सरकार इस बात को क्यों नहीं समझ रही है कि सिर्फ अनलॉक कर देने से यानी सब कुछ खोल देने से सब ठीक नहीं होगा! सब कुछ ठीक करने के लिए कुछ प्रयास करने होंगे। वह प्रयास कहीं नहीं दिख रहा है। ऐसा लग रहा है कि सरकार थोड़े से बहुत सरल उपायों के भरोसे बैठी है और उम्मीद कर रही है कि सब कुछ इसी से ठीक हो जाएगा। जैसे कोरोना वायरस का संकट शुरू होने के बाद सरकार ने कोरोना का संक्रमण रोकने का यह सरल उपाय निकाला कि पूरे देश में पूरी तरह से बंद कर दिया जाए तो अपने आप कोरोना खत्म हो जाएगा। इसी भ्रम में प्रधानमंत्री ने 21 दिन में कोरोना की महाभारत जीत लेने का दावा किया था। पर नतीजा क्या निकला? दुनिया का सबसे सख्त लॉकडाउन लागू करने के बावजूद भारत एकमात्र देश है, जहां कोरोना के केसेज बढ़ते गए। दुनिया के दूसरे देशों में लॉकडाउन लागू होने के बाद केसेज कम हुए, जबकि भारत में बढ़ गए और इतनी तेजी से बढ़े कि अब दुनिया में सबसे तेज रफ्तार से भारत में ही कोरोना के केस बढ़ रहे हैं।
जिस तरह से प्रधानमंत्री, उनके सलाहकारों, नीति आयोग के सदस्यों, आईसीएमआर के वैज्ञानिकों ने कोरोना वायरस का सरलीकरण किया और उसकी जटिलता को समझे बगैर लॉकडाउन लागू किया उसी तरह अब सरकार के आर्थिक सलाहकार कोरोना से पैदा हुए संकट का सरलीकरण कर रहे हैं। उनको लग रहा है कि कोरोना को रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन के कारण आर्थिक संकट पैदा हुआ है तो अनलॉक कर देने यानी सब कुछ खोल देने से यह संकट दूर हो जाएगा। इस मासूमियत पर सिर्फ अफसोस किया जा सकता है। सब कुछ खोल कर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की सोच में सरकार इतनी जल्दबाजी कर रही है कि वह उन सेवाओं को भी शुरू कर रही है, जिनसे संक्रमण फैलने का बड़ा खतरा है। सरकार छात्रों का जीवन भी खतरे में डाल रही है। लगभग जबरदस्ती इंजीनियरिंग और मेडिकल में दाखिले की प्रवेश परीक्षाएं कराई गईं और अब 21 सितंबर से आंशिक रूप से स्कूल खोलने का फैसला भी हो गया है।
सब कुछ अनलॉक कर देने से आर्थिकी नहीं सुधरेगी उलटे कोरोना का संक्रमण और फैलेगा, यह बात जून-जुलाई दो महीने के अनुभव से साबित है। जून में जब कई सेवाएं शुरू की गईं और लॉकडाउन में छूट दी गई तो पहले महीने में इसका असर दिखा। लगा कि कामकाज शुरू हो रहा है तभी प्रधानमंत्री ने दावा किया कि ‘ग्रीन शूट्स’ य़ानी हरी कोंपलें दिख रही हैं। पर जून में जो लोग कामकाज पर लौटे थे उनको जुलाई आते आते पता चल गया कि सरकार ने भले अनलॉक कर दिया है पर आम आदमी अभी अनलॉक नहीं हुआ है। वह अब भी कोरोना की चिंता में है, अपने आर्थिक भविष्य को लेकर परेशान है और इसलिए वह बाजार में नहीं लौट रहा है। सो, जून में दिखी हरी कोंपलें जुलाई में सूख गईं। इस बीच कोरोना संक्रमण की रफ्तार बढ़ती रही। ऐसे में सरकार को समझ में आ जाना चाहिए था कि अब क्या करना चाहिए पर अफसोस की बात है कि जुलाई-अगस्त दो महीने के अनुभव से सरकार ने कुछ नहीं सीखा।
अब भी समय है सरकार को सिर्फ अनलॉक के भरोसे सब कुछ ठीक हो जाने की उम्मीद छोड़ कर एक साथ कई उपाय आजमाने चाहिए। सबसे पहले सरकार को लोगों को भरोसा दिलाना होगा कि उनका भविष्य सुरक्षित है। यह आसान काम नहीं है। जब पांच महीने में दो करोड़ दस लाख वेतनभोगियों की नौकरी गई है और 12 करोड़ लोगों का रोजगार ठप्प हुआ है तो आर्थिक भविष्य को लेकर भरोसा दिलाना आसान नहीं होगा। पर सरकार को इसी की पहल सबसे पहले करनी चाहिए। सरकार गैर वेतनभोगी मध्य वर्ग को और निम्न वर्ग के लोगों को नकद पैसा पहुंचाने का बंदोबस्त करे। यह वर्ग सबसे ज्यादा परेशान है।
इस वर्ग में भरोसा पैदा करने के लिए सरकार को राज्यों के साथ जीएसटी को लेकर चल रहे विवाद को भी जल्दी से जल्दी सुलझाना चाहिए। इस विवाद का लोगों पर बड़ा मनोवैज्ञानिक असर है। उनको लग रहा है कि जब केंद्र सरकार के पास ही पैसा नहीं है कि वह राज्यों को उनके कर का हिस्सा दे सके तो वह भला देश के लोगों की क्या मदद करेगी? दूसरे राज्यों का पैसा रूकने का नतीजा यह हुआ है कि कई राज्यों में वेतन, पेंशन आदि देने का संकट खड़ा हो गया है। आने वाले दिनों में यह करोड़ों और लोगों पर असर डालने वाला होगा। केंद्र और राज्य दोनों से लोगों के हाथ में पैसा पहुंचेगा तो अर्थव्यवस्था की गाड़ी चलेगी, अन्यथा सब कुछ खोल देने के बावजूद सब ठप्प रहेगा।
इसके बाद सरकार को कोरोना वायरस से लड़ाई में लोगों को भरोसा दिलाना होगा। इस समय वह भरोसा दिलाने का एकमात्र तरीका यह है कि सरकार वैक्सीन खरीद की प्रक्रिया शुरू करे। दुनिया के बड़े देशों में संभवतः भारत इकलौता देश है, जिसने अभी तक वैक्सीन खरीद की रणनीति नहीं बनाई है। इसके लिए विशेषज्ञों की एक टास्क फोर्स है पर उसने क्या किया यह आम लोगों को नहीं पता है। अमेरिका ने एक सौ करोड़ डोज खरीदने का ऑर्डर दे दिया है। ब्रिटेन 33 करोड़ डोज खरीद रहा है। ऑस्ट्रेलिया ने सभी नागरिकों को मुफ्त वैक्सीन देने का ऐलान किया है। यूरोपीय संघ ने भी करोड़ों डोज के ऑर्डर दे दिए हैं। रूस और चीन ने अपनी वैक्सीन बना ली है और रूस ने तो वैक्सीन आम लोगों के लिए जारी कर दी।
दूसरी तरफ विश्व स्वास्थ्य संगठन और बिल गेट्स के फाउंडेशन ने मिल कर जो कोवैक्स बनाई है उसमें भी जुड़ने वाले देशों की संख्या बढ़ रही है। पर उसमें जुड़ने का मतलब होगा कि एक साल से ज्यादा तक वैक्सीन का इंतजार करना होगा। सो, भारत को स्वतंत्र रूप से इस बारे में रणनीति बनानी होगी। भारत की स्वदेशी वैक्सीन अगले साल ही आ पाएगी लेकिन उससे पहले अगर दूसरी कंपनियों की वैक्सीन तैयार हो जाती है तो भारत को उनकी खरीद के लिए सौदा करना होगा। जितनी जल्दी हो सरकार को इस दिशा में पहल करनी चाहिए। इससे भी लोगों का कांफिडेंस लौटेगा और हालात सामान्य होने की संभावना बढ़ेगी।

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें