वही हुआ जिसके संकेत थे। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति ने अगले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी-अमित शाह का काम आसान बनाने के लिए प्रकाश करात की लाईन अपनाई। मतलब चुनाव से पहले कांग्रेस से एलायंस बनाने के सीताराम यचूरी के रखे मसौदे को खारिज किया। यूचरी बनाम करात की एप्रोच के फर्क से वोटिंग की नौबत आई। केंद्रीय समिति के 31 सदस्यों ने कांग्रेस से एलायंस बनाने के प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिए तो 55 सदस्यों ने एलायंस प्रस्ताव को खारिज किया। अब अप्रैल में पार्टी कांग्रेस में प्रकाश करात के प्रस्ताव पर कम्युनिस्ट नेता विचार करेगें न कि महासचिव यचूरी के प्रस्ताव पऱ। कहते है केरल के सदस्यों, त्रिपुरा और बंगाल सीपीएम के तीन सदस्यों का यचूरी के प्रस्ताव के खिलाफ वोट था। केंद्रीय समिति में क्योंकि वोटिंग हो गई है और प्रकाश करात के प्रस्ताव को मान लिया गया है तो हैदराबाद की पार्टी कांग्रेस में उसी पर विचार होगा। खबर अनुसार सीताराम यचूरी ने वोटिग टलवानी चाही। उनकी दलील थी कि एलायंस करे या न करें इन दोनों विचारों को पार्टी कांग्रेस के बड़े जमावड़े के आगे रखा जाना चाहिए। उसमें तय हो कि लोकसभा चुनाव से पूर्व पार्टी को कांग्रेस के एलायंस बनाना चाहिए या वह लेफ्ट मोर्चे के खांके में ही चुनाव लडे! लेकिन प्रकाश करात और उनकी टीम नहीं मानी। उन्होने वोटिंग के लिए कहां। सो अस्सी लोगों की केंद्रीय समिति ने 2019 के लोकसभा चुनाव पूर्व की तैयारियों का फैसला ले डाला!
अपन इस घटनाक्रम को प्रकाश करात और कम्युनिस्टों का नरेंद्र मोदी को लाल सलाम कहेगें। एक झटके में केरल, बंगाल और त्रिपुरा में भाजपा के वोट बढ़ गए। लेकिन इससे भी बडी बात सीपीएम ने, वाम मोर्चे ने अपनी कब्र केरल, त्रिपुरा और बंगाल में पूरी तरह खोद डाली। केरल, त्रिपुरा में लेफ्ट बनाम कांग्रेस में झगड़ा होगा तो बंगाल में ममता और कांग्रेस में तालमेल के आगे भाजपा मुकाबले में होगी न कि लेफ्ट। ऐसे में 2019 का आम चुनाव मार्क्सवादी पार्टी और लेफ्ट मोर्चे का आखिरी चुनाव हो तो आश्चर्य नहीं होगा।
मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं क्योंकि प्रकाश करात एंड पार्टी ने 2004 के बाद अपनी मूर्खताओं में याकि कथित सैद्वातिंक जुमलों से पार्टी के पांवों पर इतनी कुल्हाडियां मारी है कि 2019 के बाद लड़ने को बचेगा ही क्या?
अपनी थीसिस है कि आजाद भारत के इतिहास में कम्युनिस्टों का एक स्वर्ण काल इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओं का वक्त था तो दूसरा वक्त हरकिशनसिंह सुरजीत के महासचिव रहते हुए था। इंदिरा गांधी के जुमलों के दौर में लेफ्ट को इंदिरा राज में सलाहकारी का मौका मिला तो बंगाल में ज्योंति बसु के राज का प्रारंभ भी हुआ। फिर कॉमरेड हरकिशनसिंह सुरजीत के लचीलेपन ने लेफ्ट के लिए वह अवसर बनवाया जिसमें केंद्र की सरकार में सीपीएम की दादागिरी हुई। यों तब भी केरल के कॉमरेडों की गलती के चलते ज्योति बसु प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए थे!
बहरहाल हरकिशनसिंह सुरजीत ने वीपीसिंह, एचडी देवगौडा, आईके गुजराल से ले कर सोनिया गांधी की कांग्रेस के वक्त ऐसी लचीली राजनीति खेली कि भाजपा – वाजपेयी राज का शाईनिंग इंडिया पंचर हुआ तो मनमोहनसिंह की सरकार भी बन गई। वह सीपीएम का वैभव बनवाने वाला था। संयुक्त मोर्चे और केंद्र की भाजपा सरकार के खिलाफ सेकुलर जमात की चिल पौ ने देश की राजनीति को जब बदला था तब सीपीएम के 44 सांसद 2004 में चुने गए थे। सीपीएम के सोमनाथ चटर्जी लोकसभा में स्पीकर बने तो लेफ्ट ने मनमोहन सरकार पर दबा कर अपना असर दिखाया।
श्रेय़ पंजाब के कॉमरेड हरकिशन सुरजीत को जाता है। मगर उनकी मौत के बाद जब प्रकाश करात को लीडरशीप मिली तो उन्होने लेफ्ट का वह कठमुल्लापन दिखाया कि भारत-अमेरिका एटमी करार का भूत पैदा हो गया। प्रकाश करात और उनके कठमुल्ले वामपंथी वक्त की बदली हकीकत, आंतकवाद के नए परिपेक्ष्य में भारत की जरूरत, भारत के बहुसंख्यकों की आंकाक्षाओं की इतनी भर भी थाह नहीं ले पाए कि अब वक्त न तो सर्वहारा का है और न अमेरिकी साम्राज्यवादी मंसूबे को एजेंडा बनाने का। जब चीन ने अमेरिका को पटाया है तो भारत को अपना वैश्विक अछूतपन खत्म करना चाहिए य़ा नहीं?
बहरहाल, जैसा मैने कल लिखा भारत में लेफ्ट ने जमीन पर हमेशा अपने को बेगाना बनाए रखा और शिखर राजनीति को प्रभावित किए रहने के लिए फूंके कारतूसों में यह गलतफहमी बनाए रखी कि देखों जनता में, सर्वहारा में कैसी वाह है! एक मायने में कॉमरेड़ों की दुर्दशा की वजह मीडिया में काबिज लेफ्ट- प्रगतिशील- सेकुलरो की वह जमात भी है जो लाल रंग में रंगे रह कर गलतफहमियां बनवाती रही है। मैं इन्ही की बदौलत नरेंद्र मोदी-अमित शाह की संभावना के उदय होने की बात करता रहा हूं। याद करें भारत-अमेरिकी रिश्तों को आर-पार की लडाई में लेफ्ट को हवा देने वाले तबके टीवी एकंरों को। जो आज मोदी-शाह के भोंपू बने हुए है वे ही तब प्रकाश करात एंड पार्टी के लिए हवा बनाए हुए थे, उनके इस बात के झंडाबरदार थे कि कुछ भी हो अमेरिका के यहां हमें अपने को गिरवी नहीं रखना है जबकि ऐसा कुछ नहीं था।
बहरहाल, प्रकाश करात ने भारत-अमेरिकी संधि को मुद्दा बनाया और कांग्रेस, मनमोहन सरकार से नाता तोड़ा। नतीजतन 2009 के लोकसभा चुनाव में सीपीएम के 19 सांसद रह गए और 2014 में यह संख्या घट कर 9 हो गई। और नोट करके रखे कि यदि सीपीएम की हैदराबाद कांग्रेस में प्रकाश करात का कांग्रेस (मतलब समग्र विपक्ष के एलायंस की कोशिश नहीं करना) से चुनाव पूर्व नाता न रखने का प्रस्ताव मंजूर हुआ तो 2019 के आम चुनाव में सीपीएम की 9 सीटे भी नहीं आएगी।
लाख टके का सवाल है कि प्रकाश करात की, लेफ्ट की राजनैतिक समझ वैसी ही क्यों है जैसी मायावती की है? मायावती की भी तो यही सोच है कि यदि कांग्रेस से, अखिलेश से एलायंस हुआ तो उनके वोट फिर उनके नहीं बने रहेगें! हमें मरना मंजूर है मगर कासीराम कह गए, बाबा मार्क्स कह गए तो वैसा कुछ नहीं करना है जो वे वर्जित कर गए।
ठीक विपरित नरेंद्र मोदी, अमित शाह की रणनीति देखें। एनसीपी पार्टी के प्रफुल्ल पटेल मणिपुर में उम्मीदवार वैसे ही खडे कर रहे है जैसे गुजरात में किए थे। एक तरफ विपक्ष को चूर-चूर बनाए रखने के प्रबंधन तो दूसरी और यह सोच कि हमें अकेले हंसिया पकडे रहना है, या अकेले साईकिल चलाना या अकेले हाथी पकड़े रहना है। जो हो, पते की आज की बात कॉमरेडों का नरेंद्र मोदी को लाल सलाम है। क्या नहीं?
अपन इस घटनाक्रम को प्रकाश करात और कम्युनिस्टों का नरेंद्र मोदी को लाल सलाम कहेगें। एक झटके में केरल, बंगाल और त्रिपुरा में भाजपा के वोट बढ़ गए। लेकिन इससे भी बडी बात सीपीएम ने, वाम मोर्चे ने अपनी कब्र केरल, त्रिपुरा और बंगाल में पूरी तरह खोद डाली। केरल, त्रिपुरा में लेफ्ट बनाम कांग्रेस में झगड़ा होगा तो बंगाल में ममता और कांग्रेस में तालमेल के आगे भाजपा मुकाबले में होगी न कि लेफ्ट। ऐसे में 2019 का आम चुनाव मार्क्सवादी पार्टी और लेफ्ट मोर्चे का आखिरी चुनाव हो तो आश्चर्य नहीं होगा।
मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं क्योंकि प्रकाश करात एंड पार्टी ने 2004 के बाद अपनी मूर्खताओं में याकि कथित सैद्वातिंक जुमलों से पार्टी के पांवों पर इतनी कुल्हाडियां मारी है कि 2019 के बाद लड़ने को बचेगा ही क्या?
अपनी थीसिस है कि आजाद भारत के इतिहास में कम्युनिस्टों का एक स्वर्ण काल इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओं का वक्त था तो दूसरा वक्त हरकिशनसिंह सुरजीत के महासचिव रहते हुए था। इंदिरा गांधी के जुमलों के दौर में लेफ्ट को इंदिरा राज में सलाहकारी का मौका मिला तो बंगाल में ज्योंति बसु के राज का प्रारंभ भी हुआ। फिर कॉमरेड हरकिशनसिंह सुरजीत के लचीलेपन ने लेफ्ट के लिए वह अवसर बनवाया जिसमें केंद्र की सरकार में सीपीएम की दादागिरी हुई। यों तब भी केरल के कॉमरेडों की गलती के चलते ज्योति बसु प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए थे!
बहरहाल हरकिशनसिंह सुरजीत ने वीपीसिंह, एचडी देवगौडा, आईके गुजराल से ले कर सोनिया गांधी की कांग्रेस के वक्त ऐसी लचीली राजनीति खेली कि भाजपा – वाजपेयी राज का शाईनिंग इंडिया पंचर हुआ तो मनमोहनसिंह की सरकार भी बन गई। वह सीपीएम का वैभव बनवाने वाला था। संयुक्त मोर्चे और केंद्र की भाजपा सरकार के खिलाफ सेकुलर जमात की चिल पौ ने देश की राजनीति को जब बदला था तब सीपीएम के 44 सांसद 2004 में चुने गए थे। सीपीएम के सोमनाथ चटर्जी लोकसभा में स्पीकर बने तो लेफ्ट ने मनमोहन सरकार पर दबा कर अपना असर दिखाया।
श्रेय़ पंजाब के कॉमरेड हरकिशन सुरजीत को जाता है। मगर उनकी मौत के बाद जब प्रकाश करात को लीडरशीप मिली तो उन्होने लेफ्ट का वह कठमुल्लापन दिखाया कि भारत-अमेरिका एटमी करार का भूत पैदा हो गया। प्रकाश करात और उनके कठमुल्ले वामपंथी वक्त की बदली हकीकत, आंतकवाद के नए परिपेक्ष्य में भारत की जरूरत, भारत के बहुसंख्यकों की आंकाक्षाओं की इतनी भर भी थाह नहीं ले पाए कि अब वक्त न तो सर्वहारा का है और न अमेरिकी साम्राज्यवादी मंसूबे को एजेंडा बनाने का। जब चीन ने अमेरिका को पटाया है तो भारत को अपना वैश्विक अछूतपन खत्म करना चाहिए य़ा नहीं?
बहरहाल, जैसा मैने कल लिखा भारत में लेफ्ट ने जमीन पर हमेशा अपने को बेगाना बनाए रखा और शिखर राजनीति को प्रभावित किए रहने के लिए फूंके कारतूसों में यह गलतफहमी बनाए रखी कि देखों जनता में, सर्वहारा में कैसी वाह है! एक मायने में कॉमरेड़ों की दुर्दशा की वजह मीडिया में काबिज लेफ्ट- प्रगतिशील- सेकुलरो की वह जमात भी है जो लाल रंग में रंगे रह कर गलतफहमियां बनवाती रही है। मैं इन्ही की बदौलत नरेंद्र मोदी-अमित शाह की संभावना के उदय होने की बात करता रहा हूं। याद करें भारत-अमेरिकी रिश्तों को आर-पार की लडाई में लेफ्ट को हवा देने वाले तबके टीवी एकंरों को। जो आज मोदी-शाह के भोंपू बने हुए है वे ही तब प्रकाश करात एंड पार्टी के लिए हवा बनाए हुए थे, उनके इस बात के झंडाबरदार थे कि कुछ भी हो अमेरिका के यहां हमें अपने को गिरवी नहीं रखना है जबकि ऐसा कुछ नहीं था।
बहरहाल, प्रकाश करात ने भारत-अमेरिकी संधि को मुद्दा बनाया और कांग्रेस, मनमोहन सरकार से नाता तोड़ा। नतीजतन 2009 के लोकसभा चुनाव में सीपीएम के 19 सांसद रह गए और 2014 में यह संख्या घट कर 9 हो गई। और नोट करके रखे कि यदि सीपीएम की हैदराबाद कांग्रेस में प्रकाश करात का कांग्रेस (मतलब समग्र विपक्ष के एलायंस की कोशिश नहीं करना) से चुनाव पूर्व नाता न रखने का प्रस्ताव मंजूर हुआ तो 2019 के आम चुनाव में सीपीएम की 9 सीटे भी नहीं आएगी।
लाख टके का सवाल है कि प्रकाश करात की, लेफ्ट की राजनैतिक समझ वैसी ही क्यों है जैसी मायावती की है? मायावती की भी तो यही सोच है कि यदि कांग्रेस से, अखिलेश से एलायंस हुआ तो उनके वोट फिर उनके नहीं बने रहेगें! हमें मरना मंजूर है मगर कासीराम कह गए, बाबा मार्क्स कह गए तो वैसा कुछ नहीं करना है जो वे वर्जित कर गए।
ठीक विपरित नरेंद्र मोदी, अमित शाह की रणनीति देखें। एनसीपी पार्टी के प्रफुल्ल पटेल मणिपुर में उम्मीदवार वैसे ही खडे कर रहे है जैसे गुजरात में किए थे। एक तरफ विपक्ष को चूर-चूर बनाए रखने के प्रबंधन तो दूसरी और यह सोच कि हमें अकेले हंसिया पकडे रहना है, या अकेले साईकिल चलाना या अकेले हाथी पकड़े रहना है। जो हो, पते की आज की बात कॉमरेडों का नरेंद्र मोदी को लाल सलाम है। क्या नहीं?

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