देश भर के प्रादेशिक क्षत्रपों में जो एक-दो नेता किसी भ्रम में नहीं हैं तो उनमें से एक नीतीश कुमार भी हैं। नीतीश कुमार ने ममता बनर्जी के बांग्ला उप राष्ट्रीयता से बहुत पहले बिहारी उप राष्ट्रीयता का दांव आजमाया था। उन्होंने बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने के लिए बड़ा जोरदार आंदोलन किया था। उन्होंने बिहार में और बाहर भी बिहार दिवस मनाने की परंपरा शुरू कराई थी और बिहार गीत भी लिखवाया था। पर अंततः उन्होंने इससे तौबा कर ली। उनको इसका कोई फायदा नहीं हुआ। उलटे भाजपा के मुकाबले अकेले लड़ कर उन्होंने अपनी भद्द पिटवाई। 2014 के लोकसभा चुनाव में वे उसी हाल में पहुंच गए थे, जिस हाल में 2019 के चुनाव में राजद पहुंची है।
तभी नीतीश कुमार के सिर से धर्मनिरपेक्षता का भी भूत उतर गया है, बिहारी उप राष्ट्रीयता का मुद्दा भी उन्होंने छोड़ दिया है और सुशासन वगैरह की भी बातें बंद कर दी हैं। अब वे खुद समाज सुधारक बन गए हैं और हिंदुवादी राष्ट्रवाद की लगातार चौड़ी होती धारा में बहने का फैसला कर लिया है। उनको पता है कि अगर वे बिहार के मुसलमानों के लिए भी कुछ करना चाहते हैं तो उसके लिए सत्ता में रहना जरूरी है। और सत्ता में रहने का एकमात्र रास्ता भाजपा के साथ रहना है।
उनके लिए अच्छी बात यह है कि भाजपा बिहार में उनको बड़ा भाई मानती है। उनके एजेंडे पर अमल से इनकार नहीं करती है। उनक अपने हिसाब से काम करने देती है। उनको छोड़ कर भाजपा ने भी खुद को आजमा लिया है। भाजपा के पास उनके मुकाबले कोई ऐसा चेहरा नहीं है। करीब चार दशक की राजनीति में भाजपा ने सुशील मोदी के जिस चेहरे को आगे करके राजनीति की उसके प्रति समाज के बहुत बड़े वर्ग का सद्भाव नहीं है। तभी भाजपा भी नीतीश के प्रति सद्भाव दिखाती है। दोनों एक दूसरे के पूरक बन गए हैं और समझ गए हैं कि एक दूसरे के बिना उनका काम नहीं चलना है।
नीतीश कुमार के तमाम किस्म के मुगालतों से बाहर आ जाने का एक कारण यह भी है कि अब उनकी उम्र 69 साल होने वाली है और प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा उन्होंने छोड़ दी है। एक समय ऐसा था, जब वे नरेंद्र मोदी का विकल्प माने जा रहे थे। पर उनको समझ में आ गया कि अब नब्बे के दशक वाला समय नहीं है और वे बिना किसी बड़े संगठन या ताकत के प्रधानमंत्री नहीं बन सकते हैं। सो, उन्होंने चुपचाप वापस भाजपा के साथ समझौता कर लिया और अपने लिए सम्मानजक जगह सुनिश्चित कर ली। अब उनका एकमात्र लक्ष्य यह है कि 2020 के अंत में होने वाले चुनाव में जीत कर एक बार फिर बिहार के मुख्यमंत्री बन जाएं और 75 साल की उम्र तक पद पर रह कर सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने का श्रीकृष्ण का रिकार्ड तोड़ें और फिर रिटायर हों।
हालांकि कई जानकार यह भी मान रहे हैं कि यह सब भी उनका मुगालता ही है क्योंकि चुनाव में क्या होगा, भाजपा क्या करेगी और बिहार की जनता क्या करेगी, इसका किसी को अंदाजा नहीं है। पर नीतीश कुमार कम से कम अभी मान रहे हैं कि बिहार में लोगों का भाजपा के प्रति सद्भाव रहेगा और भाजपा का सद्भाव उनके प्रति रहेगा।

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