रविवार, 27 सितंबर 2020

संसदीय उपायों की अनदेखी ठीक नहीं

 


संसद का मॉनसून सत्र कई मामलों में अनोखा रहा। इसमें कई चीजें पहली बार हुईं और कई चीजें ऐसी हुईं, जिनके बारे में कहा जा सकता है कि कई बरसों से इनकी तैयारी हो रही थी। पिछले कुछ बरसों से जिस तरह से संसदीय परंपराओं और संसदीय उपायों की अनदेखी की जा रही थी, उसका चरम रूप संसद के मॉनसून सत्र में दिखा। ऐसा कोरोना वायरस की महामारी के नाम पर हुआ लेकिन यह कहने में हिचक नहीं है कि अगर कोरोना की महामारी नहीं होती तब भी देर-सबेर यह स्थिति आने ही वाली थी। कानून बनाने और सरकार के कामकाज की समीक्षा करने वाले तौर-तरीकों और संसदीय उपायों को एक एक करके कमजोर किया जा रहा है। इसका नतीजा यह होगा कि विधायिका का महत्व पूरी तरह से खत्म हो जाएगा और कार्यपालिका की तानाशाही बहाल हो जाएगी। कार्यपालिका के कामकाज की समीक्षा और उस पर चेक एंड बैलेंस करने का विधायिका का काम खत्म हो जाएगा।


इसकी शुरुआत कई साल पहले हो गई थी, जब संसद की लगभग सभी समितियों में भाजपा ने अपने और सहयोगी पार्टियों के सांसदों के दम पर समिति के फैसलों को प्रभावित करना शुरू किया। भाजपा ने यह काम लोकसभा में मिले प्रचंड बहुमत के दम पर किया। तीन सौ सांसदों वाली पार्टी होने की वजह से हर संसदीय समिति में भाजपा के सबसे ज्यादा सदस्य होते हैं। इसके बाद उसके सहयोगी सांसद होते हैं। मुख्य विपक्ष के तौर पर कांग्रेस के बहुत कमजोर होने से हर समिति में विपक्षी सांसद अल्पमत में होते हैं। तभी जिन समितियों में कांग्रेस या दूसरी विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष होते हैं वह समिति भी सरकार को जिम्मेदार ठहराने वाला कोई प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर पाती है।


लोक लेखा समिति से लेकर किसी भी अन्य समिति में जब भी सरकार को जिम्मेदार ठहराने वाला कोई प्रस्ताव आता है तो सत्तापक्ष के सांसद वोटिंग की मांग कर देते हैं और बहुमत के दम पर समिति के अध्य़क्ष के फैसले को भी पलट देते हैं। पिछली लोकसभा में जब कांग्रेस के मल्लिकार्जुन खड़गे लोक लेखा समिति के अध्यक्ष थे तब भी राफेल के मामले में ऐसा किया गया था और अब जबकि अधीर रंजन चौधरी इस समिति के अध्यक्ष हैं तो पीएम केयर्स फंड के मामले में ऐसा किया गया है।


इसी तरह विधेयकों को संसदीय समितियों में भेजने की परंपरा लगभग खत्म कर दी गई है। पहले सरकार कोई भी विधेयक लाती थी तो उसे उस विषय की संसदीय समिति में भेजा जाता था। अगर कोई बड़ा और लोक महत्व का मुद्दा होता था या किसी विवादित मसले पर बिल लाया गया होता तो उसे प्रवर समिति को भेजा जाता था और कई बार दोनों सदनों की साझा प्रवर समिति भी बनती थी। बड़े और विवादित मुद्दों की जांच के लिए साझा संसदीय समिति भी बनती रही थी। पर भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार आने के बाद धीरे धीरे इन समितियों का महत्व खत्म कर दिया गया है। अब विधेयकों को समितियों में भेजने की जरूरत नहीं समझी जाती है। सबको पता है कि कोई भी विधेयक जब विचार के लिए उस विषय की संसदीय समिति में जाती है तो विधेयक के हर पहलू पर विस्तार से चर्चा होती है। उसके फायदे और नुकसान का आकलन किया जाता है। विपक्षी सांसदों को भी अपनी बात रखने का मौका मिलता है। पर विचार-विमर्श की यह प्रक्रिया अब काफी कम हो गई है।


ऐसा नहीं है कि संसदीय समिति में विचार-विमर्श नहीं हुआ तो विधेयक पर संसद के भीतर विस्तार से चर्चा होती है। संसद के भीतर भी चर्चा की सिर्फ खानापूर्ति होती है या सिर्फ सत्तापक्ष के लोगों की बात रखी जाती है। लोकसभा में भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों के पास दो-तिहाई बहुमत है। सो, किसी भी चर्चा में दो-तिहाई समय तो सत्तापक्ष के सांसदों को ही मिलता है। ऊपर से सरकार के संसदीय प्रबंधकों ने ऐन-केन प्रकारेण विपक्ष की कई पार्टियों को तटस्थ बनाया हुआ हो। सो, लोकसभा में असली विपक्ष बहुत कम रह गया है। दो-तीन पार्टियां हैं, जो वास्तविक विपक्ष का आचरण करती हैं तो उनकी बात नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह जाती है।


राज्यसभा में जरूर अभी तक विपक्ष का दमखम बचा हुआ है तो वहां भी उनकी बात नहीं सुनने का नया तरीका इस म़ॉनसून सत्र में निकाल लिया गया। विपक्ष की मांग थी कृषि विधेयकों को प्रवर समिति में भेजने की। पर सरकार ने और आसन ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया। दो विधेयकों पर एक साथ दो-तीन घंटे की चर्चा के बाद इसे पास करने के लिए पेश कर दिया गया। तब विपक्ष ने वोटिंग की मांग की लेकिन उसे ठुकरा कर ध्वनि मत से दो विधेयक पास कर दिए गए। अगले दिन हंगामा करने के नाम पर आठ विधेयकों को निलंबित कर दिया गया और समूचे विपक्ष की गैरहाजिरी में कृषि से जुड़ा तीसरा विधेयक पास कर दिया गया। विपक्ष को चुप करा कर कम मत के बावजूद ध्वनि के दम पर बिल पास कराने का नया तरीका निकाला गया है। सबको पता है कि सरकार के पास बहुमत है या वह बहुमत बनाने में सक्षम है। फिर भी विधेयकों को समितियों में भेज कर उस पर राय-विचार कराने का रास्ता नहीं चुना जाता है।


सरकार ने संसद से बाहर होने वाली लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को भी काफी कम कर दिया है। पहले विधेयक का मसौदा सार्वजनिक किया जाता था और लोगों की राय मांगी जाती थी। इसके लिए एक-एक महीने का समय दिया जाता था। पर अब सरकार जरूरी विधेयकों का मसौदा भी सार्वजनिक करके एक हफ्ते में लोगों की राय मांगती है और उसमें से भी किसी राय को शामिल करना जरूरी नहीं समझती है। विधेयक जिन लोगों के हितों को पूरा करने के नाम पर लाया जाता है उनसे भी बात करना या उनकी राय लेना जरूरी नहीं समझा जाता है। अध्यादेश के जरिए कानून बनाने का रास्ता अख्तियार किया जाता है, जिस पर संसद की मंजूरी महज औपचारिकता होती है। ध्यान रहे राष्ट्रमंडल देशों में अब सिर्फ तीन देश- भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश ही हैं, जहां अध्यादेश चलता है। लोकतंत्र की मजबूती के लिए इसे खत्म करना जरूरी है। 

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