सोमवार, 25 नवंबर 2019

कांग्रेस के लिए मुस्लिम वोट एक भ्रम है


महाराष्ट्र के सियासी घटनाक्रम में कांग्रेस चौथे नंबर की और लगभग अप्रासंगिक सी पार्टी है। राज्यपाल ने सरकार बनाने के लिए उसकी मंशा पूछना भी जरूरी नहीं समझा, जबकि पहली तीन पार्टियों से पूछा गया कि क्या वे सरकार बनाना चाहती हैं! इस राजनीतिक वास्तविकता के बावजूद कांग्रेस के नेता सरकार बनाने की बैठकों में सबसे ज्यादा व्यस्त रहे। मुंबई-दिल्ली के बीच सबसे ज्यादा दौड़ भी कांग्रेस नेताओं ने ही लगाई। कांग्रेस की तमाम बैठकों का लब्बोलुआब यह था कि पार्टी को मुस्लिम वोट की चिंता करनी चाहिए। एके एंटनी के नेतृत्व वाली केरल लॉबी ने अपने राज्य के अल्पसंख्यक वोटों की दुहाई दी और कांग्रेस को शिव सेना का समर्थन करने से रोकना चाहा। 

पर असलियत यह है कि पिछले तीन दशक में धीरे धीरे मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति कांग्रेस का भ्रम बन कर रह गई है। अयोध्या में विवादित ढांचा टूटने के बाद से ही मुसलमानों का कांग्रेस से मोहभंग हो गया था। उसी समय से वे विकल्प तलाश रहे थे और नए नए प्रयोग कर रहे थे। 1991 का चुनाव आखिरी लोकसभा चुनाव था, जब मुसलमानों ने कांग्रेस को अपनी पार्टी मान कर उसके लिए वोट किया था। उसके बाद कांग्रेस को जहां भी मुस्लिम वोट मिले वह विकल्प की कमी से यानी मजबूरी में मिले। मुसलमानों को जहां कांग्रेस से बेहतर विकल्प या कोई भी विकल्प नहीं मिला, वहीं उन्होंने कांग्रेस को वोट दिया। यह भी हकीकत है कि राजीव गांधी आखिरी कांग्रेस नेता थे, जिन्हें मुसलमानों ने राष्ट्रीय स्तर पर अपना नेता माना। उनके बाद जहां भी मौका मिला मुसलमानों ने अपना नया मसीहा खोज लिया और कांग्रेस का विकल्प भी तलाश लिया। बिहार में लालू प्रसाद उनके मसीहा हो गए तो उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव हो गए। पश्चिम बंगाल में पहले ज्योति बसु और बुद्धदेब भट्टाचार्य थे तो अब ममता बनर्जी हैं। दिल्ली में मुस्लिम वोट के मसीहा अरविंद केजरीवाल हैं। तमिलनाडु में कभी करुणानिधि तो कभी जयललिता उनकी मसीहा बनती रहीं। यह हकीकत है कि छह दिसंबर 1992 के बाद से असल में कांग्रेस का मुस्लिम वोट पर दावा उन्हीं राज्यों में रहा, जहां भाजपा से लड़ने वाली कोई दूसरी पार्टी नहीं है।

यह कांग्रेस के लिए बड़ी चिंता का सबब होना चाहिए था पर हैरानी है कि कांग्रेस नेता मुस्लिम वोट की मृग मरीचिका में भटकते रहे। अब इस लिहाज से कांग्रेस की मुश्किलें और भी बढ़ने वाली हैं। क्योंकि मुसलमानों ने जिनको अपना मसीहा माना था वे धीरे धीरे हाशिए में जा रहे हैं और इसके साथ ही मुस्लिम राजनीति की फॉल्टलाइन उजागर हो रही है। मुसलमान बिहार में तेजस्वी यादव को या उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव को नेता मानने में हिचक रहे हैं। असम में गौरव गोगोई को बतौर नेता स्वीकार करना उसके लिए मुश्किल है। तभी पिछला चुनाव इस बात का गवाह रहा की बहुसंख्यक मुस्लिम वोट बदरूद्दीन अजमल की पार्टी ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के साथ गया। बिहार में कांग्रेस की जीती किशनगंज विधानसभा सीट के उपचुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी का जीतना या हैदराबाद से बाहर महाराष्ट्र की औरंगाबाद लोकसभा सीट पर ओवैसी की पार्टी का जीतना कोई मामूली घटना नहीं है। यूं ही नहीं ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में ओवैसी की सक्रियता से घबराई हैं।

एक तरफ भाजपा के मुकाबले लड़ाई में कांग्रेस लगातार कमजोर हो रही है तो दूसरी ओर पिछले तीन दशक में मुसलमानों के मसीहा रहे नेता नेपथ्य में जा रहे हैं। इसकी वजह से राजनीतिक रूप से सर्वाधिक जागरूक समूह के तौर पर मुस्लिम अपने लिए नेतृत्व का विकल्प तलाश रहे हैं। उनको यह बात समझ में आ गई है कि उन्हें अपने कौम का नेता खोजना चाहिए। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भाजपा इस राजनीति को बढ़ावा दे रही है। राजनीतिक रूप से इससे भाजपा के लिए बहुत अनुकूल स्थिति बन रही है पर देश की सुरक्षा, एकता और अखंडता के लिए यह बहुत खतरनाक स्थिति है। धीरे धीरे देश आजादी के समय के हालात की ओर बढ़ रहा है। राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर और नागरिकता कानून में बदलाव इस प्रक्रिया को और तेज करेगा।

बहरहाल, मुस्लिम राजनीति की फॉल्टलाइन का उजागर होना कांग्रेस के लिए बहुत नुकसानदेह है। अब तक पिछले तीन दशक में जिन राज्यों में कोई क्षेत्रीय पार्टी कांग्रेस से आगे बढ़ कर भाजपा को चुनौती देने वाली नहीं बनी है वहां भी ओवैसी या उनके जैसा कोई नेता उभर सकता है। ऊपर से अब तो उसने महाराष्ट्र में शिव सेना को सरकार बनाने के लिए समर्थन दे दिया है, जिससे एक चक्र पूरा हो गया है। आखिर 1992 में जिस घटना से मुसलमानों के कांग्रेस से मोहभंग की शुरुआत हुई थी उसे अंजाम देने वाली सबसे बड़ी ताकत शिव सेना थी। शिव सेना के बाल ठाकरे इकलौते नेता थे, जिन्होंने सीना ठोक कर कहा था कि शिव सैनिकों ने बाबरी मस्जिद गिराई है। उस शिव सेना को कांग्रेस के समर्थन देने से मान लेना चाहिए कि उसने वास्तविकता को कुछ हद तक समझ लिया है। पर उसका भ्रम पूरी तरह से टूटना चाहिए। इसी में उसका भला है और देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय का भी भला है।

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