देशप्रेम, देशभक्ति का अर्थ है हम देश की चिंता करें। यदि देश की आर्थिकी दिवालिया हो रही है तो फिक्र करें या नहीं? क्या भक्त लोगों को भी सच्चाई समझते हुए सरकार पर दबाव नहीं बनाना चाहिए कि अब तो जागो। सो, यदि सरकार के ही आंकड़ों मे विकास दर 23.9 प्रतिशत घटी है तो भारत के हम लोगों का चिंता करनी चाहिए या यह सोचते हुए निश्चितंता में बैठना चाहिए कि वायरस से दुनिया में विकास घटा है तो भारत में वहीं है जैसा बाकी देशों में है। इसी सोच में ज्योंहि भारत की जीडीपी में 23.9 प्रतिशत गिरावट का आंकड़ा आया नहीं कि झूठ फैला दिया गया कि अमेरिका में 33 प्रतिशत, जापान में 27.8 प्रतिशत की गिरावट हुई तो भारत की जीडीपी में गिरावट क्या बड़ी बात! यह तर्क न केवल लोगों को झूठ की पट्टी पढ़ाना है, बल्कि दिवालिया हुए भारत को उस मुकाम पर पहुंचाने का आत्मघाती नैरेटिव है, जिससे अंततः भारत कबाड़, जंक बनेगा।
हां, दिवाला निकला, दिवालिया होना कबाड़ होने से पहले की स्थिति होती है। आपका दिवाला निकला है तो नीलामी, बोली व रिस्ट्रक्चरिंग से वापिस पटरी पर लौटा जा सकता है। लेकिन दिवाला है और मानेंगे नहीं व टाइमपास करते रहेंगे तो फिर हमेशा के लिए खत्म या वेनेजुएला, जिम्बाब्वे जैसी स्थिति में लोगों का, देश का भीख-भूख में जीना होगा।
दुनिया के बरबाद देशों के जितने किस्से हैं उसकी बरबादी की निर्णायक वजह राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री याकि सरकार का समय रहते हुए यह नहीं मानना है कि आर्थिकी बरबाद हो रही है। दिवाला निकल रहा है। सत्य को झूठ से वैसे ही छुपाना जैसे भारत की जीडीपी में अप्रैल से जून की तिमाही में 23.9 प्रतिशत की गिरावट को अमेरिका से तुलना करके छुपाया जा रहा है। अमेरिका में कुल सालाना रेट में जीडीपी की गिरावट सिर्फ 9.1 प्रतिशत है जो उसकी सिकुड़ने की सालाना रेट से है जबकि भारत की तस्वीर साल-दर-साल की गिरावट में 23.9 प्रतिशत के आंकड़े की भयावहता लिए हुए है।
मैं मानता हूं इन बातों का भी अर्थ नहीं है। असली बात है कि नोटबंदी से ले कर वायरस के मौजूदा काल के चार वर्षों में भारत में कब सरकार ने माना कि आर्थिकी बिगड़ रही है। बेरोजगारी बढ़ रही है। काम-धंधे चौपट हुए हैं। सरकार लगातार साल-दर-साल यह साबित करने में जुटी हुई है कि सब ठीक है। ऐसा जिम्बाब्वे में राष्ट्रपति मुगाबे करते थे और उससे देश का जो बना उसे दुनिया जानती है। पते की बात है कि चार सालों से लगातार गिरावट है या नहीं? वायरस से पहले ही आर्थिकी चौपट हुई पड़ी थी या नहीं? इसलिए वायरस के बाद और अगले दो -तीन सालों में जो होगा तो उसे तेल आयात आदि के घटने से विदेशी मुद्रा रिजर्व या शेयर बाजार में विदेश में बिना ब्याज, फ्री में उपलब्ध पैसे की तेजी से पार नहीं पाया जा सकता है। कोई न माने पर भारत में आज अधिकांश का दिवाला है। यदि अंबानी और उनकी रिलायंस की सेहत ठीक होती तो विदेशी गूगल, फेसबुक जैसे निवेशकों को शेयर बेचकर पैसा जुटाने की क्या जरूरत होती। अदानी ने यदि एयरपोर्ट खरीदने के बाद अगले एयरपोर्ट खरीदने से पहले पुराने की किस्त चुकाने में सरकार से वक्त बढ़वाना चाहा है तो यह भी पैसे की किल्लत का प्रमाण है।
इसलिए अंबानी-अदानी वायरस काल को एंपायर फैलाने का अवसर मान रहे हैं तो इस अवसर में इन्हें भी टोपियां घुमानी पड़ रही हैं। तब केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और देश की 138 करोड़ आबादी कैसी दिवालिया, कंगली, कड़की स्थिति में पहुंची हुई है, क्या यह वास्तविकता समझ नहीं आती और इसे छुपाने से क्या कुछ बनेगा या उलटे ज्यादा बरबादी होगी?
कुल मिला कर सन् 2020 का सत्य जीडीपी में रिकार्ड तोड़ गिरावट है और यह पिछले चार सालों की हकीकत को नकारने की निरंतरता की बदौलत भी है। तभी अगले दो साल मतलब सन् 2022 तक मोदी सरकार इसी रूख में रही कि सब ठीक है तो दुनिया के बाकी देश कोरोना काल के बाद फिर उछलते-कूदते-बढ़ते हुए होंगे और भारत की आर्थिकी दुनिया का वह कबाड़ होगा, जिसमें अंतरराष्ट्रीय रेटिंग संस्थाएं भारत को जंक करार देंगी तो भारत दक्षिण एशिया में चीन, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान के घेरे के बीच सर्वाधिक गरीब और कृषि युग वाली आर्थिकी लिए हुए होगा। पूछ सकते हैं कि सरकार क्या कर सकती है? यह सवाल बाद में पूछना चाहिए। पहले सरकार और भक्तजन यह मानें कि संकट है और जीडीपी, विकास दर, प्रतिव्यक्ति आय, उपभोग, रोजगार याकि आर्थिकी सचमुच बरबाद है! इसे मानेंगे तभी तो आगे सोचा जा सकेगा।

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