तीस साल पहले 19 जनवरी 1990 को जम्मू-कश्मीर की सरजमीं से आतंकवादियों के नरसंहार की धमकी के चलते कश्मीरी पंडितों के सामूहिक पलायन की शुरुआत हुई थी। उस दिन कश्मीर की मस्जिदों और सड़कों पर एक ही नारा गूंज रहा था, यहां क्या चलेगा निजाम-ए-मुस्तफा, इस्लाम कुबूल करो, या ए जालिमों ए काफिरों कश्मीर हमारा छोड़ दो। आतंकियों द्वारा अपने समुदाय के लोगों के कत्लेआम से भयभीत कश्मीरी पंडितों को जबरन या मजबूरी में अपने घर, जमीन आदि को छोड़कर पलायन करना पड़ा।
कुछ स्थानीय समाचार पत्रों ने आतंकी गुटों की पंडितों को घाटी छोड़ने की धमकी के विज्ञापन प्रकाशित किए। लाखों कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़नी पड़ी और अपने खुद के देश में रिफ्यूजी बनकर रहने को मजबूर होना पड़ा। 19 जनवरी को हर साल कश्मीरी पंडित ‘होलोकॉस्ट/एक्सोडस डे’ (प्रलय/बड़ी संख्या में पलायन की तारीख) के तौर पर याद करते हैं।
स्तंभकार सुनंदा वशिष्ठ ने पिछले साल नवंबर में अमेरिकी कांग्रेस द्वारा आयोजित मानवाधिकार सम्मेलन में कहा था कि जिस वक्त दुनिया ने इस्लामिक आतंकवाद का नाम भी नहीं सुना था, कश्मीरी पंडितों ने 30 साल पहले उस स्तर की बर्बरता और क्रूरता का सामना किया था। उन्होंने कहा कि उनके माता-पिता कश्मीरी पंडित हैं, वह हिंदू कश्मीरी पंडित हैं। हम कश्मीर के उस पीड़ित समुदाय से आते हैं जिन्हें इस्लामिक कट्टरपंथ के कारण अपना घर छोड़ने को मजबूर होना पड़ा। हिंदू महिलाओं से गैंगरेप किया गया और उनके शव के टुकड़े कर फेंके गए।
खून से लथपथ, हिंसा से आक्रांत हम मजबूर और डरे हुए लोग थे जिन्हें अपना घर छोड़ना पड़ा। सुनंदा ने उस दौर की भयानक हिंसा को याद करते हुए कहा कि वह अमानवीयता और क्रूरता की हद थी। हमारे घर जलाए गए, बागों में आग लगाई गई। धार्मिक पहचान के आधार पर निशाना बनाया गया। यह सब कुछ धर्म के नाम पर संगठित होकर किया गया था।
उन्होंने कहा कि 19 जनवरी 1990 की उस रात को मानवाधिकार की पैरवी करने वाले लोग कहां थे, जब कश्मीर की सभी मस्जिदों से आवाज आ रही है कि वे हिंदू पुरुषों से रहित हिंदू महिलाओं के साथ कश्मीर चाहते हैं। पत्रकार राहुल पंडिता की किताब ‘अवर मून हैज ब्लड क्लॉट्स’ में राजनीतिक कार्यकर्ता टीका लाल टपलू की सितंबर 1989 में हत्या और अन्य ऐसी घटनाओं का जिक्र किया गया है।
प्रदेश सरकार के अनुसार, 219 लोग मारे गए
2010 में जम्मू-कश्मीर सरकार ने बताया था कि घाटी में अभी भी 808 पंडित परिवार रह रहे हैं। इन परिवारों में कुल 3445 सदस्य थे लेकिन समुदाय के दूसरे लोगों को वापस लाने की वित्तीय और अन्य मदद की घोषणाएं नाकाम रहीं। राज्य सरकार की रिपोर्ट के अनुसार, 1989 से 2004 के बीच इस समुदाय के 219 लोग मारे गए।
घर वापसी के लिए सोशल मीडिया पर मुहिम
घाटी से अपने विस्थापन के तीस साल पूरे होने के अवसर पर समुदाय के लोगों ने सोशल मीडिया पर हैशटैग हम आएंगे अपने वतन से एक अभियान शुरू किया। इसमें कश्मीरी पंडित अपने वीडियो बनाकर साझा कर रहे हैं। हम आएंगे अपने वतन जल्द प्रदर्शित होने वाली फिल्म ‘शिकारा’ का संवाद है। समुदाय के लोग उम्मीद जता रहे हैं कि वे लोग एक न एक दिन अपने घर जरूर वापस लौटेंगे।
पिछले साल केंद्र सरकार ने भी जताई थी अपनी प्रतिबद्धता
पिछले साल जुलाई में, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में बताया था कि केंद्र सरकार कश्मीरी पंडितों को घाटी में फिर से बसाने के लिए प्रतिबद्ध है और एक वक्त ऐसा आएगा जब लोग प्रसिद्ध खीर भवानी मंदिर में पूजा कर सकेंगे। माता खीर भवानी मंदिर श्रीनगर के पूर्व में करीब 14 किलोमीटर दूर स्थित है। यह कश्मीरी पंडितों के लिए पवित्र स्थान है।
पीएम ने हॉस्टन में की थी समुदाय के लोगों से मुलाकात
पिछले साल सितंबर में कश्मीरी पंडितों के एक प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अमेरिकी शहर हॉस्टन में मुलाकात की थी और राज्य को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद-370 के खात्मे के लिए धन्यवाद दिया था।
राजभवन के बाहर प्रदर्शन, स्थायी पुनर्वास की उठाई मांग
विस्थापन के तीस साल पूरे होने पर कश्मीरी पंडितों ने रविवार को राजभवन के बाहर जोरदार प्रदर्शन किया। ऑल स्टेट कश्मीरी पंडित कांफ्रेंस (एएसकेपीसी) के बैनर तले अन्य कई संगठनों के प्रतिनिधियों ने कश्मीरी पंडितों को न्याय दिलाने की मांग की।
बाद में कश्मीरी पंडितों की समस्याओं और मांगाें का एक ज्ञापन उपराज्यपाल जीसी मुर्मू को सौंपा गया। प्रदर्शनकारियों ने अनुच्छेद 370 और 35-ए हटाने का स्वागत करते हुए कहा कि विस्थापितों का स्थायी पुनर्वास और न्याय सुनिश्चित किया जाना चाहिए। एएसकेपीसी के अध्यक्ष एडवोकेट रवींद्र रैना ने कहा कि समुदाय अपने ही देश में शरणार्थी बनकर रह रहा है।

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