कोविड-19 की महामारी से भारतीय न्याय व्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है। देश के ज्यादातर हिस्सों में अभी भी कोर्ट परिसर अपेक्षाकृत सूने नजर आते हैं। जहां लॉक़डाउन है, वहां स्थिति ज्यादा खराब है। वहां तो लगभग सन्नाटा ही छाया हुआ है। अधिकतर जगहों पर वर्चुअल कोर्ट के जरिए दलीलें सुनी गईं और फैसले किए गए हैं। लेकिन इससे अधिवक्ताओं और उनसे जुड़े अन्य पेशेवर लोगों को कोई खास लाभ नहीं हुआ है। नतीजतन इनके समक्ष रोजी-रोटी का संकट आ खड़ा हुआ है। उनका आर्थिक संकट गहराता जा रहा है। संभवतः इसीलिए ज्यादातर अधिवक्ताओं ने वर्चुअल कोर्ट का विरोध करना शुरू कर दिया है। बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) ने भी सुप्रीम कोर्ट तथा उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश से कोरोना प्रोटोकॉल का अनुपालन सुनिश्चित करते हुए कोर्ट में सुनवाई शुरू करने की अपील की है। वकीलों की बड़ी तादाद निचली अदालतों में है। ये अदालतें देश भर में फैले जिलों और तहसीलों में हैं।
ज्यादातर शहरों के बाजार ऐसे नहीं हैं, जहां कंप्यूटर और डिजिटल तकनीक से जुड़े दूसरे उपकरण आसानी से मिलें। इसलिए इन अदालतों में मुकदमों की पैरवी करने वाले वकीलों के लिए वर्चुअल व्यवस्था में ढलना टेढ़ी खीर साबित हो रही है। एक तो वे डिजिटल दुनिया से बहुत परिचित नहीं हैं और दूसरे संसाधनों का भी अभाव है। बहुसंख्यक वकीलों की आर्थिक स्थिति रोज के मुकदमों की सुनवाई पर निर्भर करती है। गौरतलब है कि मुकदमों की पैरवी से मिलने वाली फीस ही अधिकतर वकीलों के जीविकोपार्जन का साधन होता है। लॉकडाउन के कारण फिजिकल फाइलिंग और हियरिंग नहीं होने से केस डिस्पोजल रेट काफी कम हो गया है। पहले ही मुकदमों का अंबार था। अब स्वाभाविक है, लंबित मुकदमों की संख्या काफी बढ़ जाएगी। इससे अगले कई साल तक अदालतों की कार्यवाही प्रभावित होगी। आर्थिक संकट का सामना तो वकीलों को करना ही पड़ेगा। जहां तक अदालतों में वर्चुअल सिस्टम के तहत मामलों की सुनवाई का सवाल है, तो हाई कोर्टों में जहां रोजाना चार-पांच सौ मामलों की सुनवाई होती थी, उसकी जगह वहां बमुश्किल अभी करीब सौ-सवा सौ मामलों की सुनवाई हो पाती है। इस वजह से एक तरफ जहां लंबित मुकदमों की संख्या बढ़ती जा रही है वहीं दूसरी तरफ हम वकीलों की आमदनी भी प्रभावित हो रही है। यही वजह है कि आम वकीलों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है।

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