रविवार, 22 दिसंबर 2019

नरेंद्र मोदी-अमित शाह, भाजपा, संघ का उद्देश्य हिंदुओं को मूर्ख, गुलाम बनाना है!

देखो, बूझो भावी भारत की फोटो
पता नहीं नरेंद्र मोदी-अमित शाह, भाजपा, संघ ने गुजरे सप्ताह भावी भारत की तस्वीरों को बूझा या नहीं? हां, पांच-दस-बीस साल बाद भारत के जिलों, शहरों में वहीं लगातार हुआ करेगा जैसा हाल में दिल्ली, लखनऊ, मुंबई, कोलकाता, आदि उन दर्जनों जगह दिखा है, जहां नमाजी टोपी- दाढ़ी याकि वह विशेष पहनावे वाली आबादी है, जिसका संकेत देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक जनसभा में कहा था कि नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करने वालों को उनके पहनावे से जानो। तभी संभव है कि गुरुवार की तस्वीरों में खास पहनावे की भीड़ देख मोदी-शाह मन ही मन उछले हों कि वाह, मुसलमान अब सड़कों पर है तो हमारे हिंदू वोट और पक्के। बन रहा है 2024 में जीत का पक्का रोडमैप! 

बावजूद इसके संभव है कि मोदी-शाह-योगी के दिमाग में भी ख्याल आया हो कि ऐसा यदि भारत में नियमितता से होने लगा, विरोध-प्रदर्शनों ने यदि कश्मीर घाटी वाली दशा को भारत के महानगरों में लाइव बनवा दिया तो आगे क्या होगा? दिल्ली में मंगलवार-बुधवार को जो हुआ और जामिया नगर सीलमपुर, जाफराबाद आदि में पत्थरबाजी, उपद्रव, पुलिस ठुकाई की श्रीनगर जैसी जो तस्वीरें बनीं तो सोचना जरूरी है कि दिल्ली के तुर्कमान गेट के अंदर की पुरानी दिल्ली से ले कर जामिया नगर, सीलमपुर, जाफराबाद, वेलकम, मौजपुर-बाबपुर, गोकुलपुरी आदि की तमाम कच्ची-पक्की मुस्लिम बहुल बस्तियों में नागरिकता के मुद्दे पर यदि स्थायी विरोध पैठ गया तो बंगाल, असम, केरल, मुंबई, हैदराबाद, लखनऊ आदि शहरों की बात तो छोड़ें भारत की राजधानी दिल्ली भी वैश्विक नजरिए में क्या तस्वीरें लिए हुए होगी!

लंगूर हिंदुवादी तर्क दे सकते हैं कि ऐसा न होने देने के लिए ही तो नरेंद्र मोदी-अमित शाह दिन रात एक कर दे रहे हैं। उनमें खौफ बनवा दिया जा रहा है। हिंदुओं का सशक्तिकरण हो रहा है जबकि मुसलमानों को सुधारा जा रहा है। मैसेज बनाया जा रहा है कि देश में रहना है तो मर्यादा में, अनुशासन में रहो। देश-दुनिया में यह मनोविज्ञान बनवा दे रहे हैं कि यह देश हिंदुओं का है और हिंदू जैसे रखेंगे वैसे रहना होगा!

पर हकीकत में इस मनोवैज्ञानिक मिशन का कोर उद्देश्य मुसलमान को आधुनिक, राष्ट्रवादी बनाना व सुधारना नहीं है, बल्कि हिंदुओं को मूर्ख, गुलाम बनाना है तो मुस्लिम आबादी को खोल में ढकेलते हुए, कट्टर, उग्र बनने देना है। मोदी-शाह में इतिहासजन्य हिंदू-मुस्लिम ग्रंथि को सुलझाने की संजीदा समझदारी नहीं है मगर हां, इतिहास के हवाले हिंदुओं को मूर्ख बनाने की चतुराई जरूर है। तभी लगातार हिंदुओं को हल्ले से बताया जा रहा है कि हम हैं तो पाकिस्तान से, मुसलमान से सुरक्षा है। हिंदुओं याद रखो पानीपत की लड़ाई को। दुनिया के तमाम देशों ने याकि चीन से लेकर फ्रांस, डेनमार्क के सभ्य-असभ्य, लोकतांत्रिक-तानाशाह देशों ने मुसलमान को आधुनिक बनाने, उनकी पढ़ाई-लिखाई को मदरसे से बाहर निकलवाने, हिज्ब याकि पहनावे को बदलने के जितनी तरह के जैसे जो भी काम और फैसले किए हैं उसमें से एक काम मोदी-शाह (तीन तलाक के आंशिक कानून को छोड़ कर) के साढ़े पांच सालों में नहीं हुआ है।

काम क्या हुआ? भाषणबाजी, मीडिया नैरेटिव से बात-बेबात मुस्लिम आबादी, पाकिस्तान पर उंगली उठा कर श्मशान बनाम कब्रिस्तान, पाकिस्तान में पटाखों, या उनके पहनावे और पानीपत लड़ाई जैसी जुमलेबाजी से हिंदुओं को गोलबंद बनाने का हुआ। इससे अपने आप मुसलमान मुख्यधारा व राजनीति में अप्रासंगिक होता गया। काम हुआ ओवैसी जैसे नेता को पनपाने का! काम हुआ मुसलमान को गोहत्या, खानपान, लव जिहाद जैसे नेरेटिव से चमकाने का और उन्हें अलग-थलग बनवाने का!

सचमुच मोदी-शाह-संघ-भाजपा और तमाम तरह के हिंदुवादी यदि ईमानदारी से मन ही मन विचार करें तो इस बात का कोई जवाब नहीं होगा कि इन्होंने अपने हिंदू आइडिया ऑफ इंडिया में हिंदू-मुस्लिम ग्रंथि के निदान में ऐसा क्या किया, जिससे मुसलमान बदला या सुधरा?

काम नहीं हुआ लेकिन डर बनाया गया। डर ने दोनों तरफ गोलबंदी बनाई। सेकुलर और सेकुलर विरोधी, हिंदू और मुसलमान, उदारवादी और अनुदारवादी, पृथ्वीराज वाली जमात या जयचंदों की जमात सब अपने-अपने डर, अपनी-अपनी चिंताओं में मन ही मन गांठ बांधते हुए आज इस मुकाम पर हैं कि नागरिक संशोधन कानून की एक चिंगारी सुलगी नहीं कि लोग सड़कों पर उतर आए। मुसलमान तीन तलाक पर बाहर नहीं निकला था क्योंकि मन में महिलाओं के प्रति व्यवहार पर अपराधबोध था। अयोध्या के फैसले पर वह बाहर नहीं निकला क्योंकि इतिहास का जवाब नहीं था लेकिन नागरिकता और एनआरसी ने उन्हें बाहर निकलने का मौका दिया तो इसलिए क्योंकि चाहे-अनचाहे अमित शाह के मुंह से पूरी दुनिया ने (नौ दिसंबर) संसद से सुना है कि -मान कर चलिए एनआरसी आने वाला है।

अपना मानना है कि मोदी-शाह की एनआरसी की सोच भी किसी व्यवहारिक, ठोस कार्ययोजना, मिशन के चलते नहीं है। यह भी कुल मिला कर लोगों को चमकाने वाली हवाबाजी और हिंदू मनोविज्ञान को अपने लिए गोलबंद बनाए रखने का सियासी पैंतरा मात्र है। बावजूद इसके इससे कई सालों, एक-दो दशक लंबा उबाल बन सकता है तो अपने आप यह मुद्दा पक्ष-विपक्ष की राजनीति का दीर्घकालिक अखाड़ा भी होगा और खोल में बंद मुस्लिम आबादी के लिए भी विरोध-प्रतिकार का लंबा जायज मुद्दा बनेगा। दुनिया भी उनके साथ होगी।

पूरे मामले को वोट गोलबंदी वाली चतुराई मानें या राष्ट्र-राज्य के साथ अनचाहा खिलवाड़ जो नागरिकता की बेसिक बात पर मोदी-शाह ने सवा सौ करोड़ लोगों में यह सवाल बना डाला है कि उनके इस देश में जीने की वैधानिकता के क्या प्रमाण हैं? जैसे नोटबंदी से घर-घर विचार हुआ वैसे एनआरसी से भविष्य में घर-घर में विचार होगा। हर व्यक्ति सोचेगा कि वे कैसे रजिस्टर में नाम दर्ज करा अपने को नागरिक लिखवाएं! जेब का पैसा और रहने याकि नागरिक होने के सर्टिफिकेट में पैसा फिर भी बाद की बात है पहले मसला रहने के हक का है। यह बेसिक पहली बात है। इस बेसिक बात को नागरिकता संशोधन कानून में डाले गए ‘मुस्लिम’ शब्द से वह चिंता मिली है, जिसका हिंदू के लिए अलग अर्थ है तो मुसलमान के लिए अलग!

तभी एनआरसी भावी भारत का वह फ्रेमवर्क है, जिसमें वे फोटो खींचा करेंगे जो इस सप्ताह देश के कई शहरों, महानगरों में देखने को मिले है। हां, नोट रखें इस बात को कि गृहयुद्ध वाले सीरिया की राजधानी दमिश्क में भी ऐसे फोटो देखने को नहीं मिले, जैसे इस सप्ताह राजधानी दिल्ली के सीलमपुर-जाफराबाद-जामिया और यूपी के शहरों में देखने को मिले हैं। सोचें, हम कहां से कहां जा रहे हैं और बिना सुध के!

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