सोमवार, 16 अप्रैल 2018

राष्ट्रपति जी! मेरी बेटियां सुरक्षित क्यों नहीं हैं

मैं यह पत्र एक व्यथा की अवस्था में लिख रहा हूं, मैं अपने बारे में बता दूं कि मैं एक सामाजिक शोधकर्ता लेखक, प्रशिक्षक की भूमिका में काम करता हूं, किन्तु यह पत्र मैं पिता की हैसियत से लिख रहा हूं।
मुझे ऐसा लग रहा है कि मेरी बेटियां सुरक्षित नहीं हैं। चूंकि मैं बाल अधिकारों को थोड़ा समझता हूं, इसलिए मौजूदा हालातों को व्यापक नजरिये से देखने की कोशिश कर रहा हूं।
मेरी यह कोशिश मुझे और चिंतित कर रही है। व्यापक मानव समाज का एक हिस्सा हूं। अपने आप में बेहद अपूर्ण हूं और कुछ ऐसे सपने पाल कर रखे हूं, जिनमें दूसरे लोगों का बराबरी का हिस्सा है। मेरे लिए बेहतर समाज का मानक और विकास दर बच्चों की खुशी और सुरक्षा से तय होती है। अपने काम में मेरा दायित्व उस विश्वास को जिदा रखना रहता है कि समाज में बदलाव होगा, स्थितियां बेहतर होंगी। अपन सब मिलकर एक बेहतर समाज का सपना पूरा कर पाएंगे।
मुझे जिस तरह का परिवेश मिला, उसने मुझे अहिंसा और प्रेम में विश्वास करना सिखाया है। मुझे लगता है कि व्यक्ति की पहचान उसके आवरण, नाम, खान-पान तक ही सीमित नहीं होती। उसका नजरिया, उसके मूल्य और उसके व्यवहार से उसकी पहचान तय होती है।
आपको यह पत्र लिखने का मूल मंतव्य यह है कि भारत के राष्ट्रपति संघ और राज्य के सर्वोंच्च पदाधिकारी हैं और वे लोकतंत्र की तीनों स्तंभों का आधिकारिक मागदर्शन करते हैं। आज जबकि न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका, तीनों ही बचपन के विज्ञान, संस्कृति, नीति और अधिकारों को समझ पाने में नाकाम होते दिख रहे हैं, तब मैं आपसे मुखातिब हो रहा हूं। एक रूप में राष्ट्रपति संविधान के संरक्षक भी होते हैं। मुझे निजी तौर पर अपने संविधान पर बहुत विश्वास रहा है। यह हमें और हमारी राज्य व्यवस्था को शोषण, गौर-बराबरी, धार्मिक-सामाजिक ऊंच-नीच को खत्म करने का मकसद प्रदान करता है।
यह भारत का संविधान सरकार को समाज का मालिक नहीं बनाता है। यह संविधान लोकतंत्र के जरिये समाज के विभिन्न तबकों को अपनी पहचान और अस्तित्व बनाए रखने का पूरा अधिकार देता है। पहली बार मुझे अपने विश्वास डोलते हुए लग रहे हैं।
कठुआ में आठ साल की बच्ची के साथ जिस तरह का बजंर और दरिंदगी का व्यवहार हमने किया, उससे मेरी सोच में दरार पड़ रही है। उस बच्ची के साथ जो अपराध हुआ, उसमें केवल 8 या 10 लोग अपराधी नहीं हैं।
 उन्नाव की घटना ने भयभीत कर दिया है कि राज्य और राजनीतिक दल बच्चों के खलाफ हो रहे हैं। अगर ईमानदारी से देखा जाए तो पुलिस, राजनीतिक दलों, वकीलों के एक समूह और सरकार ने इस बबज़्र व्यवहार में योगदान दिया है। एक घटना विश्वास तोडऩे के लिए पयाज़्प्त होती है।
महोदय: मेरी आज सबसे बड़ी और मूल पहचान दो बेटियों के पिता की है। एक ऐसा पिता जो कोशिश करता है कि उन बेटियों को अच्छा इंसान बना सके। आज मैं डर गया हूं। क्या बताऊं में उन्हें? क्या सिखाऊं उन्हें? यही कि एक गंभीर इतिहास से गुजऱ कर बने इस भारत के मंदिर में ठीक उन्हीं की उम्र की बच्ची के साथ बलात्कार हो जाता है। भारत में बच्चों के यौन उत्पीडऩ के हर रोज़ 100 मामले दजज़् हो रहे हैं। मेरी एक बेटी की उम्र आठ साल है। मुझे हर पल यह महसूस हो रहा है कि मेरी बेटी के साथ यह घटना घटी है। उस बच्ची का जो भी नाम हो, मैं अपने आप को उससे अलग करके नहीं देख सकता हूं। मेरी बेटी भी हर एक व्यक्ति में विश्वास रखती है। क्या किसी व्यक्ति में विश्वास रखना इतना वीभत्स अपराध होगा? उसे लगता है कि रिश्तों में धर्म का कोई स्थान नहीं होता है, बहरहाल स्कूल से लेकर समाज तक उसे धर्म पढ़ाया जाता है, उसे धर्म में यह नहीं पढ़ाया जाता कि हमारे जीवन मूल्य और स्वभाव कैसा होना चाहिए, उसे पढ़ाया जाता है कि कोई सहपाठी अगर दूसरे धर्म का है तो उससे दूर रहना चाहिए, उनके भोजन को नहीं छूना चाहिए। बहुत कोशिशों के बाद भी उसे यह पाठ सीखने को नहीं मिलता कि किसी भी धर्म की अच्छी बातें क्या हैं? उसे तो हमारे समाज द्वारा सौंपे गए धर्म के बारे में भी कम ही पता है। अगर मैं यह सोचूं कि हम ही उसे बेहतर इंसान बना लेंगे, तो मुझे यह कठिन लगता है क्योंकि उसे तो चहारदीवारी से बाहर निकलना है न! बाहर तो कुछ और ही हवा बह रही है। मेरे पास उनके इन सवालों के जवाब नहीं होते हैं कि एक भीड़ किसी भी आदमी को पीट-पीट कर मार क्यों देती है? ये बलात्कार क्या होता है और कौन करता है? क्यों करता है? मुझे यह कहने में कोई डर नहीं है कि मेरी बेटियों की आज़ादी प्रत्यक्ष रूप से छीनी जा रही है। उनसे गरिमामय जीवन का मूलभूत अधिकार छीना जा रहा है। एक तरफ तो राज्य व्यवस्था मौन है, वहीं दूसरी तरफ मेरी बेटियों की आजादी छीनने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही है। सबसे बड़ा अफसोस इस बात का है कि हमारी व्यवस्था मानती है कि पहले कुछ होने तो दे,फिर कायज़्वाही करेंगे। सरकार हर संकेत को एक घटना मात्र मानकर कार्यवाही करती है और फिर सुसुप्तावस्था में चली जाती है। कहीं ऐसा न हो कि कुछ दिनों में सब इस तरह की घटनाओं के आदी हो जाएं और बाल शोषण एक स्वीकार्य मानक बन जाए। यह बहुत डरावनी कल्पना है। आजकल हम सुन रहे हैं कि बच्चों को अच्छे स्पशज़् और बुरे स्पशज़् (त्रशश िञ्जशह्वष्द्ध-क्चड्डस्र ञ्जशह्वष्द्ध) के बारे में जागरूक किया जाएगा। आजकल जब बच्चों का अपहरण करके बलात्कार किया जा रहा है और उनकी हत्या कर दी जा रही हैं, ऐसे में लगता है कि सरकार बच्चों के प्रति हो रहे शोषण के गहराई को महसूस ही नहीं कर पा रही है। आज की स्थिति में तो मुझे भी नहीं पता कि इस बर्बरता से हम कैसे बाहर निकलेंगे? मैं बस इतना सोच रहा हूं कि बच्चियां सुरक्षित कैसे रहें? आज जब वे अपनी शिक्षा, नृत्य या चित्रकला की कक्षा के लिए जाती हैं, तब एक भय नसों में दौड़ जाता है। हम मां-बाप सोचते हैं कि बच्चों को कक्षा में भेजें या न भेंजें! बच्चों को खेलने मैदान में जाने दें या न जाने दें। तब हम यह सोचते हैं कि जीवन यूं थोड़े रुकता है। कुछ झूठे दिलासों के साथ दिनचर्या में जुट जाते हैं। उनकी वापसी में यदि कुछ क्षण की देरी हो जाती है, तो ख़ून का बहना रुक सा जाता है। आशंका होती है कि ये क्या हुआ? ये एक दिन की बात नहीं है, हर रोज़ का अनुभव है। मुझे यह सोच कर भी डर लगता है कि हमारी अगली पीढ़ी का स्वभाव क्या होगा? क्या लैंगिक हिंसा और बच्चों के प्रति अपराध चरम पर होंगे? तब हमारे विकास का मतलब क्या होगा? मध्य प्रदेश के सतना ज़िले में एक अनुसूचित जाति की बच्ची से बार-बार बलात्कार होता है, उसकी रिपोटज़् दजज़् नहीं की जाती है, वह गभज़्वती हो जाती है। सात माह का जबरिया गभज़्पात किया जाता है। उसे 20 रुपये के साथ मरा हुआ भ्रूण और धमकी देकर सड़क पर धकेल दिया जाता है। तब वह भ्रूण को थैली में रख कर पुलिस कप्तान के दफ़्तर पहुंचती है। यहां किस-किस को सज़ा मिलना चाहिए? जब शिक्षा और स्वास्थ्य बाजार से खरीदना पड़ता है तो हजारों परिवार खुद शोषण के बाज़ार में आकर बिकने के लिए खड़े हो जाते हैं। बच्चों से बलात्कार या अपराध के जो मामले दर्ज हैं, उससे कहीं ज़्यादा मामले तो दजज़् ही नहीं हैं क्योंकि शोषण करवाकर की उनकी सांसें चल पा रही हैं। अपने आस-पड़ोस को देखने के बाद बहुत जम्मिेदारी से यह दर्जकर रहा हूं कि हर तीसरा बच्चा लैंगिक उत्पीडऩ का शिकार हो रहा है। गरीबी, वंचना और जातिवादी दबाव उन बच्चों को यह उत्पीडऩ स्वीकार करने के लिए मजबूर कर रहा है। हमें समाज के भीतर जारी बच्चों के खिलाफ इस युद्ध को रोकना ही होगा। हमें किसी भी बाहरी युद्ध से पहले अपने घर में चल रहे संघर्ष को जीतना है। कम से कम अब तो संसद को एक बार बच्चों के पक्ष में बैठना चाहिए। बच्चों के लिए नीतियां केवल आर्थिक प्रगति को ध्यान में रखकर बनाने की प्रवृत्ति को छोड़कर बच्चों की सुरक्षा, खुशी, गरिमा और स्वतंत्रता के मानक के बारे में सोचना होगा।
महोदय: इस सबके बावजूद मैं तो यही मानता हूं कि किसी समाज में बहुत सारी पुलिस या हथियार नहीं होना चाहिए। हमें कानून का राज स्थापित करना चाहिए, भय, आतंक और हथियार का राज नहीं। ऐसा समाज अच्छा कैसे हो सकता है जिसमें हर तरफ़ पुलिस और हथियार ही हथियार हों; लेकिन सच तो यह है कि हम ऐसे ही समाज की तरफ बढऩे की अपेक्षा कर रहे हैं। भारत में हमने बच्चों के लैंगिक उत्पीडऩ पर क़ानून बनाया, किशोर न्याय अधिनियम में बदलाव किया, पर क्या हुआ? क्या ये कानून समाज को बेहतर बना पाएंगे? इन सालों में बच्चों से यौन हिंसा और ज़्यादा बढ़ी है। कम तो कतई नहीं हुई। अब हम कह रहे हैं कि छोटे बच्चों से बलात्कार के अपराध की सज़ा फांसी कर दी जाए। मुझे यह हल भी उपयोगी नहीं लगता है। क्या बर्बरता का प्रतिकार बर्बरता से संभव है? जब हम मौजूदा कानून और उसके प्रावधानों का ही क्रियान्वयन नहीं कर पा रहे हैं, तो फांसी का प्रावधान भी लागू न हो पाएगा।
यदि लागू हुआ तो आशंका है कि समाज के सबसे वंचित तबके ही और ज़्यादा उत्पीडऩ के शिकार होंगे। फांसी की सज़ा में न्याय व्यवस्था को ग़लती सुधारने का कभी कोई दूसरा मौका नहीं मिलेगा, यह महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि हमारी क़ानून व्यवस्था में कई ख़ामियां हैं, भ्रष्टाचार है, भेदभाव भी है और दुभाज़्वनाएं भी। अपराध बढ़ रहे हैं, भ्रष्टाचार चरम पर है, गौर-बराबरी बढ़ रही है, रिश्ते छिन्न-भिन्न हो रहे हैं, अविश्वास बढ़ रहा है, पर हम नागरिकता के विकास की पहल नहीं का रहे हैं। हम संविधान शिक्षा का आंदोलन नहीं चला रहे हैं। हम स्कूलों में भी बच्चों को प्रति स्पर्धा के जरिये हिंसा का ही पाठ पढ़ाने को तत्पर हैं। हम बाज़ार को नियंत्रित नहीं करना चाहते हैं, क्यों? निर्भया की घटना के बाद न्यायमूर्ति जेएस वर्मा ने स्थितियों को बदलने के लिए एक व्यापक खाका प्रस्तुत किया था। उनकी रिपोर्ट को भी हमारी सरकारों ने धराशायी कर दिया।
आज जब मैं कठुआ की बच्ची के बारे में सोचता हूं, तो मेरे मन में भी हिंसा के ही भाव आते हैं। मैं व्यवस्था पर विश्वास नहीं कर पा रहा हूं। मेरे लिए यही सबसे बुरा संकेत है। कितना ही धन बढ़ा लीजिए, लेकिन धन से बच्चों की सुरक्षा आ पाएगी, इसमें संदेह है! जरूरी है कि सरकार को संविधान के रास्ते पर लाया जाए और हम बच्चों को केंद्र में रखकर अपने विकास की रूपरेखा बनाएं। बच्चों के साथ हो रहे शोषण के मामलों में सरकारों की बढ़ रही सहनशक्ति को तोडऩा होगा। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो हम एक बहुत बुरे भविष्य की तरफ़ बढ़ रहे होंगे। सच तो यह है कि कन्या भू्रण हत्या के अपराध से आगे बढ़कर हम लड़कियों को मृत्यु से बदतर जीवन के लिए तैयार करने लगे हैं। मैं अपनी बेटियों के लिए ऐसे जीवन को नकारता हूं। यह डर तब और बढ़ जाता है जब मैं किसी जनप्रतिनिधि या मंत्री को यह कहते हुए सुनता हूं कि लड़कियों को अपनी हद में रखना चाहिए। उन्हें घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए, उन्हें शाम ढले घर से बाहर निकालना नहीं चाहिए। यदि लड़कियां तंग कपड़े पहनेंगी तो बलात्कार तो होंगे ही! हर बलात्कार के बाद बच्चों और उनके परिजनों को चेतावनी दी जाती है कि लड़कियों को चहारदीवारी में कैद कर लो, अन्यथा बलात्कार हो जाएगा। कठुआ की बच्ची तो दिन में ही तो अपने घोड़ों को चराने के लिए गई थी, क्या उस घटना की जांच में यह पहलू आएगा कि इन लोगों ने उस बच्ची के बलात्कार करने का निणज़्य क्यों और कैसे लिया? और फिर क्या हम उन कारणों के आधार पर तय करेंगे कि आगे ऐसा न हो!
 बात और गंभीर हो गई है। हमारे चुने हुए जनप्रतिनिधि भी बलात्कार के अपराधों में शामिल हो रहे हैं। अपने अपराधों को छिपाने के लिए वे हत्याएं कर सकते हैं, उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय आरोपियों को गिरफ़्तार करने का आदेश देता है, पर सरकार मौन रहकर कुटिल व्यवहार करती रहती है। क्या मुझे यह मानना चाहिए कि मुझे अपनी बेटियों को जनप्रतिनिधि से सुरक्षित करने की विशेष कोशिश करनी चाहिए! मैं सोचता हूं कि हम सबसे भयानक दौर में हैं। मैं एक घटना भर से नजरिया नहीं बना रहा हूं। वर्ष 2016, यानी एक साल में 6 साल से कम उम्र की 520 बच्चियों के साथ बलात्कार दर्ज हुए।
इसी तरह 6 से 12 साल की 1596 बच्चियों के साथ बलात्कार हुए दर्ज हैं। निश्चित रूप से इनमें से कोई एक भी घटना कम बबज़्र तो नहीं ही रही होगी, लेकिन 99 प्रतिशत पर कोई बहस ही नहीं हुई।
महोदय: मैं अब इस व्यवस्था में विश्वास को कैसे रखूं, जिसमें बच्चों से बलात्कार के 64,138 मामलों में एक साल में 6,626 में ही परीक्षण पूरा हो पाता है और इनमें से भी 4,757 मामलों में आरोपी बरी हो जाते हैं। एक मायने में तो व्यवस्था ही बच्चों से बलात्कार की अवसर पैदा कर रही है क्योंकि बबज़्रता का वाहक अपराधी जानता है कि वह दरिंदगी के बाद फिर से आज़ाद हो जाएगा, फिर किसी और बच्चे को अपना शिकार बना सकेगा। हमें अपने सामाजिक और व्यवस्था के मानकों को अच्छे से खंगालना होगा। नहीं तो, जब न्याय व्यवस्था से ही उम्मीदें ख़त्म हो जाएंगी, तब क्या होगा?
वस्तुत: व्यवस्था का वही चरित्र होता है, जो व्यापक समाज में व्याप्त होता है। हम लैंगिक तौर पर भेदभाव के वाहक समाज रहे हैं और उससे निकलने की कोशिश को रोका जा रहा है। शायद बढ़ते बलात्कार लैंगिक आजादी को रोकने की कोशिश भी हैं। मुझे लगता है कि जहां हूरियत सबसे बेहतर व्यवस्था है, अब मेरे सामने सवाल यह खड़ा हो रहा है कि जहां हूरियत में समाज और सरकार जवाबदेय नहीं होते हैं क्या? यदि जवाबदेहिता न हो, तो लोकतंत्र से ज़्यादा बाल-विरोधी व्यवस्था कोई और हो ही नहीं सकती है, क्योंकि जिस व्यवस्था पर समाज को सुरक्षित रखने की ज़िम्मेदारी है, अगर वही व्यवस्था हिंसा, दुराचार, गौर-बराबरी और शोषण की हिस्सेदार बनने लगे, तब मुझे अपनी बेटियां सुरक्षित नहीं दिखाई देतीं। सरकार की चुप्पी और ज़्यादा डराती है। मुझे लगा कि कहीं मैं भावुकता में अपनी बात तो नहीं कह रहा हूं? इस सवाल का जवाब देने के लिए मैंने कुछ अध्ययन किया।
क्या आप विश्वास करेंगे कि वषज़् 2001 से 2016 के बीच भारत में बच्चों के विरुद्ध अपराध के 5,95,089 मामले दजज़् किए गए। इनमें से 2,90,553 यानी 49 प्रतिशत मामले तो आखऱिी तीन सालों (2014 से 2016) में ही दजज़् हुए। इसे दलीय राजनीतिक विश्लेषण मत मानिएगा। ये जानकारियां भारत सरकार ने ही जारी की हैं। भारत का हर पिता, चाहे वह कोई राजनीतिक विचार रखता हो या न रखता हो, वह इन तथ्यों को नजरअंदाज न कर पाएगा।
16 सालों में बच्चों के विरुद्ध जितने मामले दर्ज हुए उनमें से 1,53,701 मामले (26 प्रतिशत) बलात्कार-यौन शोषण और 2,49,383 मामले (42 प्रतिशत) अपहरण के ही थे। इन 16 सालों में अपहरण के मामलों में 1,823 प्रतिशत और बलात्कार-गंभीर यौन अपराधों में 1,705 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। क्या संदेश यह है कि जन्म से ही लड़कियों को कैद होकर ही रहना होगा? नहीं तो अपहरण, बलात्कार और हत्या होगी ही! मुझे अब यह डर भी लगने लगा है कि किसी दिन यह आदेश भी जारी न कर दिया जाए कि बच्चों का घर से बाहर निकलना प्रतिबंधित है।
सच तो यह भी है कि आज बच्चे घर में भी सुरक्षित नहीं है। इसका मतलब है कि हमारी सामजिक-आथिज़्क-राजनीतिक समझ में कुछ गंभीर गड़बड़ी आ गई है। इसे छिपाने से काम नहीं चलेगा। आप भी जानते ही हैं कि कठुआ की बच्ची से बलात्कार, बबज़्रता के साथ किया गया शोषण और हत्या का विवरण यह साबित करता है कि हम एक असभ्य समाज में रह रहे हैं, जहां कुछ लोग अपवाद स्वरूप बेहतर इंसान बन गए हैं। जी हां, मैं सामान्यीकरण कर रहा हूं। चंडीगढ़ में दस साल की बच्ची के साथ बलात्कार होता है। दिल्ली में आठ महीने की बच्ची के साथ बलात्कार होता है। भोपाल में चार साल की बच्ची से बलात्कार होता है, इन्हें देखकर किसी व्यक्ति को बलात्कार का भाव क्यों आया होगा? क्या उनके कपड़ों से? मुझे लगता है कि समाज मानसिक और भावनात्मक रूप से विक्षिप्त हो रहा है। वस्तुत: विक्षिप्तता के इन संकेतों को अब तो गंभीरता से लिया जाना चाहिए। इस बर्बरता को रोकने की प्राथमिक ज़िम्मेदारी व्यवस्था की है।
हमारी व्यवस्था मूर्तियां बनवाने, मंदिर की जीर्णोद्वार में व्यस्त है। आखिर व्यवस्था की प्राथमिकताएं क्या हैं? कहीं तो यह दिखे कि संविधान का सम्मान हो रहा है!
हर रोज देश-प्रदेश के कोने-कोने से आने वाली बच्चों से बलात्कार की खबरों को देख कर लगता है कि सरकार कुछ न कुछ तो कर ही रही होगी। वर्ष 2012 में निभज़्या के साथ हुए बर्ब व्यवहार ने देश के हर नागरिक को हिलाकर रख दिया था। खूब चहल-कदमी भी हुई। तब लगा था कि व्यवस्था अपने आप को दुरुस्त करेगी। क्षणिक ही सही, पर ये घटनाएं तो हमारे अंतस को झकझोर ही रही हैं।
मैं आपको बताना चाहता हूं कि वर्ष 2018-19 के भारत के 24। 42 लाख करोड़ रुपये के केंद्रीय बजट में बच्चों के संरक्षण के लिए महज़ 1200 करोड़ रुपये (लगभग 0।048 प्रतिशत) ही दिए गए। कहा जाता है कि यह राज्य सरकार का मामला है। इस पर मध्य प्रदेश 2।05 लाख करोड़ रुपये के बजट में 90 करोड़ रुपये का बजट (राज्य के बजट का 0। 044 प्रतिशत) बच्चों की सुरक्षा के लिए देता है। इसके उलट मध्य प्रदेश में तीर्थ दर्शन योजना (जिसमें नागरिकों को तीर्थ यात्रा करवाई जाती है) के लिए 200 करोड़ रुपये का बजट दिया जाता है।
मैं आपको यह भी बताना चाहता हूं कि बहुत छोटे-छोटे लाभों के लिए बच्चों की सुरक्षा के लिए बनी संस्थाओं (जैसे- बाल कल्याण समिति) का भयंकर दलीय राजनीतिकरण किया गया है। चूंकि समिति के सदस्य पुलिस से अधिकृत तौर पर बात कर सकते हैं, इसलिए वे अपने रुतबे का इस्तेमाल बच्चों के कल्याण से इतर ही करते हैं। शोषण के शिकार बच्चों को जिन केंद्रों में रखा जाता है, वहां भी उनका शोषण ही होता है। बहुत दुखदायी हालात हैं इन केंद्रो के! तथ्य बताते हैं कि वर्ष 2016 में बच्चों से बलात्कार के लंबित 64,138 मामलों में से 6,626 में ही परीक्षण पूरा हुआ और 1879 को दोषी पाया गया। वर्ष 2016 में बच्चों की हत्या के 7,915 मामले अदालतों में दर्ज थे। इनमें से 640 में परीक्षण पूरा हुआ, किन्तु 283 मामलों में ही किसी को दोषी पाया गया। जम्मू कश्मीर के कठुआ में आठ साल की मासूम आसिफ़ा के साथ बलात्कार हुआ जिसके बाद उसकी हत्या कर दी गई थी। वहीं उत्तर प्रदेश के उन्नाव में भाजपा के विधायक कुलदीप सिंह सेंगर पर एक नाबालिग ने सामूहिक बलात्कार का आरोप लगाया है। जम्मू कश्मीर के कठुआ में आठ साल की मासूम आसिफ के साथ बलात्कार हुआ जिसके बाद उसकी हत्या कर दी गई थी। वहीं उत्तर प्रदेश के उन्नाव में भाजपा के विधायक कुलदीप सिंह सेंगर पर एक नाबालिग ने सामूहिक बलात्कार का आरोप लगाया है। वर्ष 2016 में बच्चों के अपहरण के 74,052 मामले दर्ज थे, इनमें से 6,077 में ही परीक्षण पूरा हुआ और महज़ 1,381 मामलों में ही किसी को दोषी पाया गया। यह न्याय व्यवस्था बच्चों के हित और बेहतरी की न्याय व्यवस्था तो नहीं है। बच्चों के संरक्षण के संदभज़् में सबसे बुनियादी चुनौती यह है कि पुलिस और न्यायपालिका को जवाबदेय बनाने की कम ही कोशिशें हुई हैं।
बच्चों से बलात्कार होते हैं और दो तिहाई आरोपियों दोषमुक्त कर दिया जाता है पर यह सवाल नहीं पूछा जाता है कि फिर अपराधी कौन हैं, कहां और और क़ानून की गिरफ़्त से बाहर क्यों हैं? ऐसे में नए कानूनी प्रावधान ढकोसले के अलावा कुछ भी नहीं है। जरा विचार कीजिए कि जब बच्चों की हत्या, बलात्कार और अपहरण के मामलों में 50 से 70 प्रतिशत आरोपी दोषमुक्त कर दिए जा रहे हों, तब क्या बच्चों को देश की न्याय व्यवस्था में किसी भी तरह का विश्वास बचा रहेगा? जब बच्चों के साथ हिंसा-अपराध करने वाले आरोपी मुक्त कर दिए जा रहे हों, तब बच्चे किस हद तक सुरक्षित रहेंगे और किस हद तक भविष्य में वे अपने साथ होने वाले अपराधों को दजज़् करवाने के लिए सामने आएंगे? जब कानून अपना काम नहीं करता है, तब अपराधी के हौसले और बढ़ते ही हैं। भारत में सामान्यत: अनुभव यही है कि कोशिश करो कि पीडि़त होने के बाद भी पुलिस और कोर्ट के आंगन में पैर न रखना पड़े, क्योंकि वहां पीडि़त की पीड़ा दोहरी हो जाती है।
माननीय राष्ट्रपति: हमारी व्यवस्था बच्चों के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। बच्चे उनकी प्राथमिकता सूची में बहुत पीछे रह गए हैं। ये बच्चों तक ही सीमित मामला नहीं है। यह समाज के बीमार होने के संकेत हैं। इसे रोकना ही होगा, इसमें जवाबदेही सुनिश्चित करनी ही होगी। मेरा आग्रह है कि जिम्मेदार संस्थाओं की (राजनीतिक दलों, विभागों और संवैधानिक संस्थाओं) जवाबदेही तय की जानी भी एक अनिवार्यता है। हमने मानव अधिकार, बाल अधिकार आयोग और महिला आयोग बनाए हैं, उनकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो सकती थी, किन्तु दलीय राजनीति ने उन्हें भी समय के साथ मौन रह जाने के लिए मजबूर कर दिया। ये आयोग या तो सेवानिवृत्त अधिकारियों के आश्रय स्थल बन गए हैं या फिर दलीय राजनीतिक उपभोग के केंद्र। इस तरह के संस्थान तभी उपयोगी हो सकते हैं, जब इनके पास कार्यवाही के अधिकार हों, इनकी भी जवाबदेही तय हो और बच्चों के मौजूदा हालातों के संदर्भ में इनके काम की समीक्षा हो। सिर्फ अनुसंशाएं करते रहने से यह भ्रम गाढ़ा होता है कि भारत में कई आयोग भी हैं। क्या हम बाल कल्याण समिति, किशोर न्याय बोर्ड बाल-महिला आयोगों को दलीय राजनीति से मुक्त करके उन्हें मजबूत करने के लिए तैयार है? आज एक बड़ी जरूरत है न्याय व्यवस्था और क़ानूनी संस्थाओं को यह एहसास करवाने की बच्चे, बच्चे ही होते हैं! और सबसे जरूरी है बच्चों के जीवन से जुड़े मुद्दों को राज्य की प्राथमिकता में ऊपर लेकर आना! मैं बच्चों की सुरक्षा, गरिमा और आज़ादी चाहता हूं। मैं एक पिता के रूप में राज्य व्यवस्था के प्रमुख से पहल की उम्मीद रखता हूं। मुझे उम्मीद है कि मेरी अभिव्यक्ति से किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचेगी। साथ ही इन अपेक्षाओं को सरकार विरोधी भी नहीं समझा जाएगा, क्योंकि यह मेरी मंशा नहीं है।


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