देश के अलग-अलग हिस्सों में जो हुआ वह अंदर ही अंदर खदबदा रहे गुस्से का बहाना मिलते ही फूट पड़ना है। एससी-एसटी एक्ट में सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था तो एक बहाना है असली मुद्दा यह है कि मोदी सरकार में दलित अपने को ठगा महसूस कर रहा है। दलित और खासकर नौजवान दलित मोदी सरकार और भाजपा की डा
अंबेडकर की दुहाई देने, दलित के घर जा कर नेताओं के खाना खाने की नौंटकी से तंग आ चुका है। वह रोजगार को ले कर उतना ही परेशान है जितना आम नौजवान है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने एक भी दलित को न मुख्यमंत्री बनाया और न उपमुख्यमंत्री। न आदिवासी का सशक्तिकरण है और न अनूसूचित जाति का। इससे भी ज्यादा घायल बनाने वाली हकीकत यह है कि गुजरात के ऊना से ले कर राजस्थान, मध्यप्रदेश, झारखंड में गौवंश व्यापार पाबंदी से दलित के काम धंधे प्रभावित है तो आदिवासी के जमीन मामले में भी सरकारों का रवैया हक छीनने वाला रहा। त्रिपुरा, असम, झारखंड, छतीसगढ, मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र सब जगह नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने वायदों की झड़िया लगा कर आदिवासियों के वोट लिए लेकिन मुख्यमंत्री बनाने का वक्त आया तो उस राज्य में भी आदिवासी के हाथ से सत्ता निकल गई जिसे आदिवासी बहुल माना जाता था और जहां 2015 से पहले तक हमेशा आदिवासी मुख्यमंत्री रहा। यों अपनी जगह इस परिवर्तन की जरूरत का तर्क हैं लेकिन जब आदिवासी संघ परिवार की चिंता में कोर है तो नए सिरे से नया संतुलन बनाने की क्या मोदी- शाह को कोशिश नहीं करनी थी?
अपनी जगह सवाल है कि पिछले चार सालों में मोदी- शाह ने किस आदिवासी, किस दलित नेता को महत्व दिया? एक को भी नहीं। इसलिए क्योंकि नरेंद्र मोदी मानते है कि वे जब मन की बात मे डा अंबेडकर के प्रति भक्ति बतला दे रहे हंै तो दलित को इससे अधिक और क्या चाहिए। जब अमित शाह खुद दलित के घर जा कर रोटी खा रहे है तो क्या यह दलित को सिर पर बैठाना नहीं है? यही इनका बलंडर है। दोनों नेताओं ने हर वर्ग, हर जांत का अपने को पालनहार माना हुआ है तो इन्हे यह सुध कैसे हो सकती है कि दलित के दुख दर्द के लिए दलित नेता चाहिए। किसान के दुख दर्द के लिए किसान नेता चाहिए या बनिए के लिए बनिया नेता, ब्राह्यण के लिए ब्राह्यण नेता, ओबीसी के लिए ओबीसी नेता तो राजपूतों के लिए राजपूत नेता की मान्यता बनवा कर उसे सत्ता का केंद्र बनाना होगा।
तभी ध्यान रहे कि एससी-एसटी एक्ट में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की बात पर भाजपा में, एनडीए में किसी की त्वरित यह चिंता नहीं सुनी गई कि यह कैसे हो गया? विरोधी दलित नेताओं, कांग्रेस और राहुल गांधी ने जब बोला कि यह तो सरकार की ढिलाई है, सुप्रीम कोर्ट के आगे सरकार ने कायदे से तर्क नहीं रखे है तो नरेंद्र मोदी –अमित शाह का ध्यान गया। तब फिर अपने मंत्रियों, दलित नेताओं को जैसे आगे किया उससे उलटे दलितों में सोच बनी कि हमें इतना उल्लू समझे हुए है!
हां, कल तक मोदी सरकार को, सरकार के दलित मंत्री रामविलास पासवान आदि को अंदाज नहीं था कि दलित संगठनों का बुलाया भारत बंद गुस्से का प्रर्दशन बन जाएगा। ध्यान रहे भारत बंद के आव्हान का मतलब हुआ करता है। इन दिनों मजदूर संगठन, व्यापारी संगठन, राजनैतिक दलों को भी फ्लॉप होने की आंशका से भारत बंद जोखिमपूर्ण लगता है। फिर यों भी प्रधानमंत्री मोदी के चाकचौबंद सरकारी प्रबंधों में ऐसे बंद से सब तौब्बा किए हुए है। सोचे, देश की राजधानी दिल्ली में जब अन्ना हजारे के आमरण अनशन के लिए पांच हजार लोगों की भीड़ इकठ्ठी नहीं होने दी जा सकती है तो विरोधी या नाराज वर्ग के लिए भारत बंद से अपनी और ध्यान बनवा सकना तो अकल्पनीय बात है। दिल्ली में पिछले तीन महिने से व्यापारी सीलिंग के खिलाफ कई बार दिल्ली बंद कर चुके हंै लेकिन न मोदी सरकार का ध्यान बना और न मीडिया में हल्ला!
इसलिए आज पूरे देश में जो हुआ है वह मोदी सरकार के चार साला राज का अंहम मोड है। देश के दलित ने बता दिया है कि कुछ भी हो जाए, नरेंद्र मोदी-अमित शाह दलितों को सिर पर बैठा ले, अध्यादेश ले आए फिर भी उनके वोट 2019 में उन्हे नहीं मिलने हंै। आज प्रकट हुआ दलित गुस्सा उत्तर भारत की सभी जातियों, सभी वर्गों में यह फोकस बना गया है कि अब नरेंद्र मोदी, अमित शाह क्या करेगें? वे दलित वोटों को पटाने के लिए किस सीमा तक जाएगें? एनडीए के दलित नेता खासकर रामविलास पासवान, उदित राज आज मन ही मन उछल रहे होंगे कि अब उनका भाव बढ़ेगा लेकिन बिहार में सच्चे दलित नेता आज सड़क पर बैठे दिखे जीतनराम मांझी हो गए है तो दलित नौजवान उदितराज को नहीं बल्कि जिग्नेश मेवानी को सुनेगें।
आज की घटना का असर कर्नाटक के चुनाव में भी होगा तो उसके बाद के विधानसभा चुनावों में भी। भाजपा की अब पहली जरूरत अपने कोर वोट संभालने याकि लिंगायत, ब्राह्यण, बनिया, राजपूत, जाट, गैर-यादव ओबीसी जातियों को बांधने की हो गई है।
दिक्कत यह है कि ट्रेनों पर चढ़े या सड़कों पर उतरे आज जो दलित चेहरे नजर आए उनमें नौजवानों की बहुलता ने फिर सवाल बनाया है कि इसका क्या मतलब है? इन दिनों किसी भी वर्ण या वर्ग की भीड़ में नौजवान चेहरों की गुस्से वाली जो मुखरता दिखाई दे रही है उससे चुनाव के वक्त का माहौल बनाने का जरूरी काम 2019 में कैसे होगा? यदि दिल्ली के सीलिंग त्रस्त व्यापारियों की तरफ से सोशल मीडिया पर भड़ास निकालते चेहरे नौजवान है, किसान आंदोलन में भी नौजवान चेहरे हंै और सीबीएससी बोर्ड की परीक्षा लीक या बेरोजगारी का हल्ला करते चेहरे भी नौजवान है तो 2019 में हर-हर मोदी बोलने वाले नौजवान चेहरे कितने और कहां होंगे?
आज भारत बंद के आव्हान पर जिन राज्यों में दलितों के गुस्से और पुलिस से भिडंत की खबरे आई है उसमें पंजाब को छोड़ सभी भाजपा-एनडीए शासित राज्य है। मध्यप्रदेश, झारखंड, राजस्थान, बिहार, उत्तरप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र से आज आई तस्वीरे बताती है कि दलितों में धीरे-धीरे पका गुस्सा न तो एक मुद्दे में सिमटा हुआ है और इसे जैसे तैसे पलटा जा सकता है। एक कारण नहीं दस कारण और अभी नहीं नोटबंदी के बाद से हुई एक-एक कर कई घटनाओं ने उत्तर भारत के दलितों का मोहभंग बनाया है। ध्यान रहे यह उत्तर भारत ही मोदी-शाह की राजनीति का गढ़ है। यही किसान, मजदूर, व्यापारी, दलित, आदिवासी मौका, बहाने मिलते ही गुस्सा सडक पर ले आ रहे है। सोचे तब आगे सरकार को थपेड़ें मारती कैसी लू चलेगी? अभी तो गर्मी शुरू हुई है।
अंबेडकर की दुहाई देने, दलित के घर जा कर नेताओं के खाना खाने की नौंटकी से तंग आ चुका है। वह रोजगार को ले कर उतना ही परेशान है जितना आम नौजवान है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने एक भी दलित को न मुख्यमंत्री बनाया और न उपमुख्यमंत्री। न आदिवासी का सशक्तिकरण है और न अनूसूचित जाति का। इससे भी ज्यादा घायल बनाने वाली हकीकत यह है कि गुजरात के ऊना से ले कर राजस्थान, मध्यप्रदेश, झारखंड में गौवंश व्यापार पाबंदी से दलित के काम धंधे प्रभावित है तो आदिवासी के जमीन मामले में भी सरकारों का रवैया हक छीनने वाला रहा। त्रिपुरा, असम, झारखंड, छतीसगढ, मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र सब जगह नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने वायदों की झड़िया लगा कर आदिवासियों के वोट लिए लेकिन मुख्यमंत्री बनाने का वक्त आया तो उस राज्य में भी आदिवासी के हाथ से सत्ता निकल गई जिसे आदिवासी बहुल माना जाता था और जहां 2015 से पहले तक हमेशा आदिवासी मुख्यमंत्री रहा। यों अपनी जगह इस परिवर्तन की जरूरत का तर्क हैं लेकिन जब आदिवासी संघ परिवार की चिंता में कोर है तो नए सिरे से नया संतुलन बनाने की क्या मोदी- शाह को कोशिश नहीं करनी थी?
अपनी जगह सवाल है कि पिछले चार सालों में मोदी- शाह ने किस आदिवासी, किस दलित नेता को महत्व दिया? एक को भी नहीं। इसलिए क्योंकि नरेंद्र मोदी मानते है कि वे जब मन की बात मे डा अंबेडकर के प्रति भक्ति बतला दे रहे हंै तो दलित को इससे अधिक और क्या चाहिए। जब अमित शाह खुद दलित के घर जा कर रोटी खा रहे है तो क्या यह दलित को सिर पर बैठाना नहीं है? यही इनका बलंडर है। दोनों नेताओं ने हर वर्ग, हर जांत का अपने को पालनहार माना हुआ है तो इन्हे यह सुध कैसे हो सकती है कि दलित के दुख दर्द के लिए दलित नेता चाहिए। किसान के दुख दर्द के लिए किसान नेता चाहिए या बनिए के लिए बनिया नेता, ब्राह्यण के लिए ब्राह्यण नेता, ओबीसी के लिए ओबीसी नेता तो राजपूतों के लिए राजपूत नेता की मान्यता बनवा कर उसे सत्ता का केंद्र बनाना होगा।
तभी ध्यान रहे कि एससी-एसटी एक्ट में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की बात पर भाजपा में, एनडीए में किसी की त्वरित यह चिंता नहीं सुनी गई कि यह कैसे हो गया? विरोधी दलित नेताओं, कांग्रेस और राहुल गांधी ने जब बोला कि यह तो सरकार की ढिलाई है, सुप्रीम कोर्ट के आगे सरकार ने कायदे से तर्क नहीं रखे है तो नरेंद्र मोदी –अमित शाह का ध्यान गया। तब फिर अपने मंत्रियों, दलित नेताओं को जैसे आगे किया उससे उलटे दलितों में सोच बनी कि हमें इतना उल्लू समझे हुए है!
हां, कल तक मोदी सरकार को, सरकार के दलित मंत्री रामविलास पासवान आदि को अंदाज नहीं था कि दलित संगठनों का बुलाया भारत बंद गुस्से का प्रर्दशन बन जाएगा। ध्यान रहे भारत बंद के आव्हान का मतलब हुआ करता है। इन दिनों मजदूर संगठन, व्यापारी संगठन, राजनैतिक दलों को भी फ्लॉप होने की आंशका से भारत बंद जोखिमपूर्ण लगता है। फिर यों भी प्रधानमंत्री मोदी के चाकचौबंद सरकारी प्रबंधों में ऐसे बंद से सब तौब्बा किए हुए है। सोचे, देश की राजधानी दिल्ली में जब अन्ना हजारे के आमरण अनशन के लिए पांच हजार लोगों की भीड़ इकठ्ठी नहीं होने दी जा सकती है तो विरोधी या नाराज वर्ग के लिए भारत बंद से अपनी और ध्यान बनवा सकना तो अकल्पनीय बात है। दिल्ली में पिछले तीन महिने से व्यापारी सीलिंग के खिलाफ कई बार दिल्ली बंद कर चुके हंै लेकिन न मोदी सरकार का ध्यान बना और न मीडिया में हल्ला!
इसलिए आज पूरे देश में जो हुआ है वह मोदी सरकार के चार साला राज का अंहम मोड है। देश के दलित ने बता दिया है कि कुछ भी हो जाए, नरेंद्र मोदी-अमित शाह दलितों को सिर पर बैठा ले, अध्यादेश ले आए फिर भी उनके वोट 2019 में उन्हे नहीं मिलने हंै। आज प्रकट हुआ दलित गुस्सा उत्तर भारत की सभी जातियों, सभी वर्गों में यह फोकस बना गया है कि अब नरेंद्र मोदी, अमित शाह क्या करेगें? वे दलित वोटों को पटाने के लिए किस सीमा तक जाएगें? एनडीए के दलित नेता खासकर रामविलास पासवान, उदित राज आज मन ही मन उछल रहे होंगे कि अब उनका भाव बढ़ेगा लेकिन बिहार में सच्चे दलित नेता आज सड़क पर बैठे दिखे जीतनराम मांझी हो गए है तो दलित नौजवान उदितराज को नहीं बल्कि जिग्नेश मेवानी को सुनेगें।
आज की घटना का असर कर्नाटक के चुनाव में भी होगा तो उसके बाद के विधानसभा चुनावों में भी। भाजपा की अब पहली जरूरत अपने कोर वोट संभालने याकि लिंगायत, ब्राह्यण, बनिया, राजपूत, जाट, गैर-यादव ओबीसी जातियों को बांधने की हो गई है।
दिक्कत यह है कि ट्रेनों पर चढ़े या सड़कों पर उतरे आज जो दलित चेहरे नजर आए उनमें नौजवानों की बहुलता ने फिर सवाल बनाया है कि इसका क्या मतलब है? इन दिनों किसी भी वर्ण या वर्ग की भीड़ में नौजवान चेहरों की गुस्से वाली जो मुखरता दिखाई दे रही है उससे चुनाव के वक्त का माहौल बनाने का जरूरी काम 2019 में कैसे होगा? यदि दिल्ली के सीलिंग त्रस्त व्यापारियों की तरफ से सोशल मीडिया पर भड़ास निकालते चेहरे नौजवान है, किसान आंदोलन में भी नौजवान चेहरे हंै और सीबीएससी बोर्ड की परीक्षा लीक या बेरोजगारी का हल्ला करते चेहरे भी नौजवान है तो 2019 में हर-हर मोदी बोलने वाले नौजवान चेहरे कितने और कहां होंगे?
आज भारत बंद के आव्हान पर जिन राज्यों में दलितों के गुस्से और पुलिस से भिडंत की खबरे आई है उसमें पंजाब को छोड़ सभी भाजपा-एनडीए शासित राज्य है। मध्यप्रदेश, झारखंड, राजस्थान, बिहार, उत्तरप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र से आज आई तस्वीरे बताती है कि दलितों में धीरे-धीरे पका गुस्सा न तो एक मुद्दे में सिमटा हुआ है और इसे जैसे तैसे पलटा जा सकता है। एक कारण नहीं दस कारण और अभी नहीं नोटबंदी के बाद से हुई एक-एक कर कई घटनाओं ने उत्तर भारत के दलितों का मोहभंग बनाया है। ध्यान रहे यह उत्तर भारत ही मोदी-शाह की राजनीति का गढ़ है। यही किसान, मजदूर, व्यापारी, दलित, आदिवासी मौका, बहाने मिलते ही गुस्सा सडक पर ले आ रहे है। सोचे तब आगे सरकार को थपेड़ें मारती कैसी लू चलेगी? अभी तो गर्मी शुरू हुई है।
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