रविवार, 22 सितंबर 2019

जल के दोहरे संकट से निपटने का समय: 2030 तक

जल शक्ति मंत्रालय को 2024 तक देश के सभी घरों में नलों के जरिये स्वच्छ पानी पहुंचाने का काम सौंपा गया है। 40 फीसदी भारतीयों के पास पीने का पानी नहीं होगा
देश के सामने पानी की दोहरी समस्या है-एक तरफ पानी की कमी है, दूसरी तरफ स्वच्छ जल की अनुपलब्धता है। नीति आयोग के अनुसार, वर्ष 2030 तक करीब 40 फीसदी भारतीयों के पास पीने का पानी नहीं होगा। इस संकट का मुकाबला करने के लिए सरकार पहले से ही रणनीति बना रही है। प्रधानमंत्री ने जहां लोगों से जल संरक्षण में योगदान करने का आग्रह किया है, वहीं जल शक्ति मंत्रालय को 2024 तक देश के सभी घरों में नलों के जरिये स्वच्छ पानी पहुंचाने का काम सौंपा गया है।

पर देश दूसरी जिस बड़ी समस्या का सामना कर रहा है, वह है स्वच्छ पेयजल तक पहुंच में कमी। नीति आयोग द्वारा हाल ही में जारी समग्र जल प्रबंधन सूचकांक (सीडब्ल्यूएमआई) में कुछ निराशाजनक आंकड़े सामने आए हैं। देश में लगभग 70 फीसदी दूषित पानी की आपूर्ति हो रही है। जल गुणवत्ता सूचकांक में भारत 122 देशों के सूचकांक में 120वें स्थान पर है।

नीति आयोग की सीडब्ल्यूएमआई रिपोर्ट आगे कहती है कि अनुमानतः दो लाख लोग हर साल स्वच्छ पानी उपलब्ध न हो पाने के कारण मरते हैं। विश्व बैंक, यूनिसेफ, विश्व स्वास्थ्य संगठन आदि के कुछ अध्ययन बताते हैं कि भारत में लगभग 20 प्रतिशत संक्रामक रोग, जैसे-डायरिया, हैजा, टाइफाइड और वायरल हेपेटाइटिस, आदि प्रदूषित जल के कारण होते हैं।

भारतीयों द्वारा प्रदूषित जल के उपभोग के कारण हर साल कुल स्वस्थ जीवन वर्षों का जो नुकसान होता है, वह 3.5 से 4.5 करोड़ वर्षों के बीच कुछ भी हो सकता है। उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग, बगैर उपचारित किए या आंशिक रूप से उपचारित कर सीवेज वाटर और गंदे पानी की आपूर्ति, रसायनों के असुरक्षित प्रयोग और असुरक्षित और अवैज्ञानिक तरीकों से भूजल स्टोर करने और अन्य कारणों से हमारी नदियों के तटों का अधिकांश हिस्सा साल-दर-साल दूषित होता जाता है। 

साइंस डायरेक्ट द्वारा हाल ही में प्रकाशित एक शोध में राजस्थान के कुछ कुओं के पानी में फ्लोराइड और नाइट्रेट जैसे विषैले तत्वों की मौजूदगी का संकेत मिला। पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडु और देश के कई खाद्य सुरक्षा वाले राज्यों व क्षेत्रों में स्थिति इससे अलग नहीं है। कुओं में प्रदूषण का स्तर भारतीय और विश्व स्वास्थ्य संगठन के पेयजल मानकों से कहीं अधिक है। जांच परिणामों ने ओडिशा में फ्लोराइड विषाक्तता और पश्चिम बंगाल के पेयजल स्रोतों में आर्सेनिक विषाक्तता के संकेत दिए हैं।

स्पष्ट है कि हर घर में स्वच्छ पेयजल पहुंचाना आसान काम नहीं है। नागरिक समाज और उद्योगों के साथ काम कर बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है। ग्रामीण स्तर के उद्यमों, स्वयं सहायता समूहों और सामाजिक उद्यमियों को ग्रामीण व शहरी स्तर पर लोगों को शिक्षित-प्रशिक्षित करने के लिए तैयार किया जाना चाहिए। स्कूलों, कॉलेजों और कार्यालयों में विशेष कार्यशालाएं आयोजित की जानी चाहिए, जो रोजमर्रा के जीवन में हानिकारक रसायनों और विषाक्त पदार्थों के बारे में लोगों को शिक्षित करें।

सीआईआई यानी भारतीय उद्योग परिसंघ द्वारा पूरे देश में वाटरस्कैन डिसिजन सपोर्ट सिस्टम (डिजिटल वाटर स्कैनिंग उपकरण) लगाने का अनुभव बताता है कि इससे पानी और अपशिष्ट जल प्रबंधन समेत सुरक्षित निष्पादन के लिए होने वाले निवेश और आधारभूत खर्च को करीब 40 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। ऐसी परियोजनाएं तैयार और अनुमोदित करने की आवश्यकता है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत से समझौता किए बगैर अपशिष्ट जल का उपयोग किया जा सके। अपशिष्ट जल के उपचार के बाद उसके दोबारा उपयोग से प्रदूषण नियंत्रण में मदद मिलेगी। ऐसे पानी का इस्तेमाल देश की कृषि और औद्योगिक जरूरत पूरी करने के लिए भी किया जा सकता है।

इस मामले में इस्राइल अग्रणी देश है, जो कृषि सिंचाई के लिए अपने अपशिष्ट जल का लगभग 90 फीसदी का उपयोग करता है। ऐसे ही नीदरलैंड्स के पास ऐसी उन्नत तकनीक है, जो कई बार जल के इस्तेमाल को सक्षम बनाती है। भारत को भी जल का दोबारा प्रयोग करने और इसे घरेलू, कृषि या औद्योगिक उपयोग हेतु सुरक्षित बनाने के लिए स्थायी तरीके विकसित करने के लिए शैक्षिक संस्थानों और तकनीकी कंपनियों के साथ काम करने की जरूरत है।

दो सौ से भी अधिक वाटर ऑडिट के माध्यम से भारतीय उद्योग परिसंघ ने पता लगाया है कि मध्यम से कम लागत की रणनीतियां अपनाकर अपशिष्ट जल और दूषित प्रवाह में 30 से 40 फीसदी की कमी की जा सकती है। उद्योग जगत और आम लोगों के साथ तालमेल बनाकर देश को दोहरे जल संकट से उबारा जा सकता है, जो बढ़ती आबादी, प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव और अप्रत्याशित जलवायु परिवर्तन के असर से बदतर हो रहा है। जल संरक्षण, वर्षा जल संचयन, पुनर्चक्रण और पुन: उपयोग को प्रोत्साहित करने वाली स्थायी पहल को बढ़ावा देने से जल प्रदूषण की समस्या से प्रभावी ढंग से निपटा जा सकता है।

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