शुक्रवार, 17 मई 2019

चुनाव आयोग को मिले दलों की मान्यता खत्म करने का अधिकार


चुनाव आयोग ने कहा है कि राजनीतिक दलों की मान्यता समाप्त करने का अधिकार  आयोग को मिलना चाहिए । आयोग ने गत साल सुप्रीम कोर्ट में अपनी यह बात कही।  सुप्रीम कोर्ट में चुनाव सुधार के लिए लोकहित याचिका दायर की गयी है।  अदालत ने इस पर आयोग से राय मांगी थी।  याचिका में कहा गया है कि राजनीति और कुछ राजनीतिक दलों पर आपराधिक छवि के लोगों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है।



 दरअसल, यह देखा जा रहा है कि राजनीतिक दल और उनके नेता अक्सर आदर्श चुनाव संहिता की धज्जियां उड़ाते रहते हैं, किंतु उन्हें कोई खास सजा नहीं हो पाती।  यदि राजनीतिक दलों की मान्यता रद्द करने का अधिकार चुनाव आयोग के पास होता तो शायद उत्शृंखलता में कमी आती। 

उससे स्वच्छ व निष्पक्ष चुनाव कराने में भी सुविधा होती।  अब तो चुनाव आयोग द्वारा किसी दल या नेता के खिलाफ कार्रवाई होने पर संविधान के अनुच्छेद-324 पर ही सवाल उठने लगा है।  इसी अनुच्छेद में चुनाव आयोग का प्रावधान है।  पर, कुछ  दल व नेता इस अनुच्छेद को अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार परिभाषित करते रहते हैं।



 1998 में भी चुनाव आयोग ने चुनाव सुधार के लिए केंद्र सरकार को पत्र लिखा था।  उस पत्र के जरिये यह मांग की गयी थी कि दलों की मान्यता समाप्त करने का कानूनी अधिकार चुनाव आयोग के पास होना चाहिए।  पर, तत्कालीन सरकार ने भी कुछ नहीं किया।  सन 2004 में तो चुनाव आयोग ने चुनाव सुधार के लिए 22 सूत्री सुझाव भी केंद्र सरकार को भेजा था।  आदर्श चुनाव संहिता के उल्लंघन  के आरोप में संबंधित दलों की मान्यता रद्द होने लगे तो अत्यंत सकारात्मक असर पड़ेगा।  क्योंकि, दल की मान्यता रद्द होने और चुनाव चिह्न फ्रीज हो जाने के बाद दलों को भारी झटका लगता है। 


बंगाल की घटना के बाद तो सुधार और भी जरूरी : तरह-तरह की चुनावी धांधलियों को ध्यान में रखते हुए   चुनाव आयोग को  पश्चिम बंगाल में कल अभूतपूर्व कार्रवाई करनी पड़ी है।  ऐसी नौबत इसलिए भी आती है, क्योंकि धांधलीबाजों को लगता है कि सीमित शक्तियों वाला  आयोग कोई सबक सिखाने वाली कार्रवाई कर ही नहीं सकता।  यदि धांधलीबाज सत्ताधारी हो तब तो आयोग और  भी बेबस नजर आता है।  पिछले अनुभव बताते हैं कि पश्चिम बंगाल में आयोग की ताजा कार्रवाई भी अंततः नाकाफी ही साबित होगी।  इसीलिए आयोग को अधिक कानूनी शक्तियों से लैस करना समय की मांग है। 

सांसदों की दिक्कतें  : इस बार भी कई गांवों के मतदाताओं ने अपने सांसदों से खास तरह की शिकायत  की है।  उलाहना दी गयी ‘आप पहली बार हमारे गांव में आये हैं। ’ बेचारे कई सांसद सफाई देते-देते थक गये हैं।   वे कहते हैं, क्या करें! एक क्षेत्र में सैकड़ों गांव हैं।  दिल्ली में भी तो साल में छह महीने रहना पड़ता है।  यह समस्या 1967 तक नहीं थीं।  तब लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक ही साथ होते थे।  सांसदों के अधिकतर राजनीतिक काम उनके दल के विधायक ही कर दिया करते थे।  वैसी स्थिति में लोगों को सांसदों की याद भी कम ही आती थी।  अधिकतर मामलों में लोग सांसद के सिर्फ नाम जानते थे।  अब तो सांसद विकास फंड का भी आकर्षण है।  लोगबाग चाहते हैं कि सांसद हमारे गांव भी आएं और हमारी निजी और सार्वजनिक जरूरतों का ध्यान रखें।  यदि फिर कभी लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने लगेंगे तो एक बार फिर लोगों को सासंदों की उपस्थिति की चाह कम हो जायेगी। 

और अंत में : इस देश में ऐसे अनेक राजनीतिक दल मौजूद हैं जिन्होंने 2005 से 2015 तक एक भी उम्मीदवार खड़ा नहीं किया।  फिर भी वे दल टैक्स में छूट हासिल करने के लिए बरकारार हैं।  क्योंकि, ऐसे दलों की मान्यता समाप्त करने का अधिकार चुनाव आयोग के पास नहीं है। 

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