फेसबुक को लेकर दुनिया भर में बहस हो रही है। दुनिया के देश, जहां इसके बड़े खतरे और चुनौतियों को समझ कर समग्रता से उस पर चर्चा कर रहे हैं वहीं भारत में हर दूसरे मामले की तरह, यह बहस भी राजनीतिक पक्ष-विपक्ष के विवाद में तब्दील हो गई है। फेसबुक पर कांग्रेस ने आरोप लगाया कि उसकी इंडिया की पब्लिक पॉलिसी डायरेक्टर आंखी दास भाजपा से मिली हुई हैं। उनका और उनकी बहन का भाजपा और संघ के साथ पुराना जुड़ाव है। जवाब में भारतीय जनता पार्टी ने फेसबुक के इंडिया प्रमुख अजित मोहन को कठघरे में खड़ा किया और कहा कि वे कांग्रेस के आदमी हैं। अजित मोहन को सफाई देनी पड़ी कि एक पेशेवर के नाते उन्होंने केरल की कांग्रेस सरकार के साथ काम किया था।
कांग्रेस और भाजपा के अलावा शिव सेना, डीएमके और तृणमूल कांग्रेस ने भी फेसबुक को चिट्ठी लिख कर उसके कामकाज पर सवाल उठाए। सो, कायदे से फेसबुक को तटस्थ मान लेना चाहिए क्योंकि देश की पांच बड़ी पार्टियों को उससे शिकायत है, जिसमें देश की दो प्रमुख प्रतिद्वंद्वी पार्टियां भी शामिल हैं। अगर भाजपा और कांग्रेस दोनों को फेसबुक से शिकायत है तो यह मानने में हर्ज नहीं होना चाहिए कि वह एक तटस्थ प्लेटफॉर्म है। परंतु अगर ऐसा माना गया तो यह पूरी बहस का सरलीकरण करना होगा। क्योंकि फेसबुक या किसी भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का मामला इतना सरल नहीं है। उसकी नीतियां, उसके कामकाज और समाज व राजनीति पर उसका असर बहुत बड़ा है, उसका प्रभाव मौजूदा समय की किसी भी और चीज से ज्यादा है।
वैकल्पिक माध्यम के तौर पर जब फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम आदि का चलन बढ़ा तो यह माना गया कि संचार माध्यमों का लोकतांत्रिकरण हो रहा है। अखबार, न्यूज चैनल और पत्रिकाओं में आम आदमी की कोई हिस्सेदारी नहीं होती है। इसलिए माना गया कि सोशल मीडिया के नए प्लेटफॉर्म से आम लोगों को अपनी बात कहने का मौका मिलेगा। लोगों को मौका मिला भी लेकिन जैसा कि हर तकनीक के साथ होता है, सोशल मीडिया का भी दुरुपयोग शुरू हो गया है और इस पर एकाधिकार बनाने का प्रयास किया जाने लगा। इन प्लेटफॉर्म्स पर लोगों की सोच और उनके विचारों को प्रभावित करने का काम इतनी बारीकी से हुआ कि लोग समझते तब तक एक दशक बीत गया। और तब तक इसकी तकनीक इतनी विकसित हो गई और इसका दुरुपयोग करने वालों ने इसकी बारीकियों को इतनी अच्छी तरह से समझ लिया कि अब आम लोग चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते हैं।
मोटे तौर पर इतना समझें कि अगर कोई पैसे के दम पर तकनीकी रूप से सक्षम लोगों की टीम बना ले तो दुनिया के किसी भी हिस्से में बैठ कर कहीं भी लोगों के दिमाग को नियंत्रित कर सकता है और सामाजिक-राजनीतिक बहस को मनचाही दिशा में मोड़ सकता है। इस लिहाज से 2016 के अमेरिकी चुनाव को याद किया जा सकता है। वह चुनाव ट्विटर और फेसबुक पर लड़ा गया था और इस बात की चर्चा भी हुई थी कि रूस ने इन दोनों प्लेटफॉर्म्स के जरिए चुनाव को प्रभावित किया था। इसका पूरा सच कभी सामने नहीं आया पर यह मानने की कोई वजह नहीं है कि ऐसा नहीं हुआ हो सकता है। ऐसा बिल्कुल संभव है। कैसे संभव है यह समझने के लिए पिछले साल बनी एक ब्रिटिश फिल्म ‘ब्रेक्जिटःद अनसिविल वार’ देख सकते हैं। इसमें बहुत बारीकी से बताया गया है कि कैसे सोशल मीडिया के जरिए यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के अलग होने के लिए हुए जनमत संग्रह को प्रभावित किया गया।
इन सोशल मीडिया कंपनियों ने ऐसा अलगोरिदम तैयार कराया है, बिग डाटा एनालिसिस के ऐसे टूल्स तैयार कराए हैं, आर्टिफिशिएल इंटेलीजेंस का इस तरह से इस्तेमाल किया है कि उनकी मशीन एक ही समय में करोड़ों लोगों की पोस्ट पर नजर रख सकती है। रियल टाइम में उनका विश्लेषण हो सकता है और यह अंदाजा लगया जा सकता है कि कोई व्यक्ति किस तरह के सामाजिक व राजनीतिक रूझान वाला है, उसकी पसंद क्या है, कमजोरी क्या है और उसे कैसे प्रभावित किया जा सकता है। पहले कंपनियां इस जानकारी का इस्तेमाल बिजनेस के लिए करती थीं। सोशल मीडिया से लोगों का डाटा मार्केटिंग करने वाली कंपनियों के पास पहुंचता था, जिन्होंने अपने क्लायंट के उत्पाद को प्रमोट करने के लिए इसका इस्तेमाल किया। लेकिन जल्दी ही इसकी वास्तविक संभावना को पहचान लिया गया और दुनिया के देशों में राजनीति, चुनाव, समाज और इंसानी व्यवहार को प्रभावित करने में इसका इस्तेमाल किया जाने लगा।
इन कंपनियों के कामकाज की बारीकी बताने का मकसद यह है कि भारत में देश की राजनीतिक पार्टियां या सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय की संसदीय समिति जिस बात पर चर्चा कर रही है वह पूरे संकट की सिर्फ ऊपरी सतह है। भारत में इस बात पर बहस हो रही है कि भाजपा नेताओं की भड़काऊ पोस्ट को शिकायत मिलने के बावजूद नहीं हटाया गया या कांग्रेस की शिकायत पर भाजपा नेताओं की पोस्ट हटा दी गई। किसी पोस्ट को ज्यादा समय तक नहीं रहने दिया गया या किसी पोस्ट की व्यूज को सीमित कर दिया गया। यह बड़ी समस्या नहीं है। बड़ी समस्या इन कंपनियों की पॉलिसी है, जिसकी वजह से पूरी दुनिया के सामने, लोकतांत्रिक प्रक्रिया के सामने, नागरिकों की निजता के सामने बड़ी चुनौती खड़ी हुई है। यह तकनीक और पॉलिसी का मामला है, जिसके जरिए ये कंपनियां या इनके चुनिंदा क्लायंट बिना आपकी जानकारी के आपके दिमाग को नियंत्रित कर सकते हैं।
भारत जैसे देश में, जहां बड़ी आबादी अब भी शिक्षा व साक्षरता से दूर है, लेकिन उसके हाथ में स्मार्ट फोन पहुंच चुका है उसके दिमाग को प्रभावित करना बहुत आसान है। उसे लगातार एक खास किस्म की पोस्ट के जरिए किसी खास विचारधारा या उत्पाद का गुलाम बनाया जा सकता है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के साथ साथ स्मार्ट फोन, स्मार्ट वॉच, स्मार्ट टीवी आदि के जरिए करोड़ों लोगों का मिनट टू मिनट का डाटा सोशल मीडिया कंपनियों के पास पहुंचता है, जिसका वे मनमाना इस्तेमाल करती हैं। कंपनियां कहती हैं कि उनका डाटा एंड टू एंड इनक्रिप्टेड है तो सवाल है कि क्या उनकी मशीनें आम लोगों का डाटा एक्सेस और एनालिसिस नहीं करती हैं या नहीं कर सकती हैं? जब वे करती हैं या कर सकती हैं तो फिर इनक्रिप्शन का क्या मतलब है?
इससे लोगों की निजता खतरे में आती है। लोकतंत्र खतरे में आता है। कारोबारी और राजनीतिक फायदे के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है। जिसके पास पैसा होगा वह मनमाने तरीके से इसका इस्तेमाल कर सकता है। दुनिया का कोई देश अपनी पसंद की सरकार दूसरे देश में बनवाने के लिए मतदाताओं का व्यवहार प्रभावित करने के मकसद से इसका इस्तेमाल कर सकता है। यह बड़ा खतरा है। असली विचार इस बड़े खतरे पर होना चाहिए। यह भी एक सवाल है कि ऐसी कंपनियां अपने कानून हर देश के लिहाज से अलग अलग क्यों नहीं बनाती हैं, जो कम्युनिटी स्टैंडर्ड की दुहाई देती हैं और यह कह कर बचने का प्रयास करती हैं कि उनके मानक संबंधित देश के कानून से मैच नहीं करते हैं! भारत के मामले में फेसबुक ने यहीं दलील दी है कि भारत में कुछ चीजें उसके कम्युनिटी स्टैंडर्ड से मैच नहीं करती हैं। पर यह कोई दलील नहीं है। उसे भारत के कानून से मैच करता मानक तैयार करना चाहिए। भारत में वह कंपनी अमेरिकी कानून के हिसाब से धंधा नहीं कर सकती है।

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