रविवार, 22 सितंबर 2019

कैसे मिलेगी प्लास्टिक से मुक्ति: प्रतिबंध से पूरे औद्योगिक क्षेत्र को बड़ी चुनौती का सामना करना होगा

बात 1907 की है। 43 वर्ष के लियो बैकलैंड ने फिनॉल और फॉर्मल डीहाइड नामक रसायनों पर प्रयोग करते करते एक नए पदार्थ की खोज कर डाली। उन्होंने दुनिया का पहला कम लागत का कृत्रिम रेसिन बनाया था, जो आगे चलकर विश्व भर के बाजार में सफलतापूर्वक अपनी जगह बनाने वाला प्लास्टिक बन गया। इसके अविष्कारक के नाम पर ही इसका नाम बैकलाइट रखा गया।
इस कहानी को और भी अच्छे से समझने के लिए थोड़ा पीछे चलते हैं। लियो बैकलैंड बेल्जियम के नागरिक थे और उनका ताल्लुक एक गरीब परिवार से था। उनके पिताजी जूतों  की मरम्मत करते थे और उनकी मां आस-पास के घरों में काम करती थी। लियो की मां ने उन्हें रात्रिकालीन स्कूल में पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया और आगे चल कर उन्हें घेंट यूनिवर्सिटी में 20 साल की उम्र में पीएच.डी. करने के लिए छात्रवृति मिली।

बीसवीं सदी के पहले 30 वर्षों में बैकलाइट प्लास्टिक पूरी दुनिया में मशहूर हो गया था, जिसने लियो के लिए धन और समृद्धि के द्वार खोल दिए। जब 1924 में मशहूर टाइम मैगजीन के पहले पृष्ठ पर लियो की तस्वीर छपी, तब उसके नीचे सिर्फ यह लिखा था- 'ये न जलेगा, न पिघलेगा।' और देखते ही देखते प्लास्टिक आधुनिक दुनिया के विकास और लोगों की दैनिक जिंदगी का एक अहम् हिस्सा बन गया। 

वर्ष, 2011 में लेखिका सुजैन फ्रैंकल ने अपनी पुस्तक ए टॉक्सिक लव स्टोरी में लिखा कि हम अपने दैनिक जीवन में रोजाना कितनी वस्तुओं का सामना करते हैं। उनके सर्वे में यह उजागर हुआ कि हम रोजाना औसतन 196 ऐसी वस्तुओं का इस्तेमाल करते हैं, जो प्लास्टिक की बनी होती हैं। इसकी तुलना में केवल 102 ऐसी वस्तुओं का प्रयोग हम रोज करते हैं, जो प्लास्टिक की बनी हुई नहीं होतीं। यानी हम अपने जीवन में औसतन दो-तिहाई ऐसी वस्तुओं का इस्तेमाल करते हैं, जो प्लास्टिक की होती हैं।
मगर प्लास्टिक में बहुत बड़ी खामी है। प्रकृति जो देती है, वह उसे वापस लेना भी भली-भांति जानती है। प्लास्टिक सौ फीसदी कृत्रिम है, और इसे प्राकृतिक रूप से पचाने में बहुत समय लगता है। पूरी दुनिया की तरह भारत भी प्लास्टिक के कचरे की बढ़ती मात्रा की परेशानी से जूझ रहा है। भारत प्रतिदिन 26,000 टन प्लास्टिक का कचरा उत्पन्न करता है। हालांकि एक भारतीय प्रतिवर्ष औसतन 11 किलो प्लास्टिक का इस्तेमाल करता है, जो की अमेरिका के एक व्यक्ति के 109 किलो प्लास्टिक प्रति वर्ष के उपभोग से काफी कम है। एक रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक हमारे समुद्रों में इतना प्लास्टिक होगा, जो उस पानी में रह रही मछलियों के वजन से भी कहीं ज्यादा होगा।

एक ओर जहां प्लास्टिक हमारे विकास में अहम बन चुका है, वहीं दूसरी ओर यह हमारे पर्यावरण के लिए खतरा बनता जा रहा है। हाल ही में भारत सरकार ने एक बार इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक के उपयोग पर प्रतिबंध लगाना शुरू किया है, जिसमें प्लास्टिक के बने झोले, कप, प्लेट और छोटी बोतलें तक शामिल हैं। लोग इसका समर्थन करते नजर आ रहे हैं। प्लास्टिक पर प्रतिबंध आगामी नीति होने जा रही है, लेकिन प्लास्टिक के विकल्प खोजने की भी आवश्यकता है।

डेनमार्क की पर्यावरण एवं भोजन मंत्रालय की 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार यह माना गया कि प्लास्टिक के विकल्पों को पर्यावरण के अनुकूल मानने की धारणा बनाना भी एक गलती होगी। कागज और कपड़े के थैले भी पर्यावरण पर भारी पड़ते हैं- उन्हें बनाने में भी लकड़ी, पानी, शुद्ध हवा का इस्तेमाल होता है और इनके उत्पाद से भी जल का अम्लीकरण और वातावरण का प्रदूषण होता है। इस रिपोर्ट के निष्कर्ष में यही बताया गया है कि, यदि एक प्लास्टिक के थैले के मुकाबले बराबर वातावरण का प्रभाव सीमित करना है, तो एक कागज का थैला 43 बार और कपड़े का थैला 7,100 बार इस्तेमाल करना पड़ेगा। क्या हम इसके लिए तैयार हैं?

दुनिया भर में प्लास्टिक का इस्तेमाल करके घर और सड़क बनाई जा रही हैं। ईको-ब्रिक इस्तेमाल किए हुए प्लास्टिक की बॉटलों से बनते हैं, जिसका इस्तेमाल फर्नीचर और दीवार बनाने के लिए किया जा सकता है। भारत सरकार ने भी एक लाख किलोमीटर की सड़क के लिए प्लास्टिक का उपयोग करने का आवाहन किया है।

आने वाले कुछ समय में यदि प्लास्टिक पर पूर्ण प्रतिबंध लगेगा, तो न सिर्फ प्लास्टिक उद्योग, बल्कि समग्र औद्योगिक क्षेत्र को एक बड़ी चुनौती का सामना करना होगा, क्योंकि सभी प्लास्टिक से किसी न किसी प्रकार से संबद्ध हैं। एक ओर जहां प्लास्टिक से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान को ध्यान में रखना होगा, वहीं दूसरी ओर प्लास्टिक के पुनरुपयोग और उसके प्रतिस्थापन के लिए एक दीर्घकालिक नीति की आवश्यकता है|

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