हिन्दूवादियों को गुमान है कि अब हिन्दू जग गए हैं। किन्तु ‘जग जाने’ का मतलब क्या है? अच्छे-अच्छे हिन्दू यहाँ अपने संवैधानिक रूप से दूसरे दर्जे, जनसांख्यकी राजनीति, घातक शैक्षिक वातावरण, आदि से परिचित तक नहीं हैं। बस, दशकों से चल रहे अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी उग्रवाद की प्रतिक्रिया में कुछ हलचल भर हुई है। किन्तु हिन्दू चेतना कुल मिलाकर दुर्बल अवस्था में है।
उपनिषद वाली शास्त्रीय-ज्ञान परंपरा वाली चेतना हिन्दुओं में लुप्तप्राय हो चुकी। कर्मकांड, बाह्याचार, तीर्थ-पूजा में भीड़, आदि के बल से साम्राज्यवादी मतवादों का मुकाबला नहीं हो सकता। महान इतिहासकार सीताराम गोयल ने ‘भारत में इस्लामी साम्राज्यवाद की कहानी’ में बताया है कि अब केवल सच्चे इतिहास की जानकारी ही भारत में हिन्दुओं में धर्म-रक्षा चेतना का आधार बचा है। इसीलिए, हिन्दू-विरोधी मतवादियों ने इतिहास विकृति की परियोजना बनाई। पर हिन्दू नेताओं को इस की दूरगामी मार का आभास तक नहीं है! उस के सर्वोच्च शिक्षा-पदधारी वही विकृत इतिहास यथावत् पढ़ाने, और देश भर में फैलाने पर गर्व करते हैं।
अतः मामला गंभीर है। हिन्दू नेता ठीक धर्म-रक्षा पर क्लूलेस हैं। नागरिकता संशोधन कानून, और उस पर विरोध सँभाल न पाना उसी का उदाहरण है। वे बनावटी बातें, व्यर्थ अनुष्ठान और काम करते रहे हैं जब कि मुसलमान अपने उद्देश्य पर साफ, और हिन्दुओं की कमजोरियों से वाकिफ हैं। यह विषम स्थिति गत सौ सालों से यथावत है।
जब ख्वाजा हसन निजामी, जिन्ना आदि ने मुसलमानों को शासक-कौम (‘मास्टर रेस’) बताते हुए भारत पर एकाधिकार जताया, तो गाँधी-नेहरू ने दो-टूक उत्तर देने के बजाए अनुनय-विनय की। फिर मुस्लिम लीग ने मुसलमानों का अलग देश माँगा। उस के पास केवल हिंसा का तर्क था। अंततः देश का आकस्मिक, खूनी विभाजन हुआ। सन् 1947 में देश तोड़ कर एक हिस्सा मुसलमानों को दे दिया गया।
तब मुसलमानों की आबादी लगभग 14 प्रतिशत थी, जिन्हें भारत का 31 प्रतिशत भूभाग दिया गया। सन् 1941 की जनगणना अनुसार देश की जनसंख्या 56 करोड़ थी, जिस में मुसलमान 7 करोड़ 44 लाख थे। विभाजन में पाकिस्तान को 10.29 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र मिला, जबकि भारत को 32.87 लाख वर्ग कि.मी.। पर आधे मुसलमान पाकिस्तान नहीं गए। इस प्रकार, मात्र 7 प्रतिशत मुसलमानों को भारत की 31 प्रतिशत भूमि मिल गई!
बहरहाल, पाकिस्तान बन जाने के बाद बचा भारत हिन्दुओं का था, जिन में बौद्ध सिख, जैन, आदि भी गिने जाते थे। तब मुसलमान भी मानते थे कि शेष भारत हिन्दुओं का है। लेकिन जिस मूढ़ता व अहंकार से गाँधी-नेहरू ने मुस्लिम लीग से बरतने की कोशिश की, उस में विफल होकर भी उन्होंने सीख नहीं ली। मुसलमानों ने गाँधी या कांग्रेस को अपना प्रतिनिधि कभी न माना, फिर भी वे अपने को मुसलमानों का भी नेता बताते रहे! इसे सही ठहराने को उन्होंने बचा भारत भी हिन्दुओं-मुसलमानों दोनों का घोषित किया!
यदि यह भूल न हुई होती, तो स्वतंत्र भारत में हिन्दू-मुस्लिम संबंध सुधर जाते। बचा भारत हिन्दू हित से चलाने पर मुसलमान और ईसाई संगठनों को अपना हिन्दू-विरोधी प्रचार बंद करना होता। उन्हें केवल अपनी प्रार्थना, उपासना की स्वतंत्रता होती। जिसे यह नाकाफी लगता, तो वह पाकिस्तान, इंग्लैंड, पुर्तगाल जाने के लिए स्वतंत्र था। लेकिन जो भारत को हिन्दू देश मानकर रहते, वे मिल-जुल कर रहते।
पर गाँधी-नेहरूवादी मतवाद ने हिन्दुओं के लिए फिर वही हालत बना दी, जिसे सुलझाने को पाकिस्तान बना था। उन के बचकाने अहंकार को इस्लामी, ईसाई और कम्युनिस्ट नेताओं ने हवा दी। इस बीच, हिन्दूवादी संगठन मतिहीन दर्शक बने रहे। उन्होंने डटकर कभी न कहा कि मुसलमानों के लिए अलग देश बना देने, और आबादी के हिसाब से 4 गुनी जमीन दे देने के बाद, यह देश सिर्फ हिन्दुओं और देशी संप्रदायों का है। किन्तु हिन्दूवादी नेता भीरुता दिखाते रहे, जो अभी तक चल रहा है। आज सत्ता उन के हाथ है, मगर वे हिन्दू हितों की बात नहीं करते। इसी मुँहचोरी का फायदा इस्लामी नेता उठाते हैं।
हिन्दूवादी अपने ही चुने जाल में फँस गए है। उन्होंने कभी हिन्दू-विरोधी ‘सेक्यूलरवाद’ को चुनौती नहीं दी, जिसे इंदिरा तानाशाही के समय कम्युनिस्टों-इस्लामियों ने संविधान में धोखे से जोड़ा। उसी आड़ में हिन्दुओं के सांस्कृतिक अधिकार क्रमशः कम कर उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक बनाया। इसे ठुकराने के लिए लड़ने के बजाए संघ-परिवार ने खुद को ‘सच्चा सेक्यूलरवादी’ दिखाना तय किया। इसी का कुपरिणाम कि आज उत्पीड़ित हिन्दू शरणार्थियों के लिए मामूली कदम उठाने पर भी वे झूठे आरोप और उत्पात झेल रहे हैं। यदि गाँधी-नेहरू की तरह भाजपा-परिवार ने भी अपनी झक पर चलने के बदले, हिन्दू ज्ञानियों की सीख अपनाई होती तो आज भारत की तस्वीर कुछ और होती।
भारत की नीतियाँ बनाने में स्वामी विवेकानन्द, श्रीअरविन्द, टैगोर जैसे महान चिंतकों की शिक्षा पर चलना ही उचित मार्ग है। उन्होंने कहा था भारत हिन्दू धर्म की भूमि है। यही इस का ध्येय है। यदि इस मूल तत्व की उपेक्षा हुई, तब अन्य क्षेत्रों में कितनी भी उन्नति होने पर भारत के विनाश का खतरा है। मगर नेताओं ने केवल दलीय राजनीति की। फलतः बँटवारा हुआ, और करोडों हिन्दू-सिख बेमौत मारे गए। फिर बचे भारत में भी विभाजन से सबक न लेकर, उलटे उसे छिपा कर झूठा इतिहास पढ़ाया गया। फलतः फिर मुस्लिम लीग वाली अलगाववादी राजनीति खड़ी हो गई। जिस का नजारा अभी दिख रहा है।
दो पीढ़ियों से यहाँ हिन्दुओं को झूठी शिक्षा दी जाती रही है। उसी दुष्प्रभाव में आज अधिकांश लेखक, पत्रकार, छात्र आत्महीन होकर विचित्र मानसिकता से ग्रस्त हैं। उन्हें अपने धर्म, संस्कृति, तुलनात्मक इतिहास व दर्शन का ज्ञान नहीं। वे इस्लाम-परस्ती को अपनी श्रेष्ठता समझते हैं!
जबकि श्रीअरविन्द ने समस्याओं को राजनीतिक नहीं, बल्कि राष्ट्रीय दृष्टि से देखने की सीख दी थी। कि मुसलमानों को भाई मान कर व्यवहार करें। किन्तु बराबरी व सचाई के साथ व्यवहार। यदि वे मिल कर रहें तो, और लड़ना चाहें तो भी, समान उत्तर दें। न मिथ्याचार अपनाएं, न लड़ने से कतराएं। वही सीख आज भी सटीक है। जब मुसलमान अपने भयंकर विदेशी रहनुमाओं के कहने पर भी उठ खड़े होते रहे हैं, तो हिन्दू अपने महान ज्ञानियों-योगियों की सीख पर क्यों न चलें?
फिर जब 57 देश अपने को इस्लामी गणतंत्र कहते हैं, तो भारत हिन्दू गणतंत्र क्यों नहीं होना चाहिए? देश-विभाजन के बाद वैसे भी यह हिन्दुओं का ही था। आगे, तमाम इस्लामी देश ‘सेक्यूलरिज्म’ के बिना अच्छे हैं, तो केवल भारत पर इसे थोपने के पीछे क्या मंशा है? हर हाल में सेक्यूलरिज्म हिन्दुओं के विरुद्ध हथियार जैसा इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। ऐसे सीधे सवाल पूछकर मुसलमानों को जबाव देने कहना चाहिए। तभी उन्हें संतुलित समझ मिलेगी। यही सीताराम गोयल का आशय था।
सच्चे इतिहास का सामना करके ही मुसलमानों में विवेक पैदा होगा। स्वामी विवेकानन्द और श्रीअरविन्द ने यही कहा था। मुसलमानों की भारतीयता, मानवीयता को सचाई के सहारे जगाना होगा। नकली बातें या भगोड़ापन उलटा परिणाम देंगी। जिन हिन्दूवादियों को अपने संगठन, सदभावना, लोकप्रियता, आदि का मुगालता है, उन्हें देश-विभाजन से पहले कांग्रेस व गाँधीजी से अपनी तुलना करनी चाहिए। इस्लामी कटिबद्धता का मुकाबला केवल हिन्दू सत्यनिष्ठा हो सकती है। दलीय प्रचार या ‘विकास’, ‘सच्चा सेक्यूलरवाद’, ‘गाँधी’ या ‘संविधान’ की पूजा के शब्दजाल में वे खुद उलझते हैं, जिस का बैरियों पर कोई असर नहीं होता।

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