बुधवार, 9 सितंबर 2020

निजीकरण आखिर कैसे अच्छा?


 भारत में जब विनिवेश की प्रक्रिया शुरू हुई थी तब यह ब्रह्म वाक्य तय हुआ था कि सरकार मुनाफा कमाने वाली कंपनियों को नहीं बेचेगी। सिर्फ उन्हीं कंपनियों को बेचा जाएगा, जो घाटे में हैं और सरकार के लिए बोझ बन गई हैं। इसमें भी रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण इकाइयों और लोक सेवा से जुड़ी कंपनियों को विनिवेश के दायरे से अलग रखा गया था। वे भले घाटे में हों पर उनको करदाताओं के पैसे से चलाए रखने पर राष्ट्रीय सहमति थी। जैसे एयर इंडिया को चलाए रखने में करदाताओं का 50-60 हजार करोड़ रुपया खर्च हुआ। अब इस सिद्धांत को पूरी तरह से उलट दिया गया है। अब घाटे में चलने वाली कंपनियों को नहीं बेचा जा रहा है क्योंकि आज के जो गिने-चुने खरीददार हैं वे उसे नहीं खरीदेंगे। उनको मुनाफा कमाने वाली कंपनी चाहिए। इसलिए सरकार मुनाफा कमा कर देने वाली कंपनियों को बेच रही है।  


मुनाफा कमाने वाली कंपनियों को बेच कर पैसे कमाने की सरकार की मानसिकता बहुत खतरनाक है। यह अंततः देश को वैसी स्थिति में पहुंचा देगी, जहां करोड़ों करोड़ लोगों के हितों को देखने वाला कोई नहीं होगा। देश के गरीब, दलित, आदिवासी, वंचित, महिलाएं, बच्चे सब अरक्षित होंगे और बाजार की ताकतों के हवाले होंगे। देश की विशाल आबादी उन पूंजीपतियों के लिए असहनीय बोझ होगी या बाजार। और तब किसी किस्म की संकट की घड़ी में खुद सरकार भी असहाय होगी। देश के नागरिकों की मदद करने के लिए उसे निजी कंपनियों का मुंह देखना होगा।


सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि कोरोना वायरस के संकट ने जो सबक दिया है उससे भी सरकार कुछ नहीं सीख रही है। इस समय दुनिया के दूसरे देशों में फंसे भारतीयों को वापस लाना है तो सरकार का वंदे भारत मिशन एयर इंडिया के सहारे ही चल रहा है। एकमात्र सरकारी विमानन कंपनी एयर इंडिया के जरिए ही लाखों लोगों को विदेश से भारत लाया जा सका है। इतना ही नहीं देश और दुनिया में भारत ने जो राहत सामग्री पहुंचाई है वह भी एयर इंडिया के जरिए ही हुआ है। प्रधानमंत्री गर्व से कह रहे हैं कि भारत ने 130 देशों की मदद की है तो यह मदद एयर इंडिया के जरिए ही पहुंचाई गई है। लेबनान में भीषण विस्फोट के तुरंत बाद भारत अगर मदद पहुंचा सका तो वह एयर इंडिया के कारण हुआ। पर सरकार को हर हाल में एयर इंडिया को बेच डालना है।


कोरोना के संकट में सरकारी कंपनियों और सेवाओं ने कितनी मदद की है, उसे समझना कोई मुश्किल बात नहीं है, बशर्ते कोई समझना चाहे। कोरोना के लाखों मरीजों की जांच और उनका इलाज सरकारी अस्पतालों में ही हुआ, निजी अस्पतालों ने तो इस वायरस की आपदा को अवसर में बना कर लोगों को सिर्फ लूटा। कोरोना की वैक्सीन कहां बन रही है? उसके लिए भी सरकारी कंपनी बीबीआईएल ही काम आई है। लाखों-लाख लोगों को उनके घरों तक पहुंचाने में रेलवे की सेवा ही काम आई, निजी परिवहन सेवाओं से यह काम संभव नहीं होता।


सरकार के सामने जब भी आर्थिक संकट आया तब भी सरकारी कंपनियां ही काम आईं। ओएनजीसी के पैसे से भारत सरकार ने कितनी कंपनियों के नुकसान की भरपाई की और उन्हें बचाया! यह अलग बात है कि अब खुद ओएनजीसी ही संकट में है। बैंकिंग के संकट के समय में आईडीबीआई और यस बैंक को सरकार एलआईसी की मदद से ही बचा सकी। अब उसी एलआईसी की 25 फीसदी हिस्सेदारी बेचने की तैयारी हो रही है।


सवाल है कि क्यों एलआईसी को बेचना है? क्या एलआईसी अपने मकसद को पूरा नहीं कर पा रही है? ध्यान रहे 1956 में इस कंपनी का राष्ट्रीयकरण हुआ था और तब से आज तक इस कंपनी ने लाखों करोड़ रुपए सरकार को कमा कर दिए हैं। यह देश के करोडों लोगों की कमाई औऱ उनके भरोसे की कस्टोडियन कंपनी है। भाजपा की सरकार ने ही 1999 में देशी-विदेशी निजी कंपनियों को बीमा के कारोबार में आने की इजाजत दी थी। पिछले 20 बरस में 22 के करीब निजी कंपनियों के बीमा कारोबार में आने के बावजूद बीमा का 72 फीसदी कारोबार एलआईसी के पास है। देश के तीन-चौथाई लोग अपने निवेश और अपने भविष्य की सुरक्षा के लिए एलआईसी पर भरोसा करते हैं। सोचें, दुनिया की बड़ी बहुराष्ट्रीय बीमा कंपनियों के भारत में काम शुरू करने के बावजूद प्रतिस्पर्धा में एलआईसी उनसे मीलों आगे रही। यह कंपनी अपनी कमाई का 95 फीसदी हिस्सा बीमाधारकों में बांटती है और पांच फीसदी लाभांश के तौर पर केंद्र सरकार को देती है। जब यह व्यवस्था बिल्कुल परफेक्शन के साथ काम कर रही है फिर क्यों इस कंपनी को बेचना है?


चाहे एलआईसी हो या भारत पेट्रोलियम निगम लिमिटेड हो या शिपिंग कॉरपोरेशन हो या कंटेनर कॉरपोरेशन हो ये सब सोने का अंडा देने वाली मुर्गियां हैं। पर भारत की शेखचिल्ली सरकार इनका पेट फाड़ कर एक बार में ही सारे अंडे निकाल लेने की सोच में काम कर रही है। उसे इस बात से मतलब नहीं है कि इन कंपनियों के सरकारी हाथ में बने रहने से देश के 138 करोड़ लोगों को कितना फायदा होगा। इन्हें बेच कर सरकार को जो पैसे मिलेंगे उससे थोड़े समय के लिए तो खजाना भरा दिखाई देगा पर उसके बाद क्या? वह खजाना खाली होने में कितना समय लगेगा? उसके बाद क्या होगा? उसके बाद सरकार क्या बेचेगी? इस सरकार ने तो कुछ ऐसा बनाया भी नहीं, जिसे आगे जरूरत पड़ने पर कोई बेच सके!  पहले से बनी बनाई देश की संपत्ति को बेच डालना कौन सी समझदारी का काम है?


हैरानी की बात है यह काम आम लोगों की सहमति से किया जा रहा है। भक्ति में डूबे करोडों लोग इसका समर्थन कर रहे हैं। वे इस बात से सहमत हैं कि सरकार का काम बिजनेस चलाना नहीं होता है। उनके दिमाग में यह बात बैठा दी गई है कि निजीकरण बहुत अच्छा है। सवाल है कि जब निजीकरण अच्छा है तो सबको सरकारी नौकरी क्यों चाहिए? सरकारी अस्पतालों के सामने फिर इतनी भीड़ क्यों है? केंद्रीय और नवोदय विद्यालयों में दाखिले के लिए इतनी मारामारी क्यों मची है? क्यों देश भर के छात्रों को दिल्ली यूनिवर्सिटी, जेएनयू या बीएचयू में दाखिला चाहिए? क्यों नहीं वे अशोका, जिंदल या जियो यूनिवर्सिटी के सामने लाइन लगा कर खड़े हैं? क्यों लाखों छात्र जी-जान से मेहनत करके आईआईटी, एनआईटी में दाखिले के लिए जेईई मेन्स और एडवांस की परीक्षाओं में शामिल होते हैं? वे सीधे किसी निजी इंजीनियरिंग कॉलेज में जाकर दाखिला क्यों नहीं लेते हैं? क्यों नीट की परीक्षा के जरिए सरकारी मेडिकल कॉलेजों में दाखिले के लिए अच्छा रैंक लाने की होड़ मची है? दर्जनों निजी बैंक खुल गए हैं फिर क्यों भीड़ सरकारी बैंकों में है? क्योंकि इन सारी सरकारी संस्थाओं की गुणवत्ता, सेवा निजी संस्थानों से बेहतर है और फीस बहुत मामूली है। कह सकते हैं कि देश में गरीब, निम्न मध्य वर्ग और मध्य वर्ग की आबादी बड़ी है इसलिए सरकारी संस्थाओं के सामने भीड़ है। फिर तो इसी लॉजिक से इन संस्थाओं का बने रहना करोड़ों लोगों के हित में है। अगर ये संस्थाएं बंद हुईं तो ये करोड़ों लोग कहां जाएंगे?


चाहे सरकारी अस्पताल हों, सरकारी कॉलेज, इंस्टीच्यूट हों, सरकारी कंपनियां हों, सब बरसों, दशकों की मेहनत से बनी हैं। लाखों लोगों ने इन्हें अपने खून-पसीने से सींचा-संवारा है। इन्हें बेच कर बदले में जो हासिल होगा वह इनकी सेवाओं के मुकाबले कुछ नहीं है। इनकी सेवाएं ज्यादा मूल्यवान हैं और देश के करोड़ों लोगों के ज्यादा कम आने वाली हैं। इन्हें बेचने की बजाय बचाने की कोशिश होनी चाहिए। आंख मूंद कर सरकार के हर कदम का समर्थन करने वालों को आंखें खोलनी चाहिए। यह हिंदू-मुस्लिम का मामला नहीं है। यह हर भारतीय के जीवन से जुड़ा मुद्दा है। हिंदू-मुस्लिम के झगड़े तो कभी भी सुलझा लिए जाएंगे पर अगर सरकार ने सब कुछ बेच दिया तो आप हिंदू हों या मुसलमान, पूंजीपतियों के लिए भेड़-बकरी ही होंगे। आप जिनकी भक्ति में डूबे हैं वे तो झोला उठा कर चल देंगे, फिर आपका क्या होगा! इसी हालात के लिए दुष्यंत कुमार ने लिखा था- रहनुमाओं की अदाओं पे फिदा है दुनिया, इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारों!

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें