सात दशकों की गणतांत्रिक यात्रा में भारतीय लोकतांत्रिक और राजनीतिक व्यवस्था उत्तरोत्तर सुदृढ़ हुई है। इसके साथ ही सामाजिक प्रगति और आर्थिक विकास में भी उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल हुई हैं। इस राष्ट्रीय यात्रा में हमारा संविधान मार्गदर्शक भी रहा है और संचालक भी।
स्वतंत्रता आंदोलन के आधारभूत मूल्यों को नियमन के इस सर्वोच्च ग्रंथ में समाहित कर संविधान सभा ने अतुलनीय योगदान दिया है। संविधान के निर्देशों और गणतंत्र के आदर्शों पर चलकर ही हम भारत को एक महान लोकतंत्र के रूप में स्थापित कर सकते हैं तथा राष्ट्रों के समूह में प्रथम पंक्ति में प्रतिष्ठित कर सकते हैं।
संविधान की सफलता के लिए पूर्वाग्रह-मुक्त नेतृत्व जरूरी
हमने एक लोकतांत्रिक संविधान तैयार किया है। लेकिन लोकतांत्रिक संस्थाओं के सफलतापूर्वक काम करने के लिए उनके साथ काम करनेवाले लोगों में दूसरों के दृष्टिकोण को सम्मान देने तथा समझौता व समायोजन करने की क्षमता होना आवश्यक है। बहुत चीजें, जिनका उल्लेख संविधान में नहीं होता,
उन्हें स्थापित परंपराओं के अनुरूप किया जाता है। मुझे आशा है कि हम ऐसी क्षमता प्रदर्शित करेंगे और उन परंपराओं को विकसित करेंगे। जिस प्रकार से हम बिना मतदान एवं मत-विभाजन के इस संविधान को बना सके हैं, उससे इस आशा को बल मिलता है।
संविधान में जो भी प्रावधान है या नहीं है, देश का कल्याण देश के शासन चलाने के तरीके पर निर्भर करेगा। यह उन लोगों पर निर्भर करेगा, जो शासन का संचालन करेंगे। यह बहुत पुरानी कहावत है कि देश को वैसी ही सरकार मिलती है, जिसके वह योग्य होता है। हमारे संविधान में ऐसे प्रावधान हैं, जो एक या दूसरे नजरिये से कुछ लोगों को आपत्तिजनक लग सकते हैं।
यह स्वीकार करना होगा कि देश और लोगों की स्थिति को देखते हुए कमियों का होना स्वाभाविक है। यदि निर्वाचित लोग योग्य, चरित्रवान व ईमानदार हों, तो वे दोषपूर्ण संविधान का भी बेहतरीन उपयोग कर सकेंगे। अगर उनमें ये गुण नहीं होंगे, तो संविधान भी देश की मदद नहीं कर पायेगा। आखिरकार, संविधान एक मशीन की तरह जीवनहीन वस्तु होता है।
इसे उन लोगों से जीवन मिलता है, जो इसे नियंत्रित और संचालित करते हैं, और भारत को आज सबसे अधिक जरूरत ऐसे ईमानदार लोगों के समूह की है, जो देश के हित को अपने से ऊपर रखते हों। हमारे जीवन में विभिन्न तत्वों की वजह से अलगाववादी रूझान पनप रहे हैं। हम में सांप्रदायिक, जातिगत, भाषाई, प्रांतीय और अन्य कई तरह के मतभेद हैं।
इस स्थिति में ऐसे मजबूत चरित्र व दृष्टि रखनेवाले ऐसे लोगों की दरकार है, जो छोटे समूहों व क्षेत्रों के लिए देश के व्यापक हितों की बलि नहीं चढ़ायेंगे और जो इन मतभेदों से पैदा होनेवाले पूर्वाग्रहों से ऊपर उठ कर काम कर सकेंगे। हम केवल यही उम्मीद कर सकते हैं कि हमारा देश बड़ी संख्या में ऐसे लोगों को उभार सकेगा।(संविधान सभा के अध्यक्ष के तौर पर 26 नवंबर, 1949 को दिये गये संभाषण का अनूदित अंश)
संविधान निर्माण की प्रक्रिया
लाई, 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद ब्रिटेन में नयी सरकार का गठन हुआ। इस सरकार ने भारत को लेकर अपनी नयी नीति की घोषणा की और संविधान निर्माण करनेवाली समिति बनाने का निर्णय लिया। इसके बाद मार्च, 1946 में ब्रिटिश कैबिनेट के तीन मंत्री सर पैथिक लॉरेंस, स्टेफर्ड क्रिप्स अौर एवी अलेक्जेंडर भारत भेजे गये। भारतीय इतिहास में ब्रिटिश मंत्रियों के इस दल को कैबिनेट मिशन के नाम से जाना जाता है।
कैबिनेट मिशन की सिफारिशों के आधार पर संविधान तैयार करने के लिए जुलाई, 1946 को संविधान सभा का गठन किया गया, जिसमें कुल सदस्यों की संख्या 389 थी। इन सदस्यों में 292 प्रांतीय विधानसभा (ब्रिटिश प्रांतों) के प्रतिनिधि, 93 देसी रियासतों के प्रतिनिधि और चार चीफ कमिश्नर क्षेत्रों (दिल्ली, कूर्ग (कर्नाटक), अजमेर-मेरवाड़ा और ब्रिटिश बलूचिस्तान के प्रतिनिधि शामिल थे।
गठन के बाद जुलाई, 1946 में ही संविधान सभा के 389 सदस्यों में से 296 सदस्यों के लिए चुनाव हुए. इसमें कांग्रेस के 208, मुस्लिम लीग के 73 और 15 अन्य दलों के और स्वतंत्र उम्मीदवार निर्वाचित हुए।
संविधान सभा की प्रथम बैठक 9 दिसंबर, 1946 को दिल्ली में हुई. बैठक में डॉ सच्चिदानंद सिन्हा को सभा का अस्थायी अध्यक्ष चुना गया। इसके दो दिन बाद ही यानी 11 दिसंबर को डॉ राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के स्थायी अध्यक्ष निर्वाचित हुए।
सभा की तीसरी बैठक 13 दिसंबर, 1946 को बुलायी गयी। इस बैठक में जवाहरलाल नेहरू द्वारा पेश किये गये उद्देश्य प्रस्ताव के साथ सभा की कार्यवाही प्रारंभ हुई. इसी उद्देश्य प्रस्ताव को संविधान सभा ने 22 जनवरी, 1947 को अंगीकार किया। इन्हीं उद्देश्य प्रस्तावों के आधार पर भारतीय संविधान की प्रस्तावना तैयार की गयी।
29 अगस्त, 1947 को संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए प्रारूप समिति का गठन किया गया। डॉ भीमराव अांबेडकर इस समिति के अध्यक्ष चुने गये। प्रारूप समिति में सात सदस्य थे- डॉ भीमराव अांबेडकर (अध्यक्ष), एन गोपाल स्वामी अयंगर, अल्लादी कृष्णा स्वामी अय्यर, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, सैय्यद मोहम्मद सादुल्ला, एन माधव राव (बीएल मित्र की जगह) और टीटी कृष्णामचारी (डीपी खेतान की जगह)।
वर्ष 1947 में देश का बंटवारा हो जाने के बाद भारतीय संविधान सभा की कुल सदस्य संख्या 324 रह गयी, जिसमें 235 स्थान प्रांतों के लिए और 89 स्थान देसी राज्यों के लिए थे।
देश के बंटवारे के बाद 31 अक्तूबर, 1947 को संविधान सभा का पुनर्गठन किया गया और 31 दिसंबर, 1947 को संविधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या 299 रह गयी, जिसमें प्रांतीय और देसी रियासतों के सदस्यों की संख्या 70 थी।
संविधान के प्रारूप पर विचार-विमर्श करने के बाद प्रारूप समिति ने 21 फरवरी, 1948 को संविधान सभा को अपनी रिपोर्ट पेश की।इसके बाद संविधान सभा द्वारा संविधान के कुल तीन वाचन संपन्न हुए।
इस प्रकार संविधान निर्माण की प्रक्रिया में कुल दो वर्ष, 11 महीना और 18 दिन लगे और इस पर लगभग 6.4 करोड़ रुपये खर्च हुए।
संविधान के प्रारूप पर कुल 114 दिनों तक बहस हुई
26 नवंबर, 1949 को जब संविधान सभा द्वारा संविधान पारित किया गया, तब इसमें कुल 22 भाग, 395 अनुच्छेद और आठ अनुसूचियां थीं. वर्तमान समय में संविधान में 25 भाग, 395 अनुच्छेद एवं 12 अनुसूचियां हैं।
संविधान के 15 अनुच्छेदों (5, 6, 7, 8, 9, 60, 324, 366, 367, 372, 380, 388, 391, 392 व 393 अनुच्छेद) में 26 नवंबर, 1949 को ही बदलाव कर दिया गया, जबकि शेष अनुच्छेदों को उनके पहले स्वरूप में ही 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया।
संविधान सभा की अंतिम बैठक 24 जनवरी, 1950 को हुई और उसी दिन संविधान सभा ने डॉ राजेंद्र प्रसाद को भारत का प्रथम राष्ट्रपति चुना।
प्रस्तावना
हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को:सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,प्रतिष्ठा और अवसर की समता,प्राप्त कराने के लिए,तथा उन सब में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ईस्वी (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान कोअंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
प्रमुख विशेषताएं
कई विशिष्टताएं और सिद्धांत भारतीय संविधान की खूबी हैं. दुनियाभर के संविधान विशेषज्ञों ने भारतीय संविधान पर अपने विचार रखे हैं और इसे कई मायनों में सर्वसमावेशी दस्तावेज बताया है।
यह दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है. संविधान में समय-समय पर कई संशोधन किये गये।
भारत का संविधान न तो कठोर है और न ही लचीला। कठोरता का मतलब- संशोधन के लिए विशेष प्रक्रियाओं की जरूरत. लचीला संविधान वह होता है, जिसमें आसानी से संशोधन हो सके।
भारत में मौजूद सभी धर्मों को समान संरक्षण और समर्थन का प्रावधान है। सरकार सभी पंथ के अनुयायियों के साथ एक जैसा व्यवहार करेगी और समान अवसर उपलब्ध करायेगी।
संविधान में संघ/ केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सत्ता के बंटवारे का प्रावधान है। यह संघवाद की अन्य विशेषताओं को भी पूरा करता है, इसलिए भारत एकात्मक संघीय राष्ट्र है।
भारत में सरकार का संसदीय स्वरूप है। दो सदनों- लोकसभा और राज्यसभा, वाली विधायिका है। सरकार के संसदीय स्वरूप में, विधायी और कार्यकारिणी अंगों की शक्तियों में कोई स्पष्ट अंतर नहीं है। भारत में, सरकार का मुखिया प्रधानमंत्री होता है।
भारत का संविधान प्रत्येक व्यक्ति को एकल नागरिकता प्रदान करता है। देश का कोई भी राज्य अन्य राज्य के निवासी होने के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता। किसी भी व्यक्ति को देश के किसी भी हिस्से में जाने (कुछ स्थानों को छोड़कर) और भारत की सीमा के भीतर कहीं भी रहने का अधिकार है।
संविधान एकीकृत और स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था करता है। सुप्रीम कोर्ट देश का सर्वोच्च न्यायालय है. इससे नीचे उच्च न्यायालय, जिला अदालत और निचली अदालतें हैं।
संविधान के भाग-IV (अनुच्छेद 36 से 50) में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों की व्याख्या है। इन्हें कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
मौलिक कर्तव्य को 42वें संविधान संशोधन अधिनियम (1976) द्वारा शामिल किया गया। इसके लिए एक नया हिस्सा, भाग IVए बनाया गया और अनुच्छेद 51ए के तहत दस कर्तव्य हैं।
देश में 18 वर्ष से अधिक उम्र के प्रत्येक नागरिक को जाति, धर्म, वंश, लिंग, साक्षरता आदि के आधार पर भेदभाव किये बिना मतदान का अधिकार है. सार्वभौम वयस्क मताधिकार सामाजिक असमानताओं को दूर करता है और सभी नागरिकों के लिए समानता की व्यवस्था करता है।
देश की संप्रभुता, सुरक्षा, एकता और अखंडता के लिए किसी भी असाधारण स्थिति से निबटने हेतु राष्ट्रपति को कुछ खास अधिकार हैं। आपातकाल लागू करने के बाद केंद्र सरकार की शक्तियां बढ़ जाती हैं।
संविधान जमीनी स्तर पर लोकतंत्र, मौलिक अधिकारों और सत्ता के विकेंद्रीकरण के रूप में खड़ा है।