नामुमकिन, असाध्य सा है भारत और भारत की भीड़, हिंदुओं के दिमाग को समझ सकना! जितनी कोशिश करेंगे उलझते और भटकते जाएंगे! हमें अपनी सुध नहीं है और दुनिया ने जैसे हमें समझा हुआ है उसका हमें भान नहीं है! सोचें, विदेशियों की निगाह में हम हिंदू क्या अर्थ लिए हुए थे या हैं? जवाब उनके हमलों का इतिहास है। सिकंदर से ले कर ईस्ट इंडिया कंपनी के गोरों ने भारत का अर्थ चरागाह माना। आज भी वहीं स्थिति है। चीन हो या यूरोप या आसियान देश सबके लिए भारत मंडी है। नेहरू के वक्त भी मंडी था और मोदी के वक्त में भी मंडी है। चीन भारत को बेइंतहा खा रहा है लेकिन हमें समझ नहीं है कि वह खा रहा है! खाने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं। जैसे नेहरू के वक्त दुनिया से हम दान-मदद ले कर उन पर निर्भर थे तो आज उनसे (जैसे चीन से) सस्ता-कबाड़ सामान खरीद कर चरागाह हैं। चीन का राष्ट्रपति शी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बात करता है तो वह मालिक की तरह बात करता है और नरेंद्र मोदी इस भय में अनुनय-विनय करते हैं कि आप, बस पाकिस्तान पर से हाथ हटा लें!
यह भदेस अंदाज में हमारा मनोविज्ञान है, जिसका हमें भान नहीं! जिसे हम समझना नहीं चाहते हैं या समझ नहीं सकते हैं। क्या यह शर्मनाक नहीं जो 72 वर्षों से हमारा घाटा लगातार है। भूटान, नेपाल जैसे देशों को छोड़ें तो सभी देश ज्यादा सामान बेच भारत की मंडी में मुनाफा कमाते हैं और हम पोतड़ों से ले कर राफेल की सारी जरूरतों में दुनिया की चरागाह हैं!
सवाल है यह सब कैसे व क्यों? क्या है ऐसा होने के पीछे के कारण? तो सोचें कि आजाद भारत के 72 साल का समग्र अनुभव संक्षेप में दिमागी तौर पर किन जरूरतों में ढला रहा है? अपना निचोड़ है – भूख, भय और मंद बुद्धि में!
इन तीन में ही सब कुछ सिमटा हुआ है। भूख (गरीबी, भौतिक लालसा, लूटने, भ्रष्टाचार का संस्कार, सत्ता-पावर का लाठीपना, नैतिक-सेक्स कदाचार) हम हिंदुओं की वह प्रवृति, वह स्वभाव है जो हिंदू दिमाग के अवचतेन का कोर रसायन है। इस भूख ने दिमाग, बुद्धि याकि कॉग्निटिव प्रवृत्ति को पूरी तरह स्वचालित, सतही ऑटोमेटिक बनाया हुआ है। भूख दिमाग में सामान्य चेतन अवस्था (विचारमना, चिंतन-मनन के प्रोसेस को दरकिनार कर यह जिद्द बनवाती है कि खाओ-खिलाओ! आजाद भारत के 72 साला अनुभव की दास्तां का प्रारंभ व अंत विकास, पुरुषार्थ को लिए हुए नहीं, बल्कि खैरात, मुफ्तखोरी, एक हाथ से पैसा लेने और दूसरे हाथ से बांटने, धर्मादा और शासन-अफसर-नागरिक सभी का परस्पर व्यवहार (शासन व्यवस्था, राजनीति, आर्थिकी) का आधार है। पैसा लेना और पैसा देना है। भूख कोर है बाकि सब गौण है। मानो 13 सौ साल लुटने, गुलाम, भूखे होने का बदला एक ही जन्म में ले लेना है। आजादी ने सबकी भूख को, गरीबी को ऐसे पंख लगाए कि समाज का हर वर्ग, हर जाति, हर उम्र, हर व्यवसाय टूट पड़ रहा है मुफ्त राशन से ले कर आरक्षण, सब्सिडी, दो नंबर की कमाई के जरियों के लिए!
भूख राजा और प्रजा दोनों को है। पंडित नेहरू की सत्ता-प्रसिद्धि की भूख और नरेंद्र मोदी की सत्ता-प्रसिद्धि की भूख का सतही फर्क कुछ भी हो मगर प्रकृति हिंदू जिंस वाली है। दोनों ने अपने आपको भगवान विष्णु का अवतारी राजा माना। दोनों प्रजा के माईबाप राजा हुए। दोनों की कैबिनेट बैठकें मास्टर और छात्र के माहौल वाली होती रहीं। दोनों अपने को विश्व गुरू मान दिमाग-बुद्धि के अवचेतन से चले। झूठ-प्रोपेगेंडा, इहलाम-फरमान-जुमलों का स्वचालित, सतही ऑटोमेटिक व्यवहार में इनका राजकाज होता रहा!
बहत्तर साला अनुभव का दूसरा निचोड़ भय (असुरक्षा, हिंदू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान, लाठी-कानून-फाइल लिए अफसरों की चिंता, खौफ) है। यह भी वह कारण है, जिससे हम हिंदुओं का, भारत की रीति-नीति का दिमाग, बुद्धि का व्यवहार, प्रदर्शन पूरी तरह अवचेतन से है। जाहिर है भय हिंदुओं के डीएनए में गुलामी के 13 सौ साल के अनुभव से पका हुआ है। हिंदू अवचेतन के भय से स्वचालित ऑटोमेटिक व्यवहार कितना बारीक-सघन है इसे अनुभव करना हो तो अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोप में रहने वाले प्रवासी भारतीयों के वहां संभल कर रहने, गोरों-कालों से दूर, डरते हुए व्यवहार पर कभी गौर करें! पर वह दूर की बात। भारत में असंख्य उदाहरण हैं, जिससे भय व भीरूता में नागरिकों का व्यवहार मिलेगा तो शासकों का भी व्यवहार मिलेगा। हिंदू प्रजा हो या उसका राजा, सब सतत लगातार चिंता में इसलिए रहते हैं क्योंकि जो समाज सर्वाधिक गुलाम रहा है उसी को सर्वाधिक यह बोध हुआ होता है कि बिना सत्ता के कैसे जीना होता है। सत्ता की लालसा जितनी तीव्र होगी उतना ही सघन डर उसे गंवा बैठने का भी होगा! जब ऐसा है तो कैसे संभव है कि राजा, प्रधानमंत्री या सत्तावान का दिमाग और उसकी बुद्धि सामान्य चेतन अवस्था (विचारमना, चिंतन-मनन के प्रोसेस से चले और उसका व्यवहार अवचेतन, झूठ-प्रोपेगेंडा, इहलाम-फरमान-जुमलों का स्वचालित, सतही ऑटोमेटिक ढर्रे से न चलने वाला हो!
बहत्तर साला भारत का तीसरा निचोड़ मंद बुद्धि है। ऐसा होना पहले दो कारणों भूख और भय के चलते है तो इतिहासजन्य गुलामी के विविध अनुभवों (जैसे मध्यकाल का भक्ति काल) से भी है। अपनी राय में हम हिंदुओं के दिमाग, बुद्धि की सच्ची चैतन्य अवस्था ईसा पूर्व का वक्त है। वेद, उपनिषद, महाकाव्य, सिंधु घाटी सभ्यता का अपना वक्त ही अपनी बुद्धि के प्रस्फुटन और मौलिक चिंतन-मनन का वह नियंत्रित प्रोसेस काल था, जिसमें हमने जो पाया वह हमारा सनातनी धर्म बन गया तो उससे हमारी चिरंतनता, सनातनी स्वरूप (भले कैसे भी जीना हो) भी बना। मगर जैसा मैंने एक सीरिज में पहले लिखा था कि पालने के बाद ही अचानक हमारा जो बुढ़ापा बना, जो अंधकार छाया, इतिहास में जो शून्यता आई और फिर आक्रमणों, गुलामी का जो दौर शुरू हुआ तो भय और भूख ने हिंदू बुद्धि को ऐसा कुंद बनाया कि हम अवचेतन के मारे हो गए। दिमाग और बुद्धि का हमारा पूरा प्रोसेस अवचेतन के रसायन से लबालब भरा गया। बुद्धि मंद हो गई।दिमाग समस्याओं, चुनौतियों, आंकाक्षाओं पर तात्कालिक, ऑटोमेटिक रिस्पांस में जड़ होता गया। दुनिया की अन्य सभ्यताओं के मुकाबले हमारी चेतना, मुगालताओं, मूर्खताओं वाली और चुनौतियों से किनारा करने की बनती गई।
जब ऐसा है तो अपना बन क्या सकता है? तभी तो पंडित नेहरू से ले कर भूख, भय, मंद बुद्धि में नौ दिन चले अढ़ाई कोस का सफर है या होइहें वहीं जे राम रचि राखा वाला अस्तित्व है।
क्या नहीं? सचमुच हम हिंदुओं की पहेली, भारत राष्ट्र-राज्य की पहेली का ओर-छोर ढूंढने में जितना दिमाग खपाएंगें तो दूर-दूर तक निष्कर्ष बनेगा कि ऐसे बीते वक्त और वर्तमान के आगे पचास-सौ साल बाद हम क्यों कर वैसे ही नहीं रहेंगे जैसे अभी हैं! वक्त उलटे आज हमारी बुद्धि के अवचेतन को बढ़ा रहा है। मंद बुद्धि का दीमक चौतरफा उत्तरोतर बढ़ता जा रहा है। यह मेरी निराशावादी सोच नहीं, बल्कि सवा सौ करोड़ लोगों की अशिक्षा के मौजूदा स्वरूप, हम लोगों की बुद्धि के सामूहिक संज्ञान, अनुभूति, बोध, प्रज्ञान का वह निचोड़ है, जिसकी गहराई में जाना भी एक सभ्यतागत जरूरत है।

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