बुधवार, 30 सितंबर 2020

राज्यपाल से न्याय मांगने का चलन

 


देश की राजनीति में कई चीजें अनहोनी हो रही हैं। संसद के हाल में शुरू और खत्म हुए मॉनसून सत्र में कितनी अनहोनी हुई यह पूरे देश ने देखा। इस तरह की कई अनहोनी घटनाएं देश भर में हो रही हैं। जैसे इन दिनों राज्यपालों से न्याय मांगने का चलन शुरू हुआ है। लोग सरकार से न्याय मांगने की बजाय राज्यपाल से न्याय मांग रहे हैं। पहले भी राष्ट्रपति और राज्यपालों से न्याय मांगा जाता था पर वह न्याय राजनीतिक पार्टियां, विपक्षी दल के नेता मांगते थे। वे सरकार के खिलाफ कोई बात कहनी होती तो राज्यपाल के पास जाते थे। जब संसदीय या वैधानिक नियमों व परंपराओं का उल्लंघन होता था तो उसके विरोध में विपक्षी पार्टियां राज्यपाल को ज्ञापन देती थीं।


लेकिन अब राजभवन आम लोगों के लिए खुल गए हैं। लोग छोटे-बड़े किसी भी अपराध की शिकायत लेकर पुलिस और अदालत में जाने की बजाय राजभवन जा सकते हैं। लेकिन यह सुविधा उन्हीं राज्यों में है, जहां राज्यपाल केंद्र की भाजपा सरकार द्वारा नियुक्ति किया हुआ हो और राज्य में भाजपा विरोधी किसी पार्टी की सरकार हो। जैसे महाराष्ट्र में पिछले एक महीने से चल रहा है। राज्य सरकार और मुख्यमंत्री के खिलाफ अनाप-शनाप बोलने वाली एक अभिनेत्री के खिलाफ बीएमसी ने कार्रवाई की तो फौरन वह अभिनेत्री राज्यपाल से मिलने पहुंच गई और न्याय की गुहार लगाई।


इसी तरह एक अभिनेत्री ने एक जाने-माने निर्माता-निर्देशक पर आरोप लगाया कि उसने पांच साल पहले उसके साथ यौन दुर्व्यवहार किया था तो उसे भी तत्काल राज्यपाल से मिलने का समय मिल गया। उसने भी राज्यपाल से मिल कर निर्देशक की शिकायत की और न्याय की गुहार लगाई। सोचें, एक निजी आदमी के खिलाफ दूसरे निजी आदमी की शिकायतें अब राजभवन में सुनी जा रही है और वहीं से न्याय की उम्मीद की जा रही है। हालांकि इस सुविधा में भी एक शर्त है। शर्त यह है कि जिसके खिलाफ शिकायत है वह भाजपा का विरोधी होना चाहिए। बहरहाल, देखना दिलचस्प होगा कि यह प्रक्रिया कहां जाकर रूकती है।


मानवाधिकारों की चिंता कौन करेगा?

 


तो आखिरकार एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने भारत में अपना कार्यालय बंद कर दिया। ऐसा लग रहा है कि इसे बंद कराने के चार साल से चल रहे प्रयास सफल हो गए हैं। मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले इस अंतरराष्ट्रीय संगठन ने अपने बयान में कहा है कि यह अनायास नहीं हुआ है। उसने कहा है कि सरकार विच-हंट कर रही थी यानी हाथ धोकर पीछे पड़ी थी कि कैसे इस संगठन की गतिविधियां बंद हों और इसके कार्यालय पर ताला लगे। एमनेस्टी इंटनरेशनल इंडिया के साथ जुड़े रहे आकार पटेल ने पिछले चार साल की जो क्रोनोलॉजी बताई है उसे देखें तो यह बात आसानी से समझ में आती है।


सबसे पहले 2016 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की ओर से इसके खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज कराया गया था। पुलिस ने इसकी जांच की और कहा कि कोई सबूत नहीं है। अदालत ने मामले को खारिज कर दिया। इसके बाद 2018 में प्रवर्तन निदेशालय ने छापा मारा और संगठन के सारे खाते सील कर दिए। बाद में हाई कोर्ट ने खातों पर से रोक हटाई। उसी साल गृह मंत्रालय ने भी छानबीन की और कंपनी मामलों के मंत्रालय ने भी जांच की। इसके अगले साल 2019 में सीबीआई ने छापा मारा। लगातार हो रही कार्रवाई और खाते सील होने की वजह से इस संगठन के सामने अपना कामकाज बंद करने के सिवा और कोई रास्ता नहीं बचा।


सवाल है कि क्या यह सिर्फ एक संस्था के खिलाफ चार साल तक चले अभियान और अंततः उसके बंद होने का मामला है? नहीं! यह एक उदार और लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत के लगातार कमजोर होते जाने का संकेत है। यह लोकतंत्र के सभी स्तभों को क्रमशः कमजोर करने के निरंतर हो रहे प्रयासों की सफलता का संकेत है। एक उदार लोकतांत्रिक देश के नाते दुनिया में भारत का सम्मान इसलिए है क्योंकि यहां लोकतंत्र की संस्थाएं खास कर मीडिया और गैर सरकारी संगठन स्वतंत्र रूप से काम करते रहे हैं। संविधान के किसी प्रावधान के तहत मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ नहीं बनाया गया है, अपनी ऐतिहासिक भूमिका के कारण मीडिया को यह जगह मिली है। उसी तरह से अपने कामकाज की वजह से गैर सरकारी संगठनों ने लोकतंत्र के पांचवें स्तंभ के तौर पर अपनी जगह बनाई है।


मीडिया और गैर सरकारी संगठनों ने उदार लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत की छवि मजबूत की और इसकी विशाल आबादी को शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर उनके अधिकारों के प्रति जागरूक बनाने की जिम्मेदारी निभाई है। जहां सरकार नहीं पहुंच सकी वहां भी मीडिया और गैर सरकारी संगठन पहुंचे। यह सही है कि मानवाधिकार की अवधारणा भारत और लगभग समूचे एशिया के लिए नई चीज है। ज्यादातर एशियाई देश इसे पश्चिमी अवधारणा मानते हैं। इसके बावजूद मीडिया और गैर सरकारी संगठनों ने खास कर मानवाधिकार के लिए काम करने वाले संगठनों ने हाशिए पर के करोड़ों लोगों को अपने अधिकारों के लिए जागरूक किया और यह कहने में हिचक नहीं है कि उनके लिए न्यूनतम मानवीय जीवन स्तर सुनिश्चित कराने में बड़ी भूमिका निभाई।


अफसोस की बात है कि पिछले कुछ समय से मीडिया और गैर-सरकारी संगठन दोनों निशाने पर हैं। देश के कुछ बेहतरीन सामाजिक कार्यकर्ता अपनी प्रतिबद्धताओं की वजह से जेल में बंद हैं और एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्था को मजबूरी में अपना कामकाज बंद करना पड़ रहा है। यह तथ्य है कि भारत सरकार ने पिछले तीन साल में 66 सौ गैर सरकारी संस्थाओं को विदेशी चंदा लेने के लिए मिला लाइसेंस रद्द किया है। सरकार ने इस साल बजट सत्र के दौरान संसद में बताया कि चार हजार से ज्यादा शैक्षिक संस्थाओं, ढाई हजार से ज्यादा सांस्कृतिक और नौ सौ धार्मिक संस्थाओं का एफसीआरए निरस्त किया गया है। हो सकता है कि इनमें से कुछ संस्थाओं के कामकाज संदिग्ध हों, कुछ संस्थाओं में वित्तीय हेराफेरी भी होती हो परंतु इतने बड़े पैमाने पर संस्थाओं के खिलाफ कार्रवाई को सामान्य नहीं माना जा सकता है।


यह हकीकत है कि पिछले कुछ समय से सरकार का विरोध करने वाले, सरकार के कामकाज पर सवाल उठाने वाले, उसे कठघरे में खड़ा करने वाले या हाशिए पर के समूहों के अधिकारों की आवाज उठाने वाले लोग व संस्थाएं निशाने पर हैं। योजनाबद्ध तरीके से असहमति को प्रकट होने से रोकने की कोशिश हो रही है और प्रतिरोध के हर तरीके को अपराध बनाने का प्रयास किया जा रहा है। यह इसी योजना का हिस्सा है, जो संशोधित नागरिकता कानून के खिलाफ आंदोलन के दौरान प्रदर्शनों में शामिल रहे प्रबुद्ध नागरिकों और सार्वजनिक बुद्धिजीवियों को दिल्ली दंगे में घसीटने का प्रयास हुआ। सीताराम येचुरी से लेकर योगेंद्र यादव, प्रोफेसर जयति घोष, प्रोफेसर अपूर्वानंद आदि को एक आरोपी के कथित बयान के आधार पर दंगों का आरोपी बनाने का प्रयास हुआ। यह अभिव्यक्ति की आजादी को दबाने की कोशिशों का एक नमूना है।


ऐसे ही उपायों के जरिए देश के कुछ बेहतरीन सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में बंद करके रखा गया है। मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले पीयूसीएल से जुड़े रहे गौतम नवलखा और छत्तीसगढ़ से लेकर फरीदाबाद तक मजदूरों के हितों की लड़ाई लड़ने वाली सुधा भारद्वाज जेल में हैं। वर्नेन गोंसाल्वेज, वरवर राव, आनंद तेलतुम्बडे जैसे सामाजिक कार्यकर्ता लंबे समय से जेल में बंद हैं। उम्रदराज और बीमार होने के बावजूद उन्हें जमानत नहीं मिल रही है। उन्हें भीमा कोरेगांव की हिंसा के मामले में गिरफ्तार करके जेल में रखा गया है। नागरिकता कानून का विरोध करने वाले सार्वजनिक बुद्धिजीवियों पर दंगे भड़काने के आरोप लगाने का मकसद भी यहीं है कि उन्हें चुप कराया जा सके। उनकी आवाज खामोश की जा सके।


यह एक सोची समझी योजना का हिस्सा है। इसी योजना की ही एक कड़ी एमनेस्टी इंटरनेशनल का बंद होना है। सत्ता में बैठे लोगों को लग रहा है कि आखिर इस संस्था ने कैसे दिल्ली दंगों को लेकर सरकार और पुलिस की मंशा पर सवाल उठाने की हिम्मत की! कैसे इसने जम्मू कश्मीर में मानवाधिकार के हनन का मुद्दा उठाया! कैसे नागरिकता कानून में संशोधन का विरोध किया! सरकार को लगता है कि अगर ऐसे विरोध और ऐसी आवाजों को गूंजते रहने की इजाजत दी गई तो संविधान और लोकतंत्र भले मजबूत हों पर सरकार की नींव हिलेगी। असल में स्वतंत्र और प्रतिबद्ध संस्थाएं जहां भी हैं वहां की सरकारों को इस तरह के डर सताते रहते हैं, भारत सरकार अपवाद नहीं है।


एमनेस्टी ने जब श्रीलंका में तमिलों के नरसंहार का मुद्दा उठाया और सरकार को कठघरे में खड़ा किया तो वहां की सरकार ने भी इसके खिलाफ कार्रवाई की चेतावनी दी थी। नेपाल से लेकर ईरान, चीन, वियतनाम, रूस जैसे अनेक देशों में इसे बड़ा विरोध झेलना पड़ा है। इसे पश्चिमी देशों के लिए काम करने वाला संगठन बताया जाता है पर इसी ने ग्वानटानामो बे में संदिग्ध आतंकवादियों को रखने और उन्हें यंत्रणा दिए जाने का खुलासा किया और कहा कि यह कम्युनिस्ट शासकों के ‘गुलग’ की तरह है तो अमेरिका में भी इसे विरोध झेलना पड़ा था। जब इसने गर्भपात के अधिकार का मुद्दा उठाया तो दुनिया में सबसे मजबूत मानी जाने वाली संस्था कैथोलिक चर्च ने भी इसका जबरदस्त विरोध किया, खास कर कैथोलिक ईसाई बहुल देशों में। दुनिया के अनेक देश इस पर एकतरफा रिपोर्टिंग करने या राजनीतिक रूप से खास रूझान रखने के आरोप लगाते रहे हैं, इसके बावजूद इसका कामकाज चलता रहा है। भारत से पहले रूस एकमात्र देश है, जहां एमनेस्टी इंटरनेशनल को अपना कार्यालय बंद करना पड़ा था। रूस के चार साल बाद भारत में इसका कार्यालय बंद हुआ है। क्या इससे आगे का कुछ संकेत मिलता है?


अमीर करें, गरीब भरें!


हाल में आई अंतरराष्ट्रीय संस्था ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट से सामने आया कि दुनिया के सबसे अमीर एक फीसदी लोग जितना कार्बन उत्सर्जन करते हैं, वह दुनिया की आधी गरीब आबादी के उत्सर्जन से दोगुना है। इन नतीजों के आधार पर इस अंतरराष्ट्रीय गैर सरकारी संस्था ने अमीरों पर कार्बन उत्सर्जन से संबंधित पाबंदियां लगाने की मांग की है। उसका सुझाव है कि विश्व में जलवायु परिवर्तन के मामले में सबकी भागीदारी तय की जाए। इसकी न्यायोचित व्यवस्था स्थापित करने के लिए सार्वजनिक ढांचों में निवेश बढ़ाने और अर्थव्यवस्था में सुधार किया जाए। ऑक्सफैम ने 1990 से लेकर 2015 के बीच 25 सालों के आंकड़ों का अध्ययन किया। यह वही अवधि है जिसमें विश्व का कार्बन उत्सर्जन दोगुना हो गया। रिपोर्ट में बताया गया कि इस दौरान विश्व के 10 फीसदी सबसे अमीर लोग ही कुल वैश्विक उत्सर्जन के आधे से भी अधिक (करीब 52 फीसदी) के लिए जिम्मेदार हैं। यहां तक कि विश्व के 15 फीसदी उत्सर्जन को रिसर्चरों ने केवल टॉप एक फीसदी अमीरों की गतिविधियों से जुड़ा पाया। वहीं दुनिया की आधी गरीब आबादी ने इसी अवधि में केवल 7 फीसदी उत्सर्जन किया, जबकि जलवायु परिवर्तन का सबसे बुरा असर दुनिया के गरीबों को ही झेलना पड़ा रहा है।


अमीरों और गरीबों के कार्बन उत्सर्जन में इतना बड़ा अंतर नजर आने का सबसे बड़ा कारण ट्रैफिक है। खासकर हवाई यात्रा से जुड़ी व्यवस्था में बदलाव लाकर बहुत कुछ बदला जा सकता है। ऑक्सफैम ने स्टडी में पाया कि 2010 से 2018 के बीच एसयूवी गाड़ियां कार्बन उत्सर्जन का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत रहीं। ऑक्सफैम का अनुमान है कि धरती के तापमान में बढ़ोत्तरी को 1.5 डिग्री तक सीमित रखने के वैश्विक लक्ष्य को पूरा करने के लिए सबसे अमीर 10 फीसदी आबादी को अपने उत्सर्जन को वर्तमान स्तर से 10 गुना नीचे लाना होगा। संस्था ने उचित ही कहा है कि अमीरों से अपनी इच्छा से व्यक्तिगत स्तर पर बदलाव लाने की उम्मीद करना काफी नहीं होगा। इसकी कमान सरकारों को अपने हाथ में लेनी ही होगी। जलवायु से जुड़े मुद्दों पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं का मानना है कि नए और ऊंचे टैक्स लागू करने के लिए यह सबसे सही मौका है। विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह के अतिरिक्त टैक्सों से होने वाली कमाई को दुनिया के सबसे गरीब लोगों की मदद में लगाया जा सकता है। यह न्याय की दिशा में कदम होगा। 

बाबरी विध्वंस मामले में आरोपियों में शामिल भाजपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं को सभी बरी, भाजपा ऐसे उठाएगी फैसले का फायदा


 बाबरी मस्जिद विध्वंस  मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) की विशेष अदालत द्वारा सभी 32 आरोपियों में शामिल भाजपा के नेताओं और हिन्दूत्ववादी कार्यकर्ताओं को बरी किए जाने का फैसला भगवा दल को प्रोत्साहित करने वाला है। पार्टी के नेताओं का हमेशा इसी बात पर जोर रहा है कि अयोध्या में विवादित ढांचा गिराया जाना अकस्मात घटना थी और उसके पीछे कोई षड्यंत्र नहीं था।


जल्द होने वाले हैं चुनाव


अदालत की ओर से भाजपा के लिए इस भावनात्मक मुद्दे पर फैसला ऐसे समय में आया है जब वह बिहार विधानसभा चुनाव के साथ एक लोकसभा और देश भर की 56 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव को लेकर वह अपने अभियान की धार को तेज करने में जुटी है। अयोध्या, बाबरी मस्जिद और राम मंदिर निर्माण का मुद्दा हमेशा से देश की राजनीति के चर्चा के केंद्र में रहा है और भाजपा को इसका लाभ भी मिला है।


विवादास्पद पहलू से बीजेपी को अलग करता है फैसला


सीबीआई की विशेष अदालत का यह फैसला भाजपा को रामजन्मभूमि आंदोलन के सबसे विवादास्पद पहलू से संबंधित किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी से मुक्त करता है। सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले साल अयोध्या में विवादित भूमि को मंदिर निर्माण की पक्षधर पार्टियों के हवाले करने का फैसला सुनाते हुए इस घटना को लेकर कड़ी टिप्पणी की थी।


'आरोपियों के खिलाफ कोई पुख्ता सबूत नहीं मिले'


छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिराए जाने के मामले में 28 साल बाद बुधवार को भाजपा के वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, उमा भारती और विनय कटियार सहित सभी 32 आरोपियों को बरी कर दिया। अदालत ने कहा कि आरोपियों के खिलाफ कोई पुख्ता सबूत नहीं मिले। आरोपियों में साध्वी ऋतम्भरा,चंपत राय और महंत नृत्य गोपाल दास भी थे। ये सभी आंदोलन का हिस्सा थे।


गौरतलब है कि सीबीआई की विशेष अदालत ने छह दिसम्बर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के मामले में बुधवार को बहुप्रतीक्षित फैसला सुनाते हुए सभी आरोपियों को बरी कर दिया।


'आरोपियों ने उन्मादी भीड़ को रोकने की कोशिश की थी'


विशेष अदालत के न्यायाधीश एस के यादव ने फैसला सुनाते हुए कहा कि बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना पूर्व नियोजित नहीं थी, यह एक आकस्मिक घटना थी। उन्होंने कहा कि आरोपियों के खिलाफ कोई पुख्ता सुबूत नहीं मिले, बल्कि आरोपियों ने उन्मादी भीड़ को रोकने की कोशिश की थी। यह फैसला सुनिश्चित करेगा कि भाजपा जहां अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की सफलता को अपनाएगी वहीं वह मस्जिद ध्वस्त करने के मामले में खुद को कानूनी रूप से अलग कर सकेगी।


आडवाणी की 1990 की रथ यात्रा


इसके साथ ही अब विपक्षी दलों के हाथों से वह हथियार भी छिन गया है जिसमें वह मस्जिद ढहाए जाने को लेकर भाजपा को जिम्मेवार ठहराती रही है। यह रामजन्मभूमि आंदोलन और आडवाणी की 1990 की रथ यात्रा ही थी जिसने विवादित स्थल पर राम मंदिर बनाने के लिए जनता को एकजुट करने का काम किया। इसी सब से यह मामला राजनीति के केंद्र में आया और फिर इसने भाजपा को केंद्र की राजनीति में कांग्रेस के विकल्प के तौर पर स्थापित करने में मदद की। आंदोलन के हिस्से के रूप में बड़ी संख्या में कार सेवकों को विवादित स्थल पर बुलाया गया था, जिसके बाद यह ढांचा गिराया गया था।


‘जय श्री राम’ का नारा लगाया 


आडवाणी ने ‘जय श्री राम’ का नारा लगाया और अदालत के फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि यह ‘रामजन्मभूमि आंदोलन’ को लेकर उनकी निजी और भाजपा की प्रतिबद्धता को साबित करता है। आडवाणी इस मामले के 32 आरोपियों में एक और रामजन्मभूमि आंदोलन के अगुवा थे। राम मंदिर निर्माण के लिए उन्होंने सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा शुरू की थी।


आडवाणी ने एक वीडियो संदेश में कहा, ‘विशेष अदालत का आज का जो निर्णय हुआ है वह अत्यंत महत्वपूर्ण है और वह हम सबके लिए खुशी का प्रसंग है। जब हमने अदालत का निर्णय सुना तो हमने जय श्री राम का नारा लगाकर इसका स्वागत किया।’ बाद में एक बयान जारी कर उन्होंने कहा, ‘यह रामजन्मभूमि आंदोलन को लेकर उनकी निजी और भाजपा की प्रतिबद्धता को साबित करता है।’


उन्होंने कहा, ‘मैं धन्य महसूस करता हूं कि यह निर्णय उच्चतम न्यायालय के नवंबर 2019 के ऐतिहासिक फैसले के पदचिह्नों पर है जिसने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के मेरे सपने का मार्ग प्रशस्त किया, जिसका शिलान्यास पांच अगस्त 2020 को किया गया।’ भाजपा के एक नेता ने कहा कि आज के फैसले से यह साबित हो गया है कि रामजन्मभूमि आंदोलन अपने पीछे एक ऐसी गौरवपूर्ण विरासत छोड़ गया है, जिसमें उसे रक्षात्मक होने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। सीबीआई चाहे तो इस मामले में वह उच्च अदालत में अपील कर सकती है लेकिन इसकी संभावना कम ही दिख रही है। भाजपा नेताओं ने अदालत के फैसले को सत्य और न्याय की जीत बताते हुए स्वागत किया है।


मंगलवार, 29 सितंबर 2020

प्रदेशभर में बीजेपी 'किसान कल्याण ' जनजागरुकता अभियान चलाएगी


 जयपुर: केन्द्र की मोदी सरकार के कृषि कानूनों को लेकर प्रदेशभर में बीजेपी जनजागरुकता अभियान चलाएगी। बीजेपी के प्रदेश मुख्य प्रवक्ता और विधायक रामलाल शर्मा ने बताया कि बीजेपी प्रदेशभर में 30 सितंबर से 10 अक्टूबर अभियान चलायेगी, जिसमें कृषि कानूनों के बारे में किसानों को जागरुक करने को लेकर सोशल मीडिया, किसान कल्याण ग्राम चैपाल और करीब 30 लाख पत्रक बांटकर इन कानूनों से होने वाले फायदों की जानकारी किसानों के साथ-साथ आमजन को भी दी जाएगी।

रामलाल शर्मा ने बताया कि बुधवार सुबह 9 बजे बीजेपी प्रदेशाध्यक्ष डाॅ. सतीश पूनियां फेसबुक लाइव के माध्यम से किसान कल्याण सम्पर्क अभियान का आगाज़ करेंगे। इसके बाद एक अक्टूबर को सुबह 10 बजे केन्द्रीय मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत, अर्जुनराम मेघवाल, कैलाश चैधरी और प्रदेश पदाधिकारी फेसबुक लाइव के माध्यम से इन कानूनों के बारे में जानकारी देंगे। दो अक्टूबर को सांसद, पूर्व सांसद, मोर्चा अध्यक्ष और तीन अक्टूबर को विधायक, पूर्व विधायक, जिलाध्यक्ष, पूर्व जिलाध्यक्ष, जिला पदाधिकारी एवं उत्कृष्ट किसान फेसबुक लाइव के माध्यम से कानूनों से सम्बन्धित जानकारी देंगे।


प्रदेश उपाध्यक्ष माधोराम चैधरी ने कहा कि, भाजपा प्रदेशभर में 30 सितंबर से 8 अक्टूबर तक ‘‘किसान कल्याण ग्राम चौपाल’’ लगाकर किसानों को इन कानूनों की जानकारी देगी। कोविड गाइडलाइन के अनुसार सीमित संख्या में इन चैपालों में किसानों को बुलाया जाएगा। 9 और 10 अक्टूबर को जनप्रतिनिधि, पदाधिकारी और कार्यकर्ता घर-घर जाकर कानूनों से संबंधित पत्रक बांटेंगे। उन्होंने कहा कि, किसान कल्याण संपर्क अभियान के तहत प्रदेशभर में करीब 30 लाख पत्रक बांटे जायेंगे, प्रदेश के हर बूथ पर 50 से 100 घरों में पत्रक बांटने का काम किया जायेगा।

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत एवं प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद डोटासरा द्वारा कृषि कानूनों से सम्बन्धित राज्यपाल को दिये गये ज्ञापन को लेकर रामलाल शर्मा ने कहा कि ज्ञापन में किसानों से संबंधित आंकड़ों एवं तथ्यों में कई गलतियां हैं, जनहित के निर्णयों का विरोध करना ही कांग्रेस की फितरत हो गई है। ऐसे में भाजपा ने तय किया है कि कांग्रेस जो भ्रमजाल फैलाने एवं किसानों को गुमराह करने का जो षडयंत्र कर रही है, उसके खिलाफ पार्टी के कार्यकर्ता संपर्क करके किसान और आमजन को कानून से संबंधित खूबियां एवं वास्तविकता बताने का काम करेंगे। उन्होंने कहा कि, मोदी सरकार के कृषि कानूनों से किसान की आमदनी में बढ़ोतरी होगी और किसान खुशहाल एवं उन्नत होगा। साथ ही पूरी आजादी के साथ किसान स्वयं ही कीमत तय कर अपनी फसल को कहीं भी, कभी भी बेच सकेगा।

मजदूरों का कोई देश नहीं!

 


मजदूरों के शोषण की किसी खबर को पढ़ते वक्त अगर यह भुला दिया जाए कि वो खबर कहां की है, तो फिर उसे कहीं का भी समझा जा सकता है। कहने का मतलब यह कि मजदूर चाहे जहां भी हों, उनकी कहानी एक जैसी है। अभी हाल में मीडिया रिपोर्टों में श्रीलंका के चाय बगानों में काम करने वाले मजदूरों की दर्दनाक कहानी सामने आई। मगर ऐसी कहानियां अपने देश में भी कम नहीं हैं। वैसे भी वहां काम करने वाले ज्यादा मजदूर भारतीय तमिलों वंशज हैं। वो श्रीलंका के चाय बागानों में लंबे समय से काम कर रहे हैं। लेकिन आज भी वे श्रीलंकाई समाज में सबसे निचले पायदान पर खड़े हैं। ज्यादातर महिलाएं पीढ़ियों से चाय की पत्तियां तोड़ने का काम करती रही हैं। श्रीलंका के चाय उद्योग में पांच लाख महिलाएं काम करती हैं। इनमें ज्यादातर का संबंध उन भारतीय तमिल परिवारों से है, जिन्हें 1820 के दशक में काम करने के लिए भारत से ब्रिटिश सिलोन में लाया गया था। श्रीलंका में जब कॉफी की खेती नाकाम हो गई, तो अंग्रेजों ने चाय की खेती शुरू की। इस उद्योग को चलाने के लिए बागान मालिकों को बहुत से सारे लोगों की जरूरत थी। तब आज के तमिलनाडु से यहां लोगों को लाया गया।


हालांकि ब्रिटिश साम्राज्य में गुलामी प्रथा गैर-कानूनी थी, लेकिन उस वक्त इन कामगारों को कोई पैसा नहीं दिया जाता था और वे पूरी तरह बागान मालिकों के रहमो करम पर थे। जब ये लोग यहां आए, तो कर्ज में दबे हुए थे, क्योंकि यहां आने की यात्रा का खर्च उन्हें खुद उठाना पड़ा था। 1922 में जाकर नियमों को बदला गया। उसके बावजूद कामगार बेहद दयनीय परिस्थितियों में रहे। उनकी बस्तियों में कोई साफ सफाई नहीं थी, पीने का साफ पानी भी नहीं था और ना ही चिकित्सा सुविधा या बच्चों के लिए स्कूल थे। बहुत मुश्किल हालात में उन्होंने काम किया। जब 1948 में श्रीलंका आजाद हुआ तो चाय कामगारों को कानूनी तौर पर अस्थायी आप्रवासी का दर्जा दिया गया। लेकिन नागरिकता नहीं दी गई। 1980 के दशक में श्रीलंका में 200 साल से ज्यादा रहने के बाद भारतीय तमिलों के वंशजों को नागरिकता का अधिकार दिया गया। लेकिन अब भी वे श्रीलंका में सबसे पिछड़े और गरीब तबकों में गिने जाते हैं। इसलिए कि उन्हें कम मेहताने पर कड़ी मेहनत करनी पड़ती है।


जयपुर, कोटा और जोधपुर नगर निगमों के चुनाव 31 अक्टूबर तक कराने के निर्देश


जयपुर: राजस्थान के जयपुर, जोधपुर और कोटा के नव सृजित 6 नगर निगमों के चुनाव 31 अक्टूबर तक होंगे। राजस्थान हाइकोर्ट  ने चुनाव कराने की समय सीमा बढ़ाने से इनकार करते हुए इस संबंध में अशोक गहलोत  सरकार की ओर से पेश प्रार्थना पत्र को खारिज कर दिया है।


मुख्य न्यायाधीश इंद्रजीत महान्ति और न्यायाधीश प्रकाश गुप्ता की खंडपीठ ने यह आदेश दिया है। अदालत ने कहा कि जब कोरोना  काल में बिहार में विधानसभा चुनाव और प्रदेश में पंचायत चुनाव  कराए जा रहे हैं तो 6 नगर निगमों के चुनाव कराने में क्या समस्या हो सकती है।


दरअसल, राज्य सरकार की ओर से प्रार्थना पत्र दायर कर कहा गया की प्रदेश में कोरोना संक्रमण के चलते फिलहाल चुनाव करना संभव नहीं है। हाईकोर्ट ने गत 18 मार्च को आदेश जारी कर इन छह नगर निगमों के चुनाव 17 अप्रैल से आगामी छह सप्ताह के लिए स्थगित कर दिए थे।


वहीं, अदालत द्वारा 28 अप्रैल को इस अवधि को 31 अगस्त तक बढ़ा दिया गया था। इसके बाद हाईकोर्ट ने गत 22 जुलाई को सरकार के प्रार्थना पत्र पर एक बार फिर सुनवाई करते हुए चुनाव कराने की तिथि को बढ़ाकर 31 अक्टूबर कर दिया था। प्रार्थना पत्र में कहा गया कि फिलहाल कोरोना संक्रमण समाप्त नहीं हुआ है। रोजाना सैकड़ों मरीज मिल रहे हैं। ऐसे में महामारी के चलते चुनाव कराए जाने संभव नहीं है। इसलिए चुनाव कराने की अवधि को 31 मार्च, 2021 तक बढ़ाया जाए।


इधर, निर्वाचन आयोग की ओर से कहा गया की वैसे तो आयोग चुनाव कराने को तैयार है, लेकिन फिर भी इसकी तैयारी के लिए 15 नवंबर तक का समय दिया जाए। दोनों पक्षों को सुनने के बाद खंडपीठ ने राज्य सरकार के प्रार्थना पत्र को खारिज कर दिया है।


सोमवार, 28 सितंबर 2020

आरएसएस के किसान संघ ने कहा - कृषि मंत्रालय में हावी हैं अफसर, 15 हजार सुझाव किए नजरअंदाज

 

देश में किसानों से जुड़े तीन अहम बिलों का जब ड्राफ्ट तैयार हो रहा था, तब आरएसएस से जुड़े भारतीय किसान संघ ने देश के 15 हजार गांवों से प्रस्ताव पारित कर सुझावों का पुलिंदा कृषि मंत्रालय को भेजा था। तीनों किसान बिलों में इन 15 हजार प्रस्तावों की अनदेखी पर भारतीय किसान संघ ने गहरी नाराजगी जाहिर की है। कहा है कि कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर भी प्रस्तावों पर सहमत थे, तो फिर क्यों मंत्रालय ने सुझाव नजरअंदाज किए। भारतीय किसान संघ के मुताबिक किसानों के बीच से आए सुझावों को नजरअंदाज करने से पता चलता है, कि कृषि मंत्रालय में नौकरशाह हावी हैं। भारतीय किसान संघ ने एमएसपी की गारंटी देने के लिए नया कानून लाने की सरकार से मांग दोहराई है।


संघ से जुड़े भारतीय किसान संघ के राष्ट्रीय महामंत्री बद्रीनारायण ने आईएएनएस से कहा कि, " देश में करीब 80 हजार गांवों में किसानों से जुड़ी समितियों की गठन हुआ है। भारतीय किसान संघ ने इनमें से 15 हजार गांवों की समितियों के जरिए कृषि बिलों को लेकर प्रस्ताव पारित किए थे। जिसे कृषि मंत्री से मिलकर उन्हें उपलब्ध कराया गया था। ऐसे सुझाव दिए गए थे, जिससे किसानों को सचमुच में फायदा होगा। कृषि मंत्री ने भी प्रतिनिधिमंडल से भेंट करते हुए सुझावों पर सहमति जाहिर की थी। लेकिन बाद में पता चला कि सुझावों का बिल में इस्तेमाल हुआ ही नहीं। इससे यही अंदाजा लगता है कि कृषि मंत्रालय में अफसर ज्यादा हावी हैं।


भारतीय किसान संघ के महामंत्री बद्रीनारायण ने सवाल उठाते हुए कहा कि देश के कई हिस्सों में प्राइवेट प्लेयर्स की धोखाधड़ी सामने आ चुकी है। शिमला में सेब खरीदने के नाम पर कई प्राइवेट प्लेयर्स लाखों का चूना किसानों को लगा चुके हैं, तो नासिक में भी धोखाधड़ी की घटनाएं सामने आ चुकी हैं। ऐसे में अगर सरकार मंडियों के समानांतर व्यवस्था कर रही है, तो फिर किसानों को उचित मूल्य ही मिलेगा, इसकी क्या गारंटी है?


भारतीय किसान संघ का मानना है कि सरकार चाहती तो बिल पर बेवजह हंगामा टाल सकती थी। सरकार को सिर्फ बिल में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी देना था। अगर ऐसा होता तो फिर सरकार को अखबारों में विज्ञापनों के जरिए और पार्टी नेताओं को बार-बार एमएसपी को लेकर सफाई देने की जरूरत न पड़ती। राष्ट्रीय महामंत्री बद्रीनारायण ने कहा कि जिस तरह से जल्द से जल्द तीनों बिल पास हुए और राष्ट्रपति ने भी उस पर मुहर लगा दी, उससे पता चलता है कि सरकार अब तीनों कानूनों के मसले पर जल्दी बैकफुट में आने के मूड में नहीं है। ऐसे में भारतीय किसान संघ एमएसपी की गारंटी देने वाले चौथे बिल की मांग करता है। अगर सरकार से उचित आश्वासन नहीं मिलता है तो फिर किसान संघ आगे की रणनीति तय करेगा।


क्या किसानों के साथ आएगा पूरा विपक्ष?

 

देश के कई राज्यों में चल रहे किसान आंदोलन के लिए समर्थन जुटाने का प्रयास हो रहा है। कांग्रेस पार्टी ने केंद्र सरकार की सहयोगी पार्टियों से भी अपील की है कि वे किसानों का समर्थन करें। भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगियों में से एक अकाली दल ने किसानों के मसले पर भाजपा का साथ छोड़ा है। इससे उत्साहित होकर कांग्रेस ने भाजपा की दूसरी सहयोगी पार्टियों से अपील कर डाली है। पर सरकार कोई और सहयोगी पार्टी इस मसले पर विपक्ष के साथ नहीं आने जा रही है। तमिलनाडु में अन्ना डीएमके से लेकर बिहार में जनता दल यू, लोजपा, हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा या महाराष्ट्र मेंआरपीआई और हरियाणा में जननायक जनता पार्टी में से कोई भी इस मसले पर विपक्ष के साथ नहीं आएगा।


ऐसे में बड़ा सवाल है कि क्या पूरा विपक्ष भी इस मसले पर एकजुट हो पाएगा? अगर पूरा विपक्ष भी नए बने तीन कृषि कानूनों के विरोध में उतर जाए तो सरकार पर दबाव बनेगा। जैसे राज्यसभा में कृषि विधेयकों पर चर्चा के दौरान बीजू जनता दल और तेलंगाना राष्ट्र समिति ने सरकार का विरोध किया थ। सो, विपक्ष को इन दोनों पार्टियों के साथ तालमेल बनाना चाहिए। आंध्र प्रदेश में सत्तारूढ़ वाईएसआर कांग्रेस ने जरूर बिल का समर्थन किया पर वह पार्टी भी इस बिल पर वोटिंग में सरकार के साथ नहीं दिखना चाह रही थी। इसलिए कांग्रेस जगन मोहन रेड्डी से भी बात कर सकती है। किसानों का यह मसला ऐसा है, जिस पर भाजपा के अलावा कोई दूसरी पार्टी खुल कर समर्थन में नहीं आना चाहती है। विपक्ष इसका फायदा उठा सकता है। 

मथुरा में अब कृष्ण जन्मभूमि पर राजनीति शुरू

 


मथुरा की अदालत में दीवानी मुकदमा दायर होने के 2 दिन बाद ही कस्बे में कृष्ण जन्मभूमि की 13.37 एकड़ जमीन का मालिकाना हक पाने और शाही ईदगाह मस्जिद को हटाने को लेकर राजनीति शुरू हो गई है।


भाजपा के पूर्व सांसद और बजरंग दल के संस्थापक विनय कटियार ने दीवानी मुकदमे का स्वागत करते हुए कहा है कि कृष्ण जन्मभूमि को ‘मुक्त’ करने के लिए अयोध्या जैसा विशाल आंदोलन करना चाहिए।


उन्होंने कहा, अयोध्या, मथुरा और काशी में तीन मंदिरों को मुक्त करने का हमारा संकल्प है। अब जब राम मंदिर का रास्ता साफ हो गया है, हम कृष्ण जन्मभूमि को मुक्त करने के लिए काम करेंगे। बेहतर होगा कि जो भूमि भगवान भगवान कृष्ण की है, उस पर मुस्लिम स्वेच्छा से अपना दावा छोड़ दें।


भाजपा सांसद हरनाथ सिंह यादव ने भी यही कहा कि मुस्लिमों को कृष्ण जन्मभूमि पर अपना दावा छोड़ देना चाहिए, क्योंकि इस्लाम ऐसी किसी भूमि पर प्रार्थना करने की अनुमति नहीं देता है, जिस पर जबरन कब्जा किया गया हो।


इस बीच बाबरी मामले में वादी रहे इकबाल अंसारी ने कहा कि इस तरह की राजनीति खत्म होनी चाहिए। उन्होंने कहा, “कुछ स्वार्थी लोग हिंदू-मुस्लिम झगड़े कराना चाहते हैं, लेकिन यह राष्ट्रहित में नहीं है। अयोध्या विवाद खत्म हो गया है और मुसलमानों ने अदालत के फैसले को विनम्रतापूर्वक स्वीकार कर लिया है। दूसरे मुद्दे को उठाने की कोई जरूरत नहीं है।


अयोध्या विवाद में सुन्नी वक्फ बोर्ड के वरिष्ठ वकील जफरयाब जिलानी ने कहा कि राजनीतिक लाभ के लिए जानबूझकर ऐसे मुद्दों को उठाया जा रहा है। बता दें कि यह मामला मौजा मथुरा बाजार सिटी के कटरा केशव देव केवट में विराजमान भगवान श्रीकृष्ण ने ‘मित्र’ रंजना अग्निहोत्री और छह अन्य भक्तों के जरिए दायर किया था। अग्निहोत्री लखनऊ की एक वकील हैं, जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट सहित विभिन्न अदालतों में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मुकदमे में हिंदू महासभा का प्रतिनिधित्व किया था।


श्रीकृष्ण जन्मभूमि का मुकदमा उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 के तहत मथुरा अदालत में दायर किया गया था।अग्निहोत्री के माध्यम से श्री कृष्ण विराजमान द्वारा दायर किए गए ताजा मुकदमे में कहा गया है, “यूपी सुन्नी वक्फ बोर्ड, ट्रस्ट मस्जिद ईदगाह या मुस्लिम समुदाय के किसी भी सदस्य का कटरा केशव देव की संपत्ति और उस पूरी 13.37 एकड़ जमीन में जहां देवता भगवान श्री कृष्ण विराजमान है, उसमें कोई अधिकार नहीं है।


अग्निहोत्री ने आगे कहा, यह मुकदमा कथित ट्रस्ट मस्जिद ईदगाह के प्रबंधन की समिति द्वारा अवैध रूप से किए गए अतिक्रमण को हटाने के लिए किया जा रहा है। माना जाता है कि मथुरा की यह जगह भगवान कृष्ण की जन्मभूमि है।


तब अभी के विनिवेशों पर आगे क्या?



जिन लोगों ने इंडियन एक्सप्रेस के संपादक रहे अरूण शौरी को उस दौरान देखा व जाना है वे कभी इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि कभी एक पत्रकार-संपादक के रूप में भ्रष्टाचार को उजागर करने का प्रतीक रहे शौरी के खिलाफ एक दिन भ्रष्टाचार के मामले में गिरफ्तारी की कार्रवाई शुरू हो जाएगी। उसे रूकाने, रोकने के लिए उन्हे अदालतों के चक्कर लगाने पड़ेंगे। हाल में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के विशेष न्यायालय ने पूर्व केंद्रीय मंत्री रहे अरूण शौरी,, रिटायर्ड आईएएस अधिकारी प्रदीप बैजल व तीन अन्य लोगों के खिलाफ राजस्थान के एक होटल लक्ष्मी विलास पैलेस के विनिवेश करने के मामले में भ्रष्टाचार करने के आरोपों में मामला दर्ज करने का आदेश दिया है।


उदयपुर स्थित इस होटल का मालिकाना हक सरकार के पर्यटन विकास निगम के पास था। इसे विनिवेश के दौरान निजी कंपनी भारत होटल्स लिमिटेड को बेच दिया गया था। यहां यह याद दिलाना जरूरी हो जाता है कि सीबीआई ने अपनी जांच के दौरान भ्रष्टाचार के आरोप प्रमाणित कर पाने वाले कोई प्रमाण नहीं मिलने के कारण इस मुकदमे को बंद कर देने का अनुरोध किया था मगर अदालत ने सीबीआई की यह मांग ठुकरा दी। यह मामला काफी पुराना है। सन् 2014 में दायर एक एफआईआर में कहा गया था कि 2001 में आईटीडीसी ने लक्ष्मी विकास होटल समेत कई होटलो का विनिवेश करने के लिए विज्ञापन दिया। शुरू में 15 लोगों ने यह होटल खरीदने में रूचि प्रदर्शित की थी। इनमें से तीन को अयोग्य घोषित कर दिया गया व छह लोगों को नीलामी के दौरान उससे खुद को अलग कर लिया।


इनमें से केवल भारत होटल्स ने ही अंतिम तारीख तक उदयपुर होटल को 7.52 करोड़ रुपए में खरीदने का प्रस्ताव दिया जोकि उसकी 99.99 फीसदी पेडअप कैपिटल के बराबर था। अंततः होटल को उसे 24 जनवरी 2002 को बेच दिया गया। सीबीआई ने अपनी एफआईआर में कहा कि 1999 से 2001 के बीच अज्ञात सरकारी कर्मचारियेां ने भारत होटल्स के साथ सांठ-गांठ करके उसे महज 7.52 करोड़ रुपए में होटल को बेच दिया। इससे सरकार की 143.48 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ।


एफआईआर में अरूण शौरी का नाम नहीं था जोकि मंत्रालय के मंत्री थे। मगर उनके मंत्रालय में तत्कालीन सचिव प्रदीप बैजल का नाम था। इसके अलावा भारत होटल्स के वित्तीय सलाहकार आशीष का नाम भी था जोकि संयोग से तत्कालीन सरकार के भी सलाहकार थे। अपनी एफआईआर में सीबीआई ने आरोप लगाया था कि सलाहकारों व तमाम तत्कालीन सरकारी कर्मचारियों ने दुर्भावना, धोखाधड़ी व बेईमानी करके होटल की कीमत कम तय की थी।उनका कहना था कि होटल के ऊपर से एक बिजली की हाईटेंशन लाइन गुजरती है जिसके कारण होटल व उसकी जमीन की लागत काफी घट जाती है जबकि वहां ऐसा कुछ नहीं था। होटल की वास्तविक कीमत 285 करोड़ थी जबकि उसे भारत होटल्स को महज 7.52 करोड़ में बेच दिया गया।


अरूण शौरी ने अपने खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपो का खंडन करते हुए अदालत में कहा है कि होटल बेचने के दौरान सभी जरूरी प्रक्रियाओं का पालन किया गया था। तत्कालीन राजग सरकार की कैबिनेट कमेटी ने भी तमाम दस्तावेजो व प्रक्रियाओं का गहन अध्ययन करने के बाद ही होटल की बिक्री को अपनी मंजूरी दी थी। तत्कालीन जानकार व चौकस कानून मंत्री ने भी तीन बार बिक्री से संबंधित फाइलो को सही ठहराते हुए अपनी सहमति जताई थी।


सीबीआई ने यह मामला बंद करने की सिफारिश करते हुए कहा कि उसने मूल्यांकन व वित्तीय सलाहकारों की नियुक्ति में कुछ भी गलत नहीं पाया। जांच में कहीं भी यह बात सामने नहीं आई कि होटल की वेल्यू का कम मूल्यांकन किया गया था। उसे दुर्भावना साबित करने का भी कोई उदाहरण नहीं मिला है। यह मामला वित्त मंत्रालय के तहत आने वाले विनिवेश विभाग को भी भेजा गया था।


मगर अदालत ने अरूण शौरी को पत्रकारिता संबंधी काम व अनुभव का जिक्र करते हुए कहा कि वे अपने लेखो व इंटरव्यू में भ्रष्टाचार उन्मूलन के बारे में लिखते व बोलते आए हैं। अदालत ने कहा कि पहले आईटीडीसी को वैल्यूअर (मूल्यांकनकर्ता) नियुक्त करना था मगर अरूण शौरी व प्रदीप बैजल ने वैल्यूअर नियुक्त करने का फैसला किया। उसकी रिपोर्ट को अरूण शौरी व प्रदीप बैजल ने स्वीकार कर लिया, इससे सरकार को काफी नुकसान हुआ। जबकि भारत होटल्स को काफी फायदा हुआ। उन्होंने अपने पद व स्थिति का दुरूपयोग करते हुए देश को 244 करोड़ रुपए का नुकसान पहुंचाया।


अदालत ने सीबीआई की सिफारिश ठुकराते हुए अरूण शौरी, बैजल, गुहा व वैल्यूअर कांतिकरम से कंपनी व भारत होटल्स के निदेशक ज्योत्सना सूरी के खिलाफ गिरफ्तारी के आदेश जारी कर दिए। उन्होंने यह शर्तें लगा दी कि इस संपत्ति का इस्तेमाल होटल के लिए ही किया जाएगा। जबकि उन्हें यह बात अच्छी तरह से पता थी कि जब सरकार यह होटल नहीं चला पा रही है तो उसके जरिए धंधा करने की बात कौन सोचेगा। यह सब भारत होटल्स की मिलीभगत से किया गया। अदालत ने उदयपुर के जिला कलक्टर से होटल को अपने अधिकार में लेने व उसे केवल किसी केंद्र सरकार की संस्था को ही चलाने देने की अनुमति देने के आदेश जारी किए हैं।


यहां यह याद दिलाना जरूरी हो जाता है कि कुछ समय पहले अरूण शौरी, यशवंत सिन्हा व प्रशांत भूषण ने अपनी प्रेस कांफ्रेंस में राफेल विमान खरीद में देश की सुरक्षा के साथ समझौता करने के आरोप लगाए थे। उन्होंने इस खरीद को झूठ का गुच्छा बताते हुए कहा था कि जहां पुरानी खरीद को अंतिम रूप देने में सालों लग गए वहीं नई खरीद का चंद दिनो के अंदर फैसला कर लिया गया। उन लोगों ने इसे देश का सबसे बड़ा रक्षा खरीद घोटाला करार देते हुए आरोप लगाया था कि इसके दौरान तमाम जरूरी प्रक्रियाओं रक्षा मंत्रालय व वित्त मंत्रालय की समितियों की अनदेखी कर दी गई थी।


उन्होंने इस मामले की तुलना बोफोर्स तोप कांड से करते हुए कहा था कि सरकार ने पहली खरीद की तुलना में इस विमान की कीमत 670 करोड़ रुपए बढ़ा दी थी मगर सरकार ने गोपनीयता की आड़ में यह नहीं बताया कि यह विमान किस कीमत पर खरीदे गए हैं।


रविवार, 27 सितंबर 2020

संसदीय उपायों की अनदेखी ठीक नहीं

 


संसद का मॉनसून सत्र कई मामलों में अनोखा रहा। इसमें कई चीजें पहली बार हुईं और कई चीजें ऐसी हुईं, जिनके बारे में कहा जा सकता है कि कई बरसों से इनकी तैयारी हो रही थी। पिछले कुछ बरसों से जिस तरह से संसदीय परंपराओं और संसदीय उपायों की अनदेखी की जा रही थी, उसका चरम रूप संसद के मॉनसून सत्र में दिखा। ऐसा कोरोना वायरस की महामारी के नाम पर हुआ लेकिन यह कहने में हिचक नहीं है कि अगर कोरोना की महामारी नहीं होती तब भी देर-सबेर यह स्थिति आने ही वाली थी। कानून बनाने और सरकार के कामकाज की समीक्षा करने वाले तौर-तरीकों और संसदीय उपायों को एक एक करके कमजोर किया जा रहा है। इसका नतीजा यह होगा कि विधायिका का महत्व पूरी तरह से खत्म हो जाएगा और कार्यपालिका की तानाशाही बहाल हो जाएगी। कार्यपालिका के कामकाज की समीक्षा और उस पर चेक एंड बैलेंस करने का विधायिका का काम खत्म हो जाएगा।


इसकी शुरुआत कई साल पहले हो गई थी, जब संसद की लगभग सभी समितियों में भाजपा ने अपने और सहयोगी पार्टियों के सांसदों के दम पर समिति के फैसलों को प्रभावित करना शुरू किया। भाजपा ने यह काम लोकसभा में मिले प्रचंड बहुमत के दम पर किया। तीन सौ सांसदों वाली पार्टी होने की वजह से हर संसदीय समिति में भाजपा के सबसे ज्यादा सदस्य होते हैं। इसके बाद उसके सहयोगी सांसद होते हैं। मुख्य विपक्ष के तौर पर कांग्रेस के बहुत कमजोर होने से हर समिति में विपक्षी सांसद अल्पमत में होते हैं। तभी जिन समितियों में कांग्रेस या दूसरी विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष होते हैं वह समिति भी सरकार को जिम्मेदार ठहराने वाला कोई प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर पाती है।


लोक लेखा समिति से लेकर किसी भी अन्य समिति में जब भी सरकार को जिम्मेदार ठहराने वाला कोई प्रस्ताव आता है तो सत्तापक्ष के सांसद वोटिंग की मांग कर देते हैं और बहुमत के दम पर समिति के अध्य़क्ष के फैसले को भी पलट देते हैं। पिछली लोकसभा में जब कांग्रेस के मल्लिकार्जुन खड़गे लोक लेखा समिति के अध्यक्ष थे तब भी राफेल के मामले में ऐसा किया गया था और अब जबकि अधीर रंजन चौधरी इस समिति के अध्यक्ष हैं तो पीएम केयर्स फंड के मामले में ऐसा किया गया है।


इसी तरह विधेयकों को संसदीय समितियों में भेजने की परंपरा लगभग खत्म कर दी गई है। पहले सरकार कोई भी विधेयक लाती थी तो उसे उस विषय की संसदीय समिति में भेजा जाता था। अगर कोई बड़ा और लोक महत्व का मुद्दा होता था या किसी विवादित मसले पर बिल लाया गया होता तो उसे प्रवर समिति को भेजा जाता था और कई बार दोनों सदनों की साझा प्रवर समिति भी बनती थी। बड़े और विवादित मुद्दों की जांच के लिए साझा संसदीय समिति भी बनती रही थी। पर भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार आने के बाद धीरे धीरे इन समितियों का महत्व खत्म कर दिया गया है। अब विधेयकों को समितियों में भेजने की जरूरत नहीं समझी जाती है। सबको पता है कि कोई भी विधेयक जब विचार के लिए उस विषय की संसदीय समिति में जाती है तो विधेयक के हर पहलू पर विस्तार से चर्चा होती है। उसके फायदे और नुकसान का आकलन किया जाता है। विपक्षी सांसदों को भी अपनी बात रखने का मौका मिलता है। पर विचार-विमर्श की यह प्रक्रिया अब काफी कम हो गई है।


ऐसा नहीं है कि संसदीय समिति में विचार-विमर्श नहीं हुआ तो विधेयक पर संसद के भीतर विस्तार से चर्चा होती है। संसद के भीतर भी चर्चा की सिर्फ खानापूर्ति होती है या सिर्फ सत्तापक्ष के लोगों की बात रखी जाती है। लोकसभा में भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों के पास दो-तिहाई बहुमत है। सो, किसी भी चर्चा में दो-तिहाई समय तो सत्तापक्ष के सांसदों को ही मिलता है। ऊपर से सरकार के संसदीय प्रबंधकों ने ऐन-केन प्रकारेण विपक्ष की कई पार्टियों को तटस्थ बनाया हुआ हो। सो, लोकसभा में असली विपक्ष बहुत कम रह गया है। दो-तीन पार्टियां हैं, जो वास्तविक विपक्ष का आचरण करती हैं तो उनकी बात नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह जाती है।


राज्यसभा में जरूर अभी तक विपक्ष का दमखम बचा हुआ है तो वहां भी उनकी बात नहीं सुनने का नया तरीका इस म़ॉनसून सत्र में निकाल लिया गया। विपक्ष की मांग थी कृषि विधेयकों को प्रवर समिति में भेजने की। पर सरकार ने और आसन ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया। दो विधेयकों पर एक साथ दो-तीन घंटे की चर्चा के बाद इसे पास करने के लिए पेश कर दिया गया। तब विपक्ष ने वोटिंग की मांग की लेकिन उसे ठुकरा कर ध्वनि मत से दो विधेयक पास कर दिए गए। अगले दिन हंगामा करने के नाम पर आठ विधेयकों को निलंबित कर दिया गया और समूचे विपक्ष की गैरहाजिरी में कृषि से जुड़ा तीसरा विधेयक पास कर दिया गया। विपक्ष को चुप करा कर कम मत के बावजूद ध्वनि के दम पर बिल पास कराने का नया तरीका निकाला गया है। सबको पता है कि सरकार के पास बहुमत है या वह बहुमत बनाने में सक्षम है। फिर भी विधेयकों को समितियों में भेज कर उस पर राय-विचार कराने का रास्ता नहीं चुना जाता है।


सरकार ने संसद से बाहर होने वाली लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को भी काफी कम कर दिया है। पहले विधेयक का मसौदा सार्वजनिक किया जाता था और लोगों की राय मांगी जाती थी। इसके लिए एक-एक महीने का समय दिया जाता था। पर अब सरकार जरूरी विधेयकों का मसौदा भी सार्वजनिक करके एक हफ्ते में लोगों की राय मांगती है और उसमें से भी किसी राय को शामिल करना जरूरी नहीं समझती है। विधेयक जिन लोगों के हितों को पूरा करने के नाम पर लाया जाता है उनसे भी बात करना या उनकी राय लेना जरूरी नहीं समझा जाता है। अध्यादेश के जरिए कानून बनाने का रास्ता अख्तियार किया जाता है, जिस पर संसद की मंजूरी महज औपचारिकता होती है। ध्यान रहे राष्ट्रमंडल देशों में अब सिर्फ तीन देश- भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश ही हैं, जहां अध्यादेश चलता है। लोकतंत्र की मजबूती के लिए इसे खत्म करना जरूरी है। 

नड्डा की टीम में बाहरी लोगों को भी खूब मौका मिला

 


भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा की टीम बाहर से यानी दूसरी पार्टियों से आए नेताओं को भी खूब मौका मिला है। आमतौर पर भाजपा बाहर से आने वालों को एमपी, एमएलए की टिकट तो दे देती है पर संगठन में जिम्मेदारी नहीं देती है। संगठन में पार्टी के पुराने नेताओं या संघ से जुड़े रहे लोगों को ही जगह मिलती है। पर इस बार यह परंपरा टूटी है। इस बार जेपी नड्डा ने आधा दर्जन से ज्यादा बाहरी लोगों को टीम में जगह दी है।


भाजपा में सबसे अहम जिम्मेदारी महासचिव की होती है। यह संभवतः पहला मौका होगा, जब दूसरी पार्टी से आए किसी नेता को महासचिव बनाया गया है। कांग्रेस नेता और मनमोहन सिंह की पहली सरकार में मंत्री रहीं डी पुरंदेश्वरी को नड्डा ने महासचिव बनाया है। वे आंध्र प्रदेश के दिग्गज नेता रहे एनटी रामाराव की बेटी हैं। समझा जा रहा है कि राज्य की राजनीति में एनटी रामाराव के दामाद चंद्रबाबू नायडू को मात देने के लिए और एनटीआर की विरासत उनसे छीनने के लिए पुरंदेश्वरी को आगे किया गया है।


इसके अलावा नड्डा ने दूसरी पार्टियों से आए तीन नेताओं को उपाध्यक्ष बनाया है। तृणमूल कांग्रेस छोड़ कर आए मुकुल रॉय, बीजू जनता दल से भाजपा में गए बैजयंत जय पांडा और राष्ट्रीय जनता दल छोड़ कर भाजपा में शामिल हुईं अन्नपूर्ण देवी को उपाध्यक्ष बनाया गया है। वैसे उपाध्यक्ष का पद कोई खास महत्व का नहीं होता है और अगर किसी राज्य का प्रभार नहीं मिले तो यह सजावटी ही होता है। फिर भी तीन बाहरी नेताओं को उपाध्यक्ष बनाना बड़ी बात है।


भाजपा ने इस बार अपने प्रवक्ताओं की सूची में भी बाहर से आए तीन लोगों को शामिल किया है। पहले जय पांडा भी पार्टी के प्रवक्ता थे पर इस बार उनको सिर्फ उपाध्यक्ष रखा गया है। समाजवादी पार्टी छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए गौरव भाटिया को नड्डा ने प्रवक्ता बनाया है। कुछ दिन पहले कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में गए और उत्तर प्रदेश से राज्यसभा भेजे गए जफर इस्लाम को भी उन्होंने प्रवक्ता बनाया है। इसके अलावा लंबे समय तक कांग्रेस के प्रवक्ता रहे टॉम वडक्कन को भी भाजपा का प्रवक्ता नियुक्त किया गया है।


क्या है आवश्यक वस्तु अधिनियम और इसके संशोधन, जिसका किसान विरोध कर रहे हैं



 राज्यसभा ने कृषि सुधार के नाम पर लाए गए आवश्‍यक वस्‍तु (संशोधन) अधिनियम विधेयक, 2020 को मंजूरी दे दी, जिसके जरिये अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेलों, प्‍याज और आलू जैसी वस्‍तुओं को आवश्‍यक वस्‍तुओं की सूची से हटा दिया गया है।


दूसरे शब्दों में कहें, तो अब निजी खरीददारों द्वारा इन वस्तुओं के भंडारण या जमा करने पर सरकार का नियंत्रण नहीं होगा।


हालांकि संशोधन के तहत यह भी व्‍यवस्‍था की गई है कि अकाल, युद्ध, कीमतों में अभूतपूर्व वृद्धि और प्राकृतिक आपदा जैसी परिस्थितियों में इन कृषि‍ उपजों की कीमतों को नियंत्रित किया जा सकता है।


यह कानून साल 1955 में ऐसे समय में बना था जब भारत खाद्य पदार्थों की भयंकर कमी से जूझ रहा था। इसलिए इस कानून का उद्देश्य इन वस्तुओं की जमाखोरी और कालाबाजारी को रोकना था ताकि उचित मूल्य पर सभी को खाने का सामान मुहैया कराया जा सके।


सरकार का कहना है कि चूंकि अब भारत इन वस्तुओं का पर्याप्त उत्पादन करता है, ऐसे में इन पर नियंत्रण की जरूरत नहीं है।


इसके साथ ही सरकार का यह भी दावा है कि उत्‍पादन, भंडारण, ढुलाई, वितरण और आपूर्ति करने की आजादी से व्‍यापक स्‍तर पर उत्‍पादन करना संभव हो जाएगा, साथ ही कृषि क्षेत्र में निजी/प्रत्‍यक्ष विदेशी निवेश आकर्षित किया जा सकेगा। इससे कोल्‍ड स्‍टोरेज में निवेश बढ़ाने और खाद्य आपूर्ति श्रृंखला (सप्‍लाई चेन) के आधुनिकीकरण में मदद मिलेगी।


हालांकि इस कानून के अलावा कृषि क्षेत्र में लाए गए दो और कानूनों को लेकर देश भर के विभिन्न हिस्सों में किसान विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। इन विधेयकों के खिलाफ 25 सितंबर को भारत बंद घोषित किया गया था।


आरोप है कि इस विधेयक से किसान और उपभोक्ता को काफी नुकसान होगा और जमाखोरी के चलते सिर्फ निजी खरीददारों, ट्रेडर्स, कंपनियों आदि को फायदा होगा।


क्या है आवश्यक वस्तु अधिनियम


आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के तहत, केंद्र राज्य सरकारों के माध्यम से कुल आठ श्रेणियों के वस्तुओं पर नियंत्रण रखती है।


इसमें (1) ड्रग्स, (2) उर्वरक, (3) खाद्य तिलहन एवं तेल समेत खाने की चीजें, (4) कपास से बना धागा, (5) पेट्रोलियम तथा पेट्रोलियम उत्पाद, (6) कच्चा जूट और जूट वस्त्र, (7) खाद्य-फसलों के बीज और फल तथा सब्जियां, पशुओं के चारे के बीज, कपास के बीज तथा जूट के बीज और (8) फेस मास्क तथा हैंड सैनिटाइजर शामिल हैं।


केंद्र इस कानून में दी गईं शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए राज्य सरकारों को ‘नियंत्रण आदेश’ जारी करने के लिए कहता है, जिसके तहत वस्तुओं को स्टॉक यानी जमा करने की एक सीमा तय की जाती है और सामान के आवागमन पर नजर रखी जाती है।


इसके जरिये लाइसेंस लेना अनिवार्य बनाया जा सकता है और वस्तुओं के उत्पादन पर लेवी (एक प्रकार का कर) भी लगाया जा सकता है। जब कभी राज्यों ने इन शक्तियों का इस्तेमाल किया है, ऐसे हजारों पुलिस केस दर्ज किए गए, जिसमें ‘नियंत्रण आदेश’ के उल्लंघन के आरोप थे।


अब सरकार ने इसमें संशोधन करके अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेलों, प्‍याज और आलू को धारा 3 (1) के दायरे से बाहर कर दिया गया है, जिसके तहत केंद्र को आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन, आपूर्ति, वितरण पर नियंत्रण करने का अधिकार मिला हुआ है।


अब सिर्फ अकाल, युद्ध, कीमतों में अभूतपूर्व वृद्धि और प्राकृतिक आपदा जैसी परिस्थितियों में ही सरकार द्वारा इन वस्तुओं पर नियंत्रण किया जा सकेगा। इस कानून के तहत केंद्र को यह भी अधिकार मिला हुआ है कि वो जरूरत के हिसाब से आवश्यक वस्तुओं की श्रेणी में जोड़ या घटा कर सकती है।


यह पहली बार नहीं है जब केंद्र ने इस एक्ट के जरिये नियंत्रण के दायरे के कुछ वस्तुओं को बाहर किया है। उदाहरण के लिए साल 2002 में वाजपेयी सरकार ने गेहूं, धान, चावल, मोटे अनाज और खाद्य तेलों पर लाइसेंस और स्टॉक सीमा को समाप्त कर दिया था।


किस आधार पर तय होगी स्टॉक लिमिट


सरकार द्वारा स्टॉक लिमिट या वस्तुओं को जमा करने की सीमा तय करने का फैसला कृषि उत्पाद के मूल्य वृद्धि पर निर्भर करेगी।


शीघ्र नष्‍ट होने वाली कृषि उपज के मामले में 12 महीने पहले या पिछले पांच वर्षों के औसत खुदरा मूल्य की तुलना में यदि उत्पाद के वर्तमान मूल्य में 100 फीसदी वृद्धि होती है, तो इसके स्टॉक की सीमा तय की जाएगी।


इसी तरह शीघ्र नष्ट न होने वाले कृषि खाद्य पदार्थों के मामले में पिछले 12 महीने पहले या पिछले पांच वर्षों के औसत खुदरा मूल्य की तुलना में यदि उत्पाद के वर्तमान मूल्य में 50 फीसदी वृद्धि होती है, तो इसके स्टॉक की सीमा तय की जाएगी।


हालांकि मूल्‍य श्रृंखला (वैल्‍यू चेन) के किसी भी प्रतिभागी की स्‍थापित क्षमता और किसी भी निर्यातक की निर्यात मांग इस तरह की स्‍टॉक सीमा लगाए जाने से मुक्‍त रहेगी, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कृषि क्षेत्र में निवेश हतोत्‍साहित न हो।


यहां ध्यान देने वाली महत्वपूर्ण बात ये है कि सरकार को इस तरह के फैसले लेने के लिए ‘एगमार्कनेट मूल्यों’ पर निर्भर रहना पड़ेगा।


एगमार्कनेट केंद्रीय कृषि मंत्रालय का एक पोर्टल है जो कि मंडियों में कृषि उत्पादों के आवक तथा मूल्यों की जानकारी देता है।


सरकार ने एक और कानून- कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक, 2020 भी पारित है, जिसका इसका उद्देश्य कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी मंडियों) के बाहर भी कृषि उत्पाद बेचने और खरीदने की व्यवस्था तैयार करना है।


लेकिन यदि इस कानून के लागू होने से एपीएमसी व्यवस्था खत्म होती है, तो जैसा किसान और विशेषज्ञ चिंता जता रहा है, ऐसे में एगमार्कनेट द्वारा कृषि उत्पादों के मूल्यों के आकलन को बहुत बड़ा झटका लगेगा और देश के विभिन्न क्षेत्रों में वस्तुओं के असली मूल्य का पता लगाना असंभव हो जाएगा।


ऐसा होने पर सरकार द्वारा स्टॉक लिमिट तय करने का फैसला लेना भी मुश्किल हो जाएगा। इसलिए कृषि उत्पादों के मूल्यों के आकलन के लिए सरकार को या तो नई व्यवस्था बनानी होगी या फिस ये सुनिश्चित करना होगा कि उपर्युक्त विधेयक एपीएमसी व्यवस्था को बर्बाद न करे।


क्या ये संशोधन जरूरी था


इस कानून का उद्देश्य कृषि में इन्फ्रास्ट्रक्टर जैसे कोल्ड स्टोरेज, सप्‍लाई चेन के आधुनिकीकरण आदि को बढ़ावा देना है।


केंद्र का कहना है कि वैसे तो भारत में ज्‍यादातर कृषि जिंसों या वस्‍तुओं के उत्‍पादन में अधिशेष (सरप्‍लस) की स्थिति है, लेकिन इसके बावजूद कोल्‍ड स्‍टोरेज, प्रसंस्‍करण और निर्यात में निवेश के अभाव में किसान अपनी उपज के उचित मूल्‍य पाने में असमर्थ रहे हैं क्‍योंकि आवश्‍यक वस्‍तु अधिनियम की लटकती तलवार के कारण उनका बिजनेस हतोत्‍साहित होता है।


ऐसे में जब भी शीघ्र नष्‍ट हो जाने वाली कृषि उपज की बंपर पैदावार होती है, तो किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है। यदि पर्याप्‍त प्रसंस्‍करण सुविधाएं उपलब्‍ध हों, तो बड़े पैमाने पर इस तरह की बर्बादी को रोका जा सकता है।


इस साल के आर्थिक सर्वेक्षण में भारत के कृषि अर्थव्यवस्था में विकृति के बारे में विस्तार से बताया गया है। इसमें विशेष रूप से ये भी बताया गया है कि आवश्यक वस्तु अधिनियन के तहत कृषि उत्पादों के स्टॉक की सीमा (स्टॉक लिमिट) तय करने से न तो मूल्यों में गिरावट आई है और न ही कीमतो में अस्थिरता में कमी आई है।


जाहिर है कि सरकार ने सर्वेक्षण की इन बातों को ध्यान में रखा और ये संशोधन विधेयक लेकर आई।


हालांकि पूर्व कृषि सचिव सिराज हुसैन कहते हैं कि इस विधेयक में कई खामियां हैं, जैसे स्टॉक लिमिट को लेकर निर्यात आदेश क्या होगा, जिनकों लेकर स्पष्टीकरण दिया जाना बाकी है।


उन्होंने कहा, ‘साल 2000-2004 के दौरान कई बेईमान गेहूं निर्यातकों ने ओपन मार्केट सेल स्कीम (निर्यात) के तहत गेहूं का निर्यात जारी रखने के लिए इसी तरह की खामियों का इस्तेमाल किया था, जिसके कारण आखिरकार 1 अप्रैल, 2006 को बफर स्टॉक अपनी सीमा के मुकाबले घटकर आधा हो गया था। सरकार को 2006-08 में लगभग 5.5 मिलियन टन गेहूं का आयात करना पड़ा था।’


हुसैन ने आगे कहा कि हमारे खाद्य स्टॉक के प्रबंधन में एक बड़ी कमी यह है कि सरकार को निजी क्षेत्र के पास उपलब्ध स्टॉक की जानकारी नहीं होती है।


उन्होंने कहा ‘गेहूं और चावल के केंद्रीय पूल के स्टॉक के मामले में, न केवल लोगों को स्टॉक की मात्रा के बारे में पता है बल्कि सरकार को एफसीआई के कम्प्यूटरीकृत स्टॉक प्रबंधन प्रणाली के माध्यम किस जगह पर कितना स्टॉक पड़ा है, वो भी पता होता है। प्राइवेट सेक्टर में रखे के स्टॉक के बारे में ऐसी कोई जानकारी नहीं है।’


चूंकि सरकार अब एपीएमसी के बाहर कृषि उपज के खरीददारी की व्यवस्था तैयार करने जा रही है, ऐसे में सरकार के पास ये जानकारी उपलब्ध होनी चाहिए कि प्राइवेट ट्रेडर्स एवं कंपनियों के पास कितना स्टॉक पड़ा है, तभी स्टॉक लिमिट लगाने को लेकर सही समय पर फैसला लिया जा सकेगा।


विपक्ष का कहना है कि मूल्य वृद्धि के आधार पर स्टॉक लिमिट लगाने की शर्त यथार्थ से परे है और इसकी बिल्कुल संभावना है कि शायद ही कभी आसानी से इन प्रावधानों का इस्तेमाल किया जाएगा। उनका कहना है कि इसके चलते अंतत: जमाखोरों को ही लाभ होगा, किसान एवं उपभोक्ता इसके शिकार होंगे।


कृषि विधेयक अब बन गये कानून,राष्ट्रपति कोविंद ने तीनों विधेयकों पर किए हस्ताक्षर


 राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने हाल ही में संसद से पास हुए तीन कृषि विधेयकों पर हस्ताक्षर कर दिए हैं। इसके साथ ही ये तीनों विवादास्पद विधेयक अब कानून बन गए हैं। राष्ट्रपति ने संसद से पास हुए कृषक उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) विधेयक 2020 और कृषक (सशक्तीकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020 पर 24 सितंबर को और आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020 पर 26 सितंबर को हस्ताक्षर कर दिए, जिसके बाद ये तीनों विधेयक अब कानून बन गए हैं।


कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) सहित कई विपक्षी दलों, जो तब सत्तारूढ़ राजग का हिस्सा था, ने राष्ट्रपति कोविंद से संसद द्वारा पारित होने के बाद बिलों पर हस्ताक्षर नहीं करने का आग्रह किया था।


21 सितंबर को राष्ट्रपति से मिलने के बाद, एसएडी प्रमुख सुखबीर सिंह बादल ने कहा था, हमने राष्ट्रपति से संसद में पारित किए गए किसान विरोधी बिलों पर हस्ताक्षर करने के खिलाफ अनुरोध किया है। हमने उनसे उन बिलों को संसद में वापस भेजने का अनुरोध किया है।


नरेंद्र मोदी सरकार में एसएडी की एकमात्र खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने लोकसभा में विधेयकों पर मतदान से पहले इस्तीफा दे दिया था और इसी मुद्दे पर उनकी पार्टी ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) भी छोड़ दिया था।


शनिवार की रात एक आपातकालीन बैठक में, एसएडी के सर्वोच्च निर्णय लेने वाले निकाय ने भाजपा और गठबंधन के साथ अपने संबंधों को पूरी तरह से खत्म करने का निर्णय लिया। ऐसा केंद्र सरकार के किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देने के लिए विधायी गारंटी देने से इनकार करने के बाद किया गया।


बता दें कि शुक्रवार को किसानों ने इन कानूनों के खिलाफ देशव्यापी प्रदशर्न किया था और पंजाब, हरियाणा समेत देश के कई हिस्सों में चक्का जाम किया था।


मेक इन इंडिया का क्या होगा?



 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मेक इन इंडिया का ऐलान किया था, जिसे पिछले कुछ समय से आत्मनिर्भर भारत का नाम दिया गया है। कोरोना वायरस का संकट शुरू होने और चीन से अनेक देशों का मोहभंग होने के बाद भारत में इस बात का जोर-शोर से प्रचार हुआ था और सरकार ने भी बड़े राहत पैकेज का ऐलान कर, कानूनों में बदलाव कर दावा किया था कि दुनिया की बड़ी कंपनियां अब चीन से अपना काम समेटेंगी और भारत में फैक्टरी लगाएंगी। अभी तक कोई नई कंपनी फैक्टरी लगाने नहीं आई है पर कम से कम चार बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने काम समेटने का ऐलान कर दिया है।


मोटर साइकिल बनाने वाली दुनिया की मशहूर कंपनी हार्ले डेविडसन ने भारत से कारोबार समेटने का ऐलान किया है। कंपनी ने कहा है कि दस साल तक संघर्ष करने के बाद अब नहीं लग रहा है कि वह यहां काम कर पाएगी। कर के भारी बोझ की वजह से कंपनी यहां से काम समेट रही है। सोचें, इस कंपनी के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फोन किया था और टैक्स घटाने की बात की थी। इसके बावजूद कंपनी भारत में निर्माण का काम बंद करेगी। खबर है कि वह हीरो मोटर्स के साथ बिक्री का करार कर रही है।


हार्ले डेविडसन से ठीक पहले जापान की मशहूर कार कंपनी टोयोटा ने ऐलान किया था कि वह भारत में अपना कारोबार नहीं बढ़ाएगी। कंपनी ने कहा था कि काम बंद भी नहीं करेगी पर विस्तार भी नहीं होगा। हालांकि बाद में सरकार ने डैमेज कंट्रोल के तहत कंपनी के भारतीय पार्टनर किर्लोस्कर से बयान दिलवाया कि इलेक्ट्रोनिक कंपोनेंट के कारोबार में कंपनी दो हजार करोड़ रुपए का निवेश करेगी। एक तरफ कंपनियां सरकार से कर की व्यवस्था की शिकायत कर रही है तो दूसरी ओर सरकार का रवैया कंपनियों को धमकाने वाला है। सरकार उनसे कह रही है कि वे पैरेंट कंपनी को हिस्सा भेजना कम करें। टोयोटा और हार्ले डेविडसन से पहले पिछले साल यानी 2019 में अमेरिकी कंपनी फोर्ड मोटर्स ने अपना काम समेटने का ऐलान किया था और कहा था कि भारत की पार्टनर कंपनी महिंद्रा के साथ ज्वाइंट वेंचर में उसका जो भी एसेट है उसे वह यहां से ट्रांसफर करेगी। उससे दो साल पहले एक और अमेरिकी मोटर कंपनी जेनरल मोटर्स ने 2017 में भारत से अपना काम समेट लिया। एक तरफ तो अमेरिकी और जापानी कंपनियां भारत से अपना काम समेट रही हैं और दूसरी ओर चीन की कंपनी भारत के ऑटोमोबाइल सेक्टर में घुस गई है। जल्दी ही यह सेक्टर उसके नियंत्रण में जा सकता है। 

शनिवार, 26 सितंबर 2020

भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने बनाई टीम

 


अमित शाह ने भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद कुछ महीने के भीतर अपनी टीम खड़ी की थी। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा को इस टीम को खड़ा करने में पूरे आठ महीने लग गए। नड्डा ने राज्यों के पूर्व मुख्यमंत्रियों समेत तमाम चेहरों को अपनी टीम में स्थान दिया है। परंतु उनकी टीम में ज्यादातर पुराने खिलाड़ी ही हैं। पार्टी में राष्ट्रीय महामंत्री के रूप में भूपेंद्र यादव, कैलाश विजयवर्गीय, अरुण सिंह की बादशाहत बरकरार है तो वसुंधरा राजे के साथ छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया है। पश्चिम बंगाल में प्रस्तावित विधानसभा चुनाव को देखते हुए मुकुल रॉय को भी उपाध्यक्ष बनाया गया है।

राम माधव, मुरलीधर राव, सरोज पांडे की छुट्टी


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के दौर में राम माधव का पार्टी में रुतबा था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भाजपा में आए इस कद्दावर नेता को जेपी नड्डा के पार्टी संगठन में जगह नहीं मिली है। मुरलीधर राव, सरोज पांडे, कद्दावर अनिल जैन को भी जगह नहीं मिली है। आठ राष्ट्रीय महामंत्री में पांच नए चेहरों को जगह मिली है। पूनम महाजन के स्थान पर सांसद तेजस्वी सूर्या को युवा मोर्चा की कमान दी गई है। भाजपा ने अपने प्रवक्ताओं की सूची बढ़ाकर 23 तक कर ली है। कुल मिलाकर टीम बनाते समय जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, उनका खास ध्यान रखा गया है।

अमित मालवीय के पास रहेगी आईटी सेल की कमान, बलूनी का बढ़ा कद

राष्ट्रीय महामंत्री (संगठन) का पद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से पार्टी में आए नेता को मिलता है। इस पद पर बीएल संतोष अपनी जगह बनाए हुए हैं। राष्ट्रीय सह-संगठन मंत्री का पद वी सतीश, सौदान सिंह और शिव प्रकाश जी के पास है। सबसे खास चेहरा इस बार अमित मालवीय का है। अमित मालवीय काफी समय से पार्टी के आईटी सेल के प्रमुख हैं। वह बने हुए हैं।


हालांकि अमित मालवीय को लेकर भाजपा के राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने मोर्चा खोल रखा है। लेकिन स्वामी की नाराजगी का भाजपा अध्यक्ष पर कोई असर नहीं पड़ा है। पार्टी ने अपने राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी के नेतृत्व में 23 प्रवक्ताओं की सूची जारी की है। इनमें कांग्रेस से भाजपा में आए टॉम वडक्कन का नाम भी शामिल है। पूर्व केंद्रीय मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर, डॉ. सांबित पात्रा, नलिन एस कोहली, गोपाल कृष्ण अग्रवाल, गौरव भाटिया, सैय्यद जफर इस्लाम, राजीव चंद्रशेखर, सैय्यद शहनवाज हुसैन, डॉ. सुधांशु त्रिवेदी जैसे तेज तर्रार प्रवक्ता अपनी जगह बनाए हुए हैं। 





नरेंद्र मोदी की अगुवाई में कैसा रहा संसद का कामकाज



 विपक्षी दल के आठ राज्यसभा सांसदों ने बीते 22 सितंबर की पूरी रात कानून बनाने वाली देश की सर्वोच्च संस्था संसद में स्थिति महात्मा गांधी की मूर्ति के पास बिताई।


दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के संसदीय इतिहास में ये एक बेहत अप्रत्याशित घटना थी।


विरोध प्रदर्शन करने वाले इन सांसदों में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के डेरेक ओ’ब्रायन और डोला सेन, आम आदमी पार्टी (आप) के संजय सिंह, कांग्रेस नेता राजीव सातव, रिपुन बोरा और सैयद नासिर हुसैन तथा माकपा के केके रागेश और एलाराम करीम शामिल थे।


वे उच्च सदन राज्य सभा के उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह को तत्काल निलंबित करने की मांग कर रहे थे। हालांकि सिंह अपने फैसले पर अड़े हुए थे, जिसके कारण अगली सुबह पूरे विपक्ष ने मानसून सत्र के बाकी दो दिनों की कार्यवाही का बहिष्कार करने का फैसला किया और वे संसद के भीतर ही विरोध प्रदर्शन करते रहे, जब तक इसे स्थगित नहीं किया गया।


हालांकि सिंह (भाजपा द्वारा नामांकित सांसद) अगली सुबह प्रदर्शन स्थल पर सांसदों को चाय देने आए थे, जो  सदस्यों ने स्वीकार करने से इनकार कर दिया. इसके बाद हरिवंश नारायण सांसदों के कथित दुर्व्यवहार करने के चलते एक दिन के भूख हड़ताल पर चले गए।


वैसे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सिंह द्वारा निलंबित सांसदों को चाय पिलाने की कोशिश की वाहवाही की, लेकिन वे संसदीय नियमों के उल्लंघन को लेकर बिल्कुल चुप रहे।


क्या था मामला


बीते 22 सितंबर को विपक्ष केकुछ सांसदों ने राज्यसभा उपसभापति से गुजारिश की कि विवादित कृषि विधेयकों को प्रवर समिति को भेज दिया जाए ताकि अच्छे तरीके से विचार-विमर्श के बाद इसे कानून में तब्दील करने पर फैसला लिया जा सके।


विपक्षी दल अपनी मांगों को इस आधार पर जायज ठहरा रहे थे कि कृषि क्षेत्र के इन कानूनों को अध्यादेश के जरिये लागू किया गया है और विपक्ष के सांसदों को विधेयक का गहराई से आकलन करने का कोई मौका नहीं दिया गया।


हालांकि उपसभापति हरिवंश नारायण ने इन मांगों को नजरअंदाज किया। इसके बाद चार सांसदों ने प्रस्ताव रखा कि विधेयक को पारित करने के लिए ध्वनिमत के बजाय वोटों का बंटवारा होना चाहिए या काउंटिंग की जानी चाहिए।


लेकिन ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर विधेयक पर वोटिंग कराने की स्थापित प्रक्रिया को दरकिनार करते हुए हरिवंश नारायण सिंह ने ध्वनि-मत से इसे पारित कराने का फैसला किया। इसके कारण राज्यसभा में हंगामा शुरू हो गया और सांसद नारेबाजी करने लगे।


चूंकि सदन में शोर हो रहा था, इसलिए कोई ये दावा नहीं कर सकता कि ‘ध्वनि-मत’ विधेयक के पक्ष में था, जिसके आधार पर इसे कानून में तब्दील करने का रास्ता साफ कर दिया गया।


अब इसे लेकर विपक्षी दल सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि मोदी सरकार के पास उच्च सदन में बहुमत नहीं था, बावजूद इसके उन्होंने नियमों का उल्लंघन कर विधेयक को पारित हुआ घोषित कर दिया।


यदि ये दावा सही है तो राज्यसभा उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह को भारत के संसदीय इतिहास में एक काले धब्बे के रूप में जाना जाएगा।


ऐसे मौके पर हमें ये देखने की जरूरत है कि कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार के दौरान संसद की कार्यवाही किस तरीके से चलती थी और मोदी सरकार के पिछले छह सालों की तुलना में वो दौर किस तरह भिन्न था।


यहां पर जगजाहिर यूपीए कार्यकाल के दौरान प्रवर समिति को भेजे गए विधेयकों, संसद के कामकाज का कुल समय, सवालों एवं बहसों पर लगाए गए समय का विवरण पेश कर रहा है।


विधेयक


ये बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि यूपीए के सत्ता में होने के दौरान 14वीं एवं 15वीं लोकसभा के समय कानून बनाने के लिए उचित विचार-विमर्श की जरूरत को ध्यान में रखते हुए अच्छी-खासी संख्या में विधेयकों को प्रवर समिति के पास भेजा गया था।


एक संसदीय लोकतंत्र में इसे एक बेहद अच्छे कदम के रूप में देखा जाता है। जितने ज्यादा विधेयकों को जांच-पड़ताल के लिए संसदीय समिति के पास भेजा जाता है, उतने अच्छे कानून का निर्माण होता है।


पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च डेटा के मुताबिक 16वीं लोकसभा (मोदी सरकार का पहला कार्यकाल) के दौरान 25 फीसदी विधेयकों को समिति के पास भेजा गया, जो 15वीं एवं 14वीं लोकसभा के समय भेजे गए 71 फीसदी एवं 60 फीसदी विधेयकों से काफी कम है।


मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में किसी भी विधेयक को संसदीय समिति के पास नहीं भेजा गया है।


भारतीय विधायी प्रक्रिया का अध्ययन करने वाले प्रमुख गैर-लाभकारी शोध संस्थान ने 16 वीं लोकसभा (2014-2019) पर अपनी एक रिपोर्ट में इस तरह की संसदीय प्रक्रिया के महत्व पर प्रकाश डाला है।


उन्होंने कहा, ‘समय की कमी के कारण प्रत्येक सांसद के लिए यह संभव नहीं है कि वो सदन में सभी विधेयकों पर चर्चा और जांच कर सके। समिति कानून की विस्तृत जांच के लिए अनुमति देती है, विभिन्न हितधारकों से प्रतिक्रिया के लिए एक मंच प्रदान करती है और सभी पक्षों के बीच सर्वसम्मति बनाने के एक मंच के रूप में कार्य करती है।’


हालांकि दिलचस्प बात यह है कि यूपीए के दस वर्षों की तुलना में मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में संसद में विधेयकों पर लंबे समय तक चर्चा हुई थी।


पीआरएस डेटा के अनुसार मोदी शासन के पहले कार्यकाल में 32 फीसदी विधेयकों पर लोकसभा में तीन घंटे से अधिक समय तक चर्चा की गई, जबकि यूपीए-1 और यूपीए-2 के शासनकाल के दौरान यह आंकड़ा क्रमशः 14 फीसदी और 22 फीसदी था।


इसके अलावा दो अन्य आंकड़े मोदी सरकार के कार्यकाल में संसद की कार्यवाही की स्थिति बयां करते हैं।


पीआरएस के आंकड़ों से पता चलता है कि आधे घंटे के भीतर पारित होने वाले विधेयकों की संख्या 15वीं लोकसभा में 26 फीसदी से काफी घटकर 16वीं लोकसभा में छह फीसदी पर पहुंच गई।


ऐसा संभवत: इसलिए हुआ होगा कि भाजपा सरकार द्वारा लाए गए हर एक विधेयक पर विपक्षी सांसदों ने काफी रुचि दिखाई होगी और उस पर बहस करने की कोशिश की होगी।


इसके साथ ही एक आंकड़ा यह भी बताता है कि 16वीं लोकसभा में मोदी सरकार 133 विधेयकों को पारित कराने में सफल रही, जो इससे पिछले लोकसभा की तुलना में 15 फीसदी अधिक है।


यह दर्शाता है कि मौजूदा सरकार पिछली सरकारों की तुलना में अधिक से अधिक विधेयकों को पारित कराने पर आमादा है। इन 133 विधेयकों में से सबसे ज्यादा विधेयक आर्थिक क्षेत्र से जुड़े हुए थे।


मालूम हो कि कानून बनाने के अलावा संसद हर साल के सालाना बजट को भी पारित करती है। ध्यान देने वाली बात ये है कि वित्त वर्ष 2018-19 के दौरान सदन के पटल पर 17 फीसदी बजट पर चर्चा हुई थी, जो यूपीए सरकार की तुलना में अधिक है, लेकिन ‘मांग संबंधी 100 फीसदी मामलों को बिना चर्चा के पारित किया गया।’


पीआरएस डेटा के अनुसार पिछली बार ऐसा साल 2004-05 और 2013-14 के बजट के दौरान हुआ था।


सवाल पूछना मना है!


बीते 22 सितंबर को उपसभापति के आचरण के अलावा मौजूदा मानसून सत्र इतिहास में ऐसे सत्र के रूप में जाना जाएगा जिसने प्रश्नकाल को समाप्त कर दिया था। इससे भारत के संसदीय लोकतंत्र का बेहद महत्वपूर्ण अंग के रूप में जाना जाता है।


इस नियम के तहत हर दिन एक घंटा प्रश्नकाल के लिए आवंटित किया जाता है, जहां सांसद सरकार के सवाल पूछते हैं और उन्हें उनके कार्यों के लिए जवाबदेह ठहराते हैं।


यदि पिछली चार लोकसभाओं के उपलब्ध आंकड़ों पर गौर करें तो प्रश्नकाल के आवंटित समय का सिर्फ 59 फीसदी इस्तेमाल किया गया है। उच्च सदन में यह विशेष रूप से और घट रहा है।


15वीं और 16वीं लोकसभा के दौरान राज्यसभा में प्रश्नकाल के समय का केवल 41 फीसदी उपयोग किया गया था।


यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि कोविड-19 महामारी का हवाला देते हुए मोदी सरकार ने पहले ही सांसदों के सांसद निधि (एमपीलैड फंड) को स्थगित कर दिया है।


यह विशेष रूप से विपक्ष के सांसदों को प्रभावित करेगा, जो सत्ता से बाहर हैं और इससे उनके क्षेत्र में किसी भी विकास कार्य में भी कोई भूमिका नहीं होगी।


इसका अर्थ यह है कि संसद का सदस्य एक प्रतिनिधि के रूप में मतदाताओं की पसंद होने के बाद भी निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार कार्य नहीं कर सकता है।




‘एनजीओ को निशाना बनाने के लिए एफसीआरए लाया गया, तो पीएम केयर्स को लेकर पारदर्शिता क्यों नहीं’


 संसद से पास हुए एफसीआरए यानी विदेशी अंशदान (विनियमन) संशोधन विधेयक, 2020 से छोटे से लेकर बड़े सभी गैर सरकारी संगठन चिंतित हो गए हैं।


उनका मानना है कि यह कानून न केवल लोगों के दिमाग में उनकी खराब छवि प्रदर्शित करता है, बल्कि बड़े संगठनों के लिए काम करने के खर्चों पर कठोर शर्तें लगाकर और उनसे छोटे संगठनों के लिए धन के हस्तांतरण को रोककर उनके अस्तित्व को भी खतरे में डालता है।


इस विधेयक में पांच महत्वपूर्ण प्रावधान हैं:


1 यह व्यक्तियों, संघों और कंपनियों द्वारा विदेशी फंडिंग की स्वीकृति और उपयोग को नियंत्रित करता है।


2 यह विदेशी फंडिंग को किसी अन्य व्यक्ति को ट्रांसफर करने से रोकता है।


3 यह प्रशासनिक व्यय के लिए उपयोग करने योग्य विदेशी योगदान की सीमा को 50 प्रतिशत से घटाकर 20 प्रतिशत कर देता है।


4 यह वर्तमान में स्वीकृत 180 दिनों से अलग 180 दिनों की अतिरिक्त अवधि के लिए एफसीआरए प्रमाण-पत्र रद्द करने का अधिकार देता है।


5 हर छह महीने में लाइसेंस का नवीनीकरण होगा, बशर्ते आवेदक फर्जी न हो, सांप्रदायिक तनाव पैदा करने का दोषी न हो और फंड की हेरा-फेरी का दोषी न हो।


गैर-सरकारी संगठनों को लेकर अविश्वास का माहौल तैयार किया जा रहा


इस मुद्दे पर एक वेबिनार में बोलते हुए पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की कार्यकारी निदेशक पूनम मुतरेजा ने कहा कि बिल ने गैर-सरकारी संगठनों को लेकर अविश्वास का माहौल तैयार किया गया है।


उन्होंने कहा, ‘यह बिल एनजीओ के लिए प्रतिबद्ध और उनकी देखभाल करने वाले नागरिक समाजों को आहत करेगा, क्योंकि यह लोगों के दिमाग में एनजीओ की गलत छवि पेश करता है। हम गैर-लाभकारी क्षेत्र का हिस्सा हैं और पैसे के बजाय लोगों के प्रति सहानुभूति हमें यहां लाती है।’


मुतरेजा ने सवाल किया, ‘सरकार एनजीओ से क्यों डर रही है? क्या यह इसलिए है क्योंकि हमारे पास आवाज है, हम बोलते हैं, हम सबसे ज्यादा हाशिये के मुद्दों को उठाते हैं, जिनके बारे में सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं है?’


उन्होंने कहा कि नियमों का पालन न करने वाले गैर-सरकारी संगठनों को निशाना बनाने के बजाय सभी गैर-सरकारी संगठनों को एक ही चश्मे से देखा जा रहा है।


उन्होंने कहा, ‘अतीत में फंड के उपयोग जैसे मुद्दों का सामना करने वाले कई संगठनों के खिलाफ आपराधिक जांच की गई है। इसके लिए सशक्त कानून हैं।’


चुनावी बॉन्ड और पीएम केयर्स के लिए फंड को लेकर पारदर्शिता कहां है?


विधेयक पर चर्चा के दौरान सामाजिक प्रभाव और परोपकार के लिए केंद्र की निदेशक इंग्रिड श्रीनाथ ने कहा कि फंड का खुलासा न करने, सदस्यों की पहचान छिपाने जैसे एकतरफा आरोप लगाए गए, लेकिन कोई सबूत पेश नहीं किए गए।


उन्होंने कहा कि गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने संसद में कहा कि विधेयक पारदर्शिता लाने और विदेशी योगदान का लोगों द्वारा दुरुपयोग रोकने के लिए है।


उन्होंने सवाल उठाया, ‘लेकिन चुनावी बॉन्ड के तहत (विदेश से भी) मिले छह हजार करोड़ रुपये का क्या जिसे लेकर कोई पारदर्शिता नहीं है या फिर पीएम केयर्स फंड के तहत मिले 9,600 करोड़ का क्या, जिसमें विदेशों से भी फंड आ रहा है, लेकिन एफसीआरए के तहत छूट प्राप्त है।’


उन्होंने आगे कहा कि जहां तक प्रशासनिक खर्च की बात है, उसमें केवल 1,803 संगठनों ने प्रशासनिक व्यय पर प्राप्त योगदान का 20 प्रतिशत से अधिक खर्च करने की सूचना दी।


सुदूर इलाकों में काम करने वाले एनजीओ को होगी परेशानी


भारतीय स्वैच्छिक विकास संगठनों के एक सर्वोच्च निकाय वानी (वॉलंटरी एक्शन नेटवर्क इंडिया) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हर्ष जेटली ने कहा कि सुदूर इलाकों में काम करने वाले नागरिक समाज संगठनों को सरकार के इस कदम से नुकसान होगा।


उन्होंने कहा, ‘दूर-दूर के कई गैर-सरकारी संगठन किसी भी विदेशी संसाधन तक नहीं पहुंच सकते. इसलिए बड़े और छोटे संगठन फंडिंग और ग्रोथ को सुनिश्चित करने के लिए मिलकर काम करते हैं, अब जिस पर असर होगा।’


उन्होंने कहा कि बाढ़ और हाल में जारी महामारी जैसे संकट के समय में एनजीओ महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।


उन्होंने आरोप लगाया, ‘स्थानीय संगठन बाढ़ के समय में नागरिक प्रशासन के साथ मिलकर काम करते हैं। उन्होंने हाल ही में प्रवासी श्रमिकों की मदद करने और कोविड-19 स्थिति से निपटने के लिए ऐसा किया। यहां तक कि प्रधानमंत्री और नीति आयोग ने गैर सरकारी संगठनों के काम की सराहना की, लेकिन अब इन एफसीआरए संशोधनों को बिना किसी परामर्श के लाया गया है।’


स्थानीय स्तर पर एनजीओ कार्यकर्ता चिंतित


इसका प्रभाव राज्यों में चल रहे छोटे गैर सरकारी संगठनों द्वारा सबसे अधिक महसूस किया जा रहा है। जमीनी कार्यकर्ता इस बात से चिंतित हो गए हैं कि एफसीआरए अधिनियम में बदलाव उन्हें उनकी आजीविका से वंचित करेगा।


झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में छोटे एनजीओ के साथ काम करने वाले लीड्स ट्रस्ट के संस्थापक और प्रबंध निदेशक एके सिंह ने कहा कि यह दुखद है कि यह विधेयक कोविड-19 के समय में आया है, जब सरकार और गैर-सरकारी संगठन एक साथ काम करने और लोगों के जीवन को बेहतर बनाने की कोशिश कर रहे हैं।


उन्होंने कहा, ‘हम एफसीआरए के घटनाक्रमों से दुखी हैं। मुझे लगातार फोन आ रहे हैं। इस क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्ताओं में घबराहट है।’


कारण बताते हुए उन्होंने कहा, ‘जिस प्रारूप में हम काम करते हैं वह यह है कि सभी संगठन धन जुटाने में समान रूप से सक्षम नहीं हैं। इसलिए बड़े संगठन धन जुटाते हैं और उन्हें आदिवासियों और समाज के अन्य पिछड़े और गैर-संगठित वर्गों के बीच काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों के पास भेजते हैं ताकि उन्हें विकास कार्यों से जोड़ा जा सके।’


कई दलित, आदिवासी, महिला कार्यकर्ताओं की नौकरी जा सकती है


उन्होंने कहा कि विधेयक में शामिल उप-अनुदान को स्वीकार न करने वाला प्रावधान सैकड़ों छोटे गैर सरकारी संगठनों और हजारों श्रमिकों को प्रभावित करेगा।


उन्होंने कहा, ‘इससे अकेले झारखंड में 5,000-7,000 श्रमिक बेरोजगार होंगे- उनमें से ज्यादातर दलित, आदिवासी या महिलाएं हैं। कोविड-19 के समय में यह सबसे अधिक हाशिये के वर्गों पर असर करेगा।’


विधेयक के पारित होने को एक पीड़ादायक और क्रूर कार्य करार देते हुए एके सिंह ने कहा कि धर्मांतरण जैसे मुद्दों को सीधे तौर पर लक्षित करने के बजाय यह विभिन्न सामाजिक कार्यक्रमों पर काम करने वाले संगठनों को निशाना बना रहा है।


उन्होंने चेतावनी दी, ‘हम विस्तार के लिए कार्यक्रमों की पहचान करने में सरकारों की मदद करते हैं। जैसे कि सरकार की मदद से 60 लाख रुपये की हमारी एक परियोजना को 9 करोड़ रुपये की सामुदायिक परियोजना में बदल दिया गया। लेकिन अगर फंड नहीं आता है तो हमारे जैसे कई संगठन जनता की आजीविका में सुधार के लिए काम नहीं कर पाएंगे।’


विधेयक से महिलाओं के आत्मनिर्भर अभियान को धक्का लगा


मध्य प्रदेश स्थित कॉन्सेप्ट सोसाइटी की निदेशक हेमल कामत ने कहा कि उनका संगठन आदिवासियों और दलित महिलाओं के साथ 15 वर्षों से काम कर रहा है, लेकिन अब विधेयक ने एक खतरनाक स्थिति पैदा कर दी है, जिसमें उनका अस्तित्व दांव पर है।


कामत ने कहा कि विडंबना यह है कि एक तरफ हम कह रहे हैं कि महिलाओं को संगठनों की स्थापना के माध्यम से आत्मनिर्भर बनाया जाना चाहिए और कई महिलाओं ने भी ऐसी इकाइयां शुरू की हैं लेकिन दूसरी तरफ इस संशोधन ने विरोधाभासी कानून बनाया है और महिलाओं की आत्मनिर्भरता को ठेस पहुंचाया है।


उन्होंने कहा कि कृषि, मिट्टी और जल संरक्षण और जलवायु परिवर्तन जैसे क्षेत्रों में महिलाओं के लिए लगभग 2,000 संगठन काम कर रहे हैं जो सरकार की नीतियों को अंतिम व्यक्ति तक ले जाते हैं। इन संगठनों में बड़ी संख्या में लोग कम वेतन पर काम करते हैं, लेकिन वे लोगों के जीवन में एक बड़ा बदलाव करते हैं।


उन्होंने कहा, ‘अब नए संशोधनों के तहत प्रशासनिक व्यय पर 20 प्रतिशत की सीमा के साथ एनजीओ के लिए उनके लिए भुगतान करना मुश्किल हो जाएगा।’


नॉर्थ ईस्ट में काम करने वाली इम्पल्स नेटवर्क की संस्थापक और चेयरपर्सन हसीना खारभीह ने कहा, ‘मानवाधिकारों और मानव तस्करी से संबंधित कई प्रगतिशील पहल अंतरराष्ट्रीय फंडों द्वारा वित्त पोषित की जाती रही हैं।’


उन्होंने कहा, ‘नया संशोधन जमीन पर वास्तविक काम को चुनौतीपूर्ण बना देगा। छोटे संगठन अद्भुत काम कर रहे हैं और अंतरराष्ट्रीय दानकर्ता विशेष रूप से राष्ट्रीय आपदाओं से निपटने में उनका समर्थन करते हैं।’


उन्होंने कहा कि संशोधन विकास क्षेत्र के लिए बिल्कुल भी अनुकूल नहीं थे क्योंकि वे ऐसे संगठनों और दूरदराज के क्षेत्रों में काम करने वालों को प्रभावित करेंगे।


पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की कार्यकारी निदेशक पूनम मुतरेजा ने कहा कि भारत के राष्ट्रपति से विधेयक पर अपनी सहमति नहीं देने और इसे संसद में वापस करने के लिए एक सामूहिक अपील की जाएगी, ताकि इसे अधिक चर्चा के लिए एक प्रवर समिति को भेजा जा सके।