भारत में जितनी तेजी से भ्रष्टाचार का मुद्दा बनता है उतनी ही तेजी से वह खत्म भी हो जाता है। एक-दो चुनावों में राजनीतिक पार्टियों को फायदा पहुंचाने के बाद वह मुद्दा नेपथ्य में चला जाता है, इस इंतजार में कि थोड़े समय के बाद फिर कोई मसीहा आएगा, जो झाड़-पोंछ कर इस मुद्दे को निकालेगा और राजनीतिक-सामाजिक विमर्श के केंद्र में ले आएगा। 1974 में शुरू हुए जेपी आंदोलन और 1987 के बोफोर्स विरोधी आंदोलन में ऐसा ही हुआ था। इन दोनों आंदोलनों के बाद केंद्र में सत्ता बदल गई थी। पर उसके बाद भी भ्रष्टाचार की हकीकत जस की तस कायम रही। 2011 में शुरू हुआ अन्ना हजारे का आंदोलन भी इसका अपवाद नहीं है। इस आंदोलन की वजह से 2014 में केंद्र की सत्ता बदल गई। पर पिछले साढ़े पांच साल में भ्रष्टाचार मिटाने का कोई गंभीर प्रयास तक होता नहीं दिखा है। उलटे इसे सांस्थायिक रूप मिल गया है।
अन्ना हजारे के आंदोलन के लिए भ्रष्टाचार के कुछ प्रतीक चुने गए थे। वे सारे प्रतीक संसदीय राजनीति में ससम्मान स्थापित हो गए हैं। संचार घोटाले के आरोपी ए राजा और कनिमोझी दोनों डीएमके के सांसद हैं। ए राजा तो लोकसभा में पीठासीन सभापति के पैनल में हैं और संसद सत्र के दौरान सदन का संचालन भी करते हैं। कनिमोझी को सरकार ने संसदीय समिति का अध्यक्ष बनाया है। भ्रष्टाचार का एक प्रतीक दयानिधि मारन भी बनाए गए थे पर वे भी सांसद हो गए हैं।
इस आंदोलन के बाद लोकसभा चुनाव के प्रचार में भाजपा ने भी भ्रष्टाचार के कुछ प्रतीक बनाए। प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर चुनाव लड़ रहे नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के नेता ए टू जेड घोटाला बताते थे। ए से आदर्श घोटाला बताया जाता था। उसके मुख्य आरोपी पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण विधायक हो गए हैं और महाराष्ट्र सरकार में मंत्री बनने वाले हैं। कांग्रेस ने उस समय तो चव्हाण को मुख्यमंत्री पद से हटा दिया था पर बाद में उनको सम्मान के साथ प्रदेश अध्यक्ष भी बनाया। उनको भ्रष्टाचार का प्रतीक बनाने वाली भाजपा केंद्र व राज्य दोनों जगह सरकार में रही पर उसने उनके खिलाफ ठोस सबूत जुटाने या आदर्श मामले को अंजाम तक पहुंचाने के लिए कोई गंभीर प्रयास किया, इसके एक भी सबूत नहीं हैं।
चुनाव के बाद केंद्र की भाजपा सरकार ने भ्रष्टाचार के नए प्रतीक खोजे। पुराने सारे मामले स्थगित कर दिए गए। एक लाख 76 हजार करोड़ रुपए के कथित घोटाले में सारे आरोपियों को सबूत के अभाव में बरी होने दिया गया। उसकी बजाय पी चिदंबरम, कार्ति चिदंबरम, डीके शिवकुमार, रतुल पुरी जैसे नए प्रतीक चुने गए। इन सबको गिरफ्तार भी कराया गया पर ये सारे लोग भी जेल से छूट गए हैं। इनकी गिरफ्तारी और रिहाई से यहीं बात जाहिर हुई है कि इनके खिलाफ हुई कार्रवाई का असल में भ्रष्टाचार से लड़ाई से कोई लेना-देना नहीं है। वह कार्रवाई निजी या राजनीतिक बदले की भावना से की गई है।
भ्रष्टाचार का एक प्रतीक अजित पवार को भी बनाया गया था। महाराष्ट्र के 72 हजार करोड़ रुपए के कथित सिंचाई घोटाले में उनको आरोपी बता कर भाजपा के नेता उनको जेल भेजने की कसमें खाते थे। पर 2019 के चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिए भाजपा ने उनको अपने साथ कर लिया। भाजपा की सरकार में उनको उप मुख्यमंत्री बनाया गया, नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने उनको बधाई और शुभकामना दी और देवेंद्र फड़नवीस के कार्यवाहक मुख्यमंत्री रहते उनको घोटालों में क्लीन चिट मिलनी शुरू हो गई।
असल में भाजपा की केंद्र सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को जितना कमजोर किया उतना दूसरी किसी सरकार ने नहीं किया। यहा काम चार कारणों से हुआ। सबसे पहले तो भाजपा ने भ्रष्टाचार के प्रतीकों का राजनीतिक इस्तेमाल किया। जो उसकी अपनी राजनीति के अनुकूल नहीं थे, उनके खिलाफ कार्रवाई की गई और जो राजनीतिक फायदा पहुंचा सकते थे उनको साथ ले लिया गया। ऐसी पार्टियों और नेताओं की लंबी सूची है, जिन पर भाजपा ने और उसके सर्वोच्च नेताओं ने भ्रष्टाचार के आरोप लगाए और बाद में उनको अपने साथ ले लिया। ऐसे नेताओं के नाम गिनाने की जरूरत नहीं है। पर भ्रष्टाचार पर चुनिंदा कार्रवाई से भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई कमजोर हुई।
दूसरा कारण यह हुआ कि जिन पर कार्रवाई की गई उनके खिलाफ जांच में ईमानदारी नहीं दिखी। यह मैसेज गया कि राजनीतिक या निजी बदले की भावना से कार्रवाई की गई है। अगर ऐसा नहीं होता तो किसी न किसी मामले में तो पांच साल में कार्रवाई निर्णायक मुकाम तक पहुंचती! आखिर मोदी ने खुद प्रचार के दौरान कहा था कि वे सबसे पहले संसद और विधानसभाओं की सफाई कराएंगे। पर उलटे सबसे ज्यादा दागी सांसद और विधायक भाजपा से ही जीते हैं।
तीसरा कारण यह है कि पिछले साढ़े पांच साल में केंद्रीय जांच एजेंसियों की साख का भट्ठा बैठ गया है। पहले भी केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल राजनीतिक फायदे के लिए होता था। पर तब वह अपवाद के तौर पर होता था और उसकी कहानी परदे के पीछे होती थी। पर पिछले पांच साल में बहुत स्पष्ट रूप से एजेंसियों का इस्तेमाल अपने विरोधियों के खिलाफ किया गया। केंद्रीय एजेंसियों की जांच झेल रहे, जो लोग भाजपा में शामिल हो गए, उनकी जांच रोक दी गई। यह काम इतने स्पष्ट तरीके से हुआ कि लोगों का एजेंसियों पर से तो भरोसा उठ ही गया भ्रष्टाचार से नहीं लड़ने की सरकार की मंशा भी जाहिर हो गई।
चौथी अहम बात संस्थाओं का कमजोर होना है, जिससे भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई भी कमजोर हुई और लोगों का मोहभंग भी हुआ। न्यायपालिका से लेकर सतर्कता आयोग, चुनाव आयोग, सूचना आयोग और यहां तक कि लोकपाल किसी भी संस्था की साख में या उसकी शक्ति में इजाफा नहीं हुआ उलटे इनकी स्थिति कमजोर हुई।

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