आज वसंत पंचमी है। सरस्वती उर्फ ज्ञान, बुद्धि, विद्या की देवी की पूजा का दिन। मैं पिछले तीन वर्षों से सोचता आ रहा हूं कि इस दिन से हम हिंदुओं के सनातनी ज्ञान, सत्व-तत्व, हिंदू ग्रंथों का आज की हिंदी, मौजूदा वक्त के परिप्रेक्ष्य, वक्त के मुहावरों-जुमलों, भाषा शैली, आधुनिक प्रकृति,माध्यमों में पुनर्लेखन का वह संकल्प शुरू हो, जो मैंने और अपने उद्योगपति शुभचिंतक कमल मुरारका ने फाउंडेशन के एक खांचे में सोचा है। मेरा मानना है (या गलतफहमी?) कि यदि मैंने और मेरे संपादकत्व में चार-पांच हिंदी कलमघसीटों ने अपने आपको पांच-दस साल खपा कर पुनर्लेखन व संपादन का यह काम नहीं किया तो मौजूदा और आगे की पीढ़ियों के लिए महाभारत, रामायण के दो पेज पढ़ना-समझना भी मुश्किल होगा। मेरे बाद की पीढ़ी के मेरे पाठक भी आज सौ साल पहले गीता प्रेस के जरिए प्रसारित महाभारत में हिंदी के दो पेज में दसियों बार यदि अटकते हैं, शब्द अर्थ-बोध में भटकते हैं तो 18 से 40 साल वाली मौजूदा पीढ़ी और आगे की पीढियों के लिए हिंदुओं के तमाम ग्रंथ काला अक्षर भैंस बराबर होंगे! तभी यदि हमने यह काम नहीं किया (सौ साल पहले की खड़ी बोली को पढ़-समझ, सरकारी हिंदी से दूर रहते हुए उसे अगले सौ सालों की बुनावट में ढालना) तो सनातनी हिंदू के तमाम हिंदी ग्रंथ कुछ भाषा शास्त्रियों, संस्कृत शास्त्रियों में सिमट जाएंगे। मतलब आम धर्मावलंबी प्रामाणिक कुछ नहीं पढ़ सकेगा।
इस विचार को मैं सरस्वती के आह्वान के यज्ञ समान मानता हूं। पर लक्ष्मी की चंचलता क्योंकि ठिठक गई है तो कमल मुरारका के पुरुषार्थ की चंचलता भी ठिठकी हुई है और मेरी भी ठिठकी हुई है। दो वसंत पंचमी निकल गई। तीसरी आज है। आज मैंने चाहा था कि अपने शहर, अपने दफ्तर में सरस्वती पूजा का खास आयोजन हो, मूर्ति मंगवाई, पंडितजी से आग्रह किया लेकिन उस अंदाज में विचार सिरे नहीं चढ़ा, जिसकी सोची हुई थी। कह सकते हैं कि ठहरी, ठिठकी लक्ष्मी के बिना सरस्वती पूजा, ज्ञान-बुद्धि, पठन-पाठन भी कहा संभव है? तभी तो अपने यहां कहा जाता है कि सरस्वती और लक्ष्मी दोनों साथ-साथ नहीं रहती। पर मेरी राय में यह बात महा फालतू है! अमेरिका में क्या सरस्वती और लक्ष्मी साथ-साथ बेइंतहा आशीर्वाद के साथ मौजूद नहीं हैं? अमेरिका, यूरोप, जापान, इजराइल बुद्धि-ज्ञान का शिखर हैं तो लक्ष्मीजी की कृपा से कुबेर की धन-संपदा लिए हुए क्या नहीं हैं?
हां, सभ्यताओं का, साम्राज्यों का, राष्ट्र-राज्य का सच्चा विकास, एवरेस्टी शिखर तभी है जब सरस्वती और लक्ष्मी का साथ-साथ समान सम्मान हो, साधना हो, पूजा हो और आशीर्वाद हो।
मगर पहले सरस्वती और फिर लक्ष्मी! मानव और उसके विकास की आधुनिक वैज्ञानिक अवधारणा में चिंपांजी से होमो सेपिंयस का बीज सत्य दिमाग-बुद्धि के चैतन्य बनने की मूल कुलबुलाहट है। दिमाग के पट खुले, बुद्धि खुली तो वह गुफा से बाहर निकला। जंगल में आखेट शुरू हुआ। सोचना-समझना-बोलना शुरू हुआ। तब से आज तक मानव सभ्यता के विकास क्रम में इस पृथ्वी पर जिस-जिस ने बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान के लिए दिमागी तपस्या में, जितनी उपलब्धियां पाईं उतना उनका वैभव बना, धन संपदा याकि लक्ष्मी का वास बढ़ा!
तो प्रथम पूजा किसकी जरूरी? सरस्वती की। अमेरिका अमीर है, विकसित है तो इसलिए नहीं कि धन बहुत है, बल्कि वह इसलिए अमीर है क्योंकि उसके विश्वविद्यालयों, प्रयोगशालाओं में बुद्धि की तपस्या से सत्य साधना याकि ज्ञान-विज्ञान में प्राप्ति की धुन, हठयोग अंतहीन है। अमेरिका क्यों मौलिक है, क्यों अमेरिका-यूरोप और यहूदी जनों को सर्वाधिक नोबेल पुरस्कार प्राप्त हैं या होते हैं, क्यों वहां जीवन श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम होता गया है, इसलिए क्योंकि वे लोग, वह कौम, वे राष्ट्र सरस्वती के घोर उपासक हैं। मतलब बुद्धि-ज्ञान और सत्य के शोधक पहले हैं और धन के बाद में। नोट रखें कि जिसने सरस्वती की तपस्या कर उनका आशीर्वाद पा लिया वहीं मौलिक और वहीं लक्ष्मी प्राप्ति का प्रथम हकदार!
सोचें, मैं भारतीयों की सोच, उनके मनोविश्व से कितनी उलटी बात लिख रहा हूं! हम अमेरिका को, पश्चिमी देशों-सभ्यता को पैसे के पीछे भागते हुए, भौतिकवादी मानते हैं। हम मानते हैं कि सरस्वती और लक्ष्मी का साथ-साथ वास नहीं है। हम लक्ष्मी की पूजा, दीपावली का पर्व विशाल पैमाने पर मनाते हैं जबकि वसंत पंचमी, सरस्वती पूजा (बंगाल के अपवाद को छोड़) के दिन यह छोटा सुर भी सुनाई नहीं देता कि –
माता सरस्वती शारदा
हे माता सरस्वती शारदा
विद्या दानी, दयानी, दुख् हरणी।
जगत जननी ज्वाला मुखी माता सरस्वती, शारदा।
हे माता सरस्वती शारदा
कीजे सुदृष्टि, सेवकजान अपना।
इतना वरदान दीजिए
तान, ताल और अलाप, बुद्धि, अलंकार शारदा
तभी हम हिंदुओं को अपने आपसे पूछना चाहिए कि हम माताओं के बुलावे पर सब माताओं (वैष्णोदेवी, लक्ष्मी माता, मां काली, अंबा, दुर्गा, मां भवानी, कुलदेवी मां सहित तमाम शक्ति पीठों, नवरात्रि जैसे तमाम अनुष्ठानों) के यहां जाते हैं लेकिन माता सरस्वती से बुद्धि-ज्ञान-सत्य के आशीर्वाद का न बुलावा चाहते हैं, न जरूरत महसूस करते हैं, न अनुष्ठान करते हैं, न कर्मकांड व तपस्या करते हैं और न हम उनका कोई बुलावा आया बूझते हैं!
सोचें कितना त्रासद है यह। जिस धर्मं, सभ्यता, कौम में सृष्टि (कॉस्मिक यूनिवर्स) को ब्रह्मा ने रच उसकी व्यवस्था, विचार व संरचना में बुद्धि-समझ-विज्डम-वाणी-ज्ञान-कला-की सरस्वती, वाग्वेदीको प्रकट किया, उसी से सृष्टि बनने, बढ़ने और ज्ञान-बुद्धि-सत्य की खोज संभव बताई, जिनका जन्मोत्सव वसंत पंचमी का दिन है उस पर हमें इतनी भी समझ नहीं है कि बुद्धि आएगी तभी धन आएगा। बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान-कला-सृजन की साधना, तपस्या में खपेंगे तभी नोबेल पुरस्कार जीतेंगे, मेक इन इंडिया होगा और लक्ष्मी की चंचलता में लगातार श्रीवृद्धि होती जाएगी!
लेकिन हम हिंदू क्योंकि गुलामी काल से सुरक्षा की चिंता में जीते रहे हैं तो हमें शक्ति चाहिए,शक्ति पीठ से। हम लूटे हुए, भूखेरहे तो हमें धन चाहिए येन-केन प्रकारेण! शांत-एकाग्र-श्वेत चित्तहो कर हममें सरस्वती अराधना से सत्यशोधन और फिर उससे निर्मित पुरुषार्थ का न धैर्य है और न माद्दा। तभीऔसत भटकी हुई सोच है कि क्या करें,‘लक्ष्मी’ और ‘सरस्वती’ में बैर होता है। ये दो देवियां किसी के घर एक साथ नहीं विराजती। तभी हमें अक्ल नहीं नकल चाहिए। मौलिक वीणा-वाणी नहीं गिटार-अंग्रेजी चाहिए। हमें रिसर्च-अनुसंधान नहीं तकनीकी ट्रासंफर चाहिए। हमें पढ़ाई नहीं डिग्री चाहिए।हमें उच्च-श्रेष्ठ शिक्षा नहीं व्हाट्सअप के अधकचरे पोस्ट चाहिए। हमें हार्वर्ड नहीं हार्ड वर्क चाहिए। हमें पुरुषार्थ नहीं खैरात चाहिए।
तभी वसंत पंचमी का आज का दिन भारत का, हम हिंदुओं का यह धुव्र सत्य लिए हुए है कि आजाद भारत के 73वर्षों में ज्ञान की देवी सरस्वती, शारदा, वीणावादनी, वाग्देवी का हमें आशीर्वाद प्राप्त नहीं है तो न लक्ष्मी की कृपा का वह छटांग भर भी वैभव है जो अमेरिका, यूरोपीय याकि विकसित देशों, सभ्यताओं को भरपूर हर क्षेत्र में प्राप्त है।
बहरहाल, बहुत हुआ। आज मन से वाग्देवी का आशीर्वाद प्राप्त करने की प्रार्थना का दिन है। अपने आपको ज्ञान-सत्य की देवी सरस्वती की साधना में अर्पित करने के संकल्प का दिन है। उसी पर ध्यान धरें।

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