने के बाद एक खाली करता है तो उससे दूसरे सीट के उप चुनाव का खर्च वसूला जाना चाहिए।
स्वाभाविक रूप से जब कोई प्रत्याशी किसी क्षेत्र की जनता से वोट मांग कर विजयी होता है, फिर वह अपनी सुविधा के अनुसार किसी एक क्षेत्र को छोड़कर दूसरे क्षेत्र का प्रतिनिधित्व को अंगीकार करता है तो पहले क्षेत्र की जनता खुद को ठगा हुआ महसूस करती है।
1990 में गोस्वामी समिति की रिर्पोट में इसका पहली बार जिक्र आया था। 2004 में मुख्य चुनाव आयुक्त ने भी तत्कालीन प्रधानमंत्री से जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 33 (77) में संशोधन की मांग की थी, ताकि एक व्यक्ति एक से अधिक सीटों पर चुनाव ना लड़ सके। जानकारों का यह मानना है कि जब एक व्यक्ति एक ही स्थान पर मतदान कर सकता है, तो फिर एक व्यक्ति दो स्थानों पर कैसे प्रत्याशी हो सकता है ? 1990 में पूर्व केंद्रीय मंत्री दिनेश गोस्वामी समिति की रिर्पोट आयी।
1992 में तत्कालीन चुनाव आयुक्त टीएन शेषण ने गोस्वामी समिति की रिर्पोट लागू करने के लिए पीवी नरसिंह राव सरकार को पत्र लिखा था। लेकिन, इन प्रस्तावों और आयोग के पत्रों पर कुछ खास नहीं हुआ। इस समिति ने कई महत्वपूर्ण सुझाव व सिफारिशें भी की। प्रमुख सिफारिश यह थी कि किसी भी व्यक्ति का दो से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव लड़ने की अनुमति न दी जाये। हालांकि गोस्वामी समिति की सिफारिश पर अमल नहीं किया गया।
प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने 9 जनवरी, 1990 को सर्वदलीय बैठक बुलाई थी। समिति के सदस्यों में लालकृष्ण आडवाणी, सोमनाथ चटर्जी, एरा सेझियन जैसे अग्रिम पंक्ति के राजनीतिज्ञ थे। बैठक के परिणामस्वरूप तत्कालीन विधि मंत्री दिनेश गोस्वामी की अध्यक्षता में एक समिति बनायी गयी। इस समिति ने 107 सिफारिशें की, जिसमें अधिसंख्य लागू नहीं की गयी।
देश में चुनाव सुधार की रफ्तार का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उक्त समिति की सिफारिश के 27 वर्षों की लंबी अवधि के बाद चुनाव आयोग ने अपने हलफनामे में इस महत्वपूर्ण सवाल को पिछले दिनों एक बार फिर उठाया है। चुनाव सुधार की दिशा में एक देर से ही सही लेकिन महत्वपूर्ण कदम कहे जा सकते हैं।



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