रविवार, 5 मई 2019

भाजपा के सारे नेता गलतफहमी का शिकार

विपक्ष का चेहरा नहीं होने से फर्क नहीं
भाजपा की एक और बड़ी गलतफहमी यह है कि विपक्ष के पास चेहरा नहीं है। भाजपा समर्थक हर जगह यहीं बात कह रहे हैं कि मोदी को नहीं दें तो क्या राहुल गांधी को वोट कर दें? यह अलग बात है कि अगर ऐसी बात कहने वालों का सर्वेक्षण हो तो पता चलेगा कि यह जुमला बोलने वाले पीढ़ी दर पीढ़ी भाजपा को ही वोट देते आए हैं। ऐसा नहीं है कि पहले कांग्रेस को वोट देते थे और अब राहुल गांधी की वजह से कांग्रेस छोड़ कर भाजपा को वोट देने लगे हैं। मोदी को नहीं तो क्या राहुल को वोट दें, यह सवाल पूछने वाले सोनिया गांधी के बारे में भी यहीं बात कहते थे। लालू प्रसाद, मायावती या शिबू सोरेन उनके लिए पहले भी अछूत थे और आज भी हैं। इसलिए इनके यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि मोदी नहीं 

तो कौन!

हैरानी की बात है कि थोड़े से नेताओं को छोड़ कर भाजपा के बाकी सारे नेता इस गलतफहमी का शिकार हैं कि मोदी का विकल्प नहीं है। वे टीना फैक्टर यानी देयर इज नो ऑल्टरनेटिव पर यकीन कर रहे हैं। इसी फैक्टर पर यकीन करके प्रमोद महाजन और उनके करीबी नेताओं ने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को 2004 में समय से पहले चुनाव में झोंका था। तब संघ के स्कूल में पढ़े और एक बड़े पत्रकार ने कहा था कि सीटा यानी सोनिया इज द फैक्टर, इसलिए अटल बिहारी वाजपेयी को कोई चुनौती नहीं है। उसी अंदाज में आज कुछ लोग रीटा यानी राहुल इज द फैक्टर का प्रचार करके बता रहे हैं कि मोदी के सामने कोई चुनौती नहीं है। 

बौद्धिक बहस के लिए यह मुद्दा हो सकता है कि मोदी के सामने राहुल हैं इसलिए कोई चुनौती नहीं है। पर यह थीसिस बुनियादी रूप से गलत है। क्योंकि राहुल कहीं भी सीधे मोदी से नहीं टकरा रहे हैं। राज्यों में भी कांग्रेस के क्षत्रप मुकाबला कर रहे हैं। राजस्थान में अशोक गहलोत, मध्य प्रदेश में कमलनाथ और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल चुनाव लड़ रहे हैं। जमीनी स्तर पर एक एक उम्मीदवार के लिए इनका सिस्टम काम कर रहा है और वोट डलवा रहा है। कर्नाटक में सिद्धरमैया, खड़गे, मोईली आदि चुनाव लड़ रहे हैं। 

जहां सीधे मुकाबले में कांग्रेस नहीं है वहां मोदी से प्रादेशिक क्षत्रप चुनाव लड़ रहे हैं। झारखंड में मोदी के सामने हेमंत सोरेन और बाबूलाल मरांडी का चेहरा है तो बिहार में लालू यादव, जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी का चेहरा है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का चेहरा मोदी के लिए चुनौती है तो महाराष्ट्र में शरद पवार और ओड़िशा में नवीन पटनायक का। क्या कोई कह सकता है कि तमिलनाडु में एमके स्टालिन के चेहरे के आगे मोदी का चेहरा भारी पड़ा है या आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू और जगन मोहन रेड्डी का चेहरा मोदी के चेहरे से कमजोर पड़ा है? क्या तेलंगाना में मोदी का चेहरा भाजपा को एक भी सीट जीता रहा है? उत्तर प्रदेश में तमाम प्रचार के बावजूद मायावती और अखिलेश का चेहरा मोदी पर भारी पड़ रहा है। 

सो, विपक्ष का चेहरा नहीं होना कोई चुनावी मुद्दा नहीं है। उलटे भाजपा के इस प्रचार ने विपक्ष की मदद की है। भाजपा इस गलतफहमी में रही कि मोदी के चेहरे में सब ढक जाएगा इसलिए जीते हुए सांसदों, विधायकों को कामकाज से दूर रखा गया और उम्मीदवार के चयन में भी जमीनी समीकरण का ध्यान नहीं रखा गया। आज स्थिति यह है कि भाजपा के सांसद व विधायक वोट मांगने नहीं जा रहे हैं। वे भी यह कह कर वोट मांग रहे हैं कि मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए वोट दें। पर अधिकतरों जगहों पर लोग सांसद चुनने के लिए ही वोट दे रहे हैं और इसलिए वे उम्मीदवार और स्थानीय चेहरों पर नजर रख रहे हैं।

तीन चरण के चुनाव के बाद भाजपा को इसका अहसास हुआ तभी मोदी और भाजपा के दूसरे समर्थकों ने यह कहना शुरू किया कि लोग किसी गलतफहमी में न रहें और बड़ी संख्या में वोट डालने निकलें। सोशल मीडिया में यह भी प्रचार हुआ कि मोदी की तरह अटल बिहारी वाजपेयी भी बहुत लोकप्रिय थे पर सोनिया गांधी की कमान में कांग्रेस ने उनको हरा दिया। पर इसे समझने के बावजूद भाजपा के पास कोई विकल्प नहीं है क्योंकि पांच साल मोदी का चेहरा चमकाने के अलावा उसने ऐसा कुछ नहीं किया है, जिसके आधार पर वोट मांगे। इसलिए अब भाजपा की मजबूरी हो गए हैं मोदी। पर दूसरी ओर ऐसी कोई मजबूरी नहीं है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें