महिलाओं के खिलाफ हिंसा के रोज नए मामलों के बीच एक हालिया रिपोर्ट से ये प्रश्न उठा है कि जब जन प्रतिनिधि ही बेदाग ना हों, तब सुधार की कितनी उम्मीद है? एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने अपनी एक रिपोर्ट में दावा किया है कि कम से कम इस वक्त 76 सांसदों और विधायकों के खिलाफ महिलाओं के खिलाफ जुर्म के मामले दर्ज हैं।
इन जन प्रतिनिधियों ने यह जानकारी खुद ही चुनाव आयोग को दी। इनमें 58 विधायक हैं और 18 सांसद। इनमें से नौ सांसद और विधायक ऐसे हैं, जिन्होंने बलात्कार जैसे अपराध के मामले घोषित किए हैं। इनमें सबसे ज्यादा भारतीय जनता पार्टी के नेता है। दूसरे नंबर पर कांग्रेस और तीसरे नंबर पर वाईएसआरसीपी है। 16 ऐसे विधायकों के साथ पश्चिम बंगाल सबसे आगे है। इसके बाद स्थान है ओडिशा और महाराष्ट्र हैं, जहां ऐसे 12-12 दागी हैं। और भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि इस तरह की आरोपों वाले जन प्रतिनिधियों की संख्या चुनाव दर चुनाव बढ़ती जा रही है। 2009 से 2019 के बीच लोकसभा में महिलाओं के खिलाफ घोषित आरोप वाले सांसदों की दो सांसदों से बढ़कर 18 हो गई है। यह तो बात हुई उन लोगों की जो चुनाव जीते। इनसे कहीं ज्यादा बड़ी संख्या उन कुल उम्मीदवारों की है, जो चुनाव हार गए। पिछले पांच साल में लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों में 572 उम्मीदवार ऐसे थे, जिन पर महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले दर्ज हैं। इनमें से 410 ऐसे थे, जिन्हें किसी न किसी राजनितिक दल ने टिकट दिया था।
पराजित उम्मीदवारों की सूची में महाराष्ट्र सबसे आगे है, जहां 84 ऐसे उम्मीदवार थे। बिहार से ऐसे 75 उम्मीदवार थे और पश्चिम बंगाल से 69। भारत में अभियुक्तों के चुनाव लड़ने पर पाबंदी नहीं है। चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध उन्हीं पर लागू है, जिनके अपराध सिद्ध हो जाते हैं। अगर किसी जन प्रतिनिधि के खिलाफ अपराध साबित हो जाता है और उसे न्यूनतम दो साल की सजा सुनाई जाती है, तो उसकी सदस्यता रद्द हो जाती है। वह नेता जब सजा काट कर बाहर निकलता है, तो उसे अगले छह साल तक चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं होती। हकीकत यह है कि भारत में मुकदमे लंबे चलते हैं और जब तक कोई अपराधी सिद्ध नहीं हो जाता तब तक पार्टियां उसे टिकट देती रहती हैं। इससे समस्या गहरती चली गई है।

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