शुक्रवार, 31 जनवरी 2020

तब आगे एनआरसी मुद्दा?

क्या दिल्ली के बाद संशोधित नागरिकता कानून के साथ साथ राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर, एनआरसी का मुद्दा बनेगा? आखिर भाजपा को अगले साल अप्रैल-मई में पश्चिम बंगाल का चुनाव लड़ना है। वहां नागरिकता सबसे बड़ा मुद्दा होगा। ध्यान रहे भले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कह दिया हो कि अभी एनआरसी पर चर्चा नहीं हुई है और सरकार अभी इसे लाने नहीं जा रही है पर पश्चिम बंगाल में भाजपा ने बंगाली भाषा में जो पुस्तिका छपवाई है उसमें लिखा है कि एनआरसी लागू होगा। सो, माना जा रहा है कि दिल्ली के चुनाव के बाद एनआरसी पर फोकस बनेगा, घुसपैठियों को चुन चुन कर बाहर निकालने की बात कही जाएगी। ध्यान रहे भाजपा का शुरू से कहना रहा है कि पहले कांग्रेस और फिर लेफ्ट के शासन में बड़ी संख्या में बांग्लादेशी घुसपैठियों को पश्चिम बंगाल में बसाया गया है। 

इसमें कुछ हद तक सचाई भी है और यह भी सचाई है कि 29 फीसदी की मजबूत मुस्लिम आबादी की वजह से कई इलाकों में हिंदू लोग परेशान भी हुए हैं। कई इलाकों में आम हिंदू अपनी धार्मिक, सामाजिक मान्यताओं और राजनीतिक रूझानों को लेकर प्रताड़ित होता रहा है। भाजपा ने इसे अपना हथियार बनाया है। तभी पश्चिम बंगाल के लोकसभा चुनाव में उसने चमत्कारिक प्रदर्शन किया। भाजपा की सीटें दो से बढ़ कर 18 हो गईं। अगले साल के विधानसभा चुनाव में भाजपा लोकसभा की सीटों को विधानसभा में कन्वर्ट करने भर की तैयारी नहीं कर रही है, बल्कि बहुमत हासिल करने की तैयारी कर रही है।

सोचें, दिल्ली जैसे छोटे से अर्ध राज्य, जिसकी हैसियत नगरपालिका की तरह की है वहां का चुनाव जीतने के लिए जब हिंदू-मुस्लिम का इतना स्पष्ट राजनीतिक विमर्श बनाया गया है तो पश्चिम बंगाल में क्या होगा? दिल्ली में मुस्लिम आबादी को लेकर बहुत अलगाव वाली धारणा नहीं है और न सांप्रदायिक विभाजन बहुत गहरा है। महानगरीय जीवन शैली में ऐसे विभाजन की गुंजाइश भी कम रहती है। फिर भी दिल्ली में भाजपा ने चुनाव को हिंदू-मुस्लिम, भारत-पाकिस्तान, बालाकोट-शाहीन बाग का मुकाबला बना दिया है तो पश्चिम बंगाल के बारे में कल्पना की जा सकती है वहां क्या होगा? बंगाल से पहले बिहार विधानसभा का चुनाव है। वहां फिलहाल भाजपा का तालमेल जनता दल यू से है। अगर नीतीश कुमार की पार्टी जदयू के साथ ही मिल कर भाजपा को लड़ना है तब तो दिल्ली का हिंदू-मुस्लिम वाला नैरेटिव ठहरा रहेगा। लेकिन अगर किसी वजह से चुनाव से पहले तालमेल खत्म हुआ तो भाजपा बंगाल से पहले इसकी परीक्षा बिहार में ही करेगी। वहीं पर राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का मुद्दा बनेगा और वहां से उसे बंगाल ले जाया जाएगा। फिर हिंदू-मुस्लिम ग्रंथि और पिछले कुछ वर्षों से कराए गए सांप्रदायिक विभाजन की राजनीति की परीक्षा बिहार और पश्चिम बंगाल में होगी।

तब 2024 में क्या होगा?

सवाल उससे पहले के बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तरप्रदेश के चुनावों का भी है। यदि दिल्ली के चुनाव को सीरिया, कश्मीर, भारत बनाम पाकिस्तान में लड़ा जा रहा है तो इन तीन प्रदेशों में हिंदू बनाम मुस्लिम का झगड़ा राजनीति की कितनी हवा पाएंगा?  संभव है उत्तरप्रदेश के आते-आते तो एनआरसी का पांसा भी बतौर कानून चला जा सकता है। अपना मानना है कि शाहीन बाग और दिल्ली का ऊबाल 8 फरवरी के बाद सामान्य हो जाएगा। बहुत संभव है उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल को छोड़ कर बाकि जगह सीएएस विरोधी आंदोलन का ज्वार भी खत्म हो जाए। पर दिल्ली में आप और अरविंद केजरीवाल का जीतना मोदी-शाह-भाजपा के लिए वह सदमा होगा जिसमें फिर साल आखिर के बिहार चुनाव में वहां गिरिराजसिंह को ही कमान दे कर हिंदू-मुस्लिम कराना होगा।

हां, मोदी-शाह जानते हंै कि नीतीश कुमार का सुशासन, उनकी सोशल इंजीनियरिंग आर्थिक बदहाली में पहले की तरह सुरक्षित नहीं है। सोशल इंजीनियरिंग भी बिगड़ चुकी है और नीतीश कुमार को अपनी सीटों, जेडीयू की सीटों के लिए थोड़े-बहुत मुस्लिम वोट चाहिए तो वे नागरिकता मामलों में मोदी सरकार-भाजपा की हां में हां का रूख लिए हुए नहीं हो सकते। जबकि बिहार के बाद मोदी-शाह को बंगाल का चुनाव लड़ना है तो नागरिकता कानून, सीएए, एनआरसी के नागरिकता मामले को अनिवार्यतः हाई पिच पर रखना होगा। दिल्ली के चुनाव में मोदी-शाह ने शाहीन बाग, मुसलमान की बात को हिंदू मानस में जिस ऊंचाई पर पहुंचाया है तो यह नामुमकिन नहीं है कि ऐन वक्त नीतीश कुमार से एलायंस को डंप कर अमित शाह रणनीति बना बिहार के हिंदुओं को आव्हान कर डालंे कि चंद्रगुप्त का संकल्प है विधर्मियों को हराना है, भगाना है।

कांटे की उस लड़ाई का विस्तार फिर पश्चिम बंगाल और उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में होगा। तभी संभव है कि एनआरसी के साथ यूपी चुनाव तक नई जनसंख्या नीति से भी मुस्लिम आबादी पर फोकस बनवा दिया जाए।

सो 2024 तक लगातार भारत और भारत का नैरेटिव मुसलमान की चिंता, मुसलमान की नागरिता और हिंदुओं की एकजुटता में उलझा रहेगा। इससे आर्थिकी आदि के हालातों से ध्यान बंटाते हुए विपक्ष को भटकाए रखना भी संभव होता रहेगा। और यदि इससे बात नहीं बनी तो पाक अधिकृत कश्मीर को लेने, पाकिस्तान को मजा चखाने जैसा सर्जिकल दांव भी चला जा सकता है! पर इस सबसे अलग भी एक सिनेरियो बनता है, उसका परिपेक्ष्य क्योंकि अलग है इसलिए उस पर 8 फरवरी के बाद सोचेंगे।

गहलोत सरकार प्रदेश के विकास में नाकाम, खुद के विधायक ही लगा रहे आरोप: डाॅ. पूनिया

जयपुर। भाजपा प्रदेशाध्यक्ष डाॅ. सतीश पूनिया ने प्रदेश की कानून व्यवस्था एवं बजरी माफियाओं के आतंक पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि बजरी माफिया का बढ़ता आतंक चिंताजनक है। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार को लगभग 13 महीने हो चुके हैं, इतने कम समय में ही सरकार ने जनता का विश्वास खो दिया है, अपराधों का ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा है। यह बात शुक्रवार को उन्होंने विधानसभा क्षेत्र आमेर में अपने दौरे के दौरान कही और उन्होंने कहा कि प्रदेश के मुख्यमंत्री गहलोत स्वयं गृहमंत्री भी है, लेकिन उनसे प्रदेश की कानून व्यवस्था नहीं संभाली जा रही है, अपराधी बेखौफ होकर अपराध कर रहे हैं।

डाॅ. पूनिया ने कहा प्रदेश में बजरी खनन माफिया सरकार से भी ज्यादा ताकतवर हो चुके हैं। वे अपने वाहनों से सामान्य जन से लेकर पुलिस तक को कुचलने में नहीं चूकते हैं। धौलपुर जिले में बाड़ी सदर थाना क्षेत्र के पगुली गांव के जंगलों में बजरी माफिया और पुलिस के बीच हुई फायरिंग में पुलिस की गोली लगने से बजरी की ट्राॅली में सवार एक नाबालिग की मौत बहुत चिंताजनक हैं।

डाॅ. पूनिया ने कहा कि अब तो सरकार के विधायक एवं मंत्री भी सरकार के कार्यों से निराश है और खुलेआम सरकार के कार्यों पर सवाल उठानें लगे है। कल ही टोडाभीम के विधायक पृथ्वीराज मीणा ने मुख्यमंत्री गहलोत पर जनहित के काम नहीं कराने का आरोप लगाया है। इसी तरह कुछ दिन पूर्व ही कोटा में हुई बच्चों की मौतों पर भी सरकार की आंतरिक कलह सामने आई थी, सरकार दो धड़ाें में बटी हुई है और आपसी खींचतान से ग्रसित यह सरकार प्रदेश का विकास करना तो दूर कानून व्यवस्था भी नहीं संभाल सकती। सवाई माधोपुर के विधायक दानिश अबरार ने बजरी माफिया की कारगुजारी को बताया है खुदने अपनी सरकार की आंखे आज खोली हैं।

बाड़ी विधायक गिर्राज मलिंगा ने भी आरोप लगाया कि डीआईजी इस बजरी प्रकरण में सम्मिलित है। बहुत चिंताजनक है। पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने रोक के बावजूद प्रदेश में अवैध बजरी खनन पर सीएस, एसीएस खान व डीजीपी को अवमानना नोटिस जारी किया था। इस अवैध खनन में खान विभाग, परिवहन विभाग, पुलिस महकमा भी शामिल है। ग्रामीण क्षेत्रों में लोग संगठित होने लगे हैं, लेकिन खनन विभाग, पुलिस व प्रशासन का साथ नहीं मिलने से बजरी का अवैध खनन करने वालों के हौसले बुलंद हैं। तेज गति से चलने वाले अवैध बजरी के ट्रक और ट्रैक्टर के कारण प्रदेश में आए दिन दुर्घटनाएं हो रही हैं।

डाॅ. पूनिया ने अपने विधानसभा क्षेत्र आमेर का दौरा कर स्वयं के द्वारा कराए गए विभिन्न विकास कार्यों का जायजा लिया, साथ ही उन्होंने कुंडा क्षेत्र में बोरिंग का उद्घाटन किया और बाग बस्ती का दौरा कर पानी बिजली सड़क आदि सुविधाओं के विस्तार हेतु चर्चा की। उन्होंने राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय तथा आंगनबाड़ी भवन का निरीक्षण कर पुराने जर्जर भवन के स्थान पर नए भवन के निर्माण का आश्वासन दिया। 

पिछले 13 साल में मांसाहारी थाली के मुकाबले शाकाहारी थाली हुई सस्ती

 भारत में पिछले 13 वर्षों में मांसाहारी थाली की तुलना में शाकाहारी थाली की कीमत में अधिक सुधार हुआ है। संसद में पेश की गई आर्थिक समीक्षा 2019-20 में यह बात सामने आई है। सर्वेक्षण में कहा गया है कि 2006-2007 की तुलना में 2019-20 में शाहाकारी भोजन की थाली 29 प्रतिशत और मांसाहारी भोजन की थाली 18 प्रतिशत सस्ती हुई है।

केंद्रीय वित्त एवं कॉरपोरेट कार्य मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि भारतीयों के लिए दैनिक आहार से संबंधित दिशानिर्देशों की सहायता से थाली की मूल्य का आंकलन किया गया है। अब औद्योगिक श्रमिकों की दैनिक आमदनी की तुलना में भोजन की थाली और सस्ती हो गई है। उन्होंने कहा कि भारत में भोजन की थाली के अर्थशास्त्र के आधार पर समीक्षा में यह निष्कर्ष निकाला गया है।  

यह अर्थशास्त्र भारत में एक सामान्य व्यक्ति द्वारा एक थाली के लिए किए जाने वाले भुगतान को मापने का प्रयास है। इसके लिए अप्रैल 2006 से अक्टूबर 2019 तक 25 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के लगभग 80 केंद्रों से औद्योगिक श्रमिकों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से कीमतों का इस्तेमाल किया गया है।

समीक्षा के अनुसार संपूर्ण भारत के साथ-साथ इसके चारों क्षेत्रों -उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम में यह पाया गया कि शाकाहारी भोजन की थाली की कीमतों में 2015-16 से काफी कमी आई है। हालांकि, 2019 में इनकी कीमतों में तेजी रही।

ऐसा सब्जियों और दालों की कीमतों में पिछले वर्ष की तेजी के रुझान के मुकाबले गिरावट का रुख रहने के कारण हुआ है। इसके परिणाम स्वरूप पांच सदस्यों वाले एक औसत परिवार, जिसमें प्रति व्यक्ति रोजना न्यूनतम दो पौष्टिक थालियों से भोजन करने के लिए प्रति वर्ष औसतन 10887 रुपए का लाभ हुआ। जबकि मांसाहारी भोजन वाली थाली के लिए प्रत्येक परिवार को प्रतिवर्ष औसतन 11787 रुपए का लाभ हुआ है।

समीक्षा के अनुसार 2015-16 में थाली की कीमतों में बड़ा बदलाव आया। ऐसा 2015-16 में भोजन की थाली के अर्थशास्त्र में बड़े बदलाव के कारण संभव हुआ। सरकार की ओर से 2014-15 में कृषि क्षेत्र की उत्पादकता तथा कृषि बाजार की कुशलता बढ़ाने के लिए कई सुधारात्मक कदम उठाए गए। इसके तहत अधिक पारदर्शी तरीके से कीमतों का निर्धारण किया गया।

गुरुवार, 30 जनवरी 2020

आर्थिक सर्वे के क्या है असली मायने, बजट से एक दिन पहले ही क्‍यों होता है पेश?

मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का दूसरा बजट शनिवार को संसद में पेश किया जाएगा।  मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का यह पहला पूर्णकालिक बजट होगा। इससे पहले आज आर्थिक सर्वे देश का सामने लाया जाएगा। इस आर्थिक सर्वे को वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण सदन के पटल पर रखेंगी। बीते कुछ महीनों में देश के आर्थिक हालात को देखते हुए ये सर्वे काफी अहम माना जा रहा है। 

ऐसे में लोगों के दिमाग में ये सवाल उठता है कि आर्थिक सर्वेक्षण क्‍या है और बजट से एक दिन पहले ही इसे क्‍यों पेश किया जाता है।

क्‍या होता है आर्थिक सर्वे?

आर्थिक सर्वे आम बजट से ठीक एक दिन पहले जारी होता है। आर्थिक सर्वे देश के आर्थिक विकास का सालाना लेखाजोखा होता है।  आर्थिक सर्वे को वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार तैयार करते हैं। एक तरह से यह वित्त मंत्रालय का काफी अहम दस्तावेज होता है। आर्थिक सर्वे अर्थव्यवस्था के सभी पहलुओं को समेटते हुए विस्तृत सांख्यिकी आंकड़े प्रदान करता है। भारतीय अर्थव्यवस्था की पूरी तस्वीर देखनी है तो आर्थिक सर्वे में यह आपको मिल सकती है।

आर्थिक सर्वे के जरिए देश की आर्थिक सेहत की तस्वीर साफ होती है, इससे पता चलता है कि अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर कितनी कामयाबी मिली है। इसके जरिये सरकार ये बताने की कोशिश करती है कि उसने आम लोगों के हित में जो योजनाएं शुरू की हैं। उसका प्रदर्शन कैसा है और अर्थव्यवस्था के लिए भविष्य में कितनी बेहतर संभावनाएं हैं।

वर्ष 2015 के बाद आर्थिक सर्वे को दो हिस्सों मे बांटा गया। एक भाग में अर्थव्यवस्था की स्थिति के बारे में बताया जाता है, जो आम बजट से पहले जारी किया जाता है, दूसरे भाग में प्रमुख आंकड़े और डेटा होते हैं, जो जुलाई या अगस्त मे पेश किया जाता है।


आर्थिक सर्वे कैसे होता है तैयार?

आर्थिक सर्वे को वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार और उनकी टीम तैयार करती है। इस बार मुख्य आर्थिक सलाहकर कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यम हैं। ऐसे में जाहिर सी बात है कि उनकी अगुवाई में आर्थिक सर्वे रिपोर्ट तैयार की गयी है। वित्त मंत्रालय के इस अहम दस्तावेज को सदन में वित्तमंत्री द्वारा पेश किया जाता है।

बीते साल चार जुलाई को निर्मला सीतारमण ने अपना पहला आर्थिक सर्वे पेश किया था। इसके बाद पांच जुलाई को मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का पहला आम बजट पेश किया गया। यहां बता दें कि देश में पहली बार आर्थिक सर्वे 1950-51 में जारी किया गया था और वित्त मंत्रालय की वेबसाइट पर 1957-58 से आगे के दस्तावेज भी मौजूद हैं।

आवासन मण्डल वीकेंड होम के रूप में बेचेगा दस्तकार नगर के अधिशेष आवास आवासन मण्डल में लौटा लोगों का भरोसा

जयपुर, 30 जनवरी। आवासन आयुक्त  पवन अरोड़ा ने बताया कि राजस्थान आवासन मण्डल द्वारा नायला स्थित महात्मा गांधी दस्तकार नगर योजना के अधिशेष आवासों को वीकेंड होम के रूप में आम जनता को बेचा जायेगा।

 अरोड़ा ने यह जानकारी गुरूवार को पिंकसिटी प्रेस क्लब में आयोजित ”प्रेस से मिलिए कार्यक्रम“ में दी। उन्होंने बताया कि राजधानी के नजदीक सुरम्य अरावली की पहाड़ियों के बीच स्थित महात्मा गांधी दस्तकार नगर योजना में अधिशेष आवासों को ओपन काउंटर सेल के द्वारा पहले आओ पहले पाओ के सिद्धांत के आधार पर होलिडे होम के रूप में बेचा जायेगा। इस योजना में ओपन एयर थियेटर, चौपाटी और एक्जीबिशन एरिया विकसित किया जायेगा। यह आवास 14 लाख 99 हजार रुपये की स्थिर कीमतों पर बेचे जायेंगे।

 अरोड़ा ने बताया कि इस वर्ष आवासन मण्डल की स्थापना के 50 वर्ष पूर्ण होने पर फरवरी माह में जयपुर में राज्य स्तरीय स्वर्ण जयंती समारोह आयोजित किया जायेगा। इसके साथ ही इस दौरान रक्तदान, अंगदान और नेत्रदान के कार्यक्रम आयोजित किये जायेंगे। इस कार्यक्रम में मण्डल के उत्कृष्ट कार्मिकों को पुरस्कृृत किया जायेगा।

आवासन आयुक्त ने गत एक वर्ष में मण्डल द्वारा अर्जित की गई उपलब्धियाें पर भी प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि आवासन मण्डल में लोगों का भरोसा लौटने लगा है, मण्डल की प्रीमियम सम्पत्तियां निर्धारित बिक्री मूल्य से 2 से 3 गुना कीमत पर बिक रही है। मण्डल ने 46 प्रीमियम सम्पत्तियों की नीलामी कर लगभग 50 करोड़ रूपये का राजस्व पृथक से अर्जित किया है।

मण्डल द्वारा वर्षों से वीरान और बिना बिके आवासों को बेचना एक चुनौती पूर्ण काम था, हमनें इन मकानों को बेचने की कार्ययोजना बनाई। इन मकानों को पहले ई-ऑक्शन कार्यक्रम के माध्यम से और अब बुधवार नीलामी उत्सव के माध्यम से बेचा जा रहा है। उल्लेखनीय है कि मण्डल अपने इस प्रयास में सफल हो रहा है। अभी तक लगभग 2300 आवासों को बेचकर 350 करोड़ रुपये का राजस्व अर्जित किया जा चुका है। मण्डल द्वारा ई-ऑक्शन कार्यक्रम में तो महज 35 दिनों में 1010 आवास बेचकर विश्व रिकॉर्ड कायम कर दिया। वर्षों से बिना बिके पडी मानसरोवर के झुलेलाल मार्केट की 59 दुकानों को लेने के लिये 462 लोगाें ने पंजीयन कराया। खास बात यह रही की यह समस्त दुकानें एक ही दिन में बिक गई। तिब्बतियों को भी झूलेलाल मार्केट में दुकानों का आवंटन कर उनकी वर्षों की स्थाई बाजार की समस्या का समाधान किया गया।

उन्होंने बताया कि अधिशेष सम्पत्तियों के विक्रय के साथ नई विकास परियोजना लाकर मण्डल के कार्यों को गति प्रदान की गई है। राजधानी जयपुर के मानसरोवर और प्रताप नगर में जयपुर चौपाटी बनाई जा रही है और इन्दिरा गांधी नगर विस्तार में खेल गांव प्रस्तावित है। जयपुर की प्रतिष्ठित आवासीय योजना मानसरोवर में आर.एच.बी. आतिश मार्केट का निर्माण किया जा रहा है, जिसमें शोरूम के लिये भूखण्ड बेचे जायेंगे। इसके साथ ही जयपुर के प्रताप नगर में पहली बार ईको फ्रेण्डली कॉचिंग हब बनाया जायेगा।

 अरोड़ा ने मण्डल द्वारा चलाई जा रही स्वर्ण जयंती उपहार योजना की जानकारी देते हुए बताया कि यह योजना 22 जनवरी, 2020 को शुरू की गई है जो कि 19 फरवरी, 2020 तक चलेगी। उन्होंने बताया कि योजना अवधि में बुधवार नीलामी उत्सव, ओपन काउंटर सेल, खुली नीलामी में आवास या सम्पत्ति खरीदने वाले क्रेतागण पात्र होंगे। आयुक्त ने बताया कि स्कूटर की लॉटरी बुधवार नीलामी उत्सव के दिन सम्बंधित मंडल कार्यालय में निकाली जाएगी तथा इसके साथ ही बम्पर लॉटरी कम्प्यूटराईज्ड रेण्डम पद्धति से दिनांक 21 फरवरी, 2020 को सांय 4 बजे राजस्थान आवासन मंडल मुख्यालय पर निकाली जाएगी।

पृथ्वीराज नगर के गरीबों पर मार तथा भूमाफियाओं को मालामाल करने का सरकार का फैसला शर्मनाक: राजपाल सिंह शेखावत



जयपुर । पूर्व नगरीय विकास मंत्री राजपाल सिंह शेखावत ने सरकार के पृथ्वीराज नगर क्षेत्र की आवासीय काॅलोनियों के नियमन एवं विकास दर बढ़ाने के सरकार के फैसले की कड़ी निंदा की है।शेखावत ने कहा कि एक ओर सरकार द्वारा 100 वर्गगज तक के गरीब लोगों के नियमन एवं विकास शुल्क पर 20 प्रतिशत से ज्यादा की बढ़ोतरी की है, वहीं दूसरी ओर भूमाफियाओं के 1000 वर्गगज से बड़े भूखण्डों का कब्जा लेने की बजाय नियमितिकरण का फैसला दुर्भाग्यपूर्ण है।

शेखावत ने कहा कि सरकार ने अपने इस फैसले से गरीबों की जेब काटने एवं भूमाफियाओं की जेबें भरने का काम करके अपना असली चेहरा जनता के सामने बेनकाब कर दिया है। उन्होंने याद दिलाया कि पूर्ववर्ती भाजपा सरकार द्वारा अन्तिम रूप से अवाप्त जमीन के नियमितिकरण करने का निर्णय केवल गरीब लोगों द्वारा आवास बना लिये जाने के कारण मानवीय आधार पर लिया था तथा इसीलिये नियमितिकरण एवं विकास की दर को गरीब द्वारा सहन किये जाने योग्य बनाया था तथा 1000 वर्गगज से ऊपर के भूमाफियाओं के भूखण्डों को कब्जे में लेकर उनके बेचान से राजस्व प्राप्त कर पृथ्वीराज नगर के विकास की एकीकृत योजना तैयार की थी। इस ‘‘राजस्व माॅडल‘‘ को सरकार द्वारा भूमाफियाओं से मिलकर नेस्तनाबूत कर विकास के नाम पर गरीब के सिर पर भार डालने का यह जो काम किया है बेहद शर्मनाक है।

शेखावत ने कहा कि जेडीए नियमितीकरण के रूप में 1250 करोड़ रूपयों से ज्यादा पृथ्वीराज नगर के निवासियों से वसूल कर चुका है लेकिन गत एक वर्ष से क्षेत्र में विकास का कार्य पूर्ण रूप से ठप्प पड़ा है तथा इस पैसे को अन्यत्र खर्च कर दिया गया है। सरकार तथा जेडीए अपनी अदूर्दर्शिता एवं अक्षमता के चलते आर्थिक रूप से टूट चुका है तथा अपनी इस अकर्मण्यता का गरीब के कंधे पर भार डाल कर अपना रोजमर्रा का खर्च चलाना चाहता है।

शेखावत ने कहा कि पूर्ववर्ती भाजपा सरकार द्वारा पृथ्वीराज नगर के विकास की एक समग्र एकीकृत योजना तैयार की गयी थी जिसके अन्तर्गत मुख्य सड़कों पर सुविधाओं हेतु भूमिगत डक्ट का निर्माण, पेयजल, सिवरेज, हाईटेंशन लाईन का भूमिगतकरण तथा सड़क एवं नाली के वृहत संरचना निर्माण द्वारा इसे प्रदेश की सर्वाधिक विकसित काॅलोनी के रूप में तब्दील करने की योजना को इस सरकार ने तिलांजली दे दी है तथा फोरे तौर पर काम कर अपना खजाना भरने की कोशिश कर रही है।

शेखावत ने कहा कि जेडीए दिवालियेपन के कगार पर है तथा अपने कर्मचारियों के वेतन के लिये भी उसे जुगाड़ करना पड़ रहा है। इसीलिये पूर्ववर्ती भाजपा सरकार की सारी योजनाओं को या तो बन्द कर दिया गया है अथवा पूर्णतः शिथिल कर दिया गया है। द्रव्यवती नदी के सौंदर्यकरण की योजना, झोटवाड़ा एलिवेटेड रोड़, सोडाला-अम्बेडकर सर्किल एलिवेटेड रोड़ का काम लगभग ठप्प है। नये आर.ओ.बी./फ्लाई ओवर तथा रेड लाईट फ्री रोड्स करने के पूर्ववर्ती सरकार के फैसले पर यह सरकार कोई काम नहीं कर पायी है। स्मार्ट सिटी के काम तथा अमृत योजना के तहत कोई भी काम गति नहीं पकड़ पाया है। ऐसी स्थिति में पृथ्वीराज नगर योजना के निवासियों की जेब पर डाका डालकर अपना काम चलाने की सरकार की कोशिश का जनता जमकर विरोध करेगी तथा पृथ्वीराज नगर के क्षेत्र में विकास शुरू करने के लिये सरकार को मजबूर करेगी।

बुधवार, 29 जनवरी 2020

अमीर, गरीब और चुनावी अर्थशास्त्र

एडम स्मिथ ने कहा था, 'कोई शिकायत पैसे की कमी से ज्यादा आम नहीं है। ' 300 साल पहले की गई यह टिप्पणी भारत में मंदी को देखते हुए आज भी प्रासंगिक है। निरापद ढंग से कहा जा सकता है कि विलाप पूरे देश में आम बात है-आम लोगों से लेकर व्यवसायियों और जाहिर है, सरकार तक। जैसा कि भारत अब संघीय बजट पेश करने वाला है, हर समस्या के हर समाधान को इस सवाल से जूझना पड़ रहा है कि 'पैसा कहां है'-चाहे वह ज्यादा सड़कों, स्कूलों, अस्पतालों या गरीबों को आर्थिक सहायता देने के लिए हो।

राजस्व के लिए सरकार उधार ले सकती है, अपनी संपत्ति बेच सकती है या और ज्यादा टैक्स लगा सकती है। सरकार की उधार लेने की क्षमता को राजकोषीय घाटे के स्तर का पालन करने की आवश्यकता होती है। वर्ष 2010 के बाद से केंद्र और राज्यों की उधारी 6.2 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 12.5 लाख करोड़ रुपये हो गई है, यानी 1,708 करोड़ रुपये से बढ़कर 3,447 करोड़ रुपये प्रतिदिन, जो प्रति घंटे 143 करोड़ रुपये से ज्यादा बैठती है। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की बिक्री राजनीतिक रूप से चुनौतीपूर्ण है और इसमें समय लगता है। इसलिए हैरानी नहीं कि सत्ता के गलियारों में अरबपतियों पर कर लगाने की चर्चाएं हो रही हैं। अमीरों के धन पर कर लगाने की ललक एक वैश्विक परिघटना है। पिछले हफ्ते दावोस में अरबपतियों के जमावड़े को ऑक्सफेम इंटरनेशनल ने बताया कि दुनिया के सबसे अमीर एक फीसदी लोगों के पास 6.9 अरब लोगों की संपत्ति के दोगुने से ज्यादा धन था और 2018 में भारतीय अरबपतियों की संपत्ति सरकारी खर्च से अधिक थी।

इसलिए असमानता की हकीकत से इन्कार नहीं है। ऑक्सफेम के मुताबिक, भारतीय अरबपतियों के पास 2018 के भारत के बजट से ज्यादा संपत्ति थी। असमानता प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों में सबसे अधिक दिखाई देती है-भारतीयों की प्रति व्यक्ति आय 1,26,000 रुपये है। इनमें से उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय 57,480 रुपये है, तो बिहार में 42,240 रुपये है। जिला स्तर पर देखें, तो उत्तर प्रदेश के बहराइच और बिहार के शिवहर में तस्वीर और बदतर हो जाती है।

असमानता का मुद्दा राजनीति के चौराहे पर है। वास्तव में यह अमेरिका में एक चुनावी मुद्दा है, जहां फेसबुक, अमेजन, ऐप्पल, नेटफ्लिक्स और अल्फाबेट के मालिकों की संपत्ति, जो अनुमानित रूप से 360 अरब डॉलर से अधिक है, पर कर लगाने की मांग बढ़ रही है, क्योंकि वे और उनकी कंपनियों को (जो चालीस खरब से अधिक मूल्य की हैं) प्रौद्योगिकी में सरकारी निवेश से लाभ हुआ है। 

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की उम्मीदवार एलिजाबेथ वारेन पांच करोड़ डॉलर से अधिक संपत्ति वालों पर दो फीसदी और दस करोड़ डॉलर से अधिक संपत्ति वाले पर तीन फीसदी कर लगाने का अभियान चला रही हैं। उनका अनुमान है कि इससे दस वर्षों में 27 खरब डॉलर मिल सकता है।

भले ही राजनेताओं द्वारा सुझाया गया गणित और कार्यप्रणाली विवाद का विषय हो सकता है, लेकिन दायित्व नहीं। अपनी पुस्तक द वेल्थ ऑफ नेशन में एडम स्मिथ ने कहा है, 'प्रत्येक राज्य की प्रजा को अपनी क्षमताओं के अनुपात में जितना संभव हो, सरकार की सहायता के लिए योगदान करना चाहिए।'

भारत में सरकार के भीतर इस पर बहस हो रही है कि भारतीय अरबपतियों ने भी भारत के विकास का लाभ उठाते हुए धन कमाया है। इसलिए उनके धन पर भी कर लगाया जाना चाहिए। फोर्ब्स की अरबपतियों की सूची में डॉलर में कमाई करने वाले 110 भारतीय अरबपति हैं, जिनकी कुल मिलाकर संपत्ति 400 अरब डॉलर से अधिक, यानी 28.40 लाख करोड़ रुपये है।

अमेरिका में वारेन की संपत्ति कर की निचली सीमा पांच करोड़ डॉलर है, जो 350 करोड़ रुपये के करीब बैठती है। तीन प्रतिशत कर लगभग 85,000 करोड़ रुपये के करीब होगा- और शेयरों को 'भारत अरबपति ईटीएफ' के रूप में सूचीबद्ध करके स्वीकार किया जा सकता है। यह सूची शायद ही संपूर्ण है, कई ऐसे लोग हैं, जो सूचीबद्ध संस्थाओं को नहीं चलाते हैं, कई अज्ञात हैं।

समृद्ध लोगों को कर के दायरे में लाने के लिए अन्य सूत्र, अन्य संसाधन हो सकते हैं, लेकिन सामाजिक और आर्थिक विषमताओं को दूर करने के लिए संसाधन जुटाने की आवश्यकता से इन्कार नहीं किया जा सकता। यह अत्यंत दुखद है कि एक घंटे में सौ बच्चे मर जाते हैं, दस में आठ लोगों को नलों से पानी नहीं मिलता है, शिक्षा प्रणाली बर्बाद हो चुकी है, लाखों लोग प्रदूषण के कारण मर जाते हैं और लाखों लोग हुनरमंद होने और रोजगार पाने का इंतजार करते हैं।

हालांकि सरकार की कर लगाने की वैधता इस पर निर्भर है कि वह सार्वजनिक धन का कैसे सदुपयोग करती है और कैसे वादों को पूरा करती है। संसाधनों की कमी मुद्दा है, पर सरकारी खर्च की कार्य कुशलता बहुत खराब है।

उल्लेखनीय है कि 2010 से 2019 के बीच केंद्र और राज्य सरकारों का खर्च 18.52 लाख करोड़ रुपये (औसतन 211 करोड़ रुपये प्रति घंटे) से बढ़कर 53.61 लाख करोड़ रुपये (औसतन 612 करोड़ प्रति घंटे) हो गया, यानी हर मिनट दस करोड़ रुपये। विश्वसनीयता का मर्म यह है कि कर किसके लिए बढ़ाया जा रहा है और इसका इस्तेमाल कैसे होगा।

मसलन, राज्य सरकारें कर्जमाफी पर 4.5 लाख करोड़ रुपये खर्च करने का दावा कर रही हैं, लेकिन कृषि सुधार नहीं होने के कारण किसान लगातार पीड़ित हैं। केंद्र और राज्यों का शिक्षा पर खर्च 1.9 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 5.6 लाख करोड़ रुपये तथा स्वास्थ्य पर 88,000 करोड़ रुपये से बढ़कर 2.7 लाख करोड़ रुपये हो गया, फिर भी शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था बर्बाद है।

कटु सच्चाई यह है कि सरकारें सुधार की इच्छाशक्ति दिखाने, प्रदर्शन करने और संसाधनों की प्रभावी तैनाती में विफल रही हैं। आखिरकार, जैसा कि स्मिथ ने कहा है, योगदान उस राजस्व के अनुपात में होना चाहिए, जो उसने राज्य के संरक्षण में अर्जित किया है, न कि राज्य का सहयोग करने में असमर्थ होने पर। यानी शासन का मतलब केवल खर्च करना नहीं होता, बल्कि उसे उन परिणामों की गारंटी देनी चाहिए, जो विकास को सक्षम बनाते हैं। कराधन को चुनावी फायदे के लिए उठाए जाने वाले आर्थिक कदमों के आधार पर जायज नहीं ठहराया जा सकता। 

सियासी शतरंज: जदयू की गुटबाजी में आरसीपी-ललन से हारे प्रशांत किशोर

जनता दल यू से प्रशांत किशोर और पवन वर्मा की छुट्टी की मुख्य वजह नीतीश कुमार के उत्तराधिकार की लड़ाई है, जिसमें आरसीपी सिंह और ललन सिंह के सामने प्रशांत किशोर (पीके) गुट को हार का सामना करना पड़ा।

बिहार के 68 वर्षीय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी में दूसरी पंक्ति का नेतृत्व तैयार करने की है। इस वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव के बाद वे अपनी भूमिका सीमित करने के मूड में हैं। उनके बाद पार्टी नेतृत्व की दौड़ में आरसीपी सिंह, संजय झा, ललन सिंह और प्रशांत किशोर सबसे आगे थे।

ललन सिंह पहले आरसीपी के विरोधी थे, लेकिन पीके के बढ़ते कद को देख दोनों ने हाथ मिला लिए। पार्टी सूत्रों के अनुसार ये दोनों नेता केंद्र सरकार में जदयू कोटे से मंत्री नहीं बनने के लिए भी पीके को जिम्मेदार मानते थे। दरअसल जदयू को एक कैबिनेट और एक राज्यमंत्री का प्रस्ताव मिला था। 

अमित शाह आरसीपी सिंह को कैबिनेट और ललन सिंह को राज्यमंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन पीके ने नीतीश कुमार को बताया कि राज्यमंत्री के प्रस्ताव से ललन सिंह नाराज हो गए हैं। ऐसे में दोनों ही मंत्री नहीं बन पाए और पीके से नाराज हो गए।

तीन तलाक पर मतभेद

दोनों खेमों के बीच मतभेद का पहला संकेत तीन तलाक बिल पर पार्टी के बदलते रुख से मिला। प्रशांत किशोर की सलाह पर जदयू ने पहले इसका विरोध किया, लेकिन संसद से पारित होने के बाद रुख पलटने वाला बयान आरसीपी सिंह की ओर से आया। जदयू के पूर्व सांसद पवन वर्मा को पीके से नजदीकियों के चलते ही बागी तेवर अपनाने की कीमत चुकानी पड़ी।

झारखंड चुनाव अलग लड़े

पीके ने झारखंड चुनाव भाजपा से अलग लड़ने का एलान करा दिया। वे जदयू को भाजपा की छाया से निकालकर राष्ट्रीय स्तर पर ले जाना चाहते थे। इसमें उन्हें नीतीश कुमार का समर्थन था, लेकिन राज्य में झामुमो के पास वही चुनाव निशान पहले से होने की वजह से जदयू को नया चुनाव चिह्न मिला और पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा।

नीतीश पर डाल रहे थे भाजपा से अलग होने का दबाव

पीके नीतीश कुमार पर लगातार भाजपा से अलग होकर चुनाव लड़ने का दबाव डाल रहे थे। उनका मानना था कि यदि जदयू अपने दम पर राज्य विधानसभा की 240 में से 80 से 90 सीटें जीत लेती है, तो राजद और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाई जा सकती है। लेकिन अमित शाह ने जदयू को बिहार में बड़े भाई का दर्जा देने का एलान कर पीके के मंसूबों को ठंडा कर दिया। माना जा रहा है कि अब जदयू 110, भाजपा 100 और लोजपा 30 सीटों पर चुनाव लड़ सकते हैं।

पीके की महत्वाकांक्षा

2014 के संसदीय चुनाव में अपनी कंपनी आईपैक के जरिये भाजपा के चुनाव प्रचार की कमान संभालने वाले प्रशांत किशोर फिलहाल बंगाल में टीएमसी, दिल्ली में आम आदमी पार्टी, महाराष्ट्र में शिवसेना और तमिलनाडु में कमल हासन के साथ काम कर रहे हैं।

उनकी टीम ने पंजाब में कांग्रेस के अमरिंदर सिंह के लिए काम किया और आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस के लिए। उनका मानना है कि राजनीति और व्यवसाय अलग-अलग है। संभावना है कि प्रशांत अपनी पार्टी बना कर बिहार विधानसभा चुनाव में उतर सकते हैं।

न हमें सरस्वती प्राप्त और न लक्ष्मी!

आज वसंत पंचमी है। सरस्वती उर्फ ज्ञान, बुद्धि, विद्या की देवी की पूजा का दिन। मैं पिछले तीन वर्षों से सोचता आ रहा हूं कि इस दिन से हम हिंदुओं के सनातनी ज्ञान, सत्व-तत्व, हिंदू ग्रंथों का आज की हिंदी, मौजूदा वक्त के परिप्रेक्ष्य, वक्त के मुहावरों-जुमलों, भाषा शैली, आधुनिक प्रकृति,माध्यमों में पुनर्लेखन का वह संकल्प शुरू हो, जो मैंने और अपने उद्योगपति शुभचिंतक कमल मुरारका ने फाउंडेशन के एक खांचे में सोचा है। मेरा मानना है (या गलतफहमी?) कि यदि मैंने और मेरे संपादकत्व में चार-पांच हिंदी कलमघसीटों ने अपने आपको पांच-दस साल खपा कर पुनर्लेखन व संपादन का यह काम नहीं किया तो मौजूदा और आगे की पीढ़ियों के लिए महाभारत, रामायण के दो पेज पढ़ना-समझना भी मुश्किल होगा। मेरे बाद की पीढ़ी के मेरे पाठक भी आज सौ साल पहले गीता प्रेस के जरिए प्रसारित महाभारत में हिंदी के दो पेज में दसियों बार यदि अटकते हैं, शब्द अर्थ-बोध में भटकते हैं तो 18 से 40 साल वाली मौजूदा पीढ़ी और आगे की पीढियों के लिए हिंदुओं के तमाम ग्रंथ काला अक्षर भैंस बराबर होंगे! तभी यदि हमने यह काम नहीं किया (सौ साल पहले की खड़ी बोली को पढ़-समझ, सरकारी हिंदी से दूर रहते हुए उसे अगले सौ सालों की बुनावट में ढालना) तो सनातनी हिंदू के तमाम हिंदी ग्रंथ कुछ भाषा शास्त्रियों, संस्कृत शास्त्रियों में सिमट जाएंगे। मतलब आम धर्मावलंबी प्रामाणिक कुछ नहीं पढ़ सकेगा। 

इस विचार को मैं सरस्वती के आह्वान के यज्ञ समान मानता हूं। पर लक्ष्मी की चंचलता क्योंकि ठिठक गई है तो कमल मुरारका के पुरुषार्थ की चंचलता भी ठिठकी हुई है और मेरी भी ठिठकी हुई है। दो वसंत पंचमी निकल गई। तीसरी आज है। आज मैंने चाहा था कि अपने शहर, अपने दफ्तर में सरस्वती पूजा का खास आयोजन हो, मूर्ति मंगवाई, पंडितजी से आग्रह किया लेकिन उस अंदाज में विचार सिरे नहीं चढ़ा, जिसकी सोची हुई थी। कह सकते हैं कि ठहरी, ठिठकी लक्ष्मी के बिना सरस्वती पूजा, ज्ञान-बुद्धि, पठन-पाठन भी कहा संभव है? तभी तो अपने यहां कहा जाता है कि सरस्वती और लक्ष्मी दोनों साथ-साथ नहीं रहती। पर मेरी राय में यह बात महा फालतू है! अमेरिका में क्या सरस्वती और लक्ष्मी साथ-साथ बेइंतहा आशीर्वाद के साथ मौजूद नहीं हैं? अमेरिका, यूरोप, जापान, इजराइल बुद्धि-ज्ञान का शिखर हैं तो लक्ष्मीजी की कृपा से कुबेर की धन-संपदा लिए हुए क्या नहीं हैं?

हां, सभ्यताओं का, साम्राज्यों का, राष्ट्र-राज्य का सच्चा विकास, एवरेस्टी शिखर तभी है जब सरस्वती और लक्ष्मी का साथ-साथ समान सम्मान हो, साधना हो, पूजा हो और आशीर्वाद हो।

मगर पहले सरस्वती और फिर लक्ष्मी! मानव और उसके विकास की आधुनिक वैज्ञानिक अवधारणा में चिंपांजी से होमो सेपिंयस का बीज सत्य दिमाग-बुद्धि के चैतन्य बनने की मूल कुलबुलाहट है। दिमाग के पट खुले, बुद्धि खुली तो वह गुफा से बाहर निकला। जंगल में आखेट शुरू हुआ। सोचना-समझना-बोलना शुरू हुआ। तब से आज तक मानव सभ्यता के विकास क्रम में इस पृथ्वी पर जिस-जिस ने बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान के लिए दिमागी तपस्या में, जितनी उपलब्धियां पाईं उतना उनका वैभव बना, धन संपदा याकि लक्ष्मी का वास बढ़ा!

तो प्रथम पूजा किसकी जरूरी? सरस्वती की। अमेरिका अमीर है, विकसित है तो इसलिए नहीं कि धन बहुत है, बल्कि वह इसलिए अमीर है क्योंकि उसके विश्वविद्यालयों, प्रयोगशालाओं में बुद्धि की तपस्या से सत्य साधना याकि ज्ञान-विज्ञान में प्राप्ति की धुन, हठयोग अंतहीन है। अमेरिका क्यों मौलिक है, क्यों अमेरिका-यूरोप और यहूदी जनों को सर्वाधिक नोबेल पुरस्कार प्राप्त हैं या होते हैं, क्यों वहां जीवन श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम होता गया है, इसलिए क्योंकि वे लोग, वह कौम, वे राष्ट्र सरस्वती के घोर उपासक हैं। मतलब बुद्धि-ज्ञान और सत्य के शोधक पहले हैं और धन के बाद में। नोट रखें कि जिसने सरस्वती की तपस्या कर उनका आशीर्वाद पा लिया वहीं मौलिक और वहीं लक्ष्मी प्राप्ति का प्रथम हकदार!

सोचें, मैं भारतीयों की सोच, उनके मनोविश्व से कितनी उलटी बात लिख रहा हूं! हम अमेरिका को, पश्चिमी देशों-सभ्यता को पैसे के पीछे भागते हुए, भौतिकवादी मानते हैं। हम मानते हैं कि सरस्वती और लक्ष्मी का साथ-साथ वास नहीं है। हम लक्ष्मी की पूजा, दीपावली का पर्व विशाल पैमाने पर मनाते हैं जबकि वसंत पंचमी, सरस्वती पूजा (बंगाल के अपवाद को छोड़) के दिन यह छोटा सुर भी सुनाई नहीं देता कि –

माता सरस्वती शारदा

हे माता सरस्वती शारदा

विद्या दानी, दयानी, दुख् हरणी।

जगत जननी ज्वाला मुखी माता सरस्वती, शारदा।

हे माता सरस्वती शारदा

कीजे सुदृष्टि, सेवकजान अपना।

इतना वरदान दीजिए

तान, ताल और अलाप, बुद्धि, अलंकार शारदा



तभी हम हिंदुओं को अपने आपसे पूछना चाहिए कि हम माताओं के बुलावे पर सब माताओं (वैष्णोदेवी, लक्ष्मी माता, मां काली, अंबा, दुर्गा, मां भवानी, कुलदेवी मां सहित तमाम शक्ति पीठों, नवरात्रि जैसे तमाम अनुष्ठानों) के यहां जाते हैं लेकिन माता सरस्वती से बुद्धि-ज्ञान-सत्य के आशीर्वाद का न बुलावा चाहते हैं, न जरूरत महसूस करते हैं, न अनुष्ठान करते हैं, न कर्मकांड व तपस्या करते हैं और न हम उनका कोई बुलावा आया बूझते हैं!

सोचें कितना त्रासद है यह। जिस धर्मं, सभ्यता, कौम में सृष्टि (कॉस्मिक यूनिवर्स) को ब्रह्मा ने रच उसकी व्यवस्था, विचार व संरचना में बुद्धि-समझ-विज्डम-वाणी-ज्ञान-कला-की सरस्वती, वाग्वेदीको प्रकट किया, उसी से सृष्टि बनने, बढ़ने और ज्ञान-बुद्धि-सत्य की खोज संभव बताई, जिनका जन्मोत्सव वसंत पंचमी का दिन है उस पर हमें इतनी भी समझ नहीं है कि बुद्धि आएगी तभी धन आएगा। बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान-कला-सृजन की साधना, तपस्या में खपेंगे तभी नोबेल पुरस्कार जीतेंगे, मेक इन इंडिया होगा और लक्ष्मी की चंचलता में लगातार श्रीवृद्धि होती जाएगी!

लेकिन हम हिंदू क्योंकि गुलामी काल से सुरक्षा की चिंता में जीते रहे हैं तो हमें शक्ति चाहिए,शक्ति पीठ से। हम लूटे हुए, भूखेरहे तो हमें धन चाहिए येन-केन प्रकारेण! शांत-एकाग्र-श्वेत चित्तहो कर हममें सरस्वती अराधना से सत्यशोधन और फिर उससे निर्मित पुरुषार्थ का न धैर्य है और न माद्दा। तभीऔसत भटकी हुई सोच है कि क्या करें,‘लक्ष्मी’ और ‘सरस्वती’ में बैर होता है। ये दो देवियां किसी के घर एक साथ नहीं विराजती। तभी हमें अक्ल नहीं नकल चाहिए। मौलिक वीणा-वाणी नहीं गिटार-अंग्रेजी चाहिए। हमें रिसर्च-अनुसंधान नहीं तकनीकी ट्रासंफर चाहिए। हमें पढ़ाई नहीं डिग्री चाहिए।हमें उच्च-श्रेष्ठ शिक्षा नहीं व्हाट्सअप के अधकचरे पोस्ट चाहिए। हमें हार्वर्ड नहीं हार्ड वर्क चाहिए। हमें पुरुषार्थ नहीं खैरात चाहिए।

तभी वसंत पंचमी का आज का दिन भारत का, हम हिंदुओं का यह धुव्र सत्य लिए हुए है कि आजाद भारत के 73वर्षों में ज्ञान की देवी सरस्वती, शारदा, वीणावादनी, वाग्देवी का हमें आशीर्वाद प्राप्त नहीं है तो न लक्ष्मी की कृपा का वह छटांग भर भी वैभव है जो अमेरिका, यूरोपीय याकि विकसित देशों, सभ्यताओं को भरपूर हर क्षेत्र में प्राप्त है।

बहरहाल, बहुत हुआ। आज मन से वाग्देवी का आशीर्वाद प्राप्त करने की प्रार्थना का दिन है। अपने आपको ज्ञान-सत्य की देवी सरस्वती की साधना में अर्पित करने के संकल्प का दिन है। उसी पर ध्यान धरें।

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने चिकित्सा गर्भपात विधेयक को दी मंजूरी, लोकसभा-राज्यसभा में किया जाएगा पेश

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने चिकित्सा गर्भपात अधिनियम, 1971 में संशोधन करने के लिए चिकित्सा गर्भपात (एमटीपी) संशोधन विधेयक 2020 को मंजूरी दी है। इस विधेयक को संसद के आगामी सत्र में लोकसभा व राज्यसभा की मंजूरी के लिए पेश किया जाएगा। प्रस्तावित संशोधन के अंतर्गत गर्भावस्था के 20 सप्ताह तक गर्भपात कराने के लिए एक चिकित्सक की राय लेने की जरूरत का प्रस्ताव है।

गर्भावस्था के दौरान 20 की जगह 24 सप्ताह तक गर्भपात कराने के लिए दो चिकित्सकों की राय लेना जरूरी होगा। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने विशेष तरह की महिलाओं के गर्भपात के लिए गर्भावस्था की सीमा 20 से बढ़ाकर 24 सप्ताह करने का प्रस्ताव रखा है। एमटीपी नियमों में संशोधन के जरिए इसे परिभाषित किया जाएगा। इन महिलाओं में दुष्कर्म पीडि़त, सगे-संबंधियों के साथ यौन संपर्क की पीडि़त और अन्य असुरक्षित महिलाएं (दिव्यांग महिलाएं, नाबालिग) शामिल होंगी। मेडिकल बोर्ड द्वारा जांच में पाई गई शारीरिक भ्रूण संबंधी विषमताओं के मामले में गर्भावस्था की ऊपरी सीमा लागू नहीं होगी।

मेडिकल बोर्ड के संगठक, कार्य और अन्य विवरण नियमों के तहत निर्धारित किए जाएंगे। जिस महिला का गर्भपात कराया जाना है, उनका नाम और अन्य जानकारियों का खुलासा उस वक्त कानून के तहत निर्धारित किसी खास व्यक्ति के अलावा किसी और के सामने नहीं किया जाएगा। महिलाओं के लिए उपचारात्मक, सुजनन, मानवीय या सामाजिक आधार पर सुरक्षित और वैध गर्भपात सेवाओं का विस्तार करने के लिए चिकित्सा गर्भपात (संशोधन) विधेयक, 2020 लाया जा रहा है। 

प्रस्तावित संशोधन में कुछ उप-धाराओं का स्थानापन्न करना, मौजूदा गर्भपात कानून, 1971 में निश्चित शर्तो के साथ गर्भपात के लिए गर्भावस्था की ऊपरी सीमा बढ़ाने के उद्देश्य से कुछ धाराओं के तहत नए अनुच्छेद जोडऩा शामिल है। इसके साथ ही इसका उद्देश्य सुरक्षित गर्भपात एवं गुणवत्ता से किसी तरह का समझौता किए बगैर कड़ी शर्तो के साथ समग्र गर्भपात देखभाल को पहले से और अधिक सख्ती से लागू करना है।

मंत्रिमंडल के फैसले में कहा गया कि यह महिलाओं की सुरक्षा और सेहत की दिशा में उठाया गया ठोस कदम है और इससे बहुत महिलाओं को लाभ मिलेगा। हाल के दिनों में अदालतों में कई याचिकाएं दी गईं, जिनमें भ्रूण संबंधी विषमताओं या महिलाओं के साथ यौन हिंसा की वजह से गर्भधारण के आधार पर मौजूदा स्वीकृत सीमा से अधिक गर्भावस्था की अवधि पर गर्भपात कराने की अनुमति मांगी गई थी।

जिन महिलाओं का गर्भपात जरूरी है उनके लिए गर्भावस्था की अवधि में प्रस्तावित बढ़ोतरी उनके आत्म-सम्मान, स्वायत्तता, गोपनीयता और इंसाफ को सुनिश्चित करेगी। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने महिलाओं को सुरक्षित गर्भपात सेवाएं उपलब्ध कराने और चिकित्सा क्षेत्र में प्रौद्योगिकी के विकास को ध्यान में रखते हुए विभिन्न हितधारकों और मंत्रालयों के साथ विस्तृत विचार-विमर्श के बाद गर्भपात कानून में संशोधन का प्रस्ताव किया गया है।

संसदीय विशेषाधिकार पर प्रश्न

बीती 21 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट की एक महत्वपूर्ण टिप्पणी पर देश का विशेष ध्यान नहीं गया या उसका कम नोटिस लिया गया। उस दिन देश की सबसे बड़ी अदालत ने देश की सर्वोच्च विधायी संस्था यानी संसद को सलाह दी कि उसे संविधान संशोधन करके सदन के अध्यक्षों से दल-बदल कानून के तहत किसी सदस्य (सांसद/विधायक) की सदस्यता खत्म करने या बनाये रखने का विशेषाधिकार वापस लेने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। यानी, दल बदलने वाला सांसद/विधायक सदन की सदस्यता के योग्य रह गया है या नहीं, यह फैसला करने का अधिकार सदन के अध्यक्ष के पास अब नहीं रहना चाहिए।

दल-बदल कानून में व्यवस्था है कि सांसद अथवा विधायक की सदस्यता पर फैसला केवल और केवल सदन का अध्यक्ष ही कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट भी इस व्याख्या से सहमत होता आया है। अलग-अलग मामलों में वह कई बार निर्देश दे चुका है कि सदन के अध्यक्ष को किसी विशेष मामले में ‘उचित समय के भीतर’ निर्णय कर लेना चाहिए। अब उसकी राय इस व्यवस्था पर सिरे से ही पुनर्विचार करने की है।

ऐसी सलाह देने के कारण हैं। सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि सदन के अध्यक्ष पद पर बैठा व्यक्ति अपने इस गरिमापूर्ण दायित्व के बावजूद एक पार्टी-विशेष से जुड़ा रहता है। इसलिए दल-बदल के मामलों में फैसला करते समय अध्यक्ष के आसन पर बैठे राजनीतिक व्यक्ति का विवेक प्रभावित होता है। 

अत: सदन की सदस्यता के योग्य या अयोग्य घोषित करने का अधिकार किसी बाहरी स्वतंत्र न्यायाधिकरण को सौंप देना चाहिए, जिसका प्रभारी सुप्रीम कोर्ट का अवकाशप्राप्त न्यायाधीश या किसी हाइकोर्ट का पूर्व मुख्य न्यायाधीश या कोई अन्य व्यक्ति हो, ताकि फैसला ‘शीघ्र और निष्पक्ष ढंग से’ लिया जा सके। सुप्रीम कोर्ट ने साफ माना है कि दल-बदल कानून पर फैसला लेते समय सदन के अध्यक्षों के फैसले राजनीतिक स्वार्थ से प्रभावित होते हैं। इसी कारण दल-बदल कानून बनाने का उद्देश्य पूरा नहीं हो पा रहा। बल्कि, अनेक बार उसका मखौल बनकर रह जाता है।

सुप्रीम कोर्ट ने यह सलाह पहली बार नहीं दी है, बीते साल नवंबर में भी उसने ऐसी ही टिप्पणी की थी, जब कर्नाटक के कुछ विधायकों को दल-बदल कानून के तहत अयोग्य घोषित करने का मामला विधानसभा अध्यक्ष के पास लंबित था। फैसला सुनाने से पहले वे ‘पूरी तरह आश्वस्त’ होना चाहते थे और इसमें समय लग रहा था। तब सुप्रीम कोर्ट में मामला जाने पर तीन न्यायाधीशों की पीठ ने यहां तक कहा था कि अगर कोई विधानसभा अध्यक्ष ‘अपनी’ पार्टी की इच्छा से अप्रभावित नहीं रह सकता, तो उसे उस पद पर बने रहने का अधिकार नहीं है।

पिछले सप्ताह भी तीन न्यायाधीशों की पीठ ने ऐसी ही बात कही। पीठ ने सवाल उठाया कि विधानसभा अध्यक्ष, जो एक राजनीतिक पार्टी से जुड़ा होता है, उसे राजनीतिक कारणों से दल-बदल करनेवाले सदस्य की सदस्यता के बारे में फैसला करने का एकमात्र और अंतिम अधिकार क्यों होना चाहिए। इसीलिए शीर्ष अदालत चाहती है कि संसद इस संवैधानिक व्यवस्था पर पुनर्विचार करे।

यह सलाह इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है कि हाल के वर्षों में ऐसे मामले बढ़ते आये हैं। अरुणाचल, उत्तराखंड, मणिपुर, कर्नाटक, महाराष्ट्र, आदि ताजा उदाहरण हैं। दल बदलवाले सदन की सदस्यता के योग्य रह गये हैं या नहीं, हर बार यह प्रश्न विधानसभा अध्यक्ष के पास पहुंचता है। वे अपने ‘विवेक’ का पूरा उपयोग करते हैं। कई बार फैसला तुरंत आ जाता है और कई मामलों में महीनों लंबित रहता है। 

विधानसभा के अध्यक्षों के ‘विवेकपूर्ण’ फैसले से कभी कोई सरकार गिर जाती है और कोई अल्पमत में होने की संभावना के बावजूद बनी रहती है। 

अनेक बार तो अध्यक्ष का लंबित फैसला और भी सदस्यों को दल-बदल करने के पर्याप्त अवसर देता लगता है। ऐसे में अक्सर प्रभावित पार्टी सुप्रीम कोर्ट पहुंचती है। वहां से यही फैसला आता है कि यह निर्णय करने का अधिकार सिर्फ विधानसभा अध्यक्ष को है और उन्हें ‘उचित समय’ के भीतर निर्णय दे देना चाहिए। यह ‘उचित समय’ क्या हो, यह भी अध्यक्ष ही तय करता है। कई बार इसमें महीनों लग जाते हैं। कुछ मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने अध्यक्ष को एक समय-सीमा के भीतर निर्णय करने का निर्देश भी दिया, जिसे अध्यक्ष ने अपने अधिकारों में हस्तक्षेप माना। 

जैसे-जैसे राजनीति में मूल्यहीनता आती गयी, हमारी कई संवैधानिक व्यवस्थाओं की कड़ी परीक्षा होती रही। संविधान निर्माताओं ने व्यवस्थाएं बनाते समय यही सोचा होगा कि संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता से निरपेक्ष होकर यथासंभव निष्पक्ष निर्णय देंगे। इसीलिए सदन के अध्यक्ष के आसन पर बैठनेवाले व्यक्ति से अपेक्षा की गयी है कि वह सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के प्रति समान भाव रखेगा। वर्तमान में ऐसा होता नहीं। तब क्या उपाय हो? क्या संवैधानिक व्यवस्थाओं को बदला जाना चाहिए, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट चाहता है?

दल-बदल कानून भी एक तरह से हाल के वर्षों की व्यवस्था है। वह 1985 में बना, जब ‘आया राम, गया राम’ की नयी परिपाटी ने दलगत निष्ठा और मतदाता के चयन को खिलवाड़ बना दिया था। कुछ समय तक लगा कि नये कानून से दल-बदल का अनैतिक और स्वार्थी खेल रुक रहा है या कुछ अंकुश लग रहा है। शीघ्र ही इस कानून से बचने के संवैधानिक रास्ते भी निकाल लिये गये। तब? यदि सुप्रीम कोर्ट की राय के अनुसार सदन के अध्यक्ष का अधिकार किसी स्वतंत्र न्यायाधिकरण को दिया जाये, तो आज के दौर में क्या गारंटी है कि वह यथासंभव निष्पक्ष और दबाव-मुक्त रह ही सकेगा?

हमारे संविधान निर्माता बड़े दूरदर्शी थे। उन्होंने विचारों और मूल्यों की राजनीति की थी। ऐसी ही अपेक्षा वे अगली पीढ़ी से भी करते थे, हालांकि आशंकित भी थे। 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा की अंतिम बैठक में डॉ आंबेडकर और डॉ राजेंद्र प्रसाद दोनों ने स्पष्ट चेता दिया था कि हम चाहे कितना ही अच्छा संविधान बना दें, यदि संविधान के पालन का दायित्व निभानेवाले अच्छे नहीं हुए, तो संविधान भी अच्छा साबित नहीं होगा। 

कमी कानून या संविधान में नहीं, उसकी असली मंशा समझने और उसे लागू करनेवालों में है। ऐसे में क्या संवैधानिक व्यवस्थाओं को बदलकर उस मंशा की रक्षा की जा सकती है, जो संविधान का मूल ध्येय है?

मंगलवार, 28 जनवरी 2020

ना युवा, ना आक्रोश सिर्फ हास्य और नौटंकी, राहुल गांधी की विफल रैली: डाॅ. सतीश पूनियां

जयपुर। भारतीय जनता पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष डाॅ. सतीश पूनियां ने राहुल गाँधी की युवा आक्रोश रैली को हास्य व नौटंकी करार देते हुए कहा कि राहुल गाँधी हमेशा कुछ ना कुछ अनूठा करते है, ‘‘चुनाव दिल्ली में और रैली जयपुर में।’’ यह प्रदेश की जनता के लिए आश्चर्य का विषय है कि राहुल गाँधी इतना राजनीतिक चातुर्य कहाँ से लाते है?

डाॅ. पूनियां ने कहा कि जयपुर का प्रसिद्ध ऐतिहासिक अल्बर्ट हाॅल जहाँ पर अक्सर कवि सम्मेलन, महामूर्ख सम्मेलन होते आये है, वहाँ पर राहुल गाँधी ने जनता का अच्छा मनोरंजन किया। कल रात से ही व्यापार मण्डलों के लोगों द्वारा फोन आ रहे थे, की थानों से पुलिस के लोग आये और कह रहे थे कि आपकी दुकानों पर काम करने वाले सारे कर्मचारी कल अल्बर्ट हाॅल जाने चाहिए। इसी प्रकार सरकार के दबाव के चलते स्कूल एवं काॅलेजों के प्रिसिंपलों ने विद्यार्थियों को रैली में जाने का सर्कुलर जारी किया। इसका उदाहरण देते हुये डाॅ. पूनियां ने बताया कि ज्ञानदीप काॅलेज, गौनेर व अजमेर के विद्यार्थियों ने वीडियो बनाकर भेजा है, जिसमें जबरन बस में बैठाकर ले जाया जा रहा है और कहा जा रहा है कि न्यूनतम 100 विद्यार्थी भेजने है, उन विद्यार्थियों को भी कहा गया यदि नहीं जाओगे तो प्रेक्टिकल में गड़बड़ होगी।

डाॅ. पूनियां ने कहा कि रैली में फिल्मी मनोरंजन के अच्छे गानों पर लोग नाच रहे थे, जिसका सभी ने भरपूर आनंद लिया। इस रैली का नाम युवा आक्रोश रैली रखा गया था, जिसमें ना तो युवा थे और ना हीं आक्रोश। ‘‘था तो केवल आक्रोश से भरा हुआ बेरोजगार युवा’’ जो केवल अपना बेरोजगारी भत्ता 3500/- रूपये मांग रहा था, जिसकी घोषणा राहुल गाँधी ने विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान की थी। डाॅ. पूनियां ने कहा कि नागरिकता संशोधन विधेयक व एनआरसी पर युवराज के मुख से कुछ नहीं कहा गया और जो कहा गया वो असत्य कहा गया। राहुल गांधी ने एक जानकारी ओर राजस्थान की जनता को दी है कि ‘‘हिन्दुस्तान और देश’’ यह हम पहले एक मानते थे, लेकिन अब पता लगा की अलग-अलग है। राहुल गांधी के भाषण में यह कहा गया कि जो युवा है, वह हिन्दुस्तान को भी बदल सकता है और देश को भी बदल सकता है। आज पता लगा की दोनों अलग-अलग है।

डाॅ. पूनियां ने नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो का हवाला देते हुए कहा कि हिन्दुस्तान में राजस्थान अपराध ग्रस्त अग्रिणी राज्य में शुमार हो गया है। राहुल जी यहां आपकी ही सरकार है और उसमें सबसे ज्यादा 65 प्रतिशत अपराध महिलाओं के प्रति राजस्थान में हुये है। आप रेप कैपिटल की बात करते हो और दूसरे-तीसरे नम्बर पर सर्वाधिक बलात्कार की घटनायें राजस्थान में ही घटित हुई हैं। 

डाॅ. पूनियां ने राहुल गांधी के द्वारा अपने भाषण में प्रस्तुत आंकड़ों पर तंज कसते हुये कहा कि जब यूपीए की सरकार थी 2004 से 2013 तक उसमें वल्र्ड की जीडीपी 4.10 प्रतिशत और देश की 6.81 प्रतिशत एवं एनडीए की सरकार में 2014 से 2019 तक वल्र्ड की 3.48 प्रतिशत और देश की 7.27 प्रतिशत है। उन्होंने नौकरियों के बारे में जानकारी के अभाव में उल्लेख जरूर किया, लेकिन पता होना चाहिये कि कर्मचारी राज्य बीमा निगम के डाटा अनुसार कुल मिलाकर नवम्बर 2019 के दौरान 14.33 लाख नई नौकरियां सृजित हुई।

डाॅ. पूनियां ने कहा कि राहुल गांधी ने विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान 10 दिन में किसानों की कर्जा माफी करने की घोषणा की थी और कहा था कि ऐसा नहीं हुआ तो मैं मुख्यमंत्री बदल दूंगा, लेकिन अभी तक सरकार को 13 महीने होने के बाद भी किसानों का कर्जा माफ नहीं हुआ और ना ही बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ता मिला। इसके ठीक विपरीत किसान आत्महत्या कर रहा है, पश्चिमी राजस्थान का किसान कर्ज की पीड़ा के साथ ही ओलावृष्टि, अतिवृष्टि और टिड्डी दल के हमले से त्रस्त है, लेकिन सरकार उन्हें नजर अंदाज कर केवल विफल रैलियां व अशांत मार्च करवाने में मस्त है। राहुल गांधी इस पर मौन रहे, क्या अब वो मुख्यमंत्री को बदलेंगे?

भाजपा प्रदेशाध्यक्ष डाॅ. सतीश पूनियां ने गृह मंत्रालय द्वारा राजस्थान सहित अन्य राज्यों से पाॅपुलर फ्रंट आॅफ इंडिया के संगठन सदस्यों पर दर्ज केसों की गतिविधियों की रिपोर्ट मांगने पर स्वागत किया और कहा कि राजस्थान में पिछले दिनों में नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध के नाम पर जिस प्रकार की अराजकता व हिंसा का माहौल बनाया गया, उसको देखकर लगता है कि गृह मंत्रालय का यह निर्णय देशहित में है।

न लक्ष्मी चंचल, न लोग चंचल!

बजट से कुछ नहीं सधेगा-1: सन 2020 का मनोभाव है कि यदि सरकार किसी को लाख रुपए दे तो वह खर्च नहीं करेगा, बल्कि उसे दबा कर रख लेगा! मतलब लोगों में भरोसा खत्म है तो वह क्यों कुछ करें? लक्ष्मीजी रूठ गई हैं, घर बैठ गई हैं तो लोग भी, उद्योगपति, धन अर्जन कराने वाले उद्यमी, पुरुषार्थी सब रूठ कर घर बैठ गए हैं। इसलिए सन् 2020-21 के आम बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण कुछ भी कर लें, साल बाद आर्थिकी एक इंच आगे बढ़ी हुई नहीं होगी। संभव है खड्डे में और ज्यादा फंसी हुई हो। पिछले सप्ताह रिजर्व बैंक के गर्वनर ने सुझाव दिया कि मौद्रिक नीति के उपायों की बजाय आर्थिक सुधार किए जाने चाहिए। सवाल है क्या तो सुधार और किसे चाहिए सुधार? भारत में, भारत की मोदी सरकार में ताकत नहीं जो वह सिस्टम पर कुंडली मारे बैठे नौकरशाहों का लक्ष्मीजी के घर में जबरदस्ती की वसूली का रोल खत्म कर दे। लक्ष्मीजी के पांवों में बेड़ियां डाले मजदूर कानूनों, फैक्टरी-ईएसआई-पीएफ-प्रदूषण-अप्रत्यक्ष कर के प्रशासन आदि के इंस्पेक्टरों-अफसरों की घेरेबंदी को खत्म कर दे। जब ऐसा नहीं हो सकता तो सुधार के नाम पर नौटंकियां होनी है न कि मेक इन इंडिया बनना है।

एक पीवी नरसिंह राव के अपवाद को छोड़ कर आजाद भारत के किसी प्रधानमंत्री ने लीक से हट कर, दुनिया की हकीकत में, अर्थशास्त्र और पूंजीवाद की कुलदेवी लक्ष्मीजी की तासीर में वह साहस, वह प्रण, वह यज्ञ नहीं बनाया, जिससे पूरा देश, देश का हर व्यक्ति आंदोलित हो कर पैसे कमाने की आजादी से आकाश में उड़ा हो। आजाद भारत के 71 साल में पीवी नरसिंह राव के पांच साल के अपवाद को छोड़ कर 66 साल लोगों के इस भाषण, इस प्रताड़ना में गुजरे हैं कि पैसा कमाना पाप है। पैसे कमाने वाला शोषक है। पैसे वाला लूटे जाने का पात्र है और यदि इंस्पेक्टरों-अफसरों-बाबुओं की पैसा अर्जन पर निगरानी नहीं रखवाई तो देश लुट जाएगा, जनता लुट जाएगी।

मानो नीम पेड़ के जगंल में कमल को और विलुप्त करना हो सो, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभालते ही संकल्प बनाया कि अब भारत के लोगों को और खास कर व्यापारियों-उद्यमियों- लक्ष्मीपुत्रों को करेले व डंडे की खुराक में मार-मार कर सिखाना है, समझा देना है कि वे पैसा कैसे रखें! सरकार जैसे कहे वैसे पैसा रखना होगा। सरकार जैसे कहेगी वैसे औपचारिक कायदे में धंधा करना होगा। खत्म करो ये अनौपचारिक सेक्टर। खत्म करो ये शेल कंपनियां, खत्म करो दो नंबर का लेन-देन और खत्म करो काला धन और खत्म करो नकद लेन-देन! सब कुछ डिजिटल होगा। एक नंबर में होगा। बैंकिंग जरियों से होगा और पल-पल का रिकार्ड सरकार के रिकार्डों में दर्ज होता जाएगा!

सोचें, सरकार काली, सत्ता में आने का चुनावी गोरखधंधा काला, सरकारी बाबुओं-अफसरों-इंस्पेक्टरों की स्याही काली, उनकी असली कमाई काली, काली अंधेरी रात से भारत का सफर शुरू और धन की महादेवी लक्ष्मी का काली अमावस्या में वरदान लेकिन बावजूद इस सबके भारत राष्ट्र-राज्य के हिंदू महाराजाधिराज नरेंद्र मोदी सब कुछ सफेद बनवा देंगे। धन-पूंजी में असीम श्रीवृद्धि प्राप्त अमेरिका में डिजिटिल आर्थिकी नहीं बनी, वहां नकदी और नकद लेन-देन वाले डॉलरों का पूरे विश्व में फैलाव मगर सवा सौ करोड़ लोगों के बाड़े में, प्रयोगशाला में फितूर का यह प्रयोग कि तुम सब चोर और जो हम सोचें, कहें और चाहें वहीं हैं लक्ष्मीजी की सत्यवादी पूजा!

मैं फलसफाई रौ में बह गया हूं मगर सोचें कि पैसे और लाभ की लालसा और सिद्धि लिए लक्ष्मीपुत्रों को पिछले पांच सालों में कितनी तरह से मारा गया है? संसद में उन्हें टैक्स चोर बताया गया। उनके लाभ, उनकी बचत, असली-नकली कंपनियों को दस तरह से जांचा गया, लाखों नोटिस जारी हुए, असंख्य छापे पड़े और बैंक लोन, देनदारी में डंडा तो दिवालिया बनाने के लिए एनसीएलटी आदि में लाइन लगवा कर ऐसे हाजिरी लगवाई गई कि अच्छे-अच्छे अरब-खरबपति भारत में धंधा करने से तौबा कर बैठे हैं। और याद करें इस राष्ट्र में एक कथित सक्सेस स्टोरी के नायक उद्यमी कैफे कॉफी डे के मालिक उर्फ लक्ष्मीपुत्र सिद्धार्थ को जिन्होंने अफसरों से तंग आ कर नदी में छलांग लगा कर 2019 में भारत से कैसे मुक्ति पाई!

याद कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं! मगर नोट रखें एक फरवरी 2020 के दिन पेश होने वाले बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण लक्ष्मीपुत्र सिद्धार्थ की त्रासदी में उभरी असलियत का एक समाधान या सुधार लिए हुए नहीं होगी। तभी सवाल है कि जब लक्ष्मीपुत्रों के साथ सरकार का सलूक आत्महत्या के लिए मजबूर बनवाने, कंपनियों का दिवाला निकलवाने का है, सीबीआई-ईडी से छापों का है, बैंकों द्वारा सब कुछ अवरूद्ध बनवा देने का है, सुप्रीम कोर्ट, एनसीएलटी, अदालतों द्वारा अप्रत्याशित फैसलों का है तो लक्ष्मी की चंचलता खत्म होगी ही, उद्यमी भारत छोड़ दूसरे देश की नागरिकता ले कर विदेश जाएंगे ही और उद्यमी आत्महत्या भी करेगा तो मन ही मन ठाने रहेगा इस देश में अभी कुछ नहीं करना। अभी बचत को, पैसे, लाभ-मुनाफे की ललक को दबा कर घर बैठे रहना है। 

इसलिए भारत का, भारत की आर्थिकी का, भारत के सवा सौ करोड़ लोगों की लक्ष्मी पूजा फिलहाल ठिठकी, ठहरी हुई है तो यह मूड कुछ साल रहेगा। लोगों में इच्छा ही नहीं है कि धंधा करें। खर्च करें। मोदी सरकार, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण कैसा भी बजट बनाएं, कितना ही पैसा खर्च कर दे लोग सरकार की बातों, वायदों और खर्च को पी जाएंगे। ठेकेदार सरकारी खर्च से खुद पैसा कमाते हुए अफसरों-मजदूरों-सप्लायरों को पैसा बांट देगा लेकिन वह और उसने जिसे पैसा दिया है वे सब आगे उस चंचलता से याकि पैसा पैसे को कमाने की लालसा से आगे नहीं बढ़ेंगे जैसा 2015 से पहले था। मतलब मूल समस्या याकि लक्ष्मीजी का अविश्वासी बन जाना है। उससे कुछ साल पाप के श्राप में जीते रहना है!

सोमवार, 27 जनवरी 2020

अंबेडकर के परपोते ने आरएसएस को बताया आतंकी संगठन, कहा- इनके पास हथियार और गोला-बारूद कहां से आते हैं

डॉ. बीआर अंबेडकर के परपोते राजरत्न अंबेडकर ने रविवार को कोलकाता में आरएसएस को लेकर विवादित बयान दिया है। राजरत्न अंबेडकर ने कहा, 'मैंने कहा था कि आरएसएस भारत का आतंकवादी संगठन है, इस पर पाबंदी लगाइए ... एक साध्वी पीएम के पास बैठती है और कहती है कि जब भारतीय सेना के हथियार और गोला-बारूद खत्म हो गए थे, तो आरएसएस ने उन्हें मुहैया कराया। मैं पूछना चाहता हूं कि आरएसएस को हथियार और गोला-बारूद कैसे मिला?

संविधान और डॉ. अंबेदकर पर मिथ्याचार क्यों?

स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू की पहचान ही बताई थी: ‘सत्य का निष्कपट पुजारी’। यह महज सौ साल पहले की बात है। विवेकानन्द मात्र सैद्धांतिक नहीं, वरन व्यवहारिक स्थिति भी बता रहे थे। जिस के वे स्वयं प्रमाण थे। उन्होंने सारी दुनिया को किसी कपट या लफ्फाजी से नहीं, बल्कि शुद्ध सत्य से जीता था। तब क्या हो गया कि यहाँ हिन्दुओं में दिनों-दिन मिथ्याचार का सहारा लेने की आदत बढ़ती गई?

ताजा उदाहरण लें तो भारतीय संविधान को ‘धर्म-ग्रंथ’ और डॉ. अंबेदकर को इस का ‘निर्माता’ बताते हुए दोनों की पूजा जैसी की जा रही है। इस में न केवल करोड़ों रूपये और समय नष्ट हो रहा है, बल्कि  लाखों युवा भ्रमित हो रहे हैं। ऐसे मिथ्याचार की क्या जरूरत है? इस से किसे लाभ हो रहा है? क्या हमारे नेताओं के पास सच बोलने के लिए कुछ नहीं बचा, जिस से देश का हित हो? 

पहले इस मिथ्याचार का पैमाना देखें। डॉ. अंबेदकर ने मार्च 1953 में राज्य सभा में बाकायदा बयान देकर कहा था कि उन्हें संविधान-निर्माता कहना गलत है। उन्होंने खुद को मात्र ‘भाड़े का लेखक’ बताया, जिस ने वह लिखा जो लिखने कहा गया था। अंबेदकर ने यहाँ तक कहा कि संविधान इतना बेकार है कि वे इसे ‘जला देने’ में सब से आगे होंगे। वह किसी आवेश में कही बात न थी। पुनः सितंबर 1955 में संसद में ही अंबेदकर ने उसे विस्तार से कारण बताकर दुहराया। कि संविधान रूपी मंदिर देवता के लिए बनाया गया था, जिस पर असुरों ने कब्जा कर लिया। ‘इसलिए उसे जला देने के सिवा क्या उपाय है?’। संसद में की गई इतनी स्पष्ट भर्त्सना के बावजूद अंबेदकर को संविधान-निर्माता कह-कहकर संविधान की आरती उतारना परले दर्जे की बुद्धिहीनता है।

इस से कुछ भला नहीं होता। भारतीय लोग संविधान का आदर वैसे भी कर ही रहे हैं। चाहे इस में कितनी भी कमियाँ हों। चाहे इसे और विकृत कर डाला गया हो। इस संविधान ने ईसाइयों, इस्लामियों को दूसरों का धर्मांतरण कराने तक का ‘मौलिक अधिकार’ (अनुच्छेद 25) दे डाला, जो दुनिया के किसी संविधान में नहीं। परन्तु यहाँ हिन्दू धर्म को अपनी रक्षा भी करने का अधिकार नहीं दिया। बल्कि ‘धर्म’ का संविधान में उल्लेख तक न हुआ! इस पर संविधान सभा में ही आचार्य रघुवीर ने खूब खरी-खोटी सुनाई थी। फिर भी धर्म की उपेक्षा हुई, जबकि रिलीजन को उच्च-स्थान मिला। आगे इसी संविधान को 1976 ई. में ‘सेक्यूलर’ और  ‘सोशलिस्ट’ मतवादी बना दिया गया। उसी आड़ में हिन्दुओं को और नीचे गिराते हुए दूसरे दर्जे का नागरिक बना डाला गया, जिस के अधिकार मुसलमानों, ईसाइयों से कम कर दिए गए।

ऐसे संविधान की पूजा करा कर हिन्दू नेताओं को क्या मिल रहा है? उलटे वे देश-विदेश में ‘हिन्दू पक्षपाती’ होने की गालियाँ सुन रहे हैं। वह भी तब, जबकि वे वर्षों से गैर-हिन्दुओं को विशेष अनुदान, संस्थान, जमीन, प्रशिक्षण, आदि देते रहे हैं। इस के लिए थैक्यू सुनने के बजाए उन्हीं से अपशब्द सुन रहे हैं, जिन्हें तवज्जो दी।

सच पूछें, तो यह नतीजा लाजिमी है! यदि हिन्दू अपना धर्म, अपनी सत्यनिष्ठा, अपना सदाचरण छोड़ दे, तो उस की मिट्टी पलीद होगी। गाँधीजी ने भी सत्य का आडंबर करते हुए असंख्य बयानों, कार्यों में नितांत असत्य का उपयोग किया। फलतः उन की, और उन की गलतियों से हिन्दुओं की फजीहत हुई। देश-विभाजन हुआ, लाखों हिन्दू-सिख तबाह हुए। क्योंकि मिथ्याचार को प्रश्रय दिया गया। अनुचित, साम्राज्यवादी विचारों, माँगों को ठुकराने, समझाने के बजाए उस की आरती उतारी गई। उस से असत्य प्रबल हुआ, हिन्दू-विरोधी मजबूत हुए। सत्य को दुर्बल किया गया, हिन्दू कमजोर हुए। यह सब महान हिन्दू शिक्षाओं, मनीषियों की चेतावनियों की उपेक्षा कर के किया गया।

दुर्भाग्यवश, गाँधीजी से लेकर आज तक अनेक हिन्दू ऐसे मिथ्याचारों को अपनी चतुराई व भलमनसाहत समझते रहे हैं। अहंकारवश उन्होंने कभी समीक्षा तक न की कि इस से परिणाम क्या हुए? वस्तुतः स्वयं उन नेताओं का मोल गिरा। सत्ता-संसाधन बल पर किए जा रहे अहर्निश प्रचार को हटाकर देखें तो यह स्पष्ट होगा। इस के विपरीत शुद्ध सत्यनिष्ठा से किए गए कार्यों से स्वामी विवेकानन्द, श्रीअरविन्द, या टैगोर की महत्ता स्थायी बनी।

कुछ लोग राजनीति में मिथ्याचार आवश्यक मानते हुए इस का बचाव करते हैं। पहले तो, नियम रूप में यह सही नहीं। आवश्यकतानुसार कोई बात छिपाना, या बनावटी बयान देना एक बात है। पर अनावश्यक, अनर्गल बातें कहना करना दूसरी बात। इस से लाभ नहीं होता। केवल विश्वसनीयता गिरती है।

दूसरे, शिक्षा और बौद्धिक विमर्श में मिथ्याचार कब से जरूरी हो गया? यह तो कम्युनिस्ट, फासिस्ट, इस्लामी तानाशाहियों का चरित्र रहा है। वे मिथ्या विचारों, मतवादों को जमाने के लिए शिक्षा और विमर्श को उसी अनुसार निर्देशित करते रहे हैं।

इसीलिए, भारत में मिथ्याचार को नीति या शिक्षा में प्रश्रय देना सब से अधिक हिन्दुओं के लिए घातक हुआ है। नागरिकता संसोधन कानून पर चल रहे विरोध में यह देखा जा सकता है। सारे हिन्दू-विरोधी मजे से झूठे प्रचार कर सरकार और हिन्दू समाज को लांछित कर रहे हैं। क्योंकि हिन्दू नेता सच बोलने से बचते रहे। इस प्रकार, अपनी दुर्बलता प्रदर्शित करते रहे। उन्होंने कभी खुलकर नहीं कहा कि भारत में हिन्दू धर्म का विशेष स्थान है। उन्होंने कभी कम्युनिस्ट, इस्लामी मतवादों को आइना नहीं दिखाया कि वे सदैव सब के लिए हानिकारक रहे हैं। उन्होंने यहाँ या बाहर हिन्दुओं पर होते अन्याय, उत्पीड़न पर कभी आवाज नहीं उठाई। उन इस्लामी कायदों, जोर-जबरदस्ती, हिंसा का हिसाब नहीं माँगा जो सारी दुनिया में मूलतः एक समान होते रहे हैं। जिन कारण केरल-कश्मीर से लेकर पाकिस्तान-बंगलादेश में हिन्दू पीड़ित और खत्म होते रहे। यदि हिसाब माँगा जाता तो मुसलमानों में आत्म-चिंतन, आत्मावलोकन का दबाव पड़ता। तब वे शाहीन बाग वाली सीनाजोरी नहीं दिखा सकते थे। पर हिन्दू नेता सच्ची बातें कहने, पूछने के बदले झूठे नारों का सहारा लेकर स्वयं को ‘सब का’ दिखाने में लगे रहे। गाँधीजी से लेकर आज तक इस विचित्रता में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं आया।

मजे की बात है कि इस पर स्वयं डॉ. अंबेदकर ने गाँधीजी और कांग्रेस की जम कर खिंचाई की थी। उन की पुस्तक ‘पाकिस्तान या भारत का विभाजन’ (1940) में विस्तृत विवरण है कि किस तरह गाँधीजी एक-दो मुसलमानों को खुश करने के लिए भी संपूर्ण हिन्दू हितों को बलिदान करते रहते थे। अफसोस! कि उस के दारुण परिणाम से सीखने के बजाए आज भी हिन्दू नेता बनावटीपन में जी रहे हैं। डॉ. अंबेदकर की भी मूल्यवान शिक्षाएं छोड़ कर उन के बारे में भी मिथ्या-प्रचार उसी का उदाहरण है। इस से किसी पार्टी को चाहे लाभ होता रहे, किन्तु हिन्दू धर्म-समाज की हानि ही होती रहेगी। मिथ्याचार से हिन्दू कमजोर होते हैं, जबकि उन के शत्रु बल पाते हैं। यह सत्य समझना चाहिए।

मोदी सरकार को मिली बड़ी सफलता, खत्म हुआ अलग बोडोलैंड राज्‍य विवाद

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार को सोमवार को बड़ी सफलता मिली है। आज गृह मंत्री अमित शाह की मौजूदगी में केंद्र सरकार, असम सरकार और बोडो उग्रवादियों के प्रतिनिधियों ने असम समझौता 2020 पर हस्‍ताक्षर कर दिए हैं। इस समझौते के बाद 50 साल से चला आ रहा बोडोलैंड विवाद का अंत हो गया है। बताया जा रहा है कि इसमें 2823 लोग अपनी जान गवा चुके हैं। पिछले 27 साल में यह तीसरा 'असम समझौता' है। सूत्रों ने बताया कि इस विवाद के जल्‍द समाधान के लिए मोदी सरकार लंबे समय से प्रयासरत थी और अमित शाह के गृह मंत्री बनने के बाद इसमें काफी तेजी आई।

इस मौके पर गृह मंत्री ने ऐलान करते हुए कहा कि उग्रवादी गुट नेशनल डेमोक्रैटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड के 1550 कैडर 30 जनवरी को अपने 130 हथियार सौंप देंगे और आत्‍मसमर्पण कर देंगे।गृहमंत्री ने आगे कहा कि इस समझौते के बाद अब असम और बोडो के लोगों का स्‍वर्णिम भविष्‍य सुनिश्चित होगा। केंद्र सरकार बोडो लोगों से किए गए अपने सभी वादों को समयबद्ध तरीके से पूरा करेगी। इस समझौते के बाद अब कोई अलग राज्‍य नहीं बनाया जाएगा।


 जानें क्या बोडो विवाद...

बोडो असम का सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है, जो राज्‍य की कुल जनसंख्‍या का 5 से 6 प्रतिशत है। यही नहीं, लंबे समय तक असम के बड़े हिस्‍से पर बोडो आदिवासियों का न‍ियंत्रण रहा है। असम के चार जिलों कोकराझार, बाक्‍सा, उदालगुरी और चिरांग को मिलाकर बोडो टेरिटोरिअल एरिया डिस्ट्रिक का गठन किया गया है। इसके फलस्‍वरूप बोडो लोगों ने अपनी पहचान बचाने के लिए एक आंदोलन शुरू कर दिया। दिसंबर 2014 में अलगाववादियों ने कोकराझार और सोनितपुर में 30 लोगों की हत्‍या कर दी। इससे पहले वर्ष 2012 में बोडो-मुस्लिम दंगों में सैकड़ों लोगों की मौत हो गई थी और 5 लाख लोग विस्‍थापित हो गए थे।

 जानें एनडीएफबी कौन हैं...

राजनीतिक आंदोलनों के साथ-साथ हथियारबंद समूहों ने अलग बोडो राज्‍य बनाने के लिए प्रयास प्रारंभ कर दिया। अक्‍टूबर 1986 में रंजन दाइमारी ने उग्रवादी गुट बोडो सिक्‍यॉरिटी फोर्स का गठन किया। 

बाद में इस समूह ने अपना नाम नेशनल डेमोक्रैटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (NDFB) कर लिया। एनडीएफबी ने राज्‍य में कई हत्‍याओं, हमलों और उगाही की घटनाओं को अंजाम दिया।

वर्ष 1990 के दशक में सुरक्षा बलों ने एनडीएफबी के खिलाफ व्‍यापक अभियान शुरू किया। अभियान को देखते हुए ये उग्रवादी पड़ोसी देश भूटान भाग गए। वहां से एनडीएफबी के लोगों ने अपना अभियान जारी रखा। वर्ष 2000 के आसपास भूटान की शाही सेना ने भारतीय सेना के साथ मिलकर आतंकवाद निरोधक अभियान चलाया जिसमें इस गुट की कमर टूट गई।

जबरन नसबंदी—जबरन पेड़ लगा​ओ अभियान के कारण गई थी इंदिरा गांधी की सरकार: आहूजा


जयपुर। भाजपा के वरिष्ठ नेता और जनसंख्या समाधान फाउंडेशन संगठन के प्रदेश संरक्षक ज्ञानदेव आहूजा जनसंख्या वृद्धि को लेकर जगजाहिर  से रूबरू हुए। उन्होंने कहा कि पूरे देश में जनसंख्या का विस्फोट हुआ है और इस विस्फोट के कारण चिकित्सा,शिक्षा व तकनीकि व्यवस्था सहित अन्य व्यवस्थाओं में स्थिति चर्मारा गई है और इस जनसंख्या विस्फोट के कारण हर सेक्टर में भारी भीड़ दिखाई देती है।

उन्होंने कहा कि इस जनसंख्या विस्फोट पर नियंत्रण पाने के लिए केंद्र की सरकार जनसंख्या नियंत्रण का कानून लाए। लोगों को जागरूक करने के लिए पूरे देश में अलख जगा रहे हैं और 15 फरवरी के बाद मार्च और अप्रैल में पूरे प्रदेश में हर जिला हैड क्वाटर पर बड़ी बड़ी सभाएं की जाएगी और जनता को जागरूक करेंगे कि जनसंख्या वृद्धि के कारण जनसंख्या विस्फोट हो रहा है जिसके चलते चिकित्सा,शिक्षा सहित अन्य सेक्टर में भारी नुकसान हो रहा है।

ज्ञानदेव आहूजा ने इंदिरा गांधी और संजय गांधी द्वारा चलाए गए जबरन नसबंदी और जबरन पेड़ लगाओ अभियान के बारे में बड़ा बयान दिया। उन्होंने कहा कि उस समय जबरन नसबंदी करवाने के कारण ही इंदिरा गांधी की सरकार गई थी। आहूजा ने अपने विधानसभा क्षेत्र के एक युवा का उदाहरण देते हुए बताया कि उस समय 18 वर्ष के युवा को पकड़कर जबरन नसबंदी की गई थी ​जिसके चलते वह जिंदगी भर परेशान रहा।

तो वहीं आहूजा ने संजय गांधी द्वारा उस समय पेड़ लगाओ अभियान को लेकर भी निशाना साधा और बोले,जबरन पेड़ लगाओ अभियान के कारण देश में देशी पेड़ नहीं लगे और विदेशी पेड़ लगे। बिना सोचे समझे ऐसे पेड़ लगाए गए जिससे पर्यावरण को खराब होता है। आहूजा ने कहा सफेदा के पेड़ एक घंटे में 6 लीटर पानी सोखता है और विदेशी बबूल पर्यावरण को खराब करता है तो वहीं अंग्रेजी घास खुजली और चर्म रोग पैदा करती है।

रविवार, 26 जनवरी 2020

गणतंत्र या गर्वतंत्र ?

अपने 71 वें वर्ष में भारत का गणतंत्र खुद पर गर्व करे या चिंता करे ? मैं सोचता हूं कि वह दोनों करे। गर्व इसलिए करे कि अगर हम एशिया और अफ्रीका के देशों पर नज़र डालें तो हमें मालूम पड़ेगा कि उन सब में भारत बेजोड़ देश है। इन लगभग सभी देशों के संविधान तीन-तीन चार-चार बार बदल चुके हैं, इन ज्यादातर देशों में कई बार तख्ता-पलट हो चुके हैं, इनमें कई लोकतंत्र फौजतंत्र बन चुके हैं और फौजतंत्र लोकतंत्र बनने की कोशिश कर रहे हैं, कई देश संघात्मक से एकात्मक और एकात्मक से संघात्मक बनने लगे हैं लेकिन भारत का संविधान है कि सत्तर साल गुजर जाने पर भी ज्यों का त्यों है। उसके मूल स्वरुप में कोई बदलाव नहीं हुआ है। हां 1975-77 के आपात्काल ने जरुर इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप किया था लेकिन भारत की जनता ने हस्तक्षेप करनेवालों को कड़ा सबक सिखाया था।

 हमारे संविधान में लगभग सवा सौ संशोधन हो गए हैं। लेकिन उसका मूल स्वरुप अक्षुण्ण हैं। उसके संशोधन उसके लचीले होने का प्रमाण हैं। दूसरी बात जो गर्व के लायक है, वह यह कि आजादी के बाद देश के पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में कई राज्य भारत से अलग होना चाहते थे। लेकिन आज नागालैंड, पंजाब, कश्मीर और तमिलनाडु में ऐसी कोई आवाज सुनाई नहीं पड़ती। भारत की संपन्नता, शक्ति और एकता पहले से अधिक बलवती हो गई है। यों भी भारत दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा देश है लेकिन अब चीन और भारत- एशिया के दो महाशक्ति राष्ट्र माने जा रहे हैं। भारत इस पर गर्व कर सकता है लेकिन सत्तर या बहत्तर साल गुजरने के बावजूद भारत में गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा और भ्रष्टाचार का बोलबाला है। भारत में आज तक एक भी सरकार ऐसी नहीं बनी है, जिसे जनता का 51 प्रतिशत वोट मिला है।

 वर्तमान सरकार भी सिर्फ 37 प्रतिशत वोटों से बनी सरकार है। भारत की चुनाव पद्धति में बुनियादी सुधार की जरुरत है। पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव होता जा रहा है। देश में भय, आतंक और अंविश्वास बढ़ रहा है। करोड़ों नागरिकों की बुनियादी जरुरतें पूरी नहीं हो पातीं और मुट्ठीभर लोग सपन्नता के हिमालयों पर चढ़ते चले जा रहे हैं। इसीलिए हमारा गणतंत्र गर्वतंत्र होते हुए भी चिंतातंत्र बना हुआ है। 

शनिवार, 25 जनवरी 2020

संविधान के आलोक में अग्रसर भारतीय गणतंत्र की सतत यात्रा

सात दशकों की गणतांत्रिक यात्रा में भारतीय लोकतांत्रिक और राजनीतिक व्यवस्था उत्तरोत्तर सुदृढ़ हुई है। इसके साथ ही सामाजिक प्रगति और आर्थिक विकास में भी उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल हुई हैं। इस राष्ट्रीय यात्रा में हमारा संविधान मार्गदर्शक भी रहा है और संचालक भी।

 स्वतंत्रता आंदोलन के आधारभूत मूल्यों को नियमन के इस सर्वोच्च ग्रंथ में समाहित कर संविधान सभा ने अतुलनीय योगदान दिया है। संविधान के निर्देशों और गणतंत्र के आदर्शों पर चलकर ही हम भारत को एक महान लोकतंत्र के रूप में स्थापित कर सकते हैं तथा राष्ट्रों के समूह में प्रथम पंक्ति में प्रतिष्ठित कर सकते हैं।

संविधान की सफलता के लिए पूर्वाग्रह-मुक्त नेतृत्व जरूरी 

हमने एक लोकतांत्रिक संविधान तैयार किया है। लेकिन लोकतांत्रिक संस्थाओं के सफलतापूर्वक काम करने के लिए उनके साथ काम करनेवाले लोगों में दूसरों के दृष्टिकोण को सम्मान देने तथा समझौता व समायोजन करने की क्षमता होना आवश्यक है। बहुत चीजें, जिनका उल्लेख संविधान में नहीं होता,  

उन्हें स्थापित परंपराओं के अनुरूप किया जाता है। मुझे आशा है कि हम ऐसी क्षमता प्रदर्शित करेंगे और उन परंपराओं को विकसित करेंगे। जिस प्रकार से हम बिना मतदान एवं मत-विभाजन के इस संविधान को बना सके हैं, उससे इस आशा को बल मिलता है।

 संविधान में जो भी प्रावधान है या नहीं है, देश का कल्याण देश के शासन चलाने के तरीके पर निर्भर करेगा। यह उन लोगों पर निर्भर करेगा, जो शासन का संचालन करेंगे। यह बहुत पुरानी कहावत है कि देश को वैसी ही सरकार मिलती है, जिसके वह योग्य होता है। हमारे संविधान में ऐसे प्रावधान हैं, जो एक या दूसरे नजरिये से कुछ लोगों को आपत्तिजनक लग सकते हैं।



 यह स्वीकार करना होगा कि देश और लोगों की स्थिति को देखते हुए कमियों का होना स्वाभाविक है। यदि निर्वाचित लोग योग्य, चरित्रवान व ईमानदार हों, तो वे दोषपूर्ण संविधान का भी बेहतरीन उपयोग कर सकेंगे। अगर उनमें ये गुण नहीं होंगे, तो संविधान भी देश की मदद नहीं कर पायेगा। आखिरकार, संविधान एक मशीन की तरह जीवनहीन वस्तु होता है। 

इसे उन लोगों से जीवन मिलता है, जो इसे नियंत्रित और संचालित करते हैं, और भारत को आज सबसे अधिक जरूरत ऐसे ईमानदार लोगों के समूह की है, जो देश के हित को अपने से ऊपर रखते हों। हमारे जीवन में विभिन्न तत्वों की वजह से अलगाववादी रूझान पनप रहे हैं। हम में सांप्रदायिक, जातिगत, भाषाई, प्रांतीय और अन्य कई तरह के मतभेद हैं।



 इस स्थिति में ऐसे मजबूत चरित्र व दृष्टि रखनेवाले ऐसे लोगों की दरकार है, जो छोटे समूहों व क्षेत्रों के लिए देश के व्यापक हितों की बलि नहीं चढ़ायेंगे और जो इन मतभेदों से पैदा होनेवाले पूर्वाग्रहों से ऊपर उठ कर काम कर सकेंगे। हम केवल यही उम्मीद कर सकते हैं कि हमारा देश बड़ी संख्या में ऐसे लोगों को उभार सकेगा।(संविधान सभा के अध्यक्ष के तौर पर 26 नवंबर, 1949 को दिये गये संभाषण का अनूदित अंश)

संविधान निर्माण की प्रक्रिया

लाई, 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद ब्रिटेन में नयी सरकार का गठन हुआ। इस सरकार ने भारत को लेकर अपनी नयी नीति की घोषणा की और संविधान निर्माण करनेवाली समिति बनाने का निर्णय लिया। इसके बाद मार्च, 1946 में ब्रिटिश कैबिनेट के तीन मंत्री सर पैथिक लॉरेंस, स्टेफर्ड क्रिप्स अौर एवी अलेक्जेंडर भारत भेजे गये। भारतीय इतिहास में ब्रिटिश मंत्रियों के इस दल को कैबिनेट मिशन के नाम से जाना जाता है।

कैबिनेट मिशन की सिफारिशों के आधार पर संविधान तैयार करने के लिए जुलाई, 1946 को संविधान सभा का गठन किया गया, जिसमें कुल सदस्यों की संख्या 389 थी। इन सदस्यों में 292 प्रांतीय विधानसभा (ब्रिटिश प्रांतों) के प्रतिनिधि, 93 देसी रियासतों के प्रतिनिधि और चार चीफ कमिश्नर क्षेत्रों (दिल्ली, कूर्ग (कर्नाटक), अजमेर-मेरवाड़ा और ब्रिटिश बलूचिस्तान के प्रतिनिधि शामिल थे।



गठन के बाद जुलाई, 1946 में ही संविधान सभा के 389 सदस्यों में से 296 सदस्यों के लिए चुनाव हुए. इसमें कांग्रेस के 208, मुस्लिम लीग के 73 और 15 अन्य दलों के और स्वतंत्र उम्मीदवार निर्वाचित हुए।

संविधान सभा की प्रथम बैठक 9 दिसंबर, 1946 को दिल्ली में हुई. बैठक में डॉ सच्चिदानंद सिन्हा को सभा का अस्थायी अध्यक्ष चुना गया। इसके दो दिन बाद ही यानी 11 दिसंबर को डॉ राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के स्थायी अध्यक्ष निर्वाचित हुए।

सभा की तीसरी बैठक 13 दिसंबर, 1946 को बुलायी गयी। इस बैठक में जवाहरलाल नेहरू द्वारा पेश किये गये उद्देश्य प्रस्ताव के साथ सभा की कार्यवाही प्रारंभ हुई. इसी उद्देश्य प्रस्ताव को संविधान सभा ने 22 जनवरी, 1947 को अंगीकार किया। इन्हीं उद्देश्य प्रस्तावों के आधार पर भारतीय संविधान की प्रस्तावना तैयार की गयी।

 29 अगस्त, 1947 को संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए प्रारूप समिति का गठन किया गया। डॉ भीमराव अांबेडकर इस समिति के अध्यक्ष चुने गये। प्रारूप समिति में सात सदस्य थे- डॉ भीमराव अांबेडकर (अध्यक्ष), एन गोपाल स्वामी अयंगर, अल्लादी कृष्णा स्वामी अय्यर, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, सैय्यद मोहम्मद सादुल्ला, एन माधव राव (बीएल मित्र की जगह) और टीटी कृष्णामचारी (डीपी खेतान की जगह)।

वर्ष 1947 में देश का बंटवारा हो जाने के बाद भारतीय संविधान सभा की कुल सदस्य संख्या 324 रह गयी, जिसमें 235 स्थान प्रांतों के लिए और 89 स्थान देसी राज्यों के लिए थे।

देश के बंटवारे के बाद 31 अक्तूबर, 1947 को संविधान सभा का पुनर्गठन किया गया और 31 दिसंबर, 1947 को संविधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या 299 रह गयी, जिसमें प्रांतीय और देसी रियासतों के सदस्यों की संख्या 70 थी।

संविधान के प्रारूप पर विचार-विमर्श करने के बाद प्रारूप समिति ने 21 फरवरी, 1948 को संविधान सभा को अपनी रिपोर्ट पेश की।इसके बाद संविधान सभा द्वारा संविधान के कुल तीन वाचन संपन्न हुए।

इस प्रकार संविधान निर्माण की प्रक्रिया में कुल दो वर्ष, 11 महीना और 18 दिन लगे और इस पर लगभग 6.4 करोड़ रुपये खर्च हुए।

 संविधान के प्रारूप पर कुल 114 दिनों तक बहस हुई

26 नवंबर, 1949 को जब संविधान सभा द्वारा संविधान पारित किया गया, तब इसमें कुल 22 भाग, 395 अनुच्छेद और आठ अनुसूचियां थीं. वर्तमान समय में संविधान में 25 भाग, 395 अनुच्छेद एवं 12 अनुसूचियां हैं।

संविधान के 15 अनुच्छेदों (5, 6, 7, 8, 9, 60, 324, 366, 367, 372, 380, 388, 391, 392 व 393 अनुच्छेद) में 26 नवंबर, 1949 को ही बदलाव कर दिया गया, जबकि शेष अनुच्छेदों को उनके पहले स्वरूप में ही 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया।
संविधान सभा की अंतिम बैठक 24 जनवरी, 1950 को हुई और उसी दिन संविधान सभा ने डॉ राजेंद्र प्रसाद को भारत का प्रथम राष्ट्रपति चुना।

प्रस्तावना

हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को:सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,प्रतिष्ठा और अवसर की समता,प्राप्त कराने के लिए,तथा उन सब में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ईस्वी (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान कोअंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

प्रमुख विशेषताएं

कई विशिष्टताएं और सिद्धांत भारतीय संविधान की खूबी हैं. दुनियाभर के संविधान विशेषज्ञों ने भारतीय संविधान पर अपने विचार रखे हैं और इसे कई मायनों में सर्वसमावेशी दस्तावेज बताया है।

यह दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है. संविधान में समय-समय पर कई संशोधन किये गये।

भारत का संविधान न तो कठोर है और न ही लचीला। कठोरता का मतलब- संशोधन के लिए विशेष प्रक्रियाओं की जरूरत. लचीला संविधान वह होता है, जिसमें आसानी से संशोधन हो सके।

भारत में मौजूद सभी धर्मों को समान संरक्षण और समर्थन का प्रावधान है। सरकार सभी पंथ के अनुयायियों के साथ एक जैसा व्यवहार करेगी और समान अवसर उपलब्ध करायेगी।

संविधान में संघ/ केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सत्ता के बंटवारे का प्रावधान है। यह संघवाद की अन्य विशेषताओं को भी पूरा करता है, इसलिए भारत एकात्मक संघीय राष्ट्र है।

भारत में सरकार का संसदीय स्वरूप है। दो सदनों- लोकसभा और राज्यसभा, वाली विधायिका है। सरकार के संसदीय स्वरूप में, विधायी और कार्यकारिणी अंगों की शक्तियों में कोई स्पष्ट अंतर नहीं है। भारत में, सरकार का मुखिया प्रधानमंत्री होता है।

भारत का संविधान प्रत्येक व्यक्ति को एकल नागरिकता प्रदान करता है। देश का कोई भी राज्य अन्य राज्य के निवासी होने के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता। किसी भी व्यक्ति को देश के किसी भी हिस्से में जाने (कुछ स्थानों को छोड़कर) और भारत की सीमा के भीतर कहीं भी रहने का अधिकार है।

संविधान एकीकृत और स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था करता है। सुप्रीम कोर्ट देश का सर्वोच्च न्यायालय है. इससे नीचे उच्च न्यायालय, जिला अदालत और निचली अदालतें हैं।

संविधान के भाग-IV (अनुच्छेद 36 से 50) में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों की व्याख्या है। इन्हें कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
मौलिक कर्तव्य को 42वें संविधान संशोधन अधिनियम (1976) द्वारा शामिल किया गया। इसके लिए एक नया हिस्सा, भाग IVए बनाया गया और अनुच्छेद 51ए के तहत दस कर्तव्य हैं।

देश में 18 वर्ष से अधिक उम्र के प्रत्येक नागरिक को जाति, धर्म, वंश, लिंग, साक्षरता आदि के आधार पर भेदभाव किये बिना मतदान का अधिकार है. सार्वभौम वयस्क मताधिकार सामाजिक असमानताओं को दूर करता है और सभी नागरिकों के लिए समानता की व्यवस्था करता है।

देश की संप्रभुता, सुरक्षा, एकता और अखंडता के लिए किसी भी असाधारण स्थिति से निबटने हेतु राष्ट्रपति को कुछ खास अधिकार हैं। आपातकाल लागू करने के बाद केंद्र सरकार की शक्तियां बढ़ जाती हैं।
संविधान जमीनी स्तर पर लोकतंत्र, मौलिक अधिकारों और सत्ता के विकेंद्रीकरण के रूप में खड़ा है।

संविधान सभा में डॉ आंबेडकर का अंतिम भाषण

भा रत को राष्ट्र के तौर पर आगे कैसे बढ़ना है, इसके बारे में डॉ आंबेडकर ने विस्तार से अपने विचार रखे हैं। संविधान सभा के अपने अंतिम भाषण के दौरान उन्होंने स्वतंत्रता के महत्व और भविष्य की चुनौतियों के बारे में भी आगाह किया था। इसके अलावा भी उन्होंने कई मुद्दों पर अपने विचार प्रस्तुत किये। 


संसदीय लोकतंत्र का औचित्य : मसौदे पर चर्चा के दौरान आंबेडकर ने विभिन्न विचारधारा के लोगों का समर्थन किया. उन्होंने कहा कि अगर यहां लोग केवल प्रेरक भीड़ की तरह होते, तो प्रारूप समिति का कार्य कर पाना मुश्किल हो जाता। विभिन्न विचाराधाराओं से होने के बावजूद प्रत्येक सदस्य के विचारों को उन्होंने वरीयता दी। उन्होंने भारत के परिप्रेक्ष्य में संसदीय लोकतंत्र के महत्व को बताया।

लागू करनेवालों पर जिम्मेदारी : आंबेडकर ने कहा कि इसे विधिवत लागू करने से ही संविधान का महत्व है, अन्यथा यह केवल एक दस्तावेज ही है। संविधान अच्छा हो सकता है, लेकिन अगर लागू करनेवाले बुरे होंगे, तो यह बुरा ही होगा। 

और अगर लोग अच्छे होंगे, तो बुरा संविधान भी अच्छा हो सकता है। संविधान राज्य को चलानेवाला अंग प्रदान कर सकता है, जैसे- विधानमंडल, कार्यपालिका और न्यायपालिका। ये सभी अंग बेहतर काम करेंगे, जब इसमें शामिल लोग बेहतर होंगे।

राष्ट्र से ऊपर पंथ रखने के खतरे : एेतिहासिक घटनाओं और 1857 की क्रांति में भारतीयों में एकता की कमी का जिक्र करते हुए डॉ आंबेडकर ने कहा इस गलती से भारत ने न केवल अपनी स्वतंत्रता खो दी, बल्कि उसे अपने लोगों के विश्वासघात का भी शिकार होना पड़ा। 

उन्होंने कहा यह सोचकर मैं चिंतित हो जाता हूं। आगाह करते हुए उन्होंने कहा कि जातियों और पंथ में बंटा समाज राष्ट्रीय एकता के लिए सही नहीं है। उन्होंने कहा अगर पार्टियां देश के ऊपर पंथ को स्थान देंगी, तो हमारी स्वतंत्रता खतरे में पड़ सकती है। हमें अपने खून की आखिरी बूंद के साथ अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए दृढ़ होना चाहिए। 

सामाजिक लोकतंत्र जरूरी : डॉ आंबेडकर ने कहा है कि संसदीय लोकतंत्र के लिए साथ जरूरी है कि हम सामाजिक लोकतंत्र को भी स्थापित करने की दिशा में प्रयास करें, जिसमें समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का सिद्धांत लागू हो। बिना सामाजिक लोकतंत्र के लिए राजनीतिक लोकतंत्र नहीं चल सकता।

जिम्मेदारी का एहसास : डॉ आंबेडकर ने अपने भाषण के आखिर में कहा कि संविधान में जिस भारत की कल्पना की गयी है, उसके निर्माण के लिए हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है। उन्होंने कहा कि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि स्वतंत्रता ने हमारा दायित्व बढ़ा दिया है। इसके साथ ही हम किसी गलत चीज के लिए अब ब्रिटेन पर दोष नहीं मढ़ सकते। अगर आगे गलत होता है, तो किसी और की बजाय हमारी ही जिम्मेदारी होगी।