सवाल उससे पहले के बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तरप्रदेश के चुनावों का भी है। यदि दिल्ली के चुनाव को सीरिया, कश्मीर, भारत बनाम पाकिस्तान में लड़ा जा रहा है तो इन तीन प्रदेशों में हिंदू बनाम मुस्लिम का झगड़ा राजनीति की कितनी हवा पाएंगा? संभव है उत्तरप्रदेश के आते-आते तो एनआरसी का पांसा भी बतौर कानून चला जा सकता है। अपना मानना है कि शाहीन बाग और दिल्ली का ऊबाल 8 फरवरी के बाद सामान्य हो जाएगा। बहुत संभव है उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल को छोड़ कर बाकि जगह सीएएस विरोधी आंदोलन का ज्वार भी खत्म हो जाए। पर दिल्ली में आप और अरविंद केजरीवाल का जीतना मोदी-शाह-भाजपा के लिए वह सदमा होगा जिसमें फिर साल आखिर के बिहार चुनाव में वहां गिरिराजसिंह को ही कमान दे कर हिंदू-मुस्लिम कराना होगा।
हां, मोदी-शाह जानते हंै कि नीतीश कुमार का सुशासन, उनकी सोशल इंजीनियरिंग आर्थिक बदहाली में पहले की तरह सुरक्षित नहीं है। सोशल इंजीनियरिंग भी बिगड़ चुकी है और नीतीश कुमार को अपनी सीटों, जेडीयू की सीटों के लिए थोड़े-बहुत मुस्लिम वोट चाहिए तो वे नागरिकता मामलों में मोदी सरकार-भाजपा की हां में हां का रूख लिए हुए नहीं हो सकते। जबकि बिहार के बाद मोदी-शाह को बंगाल का चुनाव लड़ना है तो नागरिकता कानून, सीएए, एनआरसी के नागरिकता मामले को अनिवार्यतः हाई पिच पर रखना होगा। दिल्ली के चुनाव में मोदी-शाह ने शाहीन बाग, मुसलमान की बात को हिंदू मानस में जिस ऊंचाई पर पहुंचाया है तो यह नामुमकिन नहीं है कि ऐन वक्त नीतीश कुमार से एलायंस को डंप कर अमित शाह रणनीति बना बिहार के हिंदुओं को आव्हान कर डालंे कि चंद्रगुप्त का संकल्प है विधर्मियों को हराना है, भगाना है।
कांटे की उस लड़ाई का विस्तार फिर पश्चिम बंगाल और उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में होगा। तभी संभव है कि एनआरसी के साथ यूपी चुनाव तक नई जनसंख्या नीति से भी मुस्लिम आबादी पर फोकस बनवा दिया जाए।
सो 2024 तक लगातार भारत और भारत का नैरेटिव मुसलमान की चिंता, मुसलमान की नागरिता और हिंदुओं की एकजुटता में उलझा रहेगा। इससे आर्थिकी आदि के हालातों से ध्यान बंटाते हुए विपक्ष को भटकाए रखना भी संभव होता रहेगा। और यदि इससे बात नहीं बनी तो पाक अधिकृत कश्मीर को लेने, पाकिस्तान को मजा चखाने जैसा सर्जिकल दांव भी चला जा सकता है! पर इस सबसे अलग भी एक सिनेरियो बनता है, उसका परिपेक्ष्य क्योंकि अलग है इसलिए उस पर 8 फरवरी के बाद सोचेंगे।

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