शनिवार, 14 सितंबर 2019

हिंदी में छुआछूत की वही बीमारी है जो हमारे समाज में है

हिंदी दिवस पर विशेष: जितना बोझ आप बच्चों पर लाद रहे हैं डेढ़ लाख शब्दों का स्त्रीलिंग पुल्लिंग याद करने का, उतना मेहनत में बच्चा रॉकेट बना देगा।
लोग कहते हैं कि सिंध से हिंद बना है और हिंद से हिंदी बनी। ऐसी हालत में सारे भाषा वैज्ञानिक, सारे इतिहासकार यह बात लिखते हैं कि हिंदी शब्द विदेशी है। अब अगर सिंध से हिंद बना है और हिंद से हिंदी, हिंदी फारसी शब्द है, ऐसा कहने पर साबित होता है कि हिंदी शब्द भी हिंदी का नहीं है। लेकिन ऐसा है नहीं, बल्कि इसका उल्टा है।

उल्टा इस मामले में कि हमारे यहां हिंदूकुश पर्वत है, वह आज का थोड़ी है! सिकंदर का जो इतिहासकार है, उसने भी उसकी चर्चा की है। सम्राट अशोक के एक बेटे का नाम था महिंद। उसमें भी हिंद है। कुछ लोग कहते हैं महेंद्र लेकिन वह महिंद है। हिंद से सिंध बना है। सिंध से हिंद नहीं बना है। यह उल्टी व्याख्या है। यह बात हमारे पक्ष में किसी ने नहीं लिखी।

बहुत दिनों के बाद डॉ. बचन सिंह की किताब पढ़ी, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, उसमें उन्होंने लिखा है। अचानक हमारी नजर उस पर पड़ी कि हिंदू से सिंधु बना है, सिंधु से हिंदू नहीं बना है। उसका पुरातात्विक प्रमाण यह है कि सिंधु शब्द का प्रयोग आपको पुरातत्व में गुप्तकाल से पहले कहीं नहीं मिलेगा।

पुरातात्विक प्रमाण के अनुसार हिंदू और हिंदी शब्द ही पुराना है, कम से कम एक हजार साल पुराना। अभिलेखों में कई बार मिला है। यह ईसा से 500 वर्ष पहले का है। जबकि सिंध शब्द ईसा के 500 वर्ष बाद मिलता है। एक हजार वर्ष का फासला है। इसलिए सिंध से हिंद नहीं बना, हिंद से ही सिंध बना है।

अब हिंदी-अंग्रेजी के शब्दकोश देखें। अंग्रेजी की जो पहली डिक्शनरी है, 1400 ईस्वी में मैथ्यू वासिक ने संपादित किया था। उस डिक्शनरी में शब्दों की संख्या है दस हजार। आज वेबस्टर की जो अंग्रेजी डिक्शनरी है, उसकी शब्द संख्या है साढ़े सात लाख। तो सात लाख चालीस हजार शब्द कहां से आए अंग्रेजी में?

अंग्रेजी में शब्द दस हजार हैं और आज साढ़े सात लाख पहुंच गए हैं, यानी कि सात लाख चालीस हजार शब्द बाहर से आए। इसका पता हम लोगों को नहीं है। जैसे अलमिरा को हम लोग मान लेते हैं कि ये अंग्रेजी भाषा का शब्द है, लेकिन वह पुर्तगाली भाषा का शब्द है।

इसी तरह रिक्शॉ को हम मान लेते हैं कि अंग्रेजी का है, लेकिन वह जापानी भाषा का है। चॉकलेट को हम मान लेते हैं कि ये अंग्रेजी भाषा का शब्द है, लेकिन वह मैक्सिकन भाषा का है। बीफ को मान लेते हैं कि अंग्रेजी का है, लेकिन वह फ्रेंच भाषा का है। अंग्रेजी ने बहुत सी भाषाओं के शब्दों को लेकर अंग्रेजी से अपने को समृद्ध किया और संसार की सबसे समृद्ध भाषाओं में से एक है।

अब हिंदी को लीजिए। हिंदी की जो पहली डिक्शनरी है उसकी शब्द संख्या थी बीस हजार। अंग्रेजी का सीधा दो गुना। ये आई थी 1800 ईस्वी के कुछ बाद। पहली डिक्शनरी मानी जाती है पादरी आदम की और दूसरी श्रीधर की।

आज हिंदी डिक्शनरी में शब्दों की संख्या क्या है? डेढ़ लाख से दो लाख अधिकतम। शब्दों की संख्या नहीं बढ़ रही है हिंदी में। इसके कारण हैं। हम लोग उतने उदार नहीं हैं। हमारी भाषा में वही छुआछूत की बीमारी है जो हमारे समाज में है।

लोक बोलियों के शब्दों को हम लेते नहीं हैं। कह देते हैं कि ये गंवारू शब्द हैं। कोई बोल देगा कि तुमको लौकता नहीं है? तो कहेंगे कि कैसा प्रोफेसर है! कहता है तुमको लौकता नहीं है। इसी लौकना शब्द से कितना बढ़िया शब्द चलता है हिंदी में, परिमार्जित हिंदी में, छायावादी कवियों ने प्रयोग किया-अवलोकन, विलोकन। उसमें लौकना ही तो है।

कितनी मर्यादा और उंचाई है इन शब्दों में। उसी को आम आदमी बोल देता है कि तुमको लौकता नहीं है? लौकना और देखना में सूक्ष्म अंतर है। भोजपुरी क्षेत्र में महिलाएं कहती हैं कि हमारे सिर में ढील (जुआं) हेर दीजिए।

वे देखना शब्द का प्रयोग नहीं कर रही हैं। काले बाल में काला ढील आसानी से दिखाई नहीं देता, इसलिए वे कहतीं हैं कि ढील हेर दीजिए। कितना तकनीकी शब्द का इस्तेमाल है यह। मतलब गौर से देखिएगा तब वह छोटा-सा ढील दिखाई देखा।

इस तरह आप देखिए कि लोक बोलियों के शब्दों को लेने से हम लोग परहेज कर रहे हैं। विदेशी भाषा के शब्द लेने से आपकी भाषा का धर्म भ्रष्ट हो रहा है। क्रिकेट का हिंदी बताओ, बैंक का हिंदी बताओ, टिकट की हिंदी बताओ। टिकट का हिंदी खोजते-खोजते गाड़ी ही छूट जाएगी। यह छुआछूत का देश है।

इसीलिए हम विदेशी शब्द नहीं लेते कि यह तो विदेशी नस्ल का शब्द है, इसे कैसे लेंगे? यही कारण है कि हिंदी का विकास नहीं हो रहा है। अंग्रेजी बढ़ रही है लेकन हिंदी का विकास वैसा नहीं हो रहा है। हिंदी को छुआछूत की बीमारी है।

हिंदी में शब्दों की संख्या की कमी नहीं हैं। पहले हमारे यहां हिंदी की 18 बोलियां मानी जाती थीं। अब 49 मानी जाती हैं। हिंदी भारत के दस प्रांतों में बोली जाती है। इन दस प्रांतों की 49 बोलियों में बहुत ही समृद्ध शब्द भंडार है। हर चीज को व्यक्त करने के लिए शब्द हैं, लेकिन उसको अपनाने के लिए हम लोगों को परेशानी है।

हम भूसा शब्द का इस्तेमाल करते हैं। हिंदी शब्दकोश में भूसा मिलेगा, लेकिन पांवटा नहीं मिलेगा। जबकि भूसा और पांवटा में अंतर है। भूसा सिर्फ गेहूं का हो सकता है, लेकिन पांवटा धान का होता है। अवधी में इसे पैरा कहते हैं। दोनों एक ही चीज है। पांवटा पांव से है और पैरा पैर से।

दरअसल, हो क्या रहा है कि किसानों के शब्द हमारी डिक्शनरी में बहुत कम हैं। हमारे यहां राष्ट्र भाषा परिषद से दो खंडों में किसानों की शब्दावली छपी हुई है। उसमें कृषक समाज से जुड़े सभी शब्दों को शामिल किया गया है। लेकिन किसानों के शब्द, मजदूरों के शब्द, आम जनता के शब्द हमारी भाषा और शब्दकोश से आज भी गायब हैं। इसलिए गायब हैं कि हम मान लेते हैं कि ये ग्रामीण, गंवारू शब्द हैं।

हमारा देश धर्मप्रधान देश है। हमारी डिक्शनरी पर भी देवी देवताओं का वर्चस्व है। गाजियाबाद के एक अरविंद कुमार हैं, कोशकार हैं। उन पर खुशवंत सिंह ने एक टिप्पणी लिखी थी। उनकी एक डिक्शनरी है शब्देश्वरी। उसमें केवल शंकर भगवान के नामों की संख्या तीन हजार चार सौ ग्यारह है। विष्णु के एक हजार छह सौ छिहत्तर। काली के नौ सौ नाम हैं। दस देवी देवता दस हजार शब्दों पर कब्जा करके बैठे हुए हैं। लेकिन किसानों, मजदूरों और आम जनता के शब्द गायब हैं। ये आपको जोड़ना पड़ेगा।

अब हिंदी आ गई है ज्ञान युग में। ज्ञान युग में स्पेस के शब्द, साइबर कैफे के शब्द, विज्ञान की तकनीकी शब्दावली, इनका घोर अभाव है। इनकी हिंदी मत खोजिए। बैंक का हिंदी मत खोजिए। बैंक को बैंक के रूप में ही लीजिए। जैसे अंग्रेजी ने डकैत, समोसा, लाठी आदि तमाम को ले लिया, लेकिन हमको परेशानी हो रही है।

ये हमारी आचार्यवादी परंपरा है, इससे हिंदी का विकास नहीं होगा। हिंदी की जड़ता को अगर किसी ने तोड़ा है तो वो मीडिया वालों ने तोड़ा है। मीडिया वालों ने बहुत सारे नये-नये शब्दों का प्रयोग किया। मैं अखबार और पत्रिकाओं में देखता हूं कि मीडिया वालों ने परंपरा को तोड़ा है और हिंदी को विकसित किया है।

दूसरी चीज आप देखिएगा कि हिंदी का जो व्याकरण है, ये हिंदी के ढांचे में नहीं है। चूहा के बिल में मनुष्य नहीं न रह सकता है! किसी जीव का घर उस जीव के अनुसार होता है। इसी तरह हर भाषा का तेवर, उसकी आत्मा, उसका मिजाज अलग-अलग होता है। इसीलिए हिंदी का जो तेवर है, जो मिजाज है, जो उसकी आत्मा है, उसके मुताबिक हिंदी का व्याकरण है ही नहीं।

हिंदी का व्याकरण क्या है? 50 प्रतिशत अंग्रेजी का नकल है और 50 प्रतिशत संस्कृत व्याकरण की नकल है। अंग्रेजी वाले ने अंग्रेजी का ग्रामर लिखा। उसने लिखा नाउन, प्रोनाउन, एडजक्टिव, वर्ब, एडवर्ब, प्रीपोजशन, कंजक्शन आदि। आपने उसका अनुवाद कर दिया संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया वगैरह-वगैरह।

उसने अंग्रेजी भाषा के अनुसार अंग्रेजी का ग्रामर बनाया। आपने उसका अनुवाद किया। फिर नाउन का उसने पांच भेद किया। अरे भाई उसने अपनी भाषा का भेद किया! प्रॉपर नाउन, कॉमन नाउन वगैरह। अब आप उसका अनुवाद व्यक्तिवाचक, जातिवाचक, समूहवाचक… कर रहे हैं। ये हिंदी नहीं है। वो तो अंग्रेजी का फ्रेम है, उसी में आपने अनुवाद कर दिया।

भोजपुरी में जो लोग व्याकरण लिखते हैं, वे हिंदी की नकल उतार लेते हैं। जबकि दोनों के मिजाज में बहुत अंतर है। जैसे हिंदी के आचार्यों ने संस्कृत की नकल में संधि बना ली। हिंदी में संधि है कहां?

हिंदी का कोई भी शब्द संधि नहीं करता है। आंखालय नहीं बनेगा, नेत्रालय ही बनेगा। पेट और लोटा में संधि नहीं होगा। चिड़िया में और डंडा में संधि नहीं होगा। जब भी संधि करेगा तो संस्कृति ही करेगा। हिंदी का मिजाज संधि के खिलाफ है।

अगर हिंदी संधि करेगा तो संस्कृत का व्याकरण चरमरा जाएगा। हिंदी वालों ने विश्वामित्र में कर दिया, मूसलाधार में कर दिया। मूसलाधार में कौन संधि है कोई बताए? मूसल और आधार हो जाएगा, कोई अर्थ ही नहीं निकलेगा। तो हिंदी वालों ने कुछ संस्कृत का उतार लिया कुछ अंग्रेजी का उतार लिया। हिंदी के व्याकरण का नकल उतार लिया भोजपुरी वाले ने।

हिंदी का उपसर्ग अलग है, भोजपुरी का उपसर्ग अलग है। एक शब्द खीर चलता है तो दूसरा ब लगाकर बखीर चलता है। एक शब्द खेदना चलता है, तो वह भोजपुरी में लखेदना चलता है। ल उपसर्ग है हिंदी में? ब उपसर्ग है हिंदी में? तो भोजपुरी में हिंदी घुसा रहे हो तो वह कैसे घुसेगा?

तुम तो वही कर रहे हो कि चूहा के बिल में चिड़िया को और चिड़िया के घोंसला में चूहा को रख रहे हो। दोनों के अलग-अलग मिजाज हैं और दोनों को अलग ही रहने देना चाहिए। इसलिए हिंदी का व्याकरण लिखा जाना बाकी है और इसे लिखा जाना चाहिए।

दूसरी चीज यह भी है कि हिंदी को हम लोगों ने जटिल किया है। यह जटिलता हिंदी के विकास में बाधक है। इसको उदाहरण से समझिए। सीता स्त्रीलिंग है तो उसका प्रभाव आपकी हिंदी के पूरी वाक्य संरचना पर पड़ता है।

सीता स्त्रीलिंग है तो सीता जा रही है। क्रिया प्रभावित हो रही है सीता की वजह से। एडजक्टिव भी प्रभावित हो रहा है। अच्छी सीता। अच्छा सीता नहीं कह सकते हैं। अच्छा लड़का, अच्छी लड़की। लड़का जा रहा है, लड़की जा रही है। राम की लड़की, अब लड़का होगा तो राम का लड़का कीजिए। ये कितना पेचीदा है? ये कौन सीखेगा तुम्हारा हिंदी?

एडजक्टिव बदलो। क्रिया बदलो। क्रिया विशेषण बदलो। यह सब कौन बदलकर सीखेगा? यह दुनिया की किसी भाषा में नहीं है, लेकिन अपने यहां है। संधि किसी भाषा में नहीं है। सारी ट्राइबल भाषा, द्रविड़ भाषा, उत्तर-पूर्व की सारी भाषाएं, किसी में नहीं है ये सब? ये जटिलताएं हिंदी के विकास में बहुत बड़ी बाधक हैं।

हमारे यहां तो लिपि भी बहुरुपिया है। ये जो हिंदी में र है, यह देखिए कितने रूप धारण करता है. एक क्रय में है, एक कृत में है, एक मित्र में है, एक कर्म में है। यह बहुरुपिया है। इतने तरह से र लिखते हैं। काहे के लिए इतना बोझा लाद रखा है? सब बोझा ढो रहा है। बाप दादा ढोता रहा है, हम भी ढो रहे हैं।

हम तो कहते हैं कि जितना बोझ आप बच्चों पर लाद रहे हैं कि डेढ़ लाख शब्दों का स्त्रीलिंग पुल्लिंग याद करने का, उतना मेहनत में बच्चा रॉकेट बना देगा। ईंट, पत्थर, दूध, रोटी सबका जेंडर बताओ। पूंछ उठाकर दिखाओ कि कौन शब्द स्त्रीलिंग है और कौन पुल्लिंग।

इस विज्ञान के युग में तुम्हारी बात कोई नहीं मानेगा। वह जमाना खत्म हुआ। यह अनावश्यक बोझ क्यों डाल रहे हैं आप? बिना लिंग और जाति का अगर समाज हो सकता है, तो भाषा भी हो सकती है। हम आप सोच नहीं रहे हैं।

बच्चा अपनी सारी उर्जा इसी में लगा देगा तो फिजिक्स क्या पढ़ेगा? संविधान क्या पढ़ेगा? वह तो इसी में उर्जा लगाएगा कि रहा है होगा कि रहे हैं होगा। बिंदी होगा कि चांद बिंदी होगा। ये सारी व्यवस्था आचार्यों ने इसलिए दी क्योंकि भाषा की यह जटिलता एक तरह से आम जनता की जुबान पर ताला है।

हम व्याकरण के इतने नियम लगा देंगे कि मंच पर खड़ा होकर निचले समाज का आदमी बोलने से डरेगा। उसे लगेगा कि हम गलत तो नहीं बोल रहे? उसे लगेगा कि कहीं हमारा व्याकरण न गलत हो जाए। यह जुबान पर ताला है। जो कहना है वह संप्रेषित हो जाए, यह काफी नहीं है?

हिंदी में अभी तक विसर्ग चल ही रहा है। विसर्ग हिंदी में है ही नहीं। हमारे यहां पढ़ाया जाता है कि अपभ्रंश से हिंदी का विकास हुआ। एक यहां जेएनयू के प्रोफेसर हैं डॉ. नामवर सिंह। उनका रिसर्च ही है हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान। मतलब अपभ्रंश से हिंदी का विकास हुआ है। अपभ्रंश का मतलब क्या हुआ? गिरा हुआ, पतित, नीच।

आज तक भारत के किसी भी कवि, साहित्यकार ने कहा कि हमारी भाषा अपभ्रंश है? कोई कहेगा कि हमारी भाषा भ्रष्ट है? एक भी उदाहरण दे दीजिए कि कोई भी साहित्यकार कह रहा हो कि हमारी भाषा अपभ्रंश है. जिसने कहा, उसने ये कहा कि हमारी भाषा देसी भाषा है।

ये आचार्य लोग हैं जिन्होंने जलील करने के लिए कहा कि इनकी भाषा अपभ्रंश है। कोई क्यों कहेगा कि मैं अपभ्रंश हूं? ये तो दूसरे का दिया हुआ नाम है। अपभ्रंश नाम की कोई भाषा ही नहीं है। दुनिया में हर चीज का विकास हो रहा है। पाषाण युग से दुनिया आ गई विज्ञान युग में और तुम कौन सा भाषा का इतिहास पढ़ा रहे हो कि संस्कृत विकसित भाषा थी और उसके बाद अपभ्रंश का युग आ गया? नीचे गिरी हुई भाषा का युग आ गया। ऐसा भी होता है क्या?

दुनिया हर क्षेत्र में- तकनीक में, विज्ञान में, साहित्य में- हर कहीं प्रगति करती जा रही है तो तुम्हारे यहां संस्कृत में गिरी हुई भाषा का युग आ गया। तो अपभ्रंश से हिंदी का विकास बताना भारत के भाषा वैज्ञानिक बंद करें। इस पर किसी ने उंगली नहीं उठाई, न किसी का ध्यान गया। लेकिन अपभ्रंश की कल्पना कपोलकल्पित है। अपभ्रंश नाम की कोई भाषा नहीं थी। भारत के किसी साहित्यकार ने नहीं कहा है कि हमारी भाषा अपभ्रंश है। ये तो आचार्यों ने इस तरह वर्गीकरण कर दिया है।

वास्तव में, अपभ्रंश है क्या? अपभ्रंश है उत्तर प्राकृत. प्राकृत का विकसित रूप है उत्तर प्राकृत। उत्तर प्राकृत से भले मानिए हिंदी का विकास। उस पर मेरी आपत्ति नहीं है. हमारी हिंदी संस्कृत से अलग थी। पहले कवि माने जाते हैं कबीर। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी लिखा है कि हिंदी का पहला कवि कबीर को माना जाए।

आप कबीर की भाषा में देख लीजिए। मैंने गिनकर देखा है। कबीर की भाषा में संस्कृत के शब्द दो प्रतिशत से भी कम हैं। कोइला भई ना राख। कबिरा खड़ा बजार में लिया लुकाठी हाथ। कहां संस्कृत है कबीर के यहां?

कबीर ने संस्कृत शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया है। कबीर की भाषा में संधि भी नहीं मिलेगी। वही हिंदी है। ये संस्कृत की छाप सबसे अधिक तुलसीदास में है। तुलसी की भाषा में संधि भी मिलेगी और तुलसी की भाषा में संस्कृत की बहुत सारी शब्दावलियां मिलेंगी। इसी का उत्थान छायावाद में हुआ है।

हिंदी के लिए जरूरी नहीं है कि वह संस्कृत की बैसाखी लेकर चले। कबीर ने संस्कृत की बैसाखी नहीं ली लेकिन कबीर की भाषा और कबीर की कविता आज भी, पूरे एक हजार साल के हिंदी के इतिहास में सर्वाधिक मारक है। उसके पास वेध देने की जो क्षमता है, वो कहीं नहीं मिलेगी। कबीर की भाषा में संस्कृत कहीं नहीं मिलेगी लेकिन कविता सबसे उम्दा कबीर की है।

निराला की एक कविता है राम की शक्ति पूजा। उसको तो हम कहते हैं कि हिंदी की कविता ही नहीं है। उसमें 98 प्रतिशत संस्कृत शब्दों का प्रयोग है। हिंदी में अगर 98 प्रतिशत अरबी या फारसी डाल देंगे तो उसे हिंदी कहेंगे? नहीं कहेंगे। वह उर्दू हो जाएगी।

इसी तरह हिंदी में अगर आप 98 प्रतिशत संस्कृत के शब्द डाल देंगे तो वह हिंदी कहां रही। तो हिंदी के विकास में कुछ जटिलताएं हैं. सहजताबोध लाना होगा। हिंदी को सहज बनाना होगा। ताकि हिंदी का विकास हो। लोक बोलियों के शब्दों को, विदेशी शब्दों को हिंदी में लेना होगा।

जहां तक भाषाओं के मरने का सवाल है तो होता यह है कि भाषाएं मरती हैं और जन्म लेती हैं। इसमें दो चीजें हैं। एक तो यह कि कहा जाता है कि भाषाएं मर रही हैं। खत्म हो रही हैं। उल्टा कैसे हो गया कि संस्कृत एक ही भाषा थी, फिर उससे पांच प्राकृत हो गया। फिर उससे बोलियां भी हो गईं?

एक भाषा थी फिर उससे इतने बच्चे हुए। फिर उससे इतने हुए। एक भाषा थी। फिर कई हो गईं। फिर उससे कई हो गईं। अपभ्रंश हो गया। बोलियां हो गईं। यह तो उल्टा हो गया। हम लोग तो उल्टा पढ़ा रहे हैं। भाषाएं मर नहीं रही हैं। पैदा हो रही हैं। बहुत सारी भाषाएं जन्म ले रही हैं। पत्रकारिता की जो भाषा है, सोशल मीडिया की जो भाषा है, उधर नगालैंड की जो भाषा है, ये सब तो हाल में जन्मी भाषाएं हैं।

अवधी भोजपुरी का बॉर्डर है तो वहां एक नई भाषा पनप गई। जहां जहां बॉर्डर है, वहां एक अलग भाषाएं जन्म ले लेती हैं। भाषाएं मरती नहीं हैं, जन्म लेती हैं। यह जरूर है कि समूह विशेष की संख्या अगर कम हो रही है या खत्म हो रही है तो उसकी भाषाएं खत्म हो जाती हैं। खासकर ट्राइबल इलाकों में जो समूह खत्म हो रहे हैं, उनकी भाषाएं खत्म हो रही हैं। यह एक चीज जरूर है। इस पर सरकार को ध्यान देना चाहिए कि वह कैसे संरक्षित की जाए।

एक भाषा के वर्चस्व पर यह कहूंगा कि लोक बोलियां जितनी हैं वे नदियां हैं। इनका जन्म प्राकृतिक रूप से हुआ है। जिसको आज की हिंदी कहा जाता है यह नहर है। इसका निर्माण हुआ है। जो फर्क नदी और नहर में है, वही फर्क लोक बोली और हिंदी में है। अब ये है कि हिंदी वालों ने पक्षपात किया इस मामले में।

हिंदी के शब्दकोश में शब्द कहां से लिए गए हैं? वहीं बनारस, इलाहाबाद के आसपास अवधी, ब्रज और भोजपुरी, इसी से पूरा हिंदी का शब्दकोश भरा पड़ा है। आपकी डिक्शनरी में राजस्थानी के कितने शब्द हैं? हिमाचल प्रदेश के कितने शब्द हैं? उधर, हरियाणवी और छत्तीसगढ़ी के कितने शब्द हैं?

ज्यादातर लोकबोलियों की उपेक्षा हुई है। इसमें वर्चस्व रहा है ब्रज भाषा, अवधी और भोजपुरी का। इन्हीं के शब्दों से आपका शब्दकोश बना है जिसे हिंदी कहा जाता है। लेकिन यह कुछ ही बोलियों को प्रतिनिधित्व करता है. बाकी बोलियों को शामिल नहीं किया गया। इसको तोड़ना होगा।

इसका कारण यह है कि जितने भी हिंदी के कोशकार हुए हैं, वे या तो इलाहाबाद के हुए या फिर बनारस के हुए। उन्होंने अपने आसपास की भाषा तो ठूंस दी लेकिन बाकी की उपेक्षा हुई। अब अगर कोशकार राजस्थान, हरियाणा, झारखंड या छत्तीसगढ़ का होता तो शब्दकोश में उनकी भी बोली का प्रतिनिधित्व रहता।

हिंदी कौरवी बोली के ढांचे पर खड़ी है। ढांचा उसी का है। राम जाता है या राम ने कहा या मैं कहूंगा, इसका संस्कृत से कोई तालमेल है? संस्कृत में गा, गी, गे कहां है? कहेंगे, कहेगा, बोलेगा, बोलूंगा यह संस्कृत में कहां है? नहीं है। वो मां है और ये बेटी है तो माई बेटी का कोई नाक-नक्शा मिलेगा कि नहीं मिलेगा?

हिंदी में ने, को, था, थी, थे, हूं। ये संस्कृत में कहां हैं? ये सब कौरवी भाषा का है। हिंदी के कोशकारों ने ढांचा तो कौरवी का लिया लेकिन उस भाषा के शब्द हिंदी शब्दकोश में नहीं डाले। कौरवी का यही वास्तविक ढांचा है।

जहां का इतिहासकार होगा, उसका असर भी होगा। जैसे हिंदी के लगभग सभी इतिहासकार उत्तर प्रदेश के हुए। हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, राम स्वरूप चतुर्वेदी, राम कुमार वर्मा आदि हुए। ये सब उत्तर प्रदेश में ही रहते थे। इन लोगों ने छायावाद बनाया।

छायावाद में चार कवि. प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी वर्मा। ये चारों उत्तर प्रदेश के हैं। बाकी नौ प्रांत क्या कर रहे थे? सब छायावाद उत्तर प्रदेश में ही लिखा जा रहा था तो बाकी के प्रदेश क्या कर रहे थे? झारखंड में कोई कवि था कि नहीं था? छत्तीसगढ़ में कोई कवि था कि नहीं था?

जरूर रहा होगा. इतिहासकार जब भी लिखता है, उसको समझ में नहीं आता, वह अपने ही प्रांत का इतिहास लिखता है. नादानी से ही लिख डालता है। एक ने इलाहाबाद में बना दिया कि छायावाद में चार ही कवि हैं। बाकी ने वही मान लिया. केवल उत्तर प्रदेश ही तो कविता नहीं लिख रहा था। अन्य प्रांत में भी लिखा जा रहा था। यही मसला भाषा के साथ है।

छायावाद के बाद प्रयोगवाद आया। तारसप्तक वाला. तारसप्तक में दो कवि थे। एक उत्तर प्रदेश के दूसरा मध्य प्रदेश का. तो उन्होंने सप्तक में जो कवि लिए, वे उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के थे। बिहार का एक भी कवि है प्रयोगवाद में? बिहार का एक भी कवि है छायावाद में? इसी प्रकार कोशकार जहां के थे, उन्होंने वहीं का कोश लिख डाला।

रामचंद्र वर्मा से लेकर बद्रीनाथ कपूर और हरदेव बाहरी ने ही तो डिक्शनरी लिखी है। उन्होंने बता दिया कि यही पढ़ो, हिंदी यही है। बाकी का जिक्र ही नहीं हुआ। तो इसलिए मेरा कहना है कि हिंदी को और ज्यादा उदार बनाकर उसका दायरा और बढ़ाने की जरूरत है। तभी हिंदी विकास करेगी।

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