बुधवार, 29 जनवरी 2020

अमीर, गरीब और चुनावी अर्थशास्त्र

एडम स्मिथ ने कहा था, 'कोई शिकायत पैसे की कमी से ज्यादा आम नहीं है। ' 300 साल पहले की गई यह टिप्पणी भारत में मंदी को देखते हुए आज भी प्रासंगिक है। निरापद ढंग से कहा जा सकता है कि विलाप पूरे देश में आम बात है-आम लोगों से लेकर व्यवसायियों और जाहिर है, सरकार तक। जैसा कि भारत अब संघीय बजट पेश करने वाला है, हर समस्या के हर समाधान को इस सवाल से जूझना पड़ रहा है कि 'पैसा कहां है'-चाहे वह ज्यादा सड़कों, स्कूलों, अस्पतालों या गरीबों को आर्थिक सहायता देने के लिए हो।

राजस्व के लिए सरकार उधार ले सकती है, अपनी संपत्ति बेच सकती है या और ज्यादा टैक्स लगा सकती है। सरकार की उधार लेने की क्षमता को राजकोषीय घाटे के स्तर का पालन करने की आवश्यकता होती है। वर्ष 2010 के बाद से केंद्र और राज्यों की उधारी 6.2 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 12.5 लाख करोड़ रुपये हो गई है, यानी 1,708 करोड़ रुपये से बढ़कर 3,447 करोड़ रुपये प्रतिदिन, जो प्रति घंटे 143 करोड़ रुपये से ज्यादा बैठती है। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की बिक्री राजनीतिक रूप से चुनौतीपूर्ण है और इसमें समय लगता है। इसलिए हैरानी नहीं कि सत्ता के गलियारों में अरबपतियों पर कर लगाने की चर्चाएं हो रही हैं। अमीरों के धन पर कर लगाने की ललक एक वैश्विक परिघटना है। पिछले हफ्ते दावोस में अरबपतियों के जमावड़े को ऑक्सफेम इंटरनेशनल ने बताया कि दुनिया के सबसे अमीर एक फीसदी लोगों के पास 6.9 अरब लोगों की संपत्ति के दोगुने से ज्यादा धन था और 2018 में भारतीय अरबपतियों की संपत्ति सरकारी खर्च से अधिक थी।

इसलिए असमानता की हकीकत से इन्कार नहीं है। ऑक्सफेम के मुताबिक, भारतीय अरबपतियों के पास 2018 के भारत के बजट से ज्यादा संपत्ति थी। असमानता प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों में सबसे अधिक दिखाई देती है-भारतीयों की प्रति व्यक्ति आय 1,26,000 रुपये है। इनमें से उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय 57,480 रुपये है, तो बिहार में 42,240 रुपये है। जिला स्तर पर देखें, तो उत्तर प्रदेश के बहराइच और बिहार के शिवहर में तस्वीर और बदतर हो जाती है।

असमानता का मुद्दा राजनीति के चौराहे पर है। वास्तव में यह अमेरिका में एक चुनावी मुद्दा है, जहां फेसबुक, अमेजन, ऐप्पल, नेटफ्लिक्स और अल्फाबेट के मालिकों की संपत्ति, जो अनुमानित रूप से 360 अरब डॉलर से अधिक है, पर कर लगाने की मांग बढ़ रही है, क्योंकि वे और उनकी कंपनियों को (जो चालीस खरब से अधिक मूल्य की हैं) प्रौद्योगिकी में सरकारी निवेश से लाभ हुआ है। 

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की उम्मीदवार एलिजाबेथ वारेन पांच करोड़ डॉलर से अधिक संपत्ति वालों पर दो फीसदी और दस करोड़ डॉलर से अधिक संपत्ति वाले पर तीन फीसदी कर लगाने का अभियान चला रही हैं। उनका अनुमान है कि इससे दस वर्षों में 27 खरब डॉलर मिल सकता है।

भले ही राजनेताओं द्वारा सुझाया गया गणित और कार्यप्रणाली विवाद का विषय हो सकता है, लेकिन दायित्व नहीं। अपनी पुस्तक द वेल्थ ऑफ नेशन में एडम स्मिथ ने कहा है, 'प्रत्येक राज्य की प्रजा को अपनी क्षमताओं के अनुपात में जितना संभव हो, सरकार की सहायता के लिए योगदान करना चाहिए।'

भारत में सरकार के भीतर इस पर बहस हो रही है कि भारतीय अरबपतियों ने भी भारत के विकास का लाभ उठाते हुए धन कमाया है। इसलिए उनके धन पर भी कर लगाया जाना चाहिए। फोर्ब्स की अरबपतियों की सूची में डॉलर में कमाई करने वाले 110 भारतीय अरबपति हैं, जिनकी कुल मिलाकर संपत्ति 400 अरब डॉलर से अधिक, यानी 28.40 लाख करोड़ रुपये है।

अमेरिका में वारेन की संपत्ति कर की निचली सीमा पांच करोड़ डॉलर है, जो 350 करोड़ रुपये के करीब बैठती है। तीन प्रतिशत कर लगभग 85,000 करोड़ रुपये के करीब होगा- और शेयरों को 'भारत अरबपति ईटीएफ' के रूप में सूचीबद्ध करके स्वीकार किया जा सकता है। यह सूची शायद ही संपूर्ण है, कई ऐसे लोग हैं, जो सूचीबद्ध संस्थाओं को नहीं चलाते हैं, कई अज्ञात हैं।

समृद्ध लोगों को कर के दायरे में लाने के लिए अन्य सूत्र, अन्य संसाधन हो सकते हैं, लेकिन सामाजिक और आर्थिक विषमताओं को दूर करने के लिए संसाधन जुटाने की आवश्यकता से इन्कार नहीं किया जा सकता। यह अत्यंत दुखद है कि एक घंटे में सौ बच्चे मर जाते हैं, दस में आठ लोगों को नलों से पानी नहीं मिलता है, शिक्षा प्रणाली बर्बाद हो चुकी है, लाखों लोग प्रदूषण के कारण मर जाते हैं और लाखों लोग हुनरमंद होने और रोजगार पाने का इंतजार करते हैं।

हालांकि सरकार की कर लगाने की वैधता इस पर निर्भर है कि वह सार्वजनिक धन का कैसे सदुपयोग करती है और कैसे वादों को पूरा करती है। संसाधनों की कमी मुद्दा है, पर सरकारी खर्च की कार्य कुशलता बहुत खराब है।

उल्लेखनीय है कि 2010 से 2019 के बीच केंद्र और राज्य सरकारों का खर्च 18.52 लाख करोड़ रुपये (औसतन 211 करोड़ रुपये प्रति घंटे) से बढ़कर 53.61 लाख करोड़ रुपये (औसतन 612 करोड़ प्रति घंटे) हो गया, यानी हर मिनट दस करोड़ रुपये। विश्वसनीयता का मर्म यह है कि कर किसके लिए बढ़ाया जा रहा है और इसका इस्तेमाल कैसे होगा।

मसलन, राज्य सरकारें कर्जमाफी पर 4.5 लाख करोड़ रुपये खर्च करने का दावा कर रही हैं, लेकिन कृषि सुधार नहीं होने के कारण किसान लगातार पीड़ित हैं। केंद्र और राज्यों का शिक्षा पर खर्च 1.9 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 5.6 लाख करोड़ रुपये तथा स्वास्थ्य पर 88,000 करोड़ रुपये से बढ़कर 2.7 लाख करोड़ रुपये हो गया, फिर भी शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था बर्बाद है।

कटु सच्चाई यह है कि सरकारें सुधार की इच्छाशक्ति दिखाने, प्रदर्शन करने और संसाधनों की प्रभावी तैनाती में विफल रही हैं। आखिरकार, जैसा कि स्मिथ ने कहा है, योगदान उस राजस्व के अनुपात में होना चाहिए, जो उसने राज्य के संरक्षण में अर्जित किया है, न कि राज्य का सहयोग करने में असमर्थ होने पर। यानी शासन का मतलब केवल खर्च करना नहीं होता, बल्कि उसे उन परिणामों की गारंटी देनी चाहिए, जो विकास को सक्षम बनाते हैं। कराधन को चुनावी फायदे के लिए उठाए जाने वाले आर्थिक कदमों के आधार पर जायज नहीं ठहराया जा सकता। 

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